Aaspas se gujarate hue - 8 books and stories free download online pdf in Hindi

आसपास से गुजरते हुए - 8

आसपास से गुजरते हुए

(8)

सच के अनदेखे चेहरे

चार-पांच महीने बाद अचानक एक दिन अप्पा मुझसे मिलने आ गए। घर पर मैं अकेली थी। शर्ली स्कूल में और सुरेश भैया दफ्तर में थे। अप्पा घर के अंदर नहीं आए, दरवाजे पर खड़े होकर बोले, ‘मोले, आइ नीड टु टॉक टु यू।’

‘अप्पा, अंदर आइए, घर पर कोई नहीं है।’ मैंने इसरार किया।

‘नो, मैं इस घर के अंदर कदम नहीं रखूंगा। मुझे तुमसे बात करनी है। सामने उड़िपी रेस्तरां है, मैं वहीं मिलूंगा! अप्पा लम्बे डग भरते हुए चले गए।’

इन दिनों अप्पा घर से बाहर भी सफेद धोती में निकलने लगे थ्रे, माथे पर विभूति, गले में जनुऊ! पहले अप्पा कर्मकाण्डों से दूर भागते थे, अब साल में दो बार शबरी मलै हो आते हैं। अप्पा की इस तरह से कल्पना करना बेहत मुश्किल था, पर आदमी की फितरत कब बदल जाए, कोई भरोसा नहीं है।

पांवों में कोल्हापुरी चप्पल पहनकर दरवाजा बंद करके मैं बाहर आ गई। रेस्तरां में अप्पा सबसे कोने की मेज पर बैठे थे। मैं उनके सामने जाकर बैठ गई।

अप्पा ने मेरी तरफ निगाह डालकर ताना कसा, ‘यह क्या पहन रखा है तुमने? ढंग के कपड़े क्यों नहीं पहनती?’

मैंने पैरेलेल और टॉप पहना था, मेरी नजर में यह पोशाक बिल्कुल सही थी! मैंने कुछ नहीं कहा। अब अप्पा से इस तरह खुलकर बात करने का मन नहीं होता।

‘तुम्हें रुपयों की जरूरत तो नहीं?’ अप्पा ने सीधा सवाल किया।

‘नहीं।’ मैंने सिर झुकाकर जवाब दिया।

‘सुरेश से पैसे लेती है?’

मैंने ‘हां’ में सिर हिलाया।

‘मैं तुझे पुणे वापस ले जाने आया हूं!’ अप्पा दो-टूक बोले।

‘पर अप्पा, मैं यहां कंप्यूटर का कोर्स कर रही हूं।’ मैंने प्रतिवाद किया।

‘कोर्स तुम वहां भी कर सकती हो।’

‘नहीं, मैं मुंबई नहीं छोड़ूंगी।’ मैंने दृढ़ स्वर में कहा।

‘क्यों? यहां क्या रखा है?’

मैंने अप्पा का चेहरा देखा। कितने अव्यावहारिक हो जाते हैं वे कभी-कभी, अब तो अकसर।

‘तेरी आई का दिमाग खराब हो गया है। तू ही समझा सकती है उसे।’

‘क्या हुआ आई को?’ मैं चौंक गई। कहने का मन हुआ कि आपने ही जरूर कुछ किया होगा।

‘पागलों जैसी हरकत करती है। कल सबके सामने अपनी साड़ी फाड़ने लगी।’

मुझे अचानक रोना आ गया। क्या हो गया है आई को?

अप्पा कहते रहे, ‘तुम लोग क्या समझते हो? घर-बार छोड़कर अकेले रह सकते हो? मैंने यह गलती की और अब तक भुगत रहा हूं।’

मैंने चुपचाप आंसुओं को निगल लिया, मन हुआ, आई के पास तुरंत पहुंच जाऊं।

अप्पा ने कुछ रुष्ट होकर कहा, ‘तुम सब मुझसे दूर भागते हो! ऐसा मैंने क्या किया है?’

