आसपास से गुजरते हुए
(15)
दर्द से मेरा दामन भर दे
लगभग एक बजे शर्ली ने मुझे झकझोरकर उठाया, ‘खाना नहीं खाना?’
मैंने ऊंघते हुए कहा, ‘ना! तुम खा लो, मुझे भूख नहीं है।’
ट्रेन के हिचकोले क्लोरोफार्म का काम कर रहे थे या पिछले दिनों की थकान कि आंख खुल ही नहीं रही थी।
तीनेक बजे मैं उठी। बाथरूम जाकर चेहरा धो आई। शर्ली पहले की अपेक्षा सामान्य लग रही थी। उसने मुझे देखकर शांत स्वर में पूछा, ‘चाय पिओगी?’
मैंने हां में सिर हिलाया।
उसने फ्लास्क से चाय निकालकर मुझे पकड़ा दिया।
वह उन दोनों महिलाओं से काफी घुल-मिल गई थी। शर्ली रिलेक्स्ड लग रही थी। मैंने चैन की सांस ली।
बुजुर्ग महिला अपने भीमकाय बैग से लगातार खाने की चीजें निकालती जा रही थीं। उड़द दाल की पिट्ठी वाली कचौड़ी, खस्ता बारीक सेव, पेठा। उसने मेरी ओर कचौड़ी बढ़ाते हुए कहा, ‘तू भी खा ले कुछ।’ मैंने नहीं में सिर हिलाया। ‘अरे, डर मत बाबा, घर के बने हैं! जी चंगा नई ए?’
मेरा चेहरा वाकई में उतरा हुआ था। बुजुर्ग महिला ने फौरन मेरा हाथ पकड़ा और नाड़ी जांचते हुए कहा, ‘अरे पुत्तर तेनू तो बुखार है!’
‘नहीं, कुछ नहीं, बस हरारत...’ मैंने तुरंत कहा।
‘क्या हुआ अनु, तबीयत ठीक नहीं है?’ शर्ली चिंतित हो उठी।
‘बस, थोड़ा जुकाम-सा हो गया है। ठीक हो जाऊंगी।’
‘कोचीन पहुंचने में पूरे चालीस घंटे बाकी हैं। न हो तो कोई दवाई ले ले। क्रोसिन, कॉम्बीफ्लेम...?’ शर्ली अपने हैंडबैग में दवाई ढूंढने लगी। उसने कॉबीफ्लेम की एक गोली मुझे पकड़ाकर कहा, ‘दवाई खा लो।’
मैंने चुपचाप गोली उसके हाथ से ले ली, बहुत पहले किसी महिला पत्रिका में पढ़ा टिप्स याद आ गया कि प्रेग्नेंसी के दौरान गोलियां नहीं खानी चाहिए। शर्ली ध्यान से मेरी तरफ देख रही थी। मैंने पानी की बोतल उठाई और फटाफट गोली निगल गई। अंदर तक दर्द की लहर दौड़ गई। मैं उसे जीने नहीं देना चाहती, न मरने देना। बहुत देर तक मैं पछताती रही कि मैंने गोली क्यों खा ली। भोपाल स्टेशन पास आने लगा, तो शर्ली उठकर मुंह धाने चली गई। उसने बात बनाए। करीने से काजल और लिपस्टिक लगाई। सुरेश भैया ट्रेन में चढ़ने के बाद टी.सी. को दे-दिलाकर अपनी सीट हमारे आस-पास करनेवाले थे।
उन दोनों महिलाओं को नासिक तक जाना था और आई कल्याण स्टेशन पर इसी गाड़ी में चढ़नेवाली थीं। सुरेश भैया ने सब कुछ तय किया हुआ है, वे नहीं चाहते कि कहीं कुछ गलत हो।
भोपाल से पहले ट्रेन तकरीबन आधे घंटे रुक गई। ट्रेन के सामने भैंस आ गई थी। शर्ली बेचैन हो रही थी, ‘सुरेश स्टेशन पर इंतजार कर रहा होगा। झल्ला रहा होगा। उसे तो गुस्सा आ रहा होगा!’
