आखर चौरासी
आठ
जिस समय जगदीश से उलझते गुरनाम को खींचते हुए प्रकाश कॉमन रुम से बाहर निकला था, लगभग उसी समय राजकिशोर ने कॉमन रुम में प्रवेश किया था। उसने दूर से ही जगदीश को गुरनाम से बातें करते देख लिया था।
‘‘गुरनाम से क्या बातें हो रही थीं ?’’ राजकिशोर ने तेजी से उचक-उचक कर चलते हुए उसके पास आ कर पूछा।
‘‘कोई खास बात नहीं थी ।’’ जगदीश ने एक नज़र उस पर डाली और पुनः अपनी नज़र टी.वी. स्क्रीन पर टिकाते हुए जवाब दिया।
राजकिशोर ने किनारे पड़ी कुर्सी खींचकर उसके पास बैठते हुए फिर पूछा, ‘‘प्रकाश तो उसे बड़े गर्मागर्म अंदाज से खींच कर ले जा रहा था।’’
‘‘...तो प्रकाश और क्या करता ? खींचे बिना वह जाने वाला नहीं था। गुरनाम को तो बस एक ही हिसाब है, जाट रे जाट सोलह दूनी आठ ! कह रहा था, इन्दिरा गाँधी के अंतिम दर्शन के लिए दिल्ली जाएगा। मैंने कहा स्साले चुपचाप हॉस्टल में बैठो। वहां सिखों ने इन्दिरा मार डाली और ये जाएंगे अपने प्रधानमंत्री को श्रद्धांजलि देने।’’ जगदीश ने हंसते हुए उसे बताया।
‘‘सिख स्साले गद्दार हो गये हैं। जिन पर सुरक्षा का जिम्मा था उन्होंने ही जान ले ली। गुरनाम भी स्साला गद्दार है ! उसे तो अब बाकी सिखों के साथ मिल कर खुशियां मनानी चाहिए तो ये चला है श्रद्धांजलि देने। मेरा तो मन कर रहा है कि अभी जा कर उसके हाथ-पैर तोड़ दूँ ।’’ राजकिशोर ने घृणा से बुरा-सा मुँह बनाते हुए कहा।
‘‘अबे लंगड़े चुप !’’ जगदीश ने राजकिशोर को ज़ोर से डाँटते हुए कहा।
जब जगदीश का गुस्सा बेकाबू हो जाता, वह उसे इसी तरह लंगड़ा कह कर संबोधित करता। अभी भी वह उसकी बातें सुन कर क्रोधित हो गया था। राजकिशोर चौंक, एक गद्दार के लिए जगदीश उसे लंगड़ा कह रहा है ?
‘‘गद्दार को गद्दार नहीं तो और क्या कहूँ ?’’ वह चिढ़ गया।
लेकिन उसकी चिढ़ ने जगदीश के गुस्से की अग्नि में घी का काम किया, ‘‘तुम गुरनाम को गद्दार क्यों कह रहे हो ?’’
‘‘सिखों ने हमारे प्रधानमंत्री को मारा है और वह भी सिख है, इसीलिए वह भी गद्दार है !’’ राजकिशोर भी तीखी आवाज़ में बोला।
‘‘सिर्फ सिख होने से ही वह गद्दार कैसे हो गया ?’’ जगदीश ने उलट कर पूछा, ‘‘वह हम लोगों के साथ रहता है, साथ पढ़ता है। हम लोग उसे अच्छी तरह जानते हैं। उसने तो कभी कोई गद्दारी नहीं की, जबकि उसे तो मौका भी मिला था। अगर वह चाहता तो हमारे द्वारा मेस के बाहर धमकाये जाने के बारे में हॉस्टल सुपरिंटेंडेंट से उस दिन शिकायत कर सकता था। मगर उसने वैसा नहीं किया। दूसरी तरफ मोहन की बात तुम हॉस्टल सुपरिंटेंडेंट सिन्हा सर के पास ले गए थे। हम लोग जब उसे धमका चुके थे, फिर मामला सिन्हा सर के पास ले जाना क्या हमारे साथ गद्दारी नहीं है ?’’
