आसपास से गुजरते हुए - 11 Jayanti Ranganathan द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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आसपास से गुजरते हुए - 11

आसपास से गुजरते हुए

(11)

मेरे सपनों के गांव तुम कहां हो

सुबह-सुबह अप्पा ने जगा दिया, ‘अनु, उठ! वॉक पर चलते हैं!’

सुबह के छह बज रहे थे। मैं ‘ना नू’ करती हुई उठी। अप्पा ने गर्म झागदार कॉफी का गिलास मुझे पकड़ा दिया। कॉफी पीकर शरीर में चुस्ती आ गई। फौरन मैं जीन्स और टीशर्ट पहनकर तैयार हो गई। अप्पा मुझे नए रास्तों से ले गए। पहले जहां मुरम की सड़क हुआ करती थीं, अब कोलतार की बन गई थीं। घर के पास पहले इतने मकान नहीं थे, अब तो सामने खेल के मैदान में भी बिल्डिंग बन गई थी। पहले हमारा इलाका साफ-सुथरा हुआ करता था। अब यहां भी मुंबई जैसी गंदगी फैलने लगी थी।

घंटा-भर चलने के बाद मैं थकर पुलिया पर बैठ गई। अप्पा भी हांफने लगे थे, ‘मैं तो रोज चलता हूं एक घंटा! तभी तो फिट रहता हूं।’ अप्पा मेरे पास बैठते हुए बोले।

‘अप्पा, मैं वापस मुंबई जाना चाहती हूं। मेरी क्लास छूट रही हैं?’ मैंने अचानक कहा।

‘अपना जन्मदिन मनाकर चली जाना।’ अप्पा की आवाज शांत थी।

वे मेरा जन्मदिन कभी नहीं भूलते थे। सप्ताह-भर बाद मैं चौबीस की होनेवाली थी। बिना किसी मकसद की भटकती, खुद को समझने की कोशिश करती चौबीस साल की युवती!

अप्पा मेरे लिए जामुनी रंग की नारायण पेठ साड़ी ले आए थे। जन्मदिन पर मैंने पुराने ब्लाउज के साथ वही साड़ी पहनी। शान्तम्मा ने काफी सारी चीजें बनाई थीं- हलवा, मुर्क, तीन तरह के चावल, पाल अड़ै प्रदमन!

पूरा घर खाने की खुशबू से महक रहा था। अप्पा के कहने पर शान्तम्मा ने आंगन में फूलों की रंगोली भी डाली। लग रहा था, जैसे घर में किसी की शादी है। आई को इन सबसे कुछ लेना-देना नहीं था। पूरी सुबह उन्होंने पौधों की देखभाल में बिता दी। घुटनों तक साड़ी समेटे वे पौधों की निराई-गुड़ाई करती रहीं। मई की चिलचिलाती धूप जब उन्हें बेचैन करने लगी, तो वे उठकर अंदर आ गईं।

मैं बरामदे में पंखे के नीचे बैठकर ध्यान से उन्हें देख रही थी। मुझे अपने जन्मदिन पर उदास होना कभी अच्छा नहीं लगता था, पर इस बरस खुश होने की भी कोई वजह नहीं थी। भीतर एक रिक्तता थी, पता नहीं क्या चाहती थी मैं जिन्दगी से! सुरेश भैया, विद्या दीदी, अमरीश सबको पता है आज मेरा जन्मदिन है, फिर किसी ने मुझे बधाई क्यों नहीं दी? हंसी भी आई, सोचकर! अब मैं बच्ची थोड़े ही हूं! मेरी तर दूसरे खाली भी नहीं कि मेरा जन्मदिन याद करते फिरें!

दोपहर को खाना खाने के बाद बाहरवाले कमरे में लेटकर सुस्ताने लगी, आंख लगी ही थी कि आई के स्पर्श से चौंककर उठ गई।

आई मुझ पर झुकर फुसफुसाती हुई कह रही थीं, ‘झोपला काय अनु?’

‘ना, ऐसे ही!’ मैं हड़बड़ाकर उठ गई।

‘अनु, तुझे कुछ दिखाना है, मेरे कमरे में आ न!’

मैं भारी-भरकम नारायण पेठ संभालती हुई उनके पीछे-पीछे चल दी।

आई ने अपना पुराना लोहे का ट्रंक खोल रखा था, शनील और मलमल के कपड़ों में बंधी पोटलियां बिस्तर पर पड़ी थीं। आई एक-एक करके पोटली खोलने लगीं। उनके गहने थे! आई ने बसरा की मोती का हार, सतलड़ और कोड़कड़कन झूमर उठाकर मेरे हाथ में दे दिए।

‘यह क्या है आई? मुझे क्यों दे रही हो?’

आई मुस्कुराई, ‘तेरे लिए संभालकर रखे थे। ज्यादा गहने नहीं हैं मेरे पास। बस यही रह गए हैं। मैं तुझे देना चाहती थी इसलिए कभी विद्या और शर्ली को नहीं दिए।’

मैं अपलक उन्हें देखने लगी।

‘क्या हुआ अनु? रख ले! आज तेरा बाढ़ दिवस है ना...मेरी तरफ से ये उपहार समझकर रख ले!’

