आसपास से गुजरते हुए
(12)
दरख्तों के आंचल
मैं दिल्ली आने से पहले साल-भर चेन्नई में थी। मैंने जैसे ही कंप्यूटर का कोर्स पूरा किया, मुझे मुंबई में अच्छी नौकरी मिल गई। जब उन्होंने मेरे सामने चेन्नई जाने की पेशकश की, तो मैंने स्वीकार कर लिया। सुरेश भैया नाराज हुए कि कोई जरूरत नहीं है जाने की। चेन्नई में तुम किसी को नहीं जानती, कहां रहोगी? कैसे रहोगी?
पर मैंने जिद पकड़ ली कि मैं जाऊंगी। जिन्दगी के उस मुकाम पर मैं अकेली रहना चाहती थी। आई, अप्पा, भैया-सबसे दूर, अपने आप से भी दूर।
चेन्नई में मेरा दफ्तर अडयार में था। नुंगमबक्कम में हम तीन लड़कियां-रोजी, लक्ष्मी और मैं बतौर पेइंग गेस्ट रहती थीं। मकान मालिक वरदाजन हम तीनों पर बराबर लाइन मारता था। चालीसेक साल का वरदाजन तमिल फिल्मों में सहायक निर्देशक था। लक्ष्मी और रोजी तो उसके साथ जाकर तमिल फिल्मों की शूटिंग भी देख आई थीं।
खुशबू उन सबकी प्रिय अभिनेत्री थी। मुझे तमिल कम समझ में आती थी, टीवी पर रजनीकांत की फिल्म आती, तो लक्ष्मी टीवी के सामने से हटने का नाम ही नहीं लेती। मुझे खबर सुनने के लिए उनसे मिन्नतें करनी पड़ती। रोजी कन्नड़ भाषी थी, लेकिन चेन्नई में पली-बढ़ी होने की वजह से ठेठ तमिल बोलती थी। लक्ष्मी पालक्काड अय्यर थी, उसकी मलयालम मिश्रित तमिल मुझे काफी कुछ समझ आ जाती थी।
मैं और रोजी पहले वर्किंग वूमन हॉस्टल में रहते थे। मेरिना बीच के सामने बना कामकाजी महिलाओं का हॉस्टल बाहर से जितना खूबसूरत दिखता था, अंदर से वहां उतना ही अराजक माहौल था। कभी-कभी दो दिन तक पानी-बिजली नहीं होती। खाने में कंकड भरे चावल और तेज मिर्चवाला सांबार होता। बार्डन मिसेज ब्रिगेंजा सख्त थीं।
हॉस्टल में कुछ गलत मिस्म की लड़कियां भी थी, जिनकी वजह से हम लोग भी जब-तब मुसीबत का शिकार बन जाते।
एकबारगी तो हॉस्टल से निकलते ही एक हरी मारुति मेरे पास आकर रुकी। अंदर झक सफेद धोती में गॉगल्स लगाए हीरो टाइप के आदमी ने तमिल में मुझसे पूछा,‘एन्ना अम्मा? उरु रात्रि की एवलो पणम वेणम?’ मैं सिर से पांव तक कांप गई। भाषा पूरी तरह समझ ना आने पर भी इतना तो समझ गई कि वह मेरी एक रात की कीमत पूछ रहा है।
मैं ‘यू बास्टर्ड, रास्कल’ चिल्लाती हुई वहां से दौड़ पड़ी। इसके बाद मैंने घर ढूंढना शुरू किया। अकेले रहना महंगा पड़ता। रोजी हॉस्टल में मेरी रूम मेट थी। वह भी मेरे साथ रहने को तैयार हो गई।
दौड़-भाग के बाद हमें नुगमबक्कम में रहने की जगह मिल गई। वरदराजन सुबह हमें चाय, नाश्ता और रात को खाना देता। इसके तगड़े पैसे लेता। फोन करने के चार रुपए और आनेवाले फोन के दो रुपए।
