आसपास से गुजरते हुए - 9 Jayanti Ranganathan द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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आसपास से गुजरते हुए - 9

आसपास से गुजरते हुए

(9)

रूह की प्यास बड़ी लंबी है

बस चल पड़ी। हम दोनों के बीच कोई बात नहीं हुई। खोपोली के पहले मेरी आंख लग गई। बस झटके से रुकी। मेरी आंख खुल गई। घाट आ चुका था। खण्डाला के घाट पर सफर करना मुझे कभी पसंद नहीं था। गोल-गोल घूमती बस में मुझे चक्कर आ जाता था। जी मिचलाने लगता था। मैं हैंडबैग में चूरन की गोली ढूंढने लगी।

‘अभी तक तुम्हें यह दिक्कत है?’ अमरीश ने पूछा।

मैंने ‘हां’ में सिर हिलाया।

‘पुणे जा रही हो?’

मैंने सिर्फ सिर हिला दिया। ‘घर में सब कैसे हैं? तुम्हारे पापा, मां? सुरेश मुंबई में है?’

‘हां, सब लोग ठीक हैं। मैं भी...’

‘हूं!’ अमरीश के चेहरे पर कोमलता आ गई। उसके चेहरे पर यह भाव मुझे बेहद लुभाता था।

‘तुम कहां जा रहे हो? पुणे?’ मैंने पूछा।

‘हां! मैं आजकल वहीं रहता हूं,’ उसने रुककर कहा, ‘मैंने घर ले लिया है।’

‘ओह!’ मुझे ईष्र्या हुई। मेरे बिना भी सुखी है अमरीश!

‘बहुत बड़ा नहीं है, दो कमरे का फ्लैट है।’

‘कब लिया?’

‘साल-भर पहले। मुंबई से दिल भर गया था। पुणे में ही नौकरी भी मिल गई, बस महीने में एकाध बार मुंबई जाना होता है।’

‘हूं!’

‘तुम अपने बारे में बताओ। तुम क्या कर रही हो? नौकरी?’

‘नहीं। कंप्यूटर्स। एडवान्स कोर्स।’

‘हूं। बीच में सुना था तुम कांदिवली में किसी कंपनी में काम कर रही हो?’

‘मेरी खबर रखते हो तुम?’

‘हां, कोशिश करता हूं,’ उसने रुककर पूछा, ‘तुम परेशान लग रही हो। क्या बात है?’

एक जमाना था जब अमरीश से मैं अपने दिल की हर बात कह देती थी। मैंने महसूस किया कि मैं उसे सब कुछ बताना चाहती हूं। मैं उसे अलावा और किसी को अपने घर, दिल की बात नहीं बता सकती। मैंने धीरे-धीरे उसे सब कहना शुरू किया, सुरेश भैया और शर्ली की शादी, मेरी नौकरी, मेरी शादी की बात, यशवन्त, साहिल, अप्पा का नया रूप, आई का पागलपन!

अमरीश सुनता रहा, पहले की तरह शांति से। उसने मेरे सिर पर भी हाथ फेरा, बालों को छुआ, उंगलियों को कसकर पकड़ा। पुणे पहुंचने तक मैं उसे अपने बारे में सब कुछ बता चुकी थी। आई को लेकर मेरी चिंता, अप्पा की बढ़ती जिद, सब कुछ।

जब हम दोनों पुणे बसस्टैंण्ड पर उतरे, रात के साढ़े ग्यारह बज चुके थे। जमकर बारिश हो रही थी। मैं अपने साथ छाता लेकर नहीं आई थी। स्टैंड पर एक भी ऑटो या टैक्सी नहीं थी।

‘कैसे जाओगी? घर से कोई आ रहा है तुम्हें लेने?’ अमरीश ने पूछा।

मुझे हंसी आ गई। कहने का मन हुआ, जब मैं तेरह साल की थी, तब कोई लेने नहीं आया, तो अब क्या आएगा? मैंने धीरे-से कहा, ‘घर में किसी को पता नहीं कि मैं आ रही हूं।’

‘तो तुम मेरे घर चलो। बारिश रुक जाए, तो मैं तुम्हें छोड़ आऊंगा।’ उसने सपाट स्वर में कहा।

पता नहीं क्यों मैंने ‘ना’ नहीं कहा। जिस हिम्मत से वह मुझे अपने घर बुला रहा था, मैं देखना चाहती थी कि पत्नी के रहते बुला रहा है या अकेले।

‘घर में कौन-कौन हैं?’

‘कौन-कौन क्या? सब हैं!’ वह झल्लाया, ‘चल रही हो या नहीं?’

