आसपास से गुजरते हुए - 10 Jayanti Ranganathan द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

आसपास से गुजरते हुए - 10

आसपास से गुजरते हुए

(10)

मेरे हिस्से की धूप

घर पहुंची, तो वहां कोहराम मचा था। सुरेश भैया सुबह की बस पकड़कर पुणे आ पहुंचे थे। मुझे घर में ना पाकर सब लोग घबरा गए थे। मुझे देखते ही आई की जान में जान आई, ‘काय झाला अनु? कुठे गेली होतीस तू? अग, सांग ना?’

सुरेश भैया ने मेरी तरफ तीखी निगाहों से देखा, ‘पता है, मेरी तो जान ही निकल गई थी। कहीं रुक गई थी, तो फोन करना था न।’

मुझसे जवाब देते नहीं बना। गर्दन और चेहरे के निशान मेरी अच्छी खासी चुगली कर रहे थे। मैं घर जिस प्रयोजन से आई थी, उसका आधा अर्थ खो चुका था। अप्पा अलग गुस्से में थे, ‘इन बच्चों को आजादी दी, बाहर जाकर काम करने दिया, तो सब सिर पर चढ़ गए हैं। अनु के रंग-ढंग देखा? यह कोई नायर परिवार की लड़की के लक्षण हैं? अब यह इस घर से तभी जाएगी जब इसकी शादी होगी।’ फिर अप्पा आई पर बरस पड़े, ‘तुमसे अपने बच्चे तक संभाले नहीं जाते! मैंने निरी पागल से शादी की है!’

‘अप्पा!’ मैंने प्रतिवाद किया।

‘तू चुप रह! अंदर कमरे में जा। बहुत हो चुकी तेरी मनमानी!’

आई मेरा हाथ पकड़कर कमरे में ले आईं। कमरे में आते ही मैंने रोष से कहा, ‘अप्पा को यह क्या हो गया है?’ आई चुप रहीं। मैंने ध्यान से देखा, उनके चेहरे पर झुर्रियां आ गई थीं, बालों में भरपूर सफेदी। बेतरतीबी से पहनी साड़ी, ब्लाउज के ऊपर का बटन टूट गया था। उनके गले की नीली नस अपना अस्तित्व दिखाती उभर-सी आई थी। माथे पर घाव का निशान!

‘आई यह क्या हुआ? अप्पा ने मारा?’ मुझे रुलाई आ गई।

‘नहीं पोरी, मैंने खुद ही कप दे मारा!’

‘क्यों आई?’ तो अप्पा सही कह रहे हैं कि आई का दिमाग चल गया है?

‘अनु मुलगी, अब सहा नहीं जाता!’ आई की आंखें भर आईं।

‘तुम हमारे साथ क्यों नहीं रहतीं? इस बार हम तुम्हें ले जाने आए हैं।’

‘नहीं, मैं अपना घर छोड़कर नहीं जाऊंगी। मैं इकड़ेच रहणार।’

‘आई, जिद मत करो। यहां क्या रखा है? अप्पा की जिद दिनोदिन बढ़ती जा रही है...’

आई ने ‘तो क्या हुआ, वे मेरे पति हैं’ नहीं कहा। ऐसे सम्वाद वे कभी नहीं कहती थीं। वे थके से स्वर में बोलीं, ‘तुम सबकी अपनी जिंदगी है, मेरी अपनी। मुझे मेरे हाल पर छोड़ दो। अनु, तू कालजी नको करूं, मी ठीक आहे।’

मैं दीवान पर बैठ गई। आई को समझाना मुश्किल है। सुरेश भैया की भी तमाम कोशिशें नाकामयाब रहीं। आई किसी भी सूरत में अपना घर छोड़ने को तैयार नहीं हुईं। भैया अगले दिन रात की बस से मुंबई वापस चले गए। उन्हें देखकर लग रहा था कि वे ना आई से खुश हैं, ना मुझसे। उन्होंने आई से कहा भी, ‘अब अनु की शादी हो जानी चाहिए। मैं देख रहा हूं कि यह कुछ ज्यादा ही मनमानी करने लगी है।’

मुझे गुस्सा आ गया। आई ने मेरी तरफदारी की, ‘कोई बात नहीं इसे अपनी तरह से जीने दो। शादी में क्या रखा है? जब करनी होगी कर लेगी!’