‘नहीं अप्पा, दूर कहां भागते हैं? पर आपने कभी पास आने ही कहां दिया?’ मैंने किसी तरह कह दिया।

‘एंदा मोले?’ अप्पा एकदम से ढह गए, ‘मैं तुम तीनों बच्चों को बहुत प्यार करता हूं, पर तेरी आई ने कभी मुझे तुम लोगों को प्यार करने नहीं दिया। देखो, आज सुरेश ने क्या किया। मेरे इतना मना करने पर भी क्रिश्चियन लड़की से शादी कर ली। उसे तो अपना बेटा कहते हुए भी मुझे शर्म आती है।’

मैं चुप रही। अप्पा की आवाज थोड़ी नरम हुई, ‘मुछ खाएगी? मुझे तो भूख लगी है, मैं बड़ा सांबार और मैसूर मसाला दोशै खाऊंगा।’

अप्पा का साथ देने के लिए मैंने इडली मंगा ली। इतने दिनों में अप्पा बेहद वाचाल हो गए थे। बहुत ज्यादा और बहुत बेढब बोल रहे थे। बात-बात पर आई और सुरेश भैया को ताना दे रहे थे।

घंटा-भर लगाकर उन्होंने भरपेट खाया। उठते-उठते बोले, ‘मुझे तेरा सुरेख के साथ रहना बिल्कुल पसंद नहीं। तू चाहे हॉस्टल में रह, पर सुरेश के घर मत रह।’

मैं धीरे-से उठ खड़ी हुई, ‘अप्पा, दो बजे मेरी कंप्यूटर की क्लास है, जाऊं?’

अप्पा ने मुझे बेधती निगाहों से देखा, ‘अच्छा! पर अगर अगली बार मैंने तुझे ऐसी उल्टी-सीधी ड्रेस में देखा तो टांग तोड़ दूंगा।’

हम दोनों रेस्तरां से बाहर निकल आए। अप्पा पुणे की बस पकड़ने चले गए। मन बुरी तरह डूब रहा था। अप्पा क्या यहां मुझसे यही कहने आए थे कि मैं सुरेश भैया के साथ ना रहूं? या फिर आई को सच में मेरी जरूरत है? कंप्यूटर क्लास में मेरा बिल्कुल दिल नहीं लगा। मैं वहां से सीधे सुरेश भैया के दफ्तर पहुंच गई। भैया मीटिंग में थे। मुझे देखते ही अपने केबिन से बाहर निकल आए, ‘क्या बात है अनु, तुम यहां?’

मैं भैया के दफ्तर बहुत कम जाती थी, मुश्किल से दो या तीन बार गई होऊंगी। मुझे वहां देखकर उनका चौंकना स्वाभाविक था।

‘भैया...’ मैंने रुकते-रुकते अप्पा की पूरी बात बता दी।

सुरेश भैया परेशान हो गए, ‘अनु, तुझे आज ही पुणे चले जाना चाहिए। कल सबेरे मैं भी ट्रेन या बस लेकर पुणे आ जाऊंगा। इस बार चाहे जो हो, हमें आई को अपने साथ लाना होगा। वहां रखा क्या है?’

‘मैं अभी चली जाऊं?’ मैंने धड़कते दिल को संभालते हुए पूछा। अभी पांच बज रहे हैं। दादर तक पहुंचने में घंटा-भर लगेगा। अगर छह बजे की बस मिल गई, तो रात ग्यारह बजे तक पुणे पहुंच जाऊंगी।

‘पैसे हैं तेरे पास?’

मैंने पर्स टटोला, बमुश्किल सौ रुपए थे। सुरेश भैया ने हजार रुपए गिनकर मुझे दिए, ‘संभलकर जाना। रात को बस ड्राइवर घाट पर पीकर चलाते हैं। लक्जरी बस ले लेना। वहां पहुंचते ही फोन कर देना।’

मैं तुरंत ‘हां’ में सिर हिलाती हुई निकल पड़ी। वीटी से दादर तक खचाखच भरी लोकल में सफर किया। लगभग दौड़ती हुई प्रीतम होटल के पास से निकलकर पुणे की बस पकड़ने हाइवे पर आ गई। होटल अशोक के सामने कदम ठिठके भी, यही तो वह जगह थी, जहां मैं और अमरीश अकसर मिला करते थे! पता नहीं मुझे उस वक्त अमरीश का ध्यान क्यों आया?

सवा छह बजे की पुणे जाने वाली लक्जरी बस में मुझे आसारी से जगह मिल गई। मैं पीछे अपनी सीट की तरफ जा रही थी कि आवाज आई, ‘अनु!’

लगभग ढाई साल बाद मैं अमरीश की आवाज सुन रही थी। मुझे पता नहीं क्यों उस वक्त उसे वहां देखकर अच्छा लगा।

‘अनु!’ उसने दोबारा पुकारा।

मैंने इशारा किया कि मेरी सीट पीछे है। मेरे साथवाली सीट खाली थी। बस चलने लगी, तो अमरीश मेरे पास आ गया, ‘मैं यहां बैठ जाऊं?’

मैंने उसकी तरफ देखा, बड़ी हुई दाढ़ी, आंखों के नीचे काले-हरे गड्ढे, बेतरतीबी से फैले बाल! यानी अमरीश खुश नहीं है।

अमरीश मुझे जवाब देता ना देख खुद ही बैठ गया।

बरसों बाद उसके शरीर की गंध ने मुझे मदहोश कर दिया। उसने धीरे-से पूछा, ‘कैसी हो?’