बुजुर्ग महिला उसे सांत्वना देने लगी, ‘कोई बात नहीं बेटे, इंतजार से ही तो प्यार बढ़ता है।’
मैंने चेहरा फेर लिया। दिनोदिन शर्ली की बचकानी हरकतें बढ़ती जा रही थीं, पता नहीं सुरेश भैया कैसे बर्दाश्त कर लेते हैं। बुजुर्ग महिला को शर्ली का यूं पति के लिए चिंतित होना अच्छा लग रहा था। पूरे आधे घंटे शर्ली बड़बड़ाती रही, स्टेशन मास्टर, गार्ड, इंजन ड्राइवर को कोसती रही। मुझे लगा कि कब भोपाल आए और मुझे उसकी बकबक से निजात मिले।
सुरेश भैया अपेक्षाकृत शांत थे। मैं उनसे डेढ़-दो साल बाद मिल रही थी। उन्होंने ट्रेन में चढ़ते के साथ सबसे पहले मुझसे सवाल किया, ‘कैसी है? कितनी दुबली हो गई है?’
मैं फीकी-सी मुस्कुराई, ‘रोज घंटा-भर वॉक करती हूं ना।’
‘हूं।’ भैया अपना सामान ऊपर की बर्थ पर रखकर पांव पसारकर बैठ गए। मैंने ध्यान से देखा, उनके चेहरे पर तनाव की रेखाएं थीं।
सामने दो अनजान महिलाओं को देखकर उन्होंने बात नहीं छेड़ी। बुजुर्ग महिला भैया के कान खाने लगी, ‘तुम्हारी बीवी बड़ी परेशान हो रही थी, कब से इंतजार कर रही थी तुम्हारा?’ भैया ने कुछ व्यंग्य से कहा, ‘परेशान होने वाली बात क्या थी? जब ट्रेन स्टेशन पर पहुंचती तभी तो मैं चढ़ता।’ शर्ली ने मनानेवाले अंदाज में कहा, ‘मुझे लगा, तुम नाराज हो रहे होगे।’
‘नाराज? अहमक हो तुम? तुम्हारी वजह से लेट हुई क्या ट्रेन?’ भैया तेश में बोले।
आजकल बात-बात पर दोनों इसी तरह लड़ने लगे थे।
शली ने गुस्से से कहा, ‘तुम्हारे लिए कुछ अच्छा सोचना ही गलत है। मैं अगर तुम्हारे लिए परेशान होती हूं, तब भी तुम्हें बुरा लगता है, ना होऊं तब भी?’
‘तुम कायदे की बात क्यों नहीं करतीं?’ भैया ने झिड़क दिया।
शर्ली मुंह फुलाकर बैठ गई। सुरेश भैया ने मुझसे एक-दो सवाल पूछे, मैंने ‘हां, हूं’ में जवाब दिया। रात को ट्रेन में ही डिनर मंगवा लिया। मेरा मन नहीं था, पर मैंने एक रोटी खा ली। सुबह से कुछ खाया नहीं था। ऐसी हालत में भूखे रहना भी तो ठीक नहीं।
सुबह देर तक मैं सोती रही। भैया को अगले कम्पार्टमेंट में जगह मिल गई। रात को वे सोने वहां चले गए। सुबह नासिक में दोनों महिलाएं उतर गई तो भैया हमारे पास आ गए।
नासिक से युवा दम्पति ट्रेन में चढ़ा। भैया मुझसे बात करना चाहते थे, पर चुप रहे।
तीन-चार घंटे हम तीनों चुप रहे। शर्ली उपन्यास पढ़ती रही, सुरेश भैया अखबार और मैं खिड़की से बाहर देखती रही। कल्याण जंक्शन पर ट्रेन रुकी। भैया गाड़ी से उतरकर आई को लेने चले गए। दसेक मिनट बाद बदहवास-से लौटे, ‘आई कहीं नहीं हैं। मैंने पूरा प्लेटफॉर्म छान मारा।’
कहां चली गईं आई।
‘उन्होंने कहा था कि वे आएंगी?’ मैंने व्यग्रता से पूछा।
‘हां भई, कल दोपहर को मेरी उनसे बात हुई है। मैंने उनसे कहा था कि वे यही ट्रेन लें। अकेली तो वो कोचीन आएंगी नहीं।’
‘भैया, मुझे लग रहा है कि आई....?’