लक्ष्मी एक उभरती हुई गायिका थी। वरदराजन ने ही उसे हम दोनों के साथ रहने को कहा। वह काफी संजीदा लड़की थी, इसलिए मुझे भी आपत्ति नहीं हुई। इस शहर में बस एक दिक्कत थी-भाषा की! मैं हर शनिवार रोजी या लक्ष्मी के साथ मेरिना बीच चली जाती। मुंबई की अपेक्षा यहां का समुद्र तट शांत, साफ तथा उज्ज्वल था। मैं घंटों सागर किनारे बैठी रहती। वहां तेज मिर्च की भजिया और भुने चलों की सोंधी खुशबू हवा में तैरती रहती। शंख, सीप की ना जाने कितनी वस्तुएं मेरिना बीच पर बिकती थीं। शाम होते ही मध्यवर्गीय तमिल परिवारों से पट जाता मेरिना बीच। उनका सादा रहन-सहन मुझे लुभा जाता। रंगाचारी की छींट की सूती साड़ी, सफेद और केसरिया फूलों का महकता गजरा, माथे पर लाल बिंदी, आडम्बरहीन परिधाम में सजी स्त्रियां नि:शंक देर रात तक सागर तट पर घूमतीं।
रोजी ज्यादातर समय मेरे साथ बिताती। फिर जल्दी ही उसकी जिन्दगी में वासुदेवन आ गया। लक्ष्मी तो शुरू से ही हम दोनों से थोड़ा अलग-थलग रहती थी। रोजी खाना अच्छा बनाती थी। हर इतवार को वासुदेवन भी लंच पर आ जाता। उन दोनों के साथ मैं महाबलिपुरम, गोल्डन बीच तथ पांडिचेरी भी हो आई। चेन्नई की आबोहवा काफी कुछ मुंबई से मिलती-जुलती थी। उसी तरह दिन में सड़ी गर्मी पड़ती थी, शाम होते ही मौसम जादुई करवट लेकर सुहावना हो जाता। बस, हमें एक दिक्कत थी-पानी की। नल में पानी दो दिन में एक बार आता। हम बड़ी-बड़ी टंकियों में पानी स्टोर करके रखते। जिस दिन टंकी का पानी खत्म हो जाता, वरदराजन की अस्सी साल की बूढ़ी मां हम तीनों का अच्छा-खासा सिर खातीं। बाहर जाते समय हमें रोककर बासी डोसा, पके कटहल की मिठाई या गुड़ में पका केला खाने को कहतीं। उनसे मना करते नहीं बनता था। हम तीनों उनकी नजर बचाकर सरपट दरवाजे से बाहर भागतीं।
वरदराजन की अम्मा अकसर हमारे कमरे में भी आ जातीं। हमारी पोशाक, रहन-सहन पर ताने कसतीं, तमिल में गालियां देतीं। रोजी का बॉय फ्रेंड वासुदेवन उन्हें फूटी आंख नहीं भाता था। वासुदेवन के आते ही वे खुद भी हमारे कमरे में आ जातीं। मुझे शक था कि फिल्मों में गाने का मौका हासिल करने के लिए लक्ष्मी वरदराजन की कई मांगों को पूरा कर रही थी। हालांकि जब मैं और रोजी वरदराजन को खरी-खोटी सुनाते, वह भी हमारे साथ शामिल हो जाती थीं।
हमारे घर के सामनेवाले घर में दो बच्चे रहते थे-वीनू और मीनू। नटखट खरगोश-से वे बच्चे शाम को हमारे घर आ जाते। उनसे बात करने, उनको कहानियां सुनाने में मुझे बड़ा मजा आता।
विद्या दीदी बहुत चाहती थी बच्चा, पर उसके हुआ नहीं। उसकी शादी को छह साल हो चुके थे। एक बार डॉक्टर को दिखाने मुंबई भी आई थी। वीनू और मीनू को देख मुझे विद्या दीदी की बहुत याद आती, कितने पसंद हैं उसे बच्चे! वह गोद क्यों नहीं ले लेती?