राजकिशोर के लिए जगदीश का वह रुप बिल्कुल ही नया था। उसके तर्क को सुन कर वह निरुत्तर हो गया था। फिर भी उसके चेहरे पर गुरनाम के लिए घृणा के भाव पूर्ववत् ही रहे।
परन्तु वह कुछ कहता-सुनता उससे पहले ही जगदीश बोला, ‘‘एक बात के लिए तुम ज़रा सावधान रहना, गुरनाम के बारे में कोई ऐसी-वैसी बात फैलाई तो तुम्हारी सेहत के लिए अच्छा नहीं होगा।’’
इतना कह कर जगदीश उसी तरह गुस्से से उठ कर बाहर निकल गया। उसके जाने के बाद राजकिशोर ने अपनी बगल में बैठे विक्रम की ओर मुड़कर कहा, ‘‘आज इसे क्या हो गया है ? कहीं यह पागल तो नहीं हो गया है ?’’
विक्रम तब तक चुपचाप बैठा उनका वार्तालाप सुन रहा था। पूरी बहस के दौरान उसने किसी से भी कुछ नहीं कहा था। वह राजकिशोर के कंधे पर हाथ रख अपनी आँखें सिकोड़ते हुए बोला, ‘‘सुनो, वह पागल हुआ है या नहीं इसे छोड़ो एक बात अच्छी तरह समझ लो कि तुम अब गुरनाम से दूर ही रहना। अब जगदीश तुम्हारे कहने पर गुरनाम के खिलाफ भड़कने से रहा।’’
‘‘नहीं भड़कता तो ना भड़के ! भाड़ में जाए जगदीश ....लेकिन मैं गुरनाम को नहीं छोड़ूंगा, चाहे इसके लिए मुझे कुछ भी क्यों न करना पड़े !’’ राजकिशोर ने एक-एक शब्द चबाते हुए कहा था। उसकी आँखों में गुरनाम के साथ-साथ जगदीश के लिए भी ढेर सारी नफरत उभर आई थी।
***
रात का खाना खा कर वे तीनों हर रोज की भाँति टहलते हुए कॉमन रुम पहुँच गये। शाम की कड़वाहट के बावजूद राजकिशोर और विक्रम जगदीश के साथ हमेशा की तरह हंस-हंस कर बातें कर रहे थे। वैसे भी उन्हें अच्छी तरह मालूम था कि जगदीश के खिलाफ जा कर उनकी रंगदारी नहीं चलने वाली। हाँ, ये बात और है कि शाम की घटना के बाद से ही जगदीश के प्रति उनके मन में गाँठ बन गयी थी। टी.वी. पर इन्दिरा गाँधी से संबंधित वृत्त चित्र दिखाया जा रहा था। जिसमें उनकी ज़रा भी दिलचस्पी नहीं थी।
‘‘लगता है अब आज कोई और प्रोग्राम नहीं दिखाया जाएगा।’’ विक्रम ने अपनी ऊब प्रकट की।
‘‘आज ही क्या, अब तो राष्ट्रीय शोक की अवधि पूरी होने तक टी.वी. पर यही सब नौटंकी चलती रहेगी।’’ जगदीश निर्विकार भाव से बोला और कुर्सी खीच कर बैठ गया।
राजकिशोर और विक्रम भी कुर्सियां खीच कर उसके दांये-बांये बैठ गये। कुछ देर तक वे तीनों टी.वी. स्क्रीन पर नज़रें गड़ाये बैठे रहे मगर जल्द ही ऊबने लगे। सबसे पहले राजकिशोर की ऊब बाहर निकली। उसने सिगरेट सुलगाते हुए टी.वी. से नज़रें हटाईं और धुँए के छल्ले हवा में उड़ाते हुए बोला, ‘‘जीते जी तो हर समय टी.वी. पर छाई ही रहती थी, अब मर कर भी स्क्रीन से चिपकी हुई है। इस दूरदर्शन का नाम बदल कर इंदिरा दर्शन कर दिया जाना चाहिए।’’
‘‘यहां बैठने से तो अच्छा है चल कर कैरम खेलते हैं।’’ विक्रम ने प्रस्ताव रखा।
‘‘हाँ, ये ठीक रहेगा।’’ जगदीश ने भी उसके प्रस्ताव का समर्थन किया। तीनों उठ कर कैरम बोर्ड वाले कमरे की ओर चल दिए।
***
उस शाम गुरुद्वारे में रहिरास का पाठ सुनने के बावजूद हरनाम सिंह का चित्त अशांत था। दरअसल आज उन्हें फिर हरीष बाबू मिले थे, उनके साथ गोपाल चौधरी भी थे। जब अपने शाम के नियमानुसार वे सतनाम की दुकान से निकल कर गुरुद्वारा जाने के लिए मोड़ से आगे बढ़े, तभी दूसरी तरफ से आते हुए वे दोनों उनसे टकराये थे। उस दिन भी अभिवादन करने में हरनाम सिंह ने ही पहल की थी।
‘‘नमस्कार, हरीष बाबू अरे गोपाल चौधरी भी साथ हैं ! दोनों को नमस्कार !’’