मैं उसके साथ चल पड़ी, भीगती हुई। आधे रास्ते बाद हमें ऑटो मिला, दोगुना किराया लेकर ऑटोवाले ने हमें अमरीश के घर छोड़ा। बिल्डिंग के पास आते ही अमरीश चौकन्ना हो गया, ‘मैं दूसरे माले पर रहता हूं। पहले मैं जाकर दरवाजा खोल दूं, तुम बाद में आ जाना।’

ऑटो से उतरते ही वह लपककर आगे चला गया। यह उसकी पुरानी आदत थी। अपने साथ मुझे देखा जाना उसे गवारा नहीं था। मैं पीछे-पीछे चलने लगी। अमरीश के घर पर कोई नहीं था। मैं दरवाजे के पास खड़ी हो गई, ‘कहां गए हैं सब?’

अमरीश ने जल्दी से कहा, ‘तुम अंदर आकर जो पूछना है पूछो?’

मेरे अंदर आते ही उसने दरवाजा बंद कर दिया। मैं बुरी तरह भीग गई थी।

‘तुम किसके कपड़े पहनोगी? मेरे या सपना के!’

‘कहां है सपना?’ मैंने तीखे स्वर में पूछा।

‘माइके गई है।’

‘किसलिए? प्रेग्नेंट है क्या?’

मेरी आवाज छुरी से ज्यादा तेज थी। अमरीश ने मेरी तरफ देखा, फिर अंदरवाले कमरे में जाकर अलमारी से कपड़े निकालने लगा।

‘तुमने मेरे सवाल का जवाब नहीं दिया?’ मैं उसके पीछे-पीछे कमरे में चली आई।

‘हां।’

मैंने लम्बी सांस ली। अमरीश ने अपना कुर्ता और सपना का पेटीकोट मेरी तरफ उछालते हुए कहा, ‘कपड़े बदल लो!’

मैंने पेटीकोट वापस उसके ऊपर फेंकते हुए कहा, ‘यह मैं नहीं पहनूंगी। वैसे भी मुझे घर जाना है।’

‘इतनी बारिश में? पता है कितने बज रहे हैं? कल सुबह चली जाना।’

अमरीश ने अलमारी से अपना पाजामा निकालकर मुझे दे दिया। मैं चुपचाप बाथरूम में जाकर कपड़े बदल आई। अमरीकश कपड़े बदलकर रसोई में शाने का इंतजाम कर रहा था। ठीक-ठाक घर था उसका। बाहर के कमरे में गलीचा, दीवान, सेटी, रॉट आयरन का बुक शेल्फ और बेंत की कुर्सियां थीं। बेडरूम में डबल बेड, ड्रेसिंग टेबल, अलमारी ( जरूर सपना दहेज में लेकर आई होगी!) थीं। रसोई मेें प्लास्टिक के बड़े-बड़े जारों में करीने से दाल-चावल रखे थे। छोटे डिब्बों में मसाले। फ्रिज पुराना था।

‘आमलेट खाओगी?’ अमरीश ने मुझे किचन में देखकर पूछा।

‘कुछ भी खिला दो। भूख लगी है।’ मैं उचकर रसोई के प्लेटफॉर्म पर बैठ गई। अमरीश ने मेरी पीठ पर चपत लगाते हुए कहा, ‘अंदर से मोढ़ा लाकर बैठो।’

मैं उठकर मोढ़ा ले आई। आमलेट, सिंकी ब्रेड और गर्म कॉफी का बड़ा मग लेकर हम दोनों बेडरूम में आ गए।

बिस्तर पर अखबार बिछाकर पुराने दिनों की तरह हमने खाया। मुझे लग ही नहीं रहा था कि उससे मैं अर्से बाद मिल रही हूं और अब वह किसी भी सूरत में मेरा नहीं है।

खाना खने के बाद मैं मुंह धोकर, बाल बनाकर अमरीकश के पास आई, ‘मेरे सोने का इंतजाम कहां करोगे?’

उसने अजीब नजरों से मेरी तरफ देखा, ‘तुम यहां सो जाओ, बेड पर, मैं बाहर सेटी पर सो जाऊंगा।’

मैंने कुछ नहीं कहा। यह भी नहीं कि बिस्तर काफी बड़ा है, तुम दूसरी तरफ सो जाना। हालांकि मैं यही कहना चाहती थी।

मैं बिस्तर पर लेट गई। थकान हो रही थी। अमरीश वहां से उठा नहीं। मैंने भी कुछ नहीं कहा। उसने बत्ती बुझा दी। अंधेरे में उसका हाथ मेरे सिर, गाल, ओंठों से होता हुआ नीचे आया। मैं सिहर गई। पुराना, परिचित स्पर्श मुझे अंदर तक झकझोर गया।

अचानक मैं उठ बैठी, ‘अमरीश, तुम यहां से जाओ।’

अमरीश का चेहरा मेरे ऊपर झुक गया, ‘क्या वाकई? तुम नहीं चाहतीं?’