महीने-भर बाद पता चला कि वीनू और मीनू की मां स्वर्णा को ब्रेस्ट कैंसर है, वह भी अंतिम स्टेज! मेरा मन सुन्न हो उठा। बच्चे डरे-सहमे से रहते। कीमियोथैरेपी की वजह से स्वर्णा के बाल उड़ने लगे, चेहरा काला पड़ने लगा। वीनू तो मां के पास जाने से ही डरने लगा, दौड़कर मेरे पास आ जाता। कई बार तो हमारे घर पर ही सो जाता। स्वर्णा की देखभाल करनेवाला कोई नहीं था। प्रभु से उसने प्रेमविवाह किया था, दोनों परिवारों की रजामंदी नहीं थी। मैं और रोजी कई बार स्वर्णा के पास अस्पताल जाते। कैंसर वार्ड में मरीजों देखकर मुझमें जीने का उत्साह ही नहीं रहा। मरने से ठीक एक दिन पहले स्वर्णा ने मेरा हाथ पकड़कर कहा, ‘जब लोगों को पता चलेगा कि मुझे ब्रेस्ट कैंसर था, तो मेरी बेटी को कौन ब्याहेगा?’
मैं अंदर तक कांप गई। मैंने स्वर्णा के कमजोर हाथों को सहलाया, मेरे सहलाने-भर से उसकी हथेलियों पर निशान पड़ गए।
मैं कहना चाहती थी कि ‘घबराओ मत, तुम ठीक हो जाओगी,’ पर कह नहीं पाई। कंठ तक आई रुलाई को रोककर मैं वीनू को बांहों में उठाए अस्पताल के कमरे से बाहर आ गई। अब इन बच्चों का क्या होगा? अगले दिन स्वर्णा के पास जाने की मेरी हिम्मत नहीं हुई। सुबह-सुबह प्रभु वीनू और मीनू को मेरे पास छोड़ गए, ‘स्वर्णा को कल रात से होश नहीं आया है। आप बच्चों को संभाल लेंगी, तो मैं चैन से अस्पताल में रह पाऊंगा।’
मैंने दफ्तर से छुट्टी ले ली। प्रभु अस्पताल चले गए। मैंने दोनों बच्चों के लिए दाल-चावल और आलू की सब्जी बनाई। कहानी सुनाते-सुनाते खाना खिलाकर उन्हें सुलाया ही था कि प्रभु आ गए।
दरवाजे के पास कुर्सी पर ही वे ढह गए। आंखें बंद कर लीं। बंद आंखों से टपकते आंसुओं ने मुझे जतला दिया कि स्वर्णा नहीं रही। मैं बिना कुछ कहे प्रभु के लिए कॉफी बनाकर ले आई। पिछले छह महीनों में पत्नी की जिंदगी और मौत की लड़ाई लड़ते-लड़ते वे पस्त हो चुके थे। प्रभु ने बिना कुछ कहे कॉफी पी, फिर उठते हुए बोले, ‘मैं स्वर्णा को सीधे श्मशान ले जा रहा हूं। यहां लाने का कोई मतलब नहीं है। आप बस बच्चों का ख्याल...’