भैया जाते समय मुझसे बोले बिना गए। अब पुणे में एक दिन भी बिना काम के बैठना मुझे काटने को दौड़ता था। आई को इस हाल में छोड़कर जाने का मेरा मन नहीं हो रहा था। अचानक उन्हें दौरे पड़ने लगे थे। भैया के जाने के अगले दिन सुबह-सुबह आई ने रसोई में कोहराम मचा दिया। वे शान्तम्मा को लोहे की कलछी से पीटने लगीं, ‘चल, निकल इधर से, यह तेरा घर है या मेरा? निकल...!’ आई का यह रूप मैंने पहली बार देखा था। शान्तम्मा डर गई, मैंने आई को समझाने की कोशिश की, ‘आई, क्या कर रही हो, शांत हो जाओ। इसमें शान्तम्मा की क्या गलती? इसे तो अप्पा लाए हैं।’

‘तू बीच में मत बोल। मैं इसकी सूरत भी नहीं देखना चाहती।’ आई ने हम दोनों को रसोई से निकालकर अंदर से कुंडी लगा ली। शान्तम्मा चुपचाप बरामदे में बैठ गई। इशारे से मुझे बुलाकर मलयालम में कहा, ‘तुम अपनी मां को किसी डॉक्टर को दिखाओ। इसका दिमाग सही नहीं है।’

मैंने गुस्से से कहा, ‘मेरी मां को कुछ नहीं हुआ। तुम लोग उसे अकेला छोड़ दो।’

आई ने दोपहर तक रसोई का दरवाजा नहीं खोला। अप्पा होटल से नाश्ता और खाना लेकर आए। वे जरूरत से ज्यादा चुप थे।

दोपहर को आई रसोई से बाहर निकलीं और सीधे नहाने चली गईं। घंटे-भर बाद वे नहा-धोकर कमरे में आईं। भीगे छितरे बाल, माथे पर कुमकुम, सूती चन्देरी साड़ी में वे एकदम शांत और संभली लग रही थीं। मुझे देखकर उन्होंने सहजता से पूछा, ‘तूने स्नान कर लिया? आज शुक्रवार है, बाल धो लेना!’

मेरे अंदर कुछ पिघलने लगा। दोपहर तक आई ने जो किया, अब चेहरे पर उसकी शिकन तक नहीं थी।

मैं धीरे-से उनके पास गई, वे आलती-पालती मारकर बैठी थीं। मैंने उनकी गोद में सिर रखकर धीरे-से पूछा, ‘आई, तुम ऐसा क्यों कर रही हो? सब कह रहे हैं तुम...’

‘पागल हो, यही न?’ आई की आवाज ठंडी थी।

मैंने चौंककर सिर उठाया, ‘आई, मुझे बताओ, आज तुमने शान्तम्मा को क्या मारा?’

आई ने गहरी सांस ली, ‘क्या बताऊं पोरी, पता नहीं मुझे क्या हो जाता है। मैं तेरे अप्पा को किसी से बांट नहीं सकती। ये सारी औरतें तेरे अप्पा को मुझसे दूर ले जा रही हैं। आजकल वे मुझसे बात ही नहीं करते।’

‘पर आई, तुम अप्पा से सीधे बात क्यों नहीं करतीं? तुम उनसे कहो न कि इन सभी नौकरों को निकाल दें।’ आई पता नहीं क्या सोचने लगीं। मैंने उन्हें झकझोरा, ‘बोलो न।’

‘अब कोई फायदा नहीं। मैंने सब किया था, बात भी की थी, लेकिन तेरे अप्पा के मन में पता नहीं क्या है!’ आई धीरे-धीरे मेरे बालों में हाथ फेरने लगीं।

‘आई मेरी बात सुनोगी? तुम हमेशा मुझसे कहती थीं कि हमें एक ही बार जीने का मौका मिलता है। तुमने अपनी जिंदगी कभी नहीं जी। तुम्हें सुल्लू मौसी कितनी पसंद हैं, पर तुम उनसे नहीं मिलतीं, क्योंकि अप्पा को नहीं पसंद। तुम पहले लावणी करती थीं, अभंग गाती थीं, सब बंद कर दिया। क्यों आई? क्या एक आदमी के लिए इतनी कुर्बानी देना ठीक है? माना, तुम खुश नहीं हो, पर तुम खुश रहना भी नहीं चाहतीं। तुम्हें अपने दर्दे साथ रहने में अब मजा आने लगा है। तुम चाहती हो कि सब तुम्हें बेचारी कहें, अप्पा को दोष दें।’ आई ने बिफरकर पैर समेट लिए और मेरा सिर जमीन पर आ गिरा। मैं बैठ गई। आई की आंखों में रोष था, वे चुपचाप उठकर खड़ी हो गईं।

‘आई, मेरी बात समझने की कोशिश करो।’ मैंने गिड़गिड़ाते हुए कहा।

‘सब मुझे समझाने की कोशिश करते हैं! जैसे मैं ही गलत हूं। ठीक है, मैं जैसी हूं, वैसी रहूंगी। मुझे मेरे हाल पर छोड़ दो। मैंने तुम्हें इस घर से बाहर जाने से कभी नहीं रोका। तुम्हारा मन है, जो चाहो करो। पर मला दोष देओ नका! खूप झाला तुमचा भाषण, अता मलां सोड़ बाबा!’