‘आई,’ मेरी आंख भर आईं, ‘तुम अपने बचे-खुचे गहने मुझे क्यों दे रही हो?’

‘फिर किसे दूंगी? मैंने तो तेरी शादी के लिए भी पैसे जमा करके रखे हैं। देख...’ आई ने ट्रंक से मलमल की एक पोटली निकाली, सौ, पांच सौ के कई सारे नोट थे, ‘पूरे तैंतीस हजार रुपए हैं! जब तेरी शादी होगी, मैं कोई अच्छी-सी चीज लेकर दूंगी।’

‘आई, तुम पैसे बैंक में क्यों नहीं डाल देतीं?’

‘अरे...मैंने किसी को बताया थोड़े ही है इन पैसों के बारे में! मेरा कमरा क्या बैंक से कम है, जो यहां कोई आएगा?’ आई मुस्कुराई। उन्होंने कोड़कड़कन मुझे कानों में पहना दिए। मैं आईने के सामने खड़ी हुई, तो अपना अक्स पहचान ना सकी। साड़ी और झुमकों में मैं कितनी अलग लग रही थी। इन दिनों मैं सजने-संवरने के प्रति बेपरवाह हो गई थी, कुछ भी पहन लेती थी। साड़ी, बिंदी, काजल, झूमर में मैं अपने पुराने रूप में दिख रही थी। आई ने प्यार से मुझे देखते हुए कहा, ‘कितनी छान दिखती है तू! एकदम रानी जैसी!’

मेरी आंखों में चमक आ गई। मैंने चेहरा घुमाया और मोती की माला और सतलड़ आई के हाथ में देते हुए कहा, ‘आई, अभी तुम्हीं रख लो। जब मेरा अपना घर होगा, तो ले जाऊंगी।’ आई ने एक अलग मलमल के कपड़े में दोनों गहने बांधे और अच्छी-सी पोटली बनाकर ऊपर मराठी में लिखा- ‘अनु ला मिलेल।’

शाम को अप्पा के कुछ दोस्त घर पर आ गए। अप्पू भी रात की ट्रेन से आ रहा था, वह छुट्टियों में त्रिवेन्द्रम गया हुआ था। मैं उससे नहीं मिलना चाहती थी। रात को ही मैंने अपना किट बैग बांध लिया, ज्यादा सामान तो था नहीं। अप्पा ने रात को मुझे जाने नहीं दिया, ‘सुबह चली जाना। जन्मदिन के दिन यात्रा नहीं करनी चाहिए।’

रात को मैं आई के कमरे में उनके साथ बैठकर पुराने मराठी गाने सुन रही थी- ‘ए वाट दूर जाते सपना मदील गांवा...’ (यह रास्ता मेरे सपनों की नगरी की तरफ जाता है...) यह गाना आई को बहुत प्रिय था। आई गुनगुनाने लगीं, अब भी उनकी आवाज में खनक थी, पतली-सुरीली दिल से निकलती आवाज!

अप्पू दरवाजे के पास आकर खड़ा हुआ, तो मैं खीझ गई, ‘तुम हमेशा गलत वक्त पर आते हो!’

अप्पू का चेहरा उतर गया, उसने धीरे-से कहा, ‘मैं तुमसे गुड न्यूज शेयर करना चाहता था!’

‘क्या तुम शादी कर रहे हो!’ मैंने चिढ़ाया।

‘हां,’ उसने सिर झुका लिया, ‘क्या करता? तुमने ‘हां’ ही नहीं कहा, तो... ’

‘यह तो अच्छी बात है!’ मैं उठकर बाहर आ गई। चलो, अप्पू से तो पीछा छूटा।

अगले दिन अप्पू मुझे बस स्टॉप तक छोड़ने आया। रास्ते-भर वह अपनी मंगेतर कुंजमोल के बारे में बताता आया, सांवली है, पर नैन-नक्श तीखे हैं, एम.कॉम. किया है, नौकरी करती है, सलवार-कुर्ता पहनती है, अगले महीने शादी है त्रिवेन्द्रम में।

‘तुम आओगी?’ उसने अधीरता से पूछा।

‘पता नहीं, शायद ना आ पाऊं!’ मैं पता नहीं क्या सोच रही थी। बस में बैठी, तो रह-रहकर आई का ख्याल आने लगा। उनकी आवाज-ए वाट दूर जाते सपना मदील गांवा... मेरा दिल भर आया। मैं फौरन बस से नीचे उतर गई और नीचे खड़े कंडक्टर से पूछा, ‘कोल्हापुर के लिए कौन-सी बस जाएगी?’

उसने एक बस की तरफ इशारा किया, ‘बाई, लौकर करा, बस सुटणार आहे!’