देर रात प्रभु लौटे। उनके साथ बस इक्का-दुक्का मित्र थे। इतने बड़े हादसे के बाद भी दोनों के घरों से कोई नहीं आया था।
प्रभु दो दिन बाद बच्चों को घर ले गए, लेकिन वे संभाल नहीं पाए। मुझे उन्हें देखकर दया आती थी। रोजी ने तो मुझे चेतावनी दे दी थी, ‘तुम कुछ ज्यादा ही भावुक हो रही हो। उसके बच्चे हैं, उसे संभालने दो। तुम कितने दिन दफ्तर से छुट्टी लोगी? प्रभु तुम्हारे ऊपर निर्भर होने लगे हैं।’
यह सच भी था। प्रभु बच्चों को क्रेश में छोड़ते हुए दफ्तर जाते थे। मैं दफ्तर से जल्दी लौटती थी, बच्चों को क्रेश से लाकर होमवर्क कराती, दूध और नाश्ता बनाकर देती। प्रभु दफ्तर से लौटते समय खाना पैक करवा कर ले आते। बच्चों को बाहर का खाना बिल्कुल अच्छा नहीं लगता था, सो मैं उनके लिए कुछ-न-कुछ बना दिया करती। बच्चे मेरे पास ही सो जाते।
अब लक्ष्मी और रोजी रोज-रोज बच्चों के आने से चिढ़ने लगी थीं। लक्ष्मी झगड़ा करने लगी, ‘अनु, तुम अपने लिए अलग कमरा ले लो। इस कमरे में बच्चे कहां रहेंगे और हम कहां रहेंगे? मुझे तो महीना-भर हो गया अपने पलंग पर सोए। हमेशा ये बच्चे यहां सोए मिलते हैं!’
मैंने कुछ सरल आवाज में कहा, ‘तुम तो इनके बारे में सब जानती हो। फिर कैसे कह रही हो?’
‘तुम इनकी होती कौन हो? बच्चों को संभालने की जिम्मेदारी इनके पिता की है। तुम बीच में पड़ना छोड़ दो, तो वे इंतजाम कर भी लेंगे।’
‘ऐसे कैसे छोड़ दूं?’ मैं भड़क गई, ‘तुम लोगों से मैं बच्चों के लिए कुछ करने को तो नहीं कहती? फिर? ठीक है, आज से वीनू और मीनू तुम्हारे पलंग पर नहीं सोएंगे। अब बोलो?’
लक्ष्मी बुरी तर चिढ़ गई। पता नहीं उसने वरदराजन से जाकर क्या कहा। अगले ही दिन वरदराजन ने मुझे बुलाकर चापलूसी-भरे स्वर में कहा, ‘क्या बात है अनु, बड़ी बिजी रहती हो?’
मुझे पूछने का मन हुआ, ‘तुमसे मतलब?’ लेकिन मैं चुप रही।
मैंने चौंककर उसकी तरफ देखा, मेरी निगाहों से डरकर उसने आवाज बदली, ‘वो तुम उसके बच्चों के साथ क्लोज हो न, तो लगा...’ अचानक उसकी टोन बदल गई, ‘देखो, कमरा मैंने तुम तीन लड़कियों को दिया है, फैमिली को नहीं। मुझे फैमिली का लफड़ा पसंद नहीं। बच्चों-कच्चों का झंझट नहीं होना चाहिए।’
मैंने उसकी तरफ देखकर दृढ़ आवाज में कहा, ‘मिस्टर वरदराजन, आपको गलतफहमी है कि मैं यहां कोई फैमिली पाल रही हूं। प्रभु आपके पड़ोसी हैं, जो काम आपको करना चाहिए, वो मैं कर रही हूं। इसमें आपको कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। किराया समय पर मिल रहा है न?’
मैं भड़कती हुई कमरे में चली आई। उस वक्त मुझे चेन्नई की मोहल्ला संस्कृति का भान नहीं था। अगले दिन अड़ोस-पड़ोस में मुझे और प्रभु को लेकर कानाफूसी शुरू हो गई। पड़ोस की अन्नपूर्णा ने तो मुझसे साफ पूछ लिया कि क्या मैं प्रभु से शादी कर रही हूं? प्रभु जब भी मेरे कमरे में आते, फटाफट अड़ोस-पड़ोस की खिड़किया खुल जातीं।
चिदम्बरम सिर्फ लुंगी में ही दरवाजे के सामने आ खड़ा होता, यहां तक कि वरदराजन की मां भी प्रभु से तमिल में मुझे लेकर छेड़खानी करने लगीं।
मैं बुरी तरह से आहत हो गई। पुणे और मुंबई में ऐसा तो कभी नहीं होता! प्रभु मेरी दशा समझ रहे थे। सात-आठ दिन बाद शाम को वे बच्चों को लेने मेरे पास आए, तो थके से लगे। वीनू को हरारत थी। वह मुझे छोड़कर जाने को तैयार नहीं था।
मैंने हल्के-से कहा, ‘इसे रात को मेरे पास रहने दीजिए, कल बुखार रहा, तो क्रेश मत भेजिए। मैं दफ्तर से छुट्टी ले लूंगी।’
प्रभु ने मेरी तरफ अहसानमंद निगाहें डालीं, ‘अनु, तुम बच्चों के लिए...मेरे लिए जो कर रही हो, उसके लिए कैसे शुक्रिया अदा करूं...?’
