आसपास से गुजरते हुए
(16)
किस्सों की नदी में
मैं पहली बार अप्पा की पितृभूमि में आ रही थी। हरे-भरे नारियल के वृक्ष, सड़क किनारे कतार से लगे रबर के वृक्ष, नालियों जितनी चौड़ी समुद्र की शाखाएं, उन पर चलती पाल वाली नावें। मैं मंत्रमुग्ध-सी प्रकृति का यह नया रूप देखती रही। राह चलते केले के बड़े-बड़े गुच्छे उठाए स्त्री-पुरुष, सफेद धोती, कंधे पर अंगोछा, बड़ी-बड़ी मूंछें, पका आबनूसी रंग। औरतें धोती और ब्लाउज पहने बड़े आत्मविश्वास के साथ अपना काम कर रही थीं। अपने यौवन से बेपरवाह। एरणाकुलम (कोचीन) स्टेशन से दस किलोमीटर की दूरी पर अप्पा के भैया का घर था। चारों ओर से रबर और नारियल के वृक्षों से घिरा। आंगन गोबर से लिपा, फूलों की रंगोली, दरवाजे पर आम के पत्तों के तोरण, ऐसी सजावट तो अप्पा हर वर्ष विशु (मलयालम नव वर्ष) पर करते थे।
हमें देखते ही अमम्मा (दादी) दौड़ी आईं, सफेद इकहरी धोती और सफेद ही ब्लाउज में वे चीनी गुड़िया-सी लग रही थीं। देखते-ही-देखते अप्पा के बड़े भाई-बहन, चचेरे-ममेरे भाई-बहन हमें घेरकर खड़े हो गए। अप्पा के कुछेक रिश्तेदारों से तो मैं पहली बार मिल रही थी। अमम्मा ने शोर मचाया, ‘खाना लगाओ, बच्चे भूखे होंगे। दो दिन का सफर करके आए हैं।’
अमम्मा सिर्फ मलयालम समझती थीं, पर जब उन्होंने मुझे गले लगाया, तो लगा रिश्ते की कोई भाषा नहीं होती। मैं सूटकेस से कपड़े निकालकर नहाने चली गई। अप्पा की बहन श्रीलक्ष्मी यहीं रहती थी सपरिवार। उनके कमरे में नए स्टाइल का बाथरूम था। वे झटपट मेरे पास आकर टूटी-फूटी अंग्रेजी में बोली, ‘मेरे कमरे का बाथरूम इस्तेमाल करो। वहां गर्म पानी भी आता है।’
मैं आधे घंटे तक गर्म पानी के शॉवर के नीचे खड़ी रही। शर्ली ने दरवाजा खटखटाया, ‘अनु, जल्दी करो। खाना लग गया है।’ मैंने फौरन गीले बालों में टॉवेल लपेटा। सूती सलवार-कमीज पहनकर बाहर आ गई। बाहर के कमरे में पूरा परिवार जमा था। अमम्मा ने सबके खाने का इंतजाम जमीन पर दरी बिछाकर किया था। हम सब कतार में बैठ गए। अमम्मा और अप्पा के बड़े भाई की पत्नी ने केले के पत्ते पर खाना परोसा-चावल की खीर, केले के मीठे और नमकीन स्नेक्स, अप्पम, कडलै, रसम, सांबार, मोरुकूटान, अवियल, ओलन, कालन, पालअड़े प्रदमन! मेरी जीभ में जैसे हजारों स्वाद बस गए। सालों बाद मैं निखालिस मलयाली खाना खा रही थी।
अप्पा हंस-हंसकर सुरेश भैया से बात कर रहे थे। शर्ली भी हरे रंग की छींटदार साड़ी पहने उन्हीं में एक लग रही थी। विद्या दीदी शाम की फ्लाइट से आ रही थीं। खाना खाने के बाद कोचमच्ची सबके लिए मीठा पान ले आईं। मद्रासी पत्ती, कतरी सुपारी, कच्चा कसा हुआ नारियल, चीनी, हल्का-सा चूना-मजा आ गया! मेरी आंखें बंद होने लगीं।
कोचम्मा ने मुझे देख दिया, ‘नींद आ रही है? आ, मैं तुझे कमरा दिखा दूं।’ मैं यंत्रवत-सी उनके पीछे चल पड़ी। जाते-जाते मैंने देखा, अप्पा का पूरा परिवार हंस रहा था, खुश दिख रहा था। किसी ने एक बार भी आई के बारे में नहीं पूछा। मैं खुद भी तो यहां आने का प्रयोजन भूल गई थी। परसों अप्पा की शादी है। अप्पा की शादी...!
मेरी आंखें मुंदने लगीं। बिस्तर पर लेटते ही मुझे नींद आ गई। पता नहीं कितनी देर तक मैं सोती रही। शोरगुल से नींद टूटी, समझ नहीं आया कि कहां हूं। मिली-जुली आवाजें थीं। शायद अप्पा और सुरेश भैया लड़ रहे थे। बीच-बीच में विद्या दीदी की भी आवाज आ रही थी। मैं अपने आपको समेटकर उठी। कमरे से बाहर निकली। बरामदे में अप्पा आरामकुर्सी पर बैठे थे। उनकी नसें तनी हुई थीं। अप्पा के बड़े भाई उनके पास खड़े थे। सामने सुरेश भैया हाथ हिलाकर चिल्ला रहे थे, ‘यह आपकी कोई उम्र है शादी करने की? आपने क्या सोचा है? बिना तलाक लिए दूसरी शादी कर सकते हैं?’