मैंने रुखा-सा जवाब दिया, ‘क्यों पूछ रहे हो? क्या वाकई तुम्हें मेरे होने, ना होने से कोई फर्क पड़ता है?’

अमरीश ने गहरी सांस ली, ‘हां अनु! तुम मेरे लिए जो कल थी, वही आज भी हो।’

मुझे जबर्दस्त गुस्सा आ गया। मैंने चीखते हुए कहा, ‘अमरीश, तुम यहां से जाओ! मुझे तुमसे कुछ नहीं कहना।’

अमरीश नहीं उठा, बल्कि उसने मेरे बाएं हाथ पर अपना गर्म हाथ रख दिया, ‘धीरे बोलो अनु! जो कुछ कहना है, मुझसे कहो। सबको क्यों सुना रही हो?’

मैं गुस्से के मारे उसी स्वर में बोली, ‘तुम बिल्कुल नहीं बदले, एक नम्बर के स्वार्थी, खुदगर्ज और कमीने हो।’

अमरीश की पकड़ मजबूत हो गई। मैंने छुड़ाने की कोशिश की, फिर झल्लाकर बोली, ‘छोड़ो मेरा हाथ या चिल्लाऊं?’

‘वो तो तुम कर ही रही हो!’ वह व्यंग्य से बोला।

मैं चुप रही। इस बार हाथ छुड़ाने की कोशिश की, तो उसने आसानी से छोड़ दिया।

‘तुम कितनी मोटी हो गई हो अनु? क्या कर लिया है अपने शरीर का तुमने?’ उसने ताना मारा।

‘तुमसे मतलब?’ मैं चिढ़ गई।

‘अब तक तुम्हारा गुस्सा ठंडा नहीं हुआ?’

मैं चुपचाप बिना कुछ बोले खिड़की से बाहर देखने लगी। बस वाशी पुल से गुजर रही थी। दूर तक सागर की उदात्त लहरें डूबते सूरज की रोशनी में चमक रही थीं। मैंने देर तक अमरीश की तरफ देखा ही नहीं। ना जाने कितने सवाल उठ रहे थे, पूछूं कि उसकी पत्नी कैसी है? बच्चे हुए कि नहीं? पर मन नहीं हुआ।

धीरे-धीरे अंधेरा धिरने लगा। बस के अंदर लाइट जल गई। अमरीश ने मुझे टहोका, क्या सोच रही हो अनु?‘’

मैंने चेहरा घुमाया। वह ध्यान से मेरी तरफ देख रहा था। वही चेहरा, वही आंखें, वही बाल, मुझे रोमांच हो आया। क्या अमरीश वाकई मेरे इतने पास बैठा है?

‘मेरी एक बात सुनोगी?’ मैंने जानकर तुम्हारे साथ कुछ भी गलत नहीं किया।

‘मुझे कुछ नहीं सुनना।’ मैं जहर बुझी आवाज में बोली।

‘ठीक है।’ वह आंखें बंद कर सीट पर आराम से बैठ गया। पौन घंटे बाद बस पनवेल के पहले कालंबोली में रुक गई। ड्राइवर जोर से मराठी में चिल्लाया, ‘चहा पानी पीणार साठी इकड़े थांबला आहे। दहा मिनट बस इकड़े थांबणार।’

‘चाय पिओगी?’ अचानक अमरीश सतर्क होकर बैठ गया।

मैंने ‘हां’ में सिर हिलाया। अमरीश फौरन बस से नीचे उतर गया। ढाबे से उसने बटाटा बड़ा खरीदे। दो बटाटा बड़ा और चाय का कप मेरे हाथ में पकड़ाकर वह खुद नीचे खड़े होकर खाने लगा। उस वक्त तीखा बटाटा बड़ा और गर्म चाय मुझे अमृततुल्य लग रही थी।

जब वह ऊपर आया, तो मैंने पर्स खोलकर दस का नोट उसे थमा दिया। वह आश्चर्य से मेरी तरफ देखने लगा, ‘यह क्या पागलपन है?’

‘बटाब बड़ा और चाय के पैसे!’ मैंने सपाट स्वर में कहा।

उसने जलती आंखों से मेरी तरफ देखा, ‘रख लो। मुझे नहीं चाहिए।’

‘नहीं, तुम्हें लेना होगा। मैं तुम्हारे पैसों का नहीं खा सकती।’

अमरीश ने चुपचाप मेरे हाथ से नोट ले लिया।

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