मैं मुस्कुराई, ‘इसमें मेरा भी स्वार्थ है। जिन्दगी में पहली बार मुझे बच्चों के साथ इतना करीब से रहने का मौका मिला है। वीनू से मुझे इतना लगाव हो गया है कि किसी दिन मैं इसे आपसे छीनकर भाग जाऊंगी!’
प्रभु धीरे-से बोले, ‘छीनने की क्या जरूरत है? तुम ही रख लो, एक ही को क्यों, दोनों को रख लो!’
मैं हंसी, ‘नहीं, मैं अकेली इतनी बड़ी जिम्मेदारी उठाने को तैयार नहीं हूं।’
‘तो फिर मेरे साथ उठाओगी?’ अचानक उनके मुंह से निकल गया।
मैं हक्की-बक्की रह गई। चेहरा सर्द पड़ने लगा।
प्रभु उठकर मेरे पास आ गए, ‘अनु, मैं मजाक नहीं कर रहा। मैं इसलिए नहीं कह रहा कि बच्चों को मां मिल जाएगी, आई लाइक यू।’
उनकी आवाज कांप रही थी। चेहरा लाल हो गया था। मैं सिर झुकाए खड़ी रही।
‘बोलो अनु, मेरी बात को गलत मत लेना! जो भी हो, बता देना!’ प्रभु ने मेरी गोदी से वीनू को उठा लिया और मीनू का हाथ पकड़कर चले गए।
मैं हतप्रभ-सी उन्हें जाते देखती रही। प्रभु अच्छे आदमी थी, संजीदा थे, उन्हें इस वक्त मेरी जरूरत थी। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि क्या करूं? सुरेश भैया से बात करूं? आई से पूछूं?
रात-भर करवट बदलते गुजरी। सुबह प्रभु या बच्चों से मिले बिना मैं दफ्तर चली गई। उसी दिन दफ्तर में मेरे बॉस ने मुझे बुलाकर कहा, ‘तुम्हें हम प्रमोशन देना चाहते हैं, पर इसके लिए तुम्हें दिल्ली जाना होगा।’
मैंने फौरन ‘हां’ कह दिया।
अगले ही दिन मैं शाम की ट्रेन से अपना बोरिया-बिस्तर समेटकर मुंबई चली गई। दिल्ली जाने से पहले मैं एक बार आई, अप्पा, सुरेश भैया और शर्ली भाभी से मिलना चाहती थी।
चलते समय प्रभु से मैंने बस इतना कहा, ‘इस वक्त मैं शादी के लिए मन नहीं बना पा रही।’ प्रभु ने कुछ नहीं कहा। बस उनकी आंखों में खालीपन था। बच्चों से मिलने की मेरी हिम्मत नहीं हुई। एक बार उन्हें देख लेती, तो जा नहीं पाती।
रोजी मुझे स्टेशन तक छोड़ने आई, ‘क्या अनु, इस तरह अचानक जा रही हो? मेरी शादी में आओगी न?’
मैंने ‘हां’ कहा, पर उसे भी पता था और मुझे भी कि चेन्नई से मेरा नाता बस इतना ही था। वहां से मेरा दाना-पानी उठ गया था। जिस जगह से मैं जाने का मन बना लेती हूं, फिर लौटकर वहां कभी नहीं आती।
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