दोनों ने एक नज़र उनकी तरफ देखा फिर उनके अभिवादन का जवाब दिया। परन्तु आज उनका स्वर काफी खुश्क था।
‘‘कहिए सिंह जी, कहाँ जा रहे हैं ?’’ गोपाल चौधरी ने उसी खुश्क लहजे में उनसे सवाल किया।
‘‘बस जी और कहाँ जाना है। मत्था टेकने, गुरुद्वारा जा रहा हूँ।’’ हरनाम सिंह ने बताया।
‘‘ठीक है... ठीक है, जाइए मत्था टेक आइए। पूजा-पाठ भी करते रहना चाहिए। लेकिन ये काम सिक्खों ने ठीक नहीं किया। आखि़र आप लोगों ने इंदिरा गांधी को मार ही दिया न।” हरीष बाबू का स्वर जहर-बुझा था ।
“यह आप क्या कह रहे हैं हरीष बाबू ?” हरनाम सिंह बोलने में बुरी तरह गड़बड़ा गए।
“...तो और क्या कहें ?”
“कुछ हत्यारों के कारण आप पूरी क़ौम को ही जिम्मेदार ठहरा रहे हैं। यह तो सही नहीं है!” हरनाम सिंह ने प्रतिवाद करना चाहा।
“हम अकेले थोड़े न बोल रहे हैं, पूरा देश बोल रहा है। ....पता नहीं अब आगे क्या होगा ?’’ कहकर हरीष बाबू ने गहरी नज़रों से उन्हें देखा और गोपाल चौधरी के साथ आगे बढ़ गए।
उनकी बातें सुन कर हरनाम सिंह के माथे पर चिन्ता की लकीरें उभर आईं। उन दोनों का रंग-ढंग कुछ ठीक नहीं लग रहा था। हरनाम सिंह हत्प्रभ रह गए थे। इन्दिरा गांधी की हत्या के लिए पूरी सिख कौम को जिम्मेवार ठहराये जाने की तैयारी हो रही है। वे उन दोनों को रोकना चाह रहे थे, कहना चाह रहे थे कि इंदिरा गांधी की दुखद मृत्यु का उन्हें भी शोक है ...कि वे तो पहले दिन से ही पक्के कांग्रेसी रहे हैं। आज तक कभी उनका और पत्नी का वोट कांग्रेस के अलावा किसी दूसरी पार्टी को नहीं मिला है ...कि वे भी उस हत्या की भर्त्सना करते हैं और हत्यारों को कड़ी से कड़ी सजा देने के पक्षधर हैं ...मगर सारी बातें उनके अंदर ही उमड़-घुमड़ कर रह गईं। हरीष बाबू और गोपाल चौधरी तेज़-तेज़ कदमों से अपने नेता सुरेन्दर सिंह के घर की तरफ बढ़े जा रहे थे। हरनाम सिंह किंकर्तव्यविमूढ़ से दूर अगले मोड़ तक जाती उनकी पीठ देखते रहे थे।
‘‘रब्बा सुख रखीं। सब दा भला करीं।’’ कहते हुए वे गुरुद्वारे के अंदर चले गये थे।
उस दिन गुरुद्वारे में और दिनों की अपेक्षा संगत कम थी। पाठ समाप्ति कर उन्हें प्रसाद देते हुए इस बात की ओर ग्रंथी ने भी इशारा किया था, ‘‘आज संगत कम आई है।’’
‘‘हाँ बाबा जी। आज जो हुआ है, शायद यह उसी का असर है। यह ठीक नहीं हुआ है। हर तरफ एक सहमापन-सा नज़र आ रहा है।’’ हरनाम सिंह ने दोनों हाथों से प्रसाद लिया और मत्था टेक कर बाहर आ गए।
‘‘रब्बा मेहर करीं.... रब्बा मेहर करीं....’’ ग्रंथी धीमे-धीमे बुदबुदा रहा था।
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कमल
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