आई ने सच में हाथ जोड़ दिए। उस वक्त मुझे उन्हें अकेला छोड़ देना ही सबसे बेहतर लगा। शाम को मैं अकेली बाहर निकल गई। जानी-पहचानी सड़कों पर बेवजह घूमती रही। सड़क किनारे भुना भुट्टा खरीदकर खाया, उबले सेंगदाने टूंगती मैं काफी दूर निकल गई। कण्टोन्मेंट शुरू होने लगा, तो माथा ठनका। साइकिल पर आर्मी के जवान सीटी बजाते जा रहे थे। लौटते समय मैं तेज चलती हुई आई। अप्पा कह रहे थे, अब पुणे पहले की तरह सुरक्षित नहीं रहा। हाल फिलहाल चोरी, डकैती, बलात्कार जैसी घटनाएं भी हुई हैं।

घर लौटी तो रात घिर आई थी। अप्पा खाने की टेबल पर मेरा इंतजार कर रहे थे। खाना शान्तम्मा ने बनाया था। चावल, सांबार, अवियल, पायसम! मुझे जमकर भूख लग आई थी। सालों बाद मैं जायकेदार दक्षिण भारतीय भोजन खा रही थी। अप्पा ने कुछ सख्त आवाज में पूछा, ‘कहां चली गई थी?’

‘बस यूं ही घूमने निकल गई थी!’

‘मुझसे कहती, तो मैं भी चल पड़ता!’

अप्पा मेरी तरफ देख रहे थे।

‘सच्च अप्पा? कितने दिन हो गए आपके साथ कहीं बाहर नहीं गई!’

‘चल, कल सवेरे चलते हैं। कार्ला केव्स चले चलेंगे!’

बचपन में कई बार अप्पा, आई, सुरेश भैया और विद्या दीदी के साथ पिकनिक मनाने कार्ला केव्स जा चुकी थी। वहां देखने लायक खास कुछ था नहीं, बस सब साथ रहते थे, इसलिए अच्छा लगता था।

‘इतनी दूर? वहां तो कुछ नहीं है अप्पा। चलिए, कोई फिल्म देखकर आते हैं!’ मैंने कहा।

‘इंग्लिश! तुम्हारी हिन्दी फिल्म मुझे नहीं समझ आतीं!’

‘ठीक है, लेकिन जैकी चैन की नहीं!’

अप्पा मुस्कुराए, ‘अब कहां देखता हूं जैकी चैन! वो सब छूट गया। अब तो बस टीवी में जो दिख जाता है, देख लेता हूं!’

अप्पा बहुत दिनों बाद खुश नजर आ रहे थे। खा-पीकर जब मैं गर्म दूध का गिलास लेकर बरामदे में आई, तो अहसास हुआ कि आई ने तो खाना खाया ही नहीं। मैं शान्तम्मा के पास गई, वह खाना समेट रही थी।

‘आई ने खाना खा लिया?’

शान्तम्मा रहस्यात्मक ढंग से बोली, ‘मोले, तुम्हारी अम्मा मेरे हाथ का पका नहीं आती। वह शाम को चावल, दाल, आलू एक साथ उबाल लेती है। बस वही खाती है!’

मेरा मन उदास हो गया। बरामदे में रात की रानी के आर्च के नीचे मैं बैठ गई। नीचे पत्थर थे। कभी आई ने बड़े शौक से यह आर्च बनवाया था। मुझसे कहती थीं कि जब तुम लोग पढ़-लिखकर नौकरी करोगे, तो मैं आंगन में फूलों का बगीचा बनाऊंगी, झूले डालूंगी। आई के आंगन में हरे-भरे पौधे लगे थे। टमाटर, मिर्च, फूलगोभी, बैंगन। आई बड़े प्यार और जतन से पौधों की देखभाल करती थीं।

इस घर में पेड़-पौधे खुश हैं, आदमी नहीं! ना अप्पा खुश हैं, ना आई! जब दो अलग तरह के लोग साथ रहने को मजबूर हो जाते हैं, तो ऐसा ही होता है। मेरा दम घुटने लगा, मैं एकदम से उठकर कमरे में आ गई।

***