‘मुझे रोकेगा कौन?’
‘मैं?’ सुरेश भैया तेज आवाज में बोले, ‘आप अपने साथ आई की जिंदगी क्यों खराब कर रहे हैं? वैसे ही कम तमाशे किए हैं आपने? अपना घर, बीवी, बेटी तो संभलती नहीं...’
विद्या दीदी बीच में आ गई, ‘सुरेश, अगर आई को आपत्ति नहीं है तो तुम क्यों बीच में पड़ रहे हो? आई ने अपनी जिंदगी चुन ली है, अप्पा को भी जो करना है करने दो!’
‘तुम्हें पता भी है, तुम क्या कह रही हो?’
विद्या दीदी चुप हो गई।
अप्पा खिसिया गए, ‘वो लड़की विधवा है।’
‘आपके साथ शादी करेगी, तो जल्द ही दोबारा विधवा हो जाएगी....’
अप्पा गुस्से से उठ गए, ‘रास्कल, बड़वा, मण्डन, अपने बाप से ऐसे बात करते हैं?’
मैं दीवार के सहारे टेक लगाकर खड़ी हो गई। यही असली रूप है मेरे परिवार का। सुरेश भैया ने चिल्लाना जारी रखा, ‘आपका दिमाग खराब हो गया है।’
अप्पा ने धोती कसकर ऊपर बांधी और एक हाथ से सुरेश भैया को बाहर का रास्ता दिखाते हुए कहा, ‘गेट आउट! अभी निकल जा यहां से, आई डोण्ट नीड यू।’ भैया ने हकबकाकर सबकी तरफ देखा।
विद्या दीदी ने बीच-बचाव किया, ‘अप्पा, यह क्या कह रहे हैं? कितने दिनों बाद हम सब इकट्ठा हुए हैं, जाने दीजिए। सुरेश, चल अप्पा से माफी मांग।’
भैया ने हिकारत से ‘हुंह’ कहा और अंदर चले गए। पांच मिनट बाद वे अपना सामान उठाकर बाहर आए, उनके पीछे-पीछे शर्ली भी थी। भैया अप्पा के सामने रुके और शब्दों को चबा-चबाकर बोले, ‘यह मत समझिए कि मैं यहां से जा रहा हूं, तो आप मनमानी कर सकते हैं। मैं सामने गेस्ट हाउस में रुकूंगा। देख लूंगा मैं कि आप कैसे शादी करते हैं! पुलिस-कानून कुछ है कि नहीं?’
भैया चले गए। धीरे-धीरे एक-एक करके सब कमरे में आ गए। विद्या दीदी मेरे पास आकर बैठ गई। हम दोनों के बीच बोलने के लिए कुछ था ही नहीं। अमम्मा हम दोनों के लिए गिलास में गरम रसम ले आई। हमारे सामने आरामकुर्सी पर बैठती हुई बोलीं, ‘पता नहीं सुरेश इतना हल्ला क्यों मचा रहा है! पता है तुम्हारे अप्पा की पहली शादी अवैध थी। उसने तुम्हारी मां से शादी ही नहीं की थी...’ विद्या दीदी का चेहरा लाल पड़ गया, मुकुंदन सुनेंगे तो क्या कहेंगे?
‘नहीं अमम्मा, मंदिर में हुई थी शादी!’
‘किसने देखा है मोले?’ अमम्मा सपाट स्वर में बोलीं, ‘तुम्हारी मां कभी हमारे परिवार की बहू हुई ही नहीं। उसने मेरे बेटे को सिर्फ दुख दिया है। उसकी जिंदगी खराब कर दी। उसके अपने रिश्तेदारों से काटकर रख दिया। मैं अपने बेटे को देखने के लिए तरस जाती थी...’
मुझे अंदर से कुछ उफनता-सा लगा। मुट्ठियां भिंचने लगीं।
अमम्मा आंचल में मुंह छिपाकर रोने लगीं, ‘क्या था मेरा बेटा, क्या हो गया है!’
‘अप्पा जब घर से भागे थे, आप लोगों ने तब उनकी खोज-खबर क्यों नहीं ली?’ मैंने बदतमीजी से पूछा। अमम्मा ने अचकचाकर मेरी तरफ देखा, विद्या दीदी ने मेरा हाथ दबाकर चुप रहने का इशारा किया।
अमम्मा ने कुछ चिढ़े हुए स्वर में कहा, ‘गोपालन घर से भागा नहीं, नौकरी करने गया था। तुम्हारी मां ने पता नहीं क्या जादू-टोना कर दिया...’
मैं उठ गई, अपनी आवाज को भरसक संतुलित रखती हुई बोली, ‘आप आई के बारे में कुछ मत कहिए। आप उन्हें जानती नहीं, जानना चाहती भी नहीं।’ अमम्मा के चेहरे पर कई तरह के भाव आते-जाते रहे। शायद इससे पहले उन्हें किसी ने इस तरह जवाब नहीं दिया था। वे पूरे परिवार की कर्ता-धर्ता थीं। अप्पा घर से भागे भी उन्हीं के कठोर अनुशासन की वजह से थे। अचानक अमम्मा ने मेरी ओर देखकर कहा, ‘मोले, तू बिल्कुल मेरे जैसी है, जिद्दी और मुंहफट! मुझे अच्छा लगा। पर आइन्दा मेरे सामने बदतमीजी से मत बोलना!’
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