‘नहीं!’ मैंने दृढ़ स्वर में कहा।

वह अपने होंठ मेरे करीब ले आया।

‘बस और नहीं!’ मैंने उसे धक्का दिया।

‘क्यों?’ तुम भी वही हो, मैं भी वहीं हूं!

नहीं! मैं वहीं हूं, पर तुम वह नहीं हो।

अमरीश के हाथ अब अठखेलियां करने लगे। एक झटके में उसने मुझे अपने पास खींचकर गर्दन पर चूमना शुरू किया।

‘अमरीश, छोड़ दो, प्लीज! मुझे मत बकहाओ।’

‘पागल हो तुम! जो हो रहा है, होने दो।’

धीरे-से उसने मेरे कुर्ते के सामने के बटन खोले। उसका दायां हाथ अंदर सरकने लगा। मैंने अंदर कुछ नहीं पहना था। मेरा पूरा शरीर गर्म हो उठा। होंठ थरथराने लगे। मैं अवश होती जा रही थी। मैंने अपना सिर तकिए पर रख लिया। मेरे लेटते ही अमरीश सशरीर मुझ पर झुक गया। मेरे पूरे बदन में बिजली की लहर-सी दौड़ गई। आंखें मुंदने लगीं। अमरीश ने मेरा कुर्ता खोलकर बिस्तर पर फेंका और धीरे-से मेरे कान के पास आकर फुसफुसाया, ‘तैयार हो?’

मैं एक झटके से उठकर बैठ गई।

‘क्या हुआ? तुम उठ क्यों गई?’

मैं बिना बोले लपककर खड़ी हुई। बिस्तर पर पड़ा अपना कुर्ता उठाया और बाथरूम में चली गई।

चेहरे पर ठंडे पानी के छींटे मारे। पर एक उफान-सा था अंदर, जो कम नहीं हो रहा था। दस मिनट बाद अमरीश बाथरूम का दरवाजा खटखटाने लगा, ‘अनु, सो गईं क्या अंदर?’

मैंने दरवाजा खोल दिया। मैं पूरे नियंत्रण में थी। मैंने धीरे-से कहा, ‘तुम यहां सो जाओ, मैं बाहर सेटी पर सो जाऊंगी।’

उसने मुझे विचित्र निगाहों से देखा, ‘नहीं, मैं ही जाता हूं बाहर!’

उसने बिस्तर से एक तकिया और चादर उठाया और मेरा माथा चूमकर बाहर निकल गया।

मैं बिस्तर पर लेट गई। अब तक बदल कांप रहा था। असहज महसूस कर रही थी। लग रहा था, जैसे कुएं के पास आकर भी प्यासी रह गई। ख्याल आया कि अंदर से दरवाजा बंद कर लूं, पर नहीं किया। रात को रह-रहकर नींद खुली कि कहीं अमरीश कमरे में आ तो नहीं गया, पर वह नहीं आया।

सुबह काफी देर से मेरी आंख खुली। अमरीश ने जोर देकर कहा कि मैं नाश्ता करके जाऊं। वह पास के होटल से मसाला दोशै ले आया। मैंने तब तक अपने रात के भीगे कपड़े प्रेस कर लिए थे और तैयार हो गई। नाश्ता करते समय हमने ज्यादा बात नहीं की। हम दोनों के बीच अजनबियत परसने लगी। मैंने उससे बेहद फार्मल से सवाल किए, मसलन सपना की ड्यू डेट कब है, उसे किसी किस्म की समस्या तो नहीं है, वह पुणे कब तक आएगी वगैरह। अमरीश ने धैर्य से मेरे सवालों के जवाब दिए। मैं जाने को हुई, तो उसने पूछा, ‘मैं तुम्हेें छोड़ आऊं?’

मैंने कहा, ‘नहीं, मुझे अब हर सफर अकेले ही तय करना होगा।’

मुझे लगा कि मेरी बात उसे कहीं आहत कर गई है। उसने सिर झुका लिया। मैं दरवाजा खोलकर बाहर निकल आई। इतने कायर और दब्बू व्यक्ति से मैंने कैसे प्यार किया? लेकिन किया तो था!

***