मैं दौड़ती हुई कौल्हापुर की बस में चढ़ गई। बरसों पहले मैं आई के साथ कोल्हापुर गई थी सुल्लू मौसी से मिलने। पन्द्रह साल पहले सुल्लू मौसी पुणे छोड़कर कोल्हापुर में बस गई थीं। उनके पति पूजा की सामग्रियों का व्यापार करते थे। सुल्लू मौसी का एक ही बेटा था स्वप्निल, विद्या दीदी से बड़ा। पैदाइश से मानसिक रूप से विक्षिप्त था। सुल्लू मौसी उस पर जान देती थीं। उन्होंने दूसरा बच्चा पैदा नहीं किया कि स्वप्निल की ओर पूरा ध्यान नहीं दे पाएंगी। वे नाटकों में काम करने जातीं, तब भी स्वप्निल उनके साथ होता। वे उसे अपने जिगर से लगाकर रखती थीं। अब तो अच्छा-खासा बड़ा होगा स्वप्निल, तीस साल के आस-पास। पता नहीं कैसा होगा?

कोल्हापुर पहुंचते-पहुंचते शाम हो गई। मैं पूछते-पूछते उनके घर जा पहुंची। मौसीजी को नाम से काफी दुकानवाले जानते थे। सुल्लू मौसी मुझे पहचान नहीं पाईं। वे बिल्कुल वैसी ही थीं, चैकवाली साड़ी, बड़ी बिंदी, पान से रंगे होंठ, बस शरीर थोड़ा भर गया था।

‘मौसी, मैं अनु!’ उनकी आंखों में पहचान के भाव नहीं आए। मौसी, मैं पुणे से आई हूं। तुमची बहन निशिची मुलगी आहे मी! सुल्लू मौसी ने दौड़कर मुझे गले लगा लिया, ‘आई ग! तू इकड़े कशी? एकटीच येली का? शपथ, कित्ती सुन्दर झाले ग तू! कुठे है माझी बहन? कशी है?’

मैं अपने कंधे से बैग नीचे उतारकर तख्त पर बैठ गई, ‘मौसी, बहुत सारी बातें कहनी हैं आई के बारे मेें! इसीलिए तो आई हूं। स्वप्निल दादा कुठे है?’

सुल्लू मौसी की आंखें भर आईं, ‘उसे गुजरे तो कई साल हो गए पोरी।’

मैं उदास हो गई। हमारे आस-पास अपनों के साथ कितनी बातें हो जाती हैं और हमें पता भी नहीं चलता।

‘तू बता अनु, निशि कैसी है? तेरे अप्पा, विद्या, सुरेश...’

मैंने उनको धीरे-धीरे सबकुछ बताया। आई के बारे में, उनकी मनोदशा, अप्पा का व्यवहार। मैंने मौसी का हाथ पकड़ लिया, ‘आप ही कुछ कर सकती हैं मौसी! आई हमारी बात नहीं सुनतीं। वे वहां रहेंगी, तो मर जाएंगी। अप्पा और आई के रिश्ते में अब कुछ नहीं बचा। पहले तो अप्पा आई को मारते थे, अब आई अपना गुस्सा खुद अपने ऊपर उतारने लगी हैं, मुझे डर लग रहा है!’

मेरी आंखों में आंसू बहने लगे। मौसी ने अपने आंचल से मेरे आंसू पोंछे और शांत आवाज में बोलीं, ‘मैं जाऊंगी निशि से मिलने, तू कालजी करो नको। तुझे क्या लगता है, इतने बरसों में मुझे उसकी याद नहीं आई? सबसे छोटी थी घर में! सबकी लाडली तेरी आई, मैंने उसे नाचना-गाना सिखाया था। तेरी आई के पांव तो लट्टू से भी तेज थिरकते थे। क्या आवाज थी! ठुमरी, धु्रपद गाती, तो बड़े-बड़े उस्ताद झूम जाते। कुमार गंधर्व ने तो तेरी आई को अपना शाल उठाकर भेंट में दे दिया था। तब वो पन्द्रह-सोलह साल की थी। अपनी मला को आगे बढ़ाती, तो आज वो भी किशोरी आमोणकर की तरह प्रसिद्ध गायिका होती। पर किस्मत! यही लिखा था!’

मौसी ने आंखें बंद कर लीं! धीरे-से फुसफुसाती हुई बोलीं, ‘जब तेरी आई शादी के पहले गर्भवती हुई, तो मैंने कहा था कि बच्चा गिरा दे। इस मलयाली आदमी के साथ शादी करके कुछ नहीं मिलेगा। पर उसने मेरी बात नहीं मानी। तेरे अप्पा ने तो उसे कहीं का नहीं रहने दिया!’

मैं चुप रही। दूसरों के मुंह से मुझे अप्पा की बुराई अच्छी नहीं लगती, पर इस वक्त कुछ कहना सही नहीं था।

‘मौशी, तुम्ही जाणार ना?’ मैंने व्यग्र होकर पूछा।

‘हां, जाऊंगी, समझाऊंगी उसे! वो पहले मेरी बहन है, फिर तेरी मां!’

पता नहीं क्या सोचने लगीं मौसी! रात-भर मैं उनके घर में रुकी, सुबह ट्रेन पकड़कर मुंबई आ गई। लौटते समय मन कुछ हल्का हो गया था। अब सुल्लू मौसी ही आई को समझा पाएंगी!

***