‘क्या?’ शर्ली घबरा गई, ‘कुछ कर लिया होगा?’
‘ना, आई इतनी कमजोर नहीं हैं।’ मैंने दृढ़ स्वर में कहा, ‘पर हो सकता है, उन्होंने ना आने का मन बना लिया हो।’
‘इम्पॉसिबल।’ भैया दृढ़ स्वर में बोले, ‘आई ने कहा था कि वे जरूर आएंगी।’
‘तो अब?’ मैंने आहत स्वर में पूछा।
‘उनकी राह देखते हैं। ट्रेन जाने में दस मिनट बाकी हैं। हो सकता है आ जाएं।’
हम तीनों की नजर आने-जाने वाले मुसाफिरों पर टिकी थी।
ट्रेन जाने में दो-तीन मिनट रह गए, तो मैं अचानक उठ गई, बर्थ से अपना किट बैग निकाला।
‘क्या कर रही हो अनु?’ भैया चौंक गए।
‘मेरा अप्पा के पास जाने से ज्यादा जरूरी है आई से मिलना!’
‘पागल हो गई है क्या?’ भैया चिल्ला पड़े।
‘मुझे उतरने दो। मैं कल्याण से पुणे जानेवाली ट्रेन ले लूंगी।’
‘आई जरूर आएंगी। हो सकता है, दूसरी ट्रेन से आएं। यहां उतरने का मतलब नहीं है। बैठ जा।’ भैया ने मेरे हाथ से किट बैग छीनकर बर्थ पर रख दिया।
ट्रेन चलने लगी, आई नहीं आई।
मैं छटपटाने लगी, मैं आई से मिले बिना कहां जा रही हूं। सुरेश भैया भी आई के ना आने से परेशान नजर आ रहे थे, ‘मेरा मोबाइल भी इस रेंज पर नहीं चल रहा। आई से बात हो जाती तो...’
शाम तक हम तीनों परेशान से बैठे रहे। मुझसे खाना नहीं खाया गया। रात को तेज बारिश होने लगी। मुझे ठंड लगने लगी। मैं शाल ओढ़कर चाय पीकर चुपचाप बैठी रही। पूरा शरीर धीरे-धीरे गर्म होता जा रहा था। रात सुरेश भैया ने जबर्दस्ती मुझे इडली और चटनी खिला दी। इसके बाद मुझे भयंकर रूप से उल्टियां होने लगीं। इतनी बीमार और बेबस तो मैं कभी नहीं थी!
रात-भर बुखार के आलम में करवटे बदलती रही। कमजोरी की वजह से दिमाग सुन्न पड़ता जा रहा था। नींद के झोंकों के बीच मैंने रह-रहकर मीनू-वीनू को याद किया, प्रभु ने कातर चेहरा मुझ पर झुकाते हुए पूछा, ‘अनु, तुम हमें छोड़कर क्यों चली गईं?’
प्रभु अमरीश की तरह क्यों लगने लगा है? अमरीश क्यों कह रहा है कि उसे सब मालूम है कि मेरे साथ क्या हुआ है। मैं चिल्ला-चिल्लाकर उससे कहना चाहती हूं कि अब मेरा उससे कोई मतलब नहीं है। मैं चिहुंककर उठ बैठी। सपने मेरा पीछा क्यों नहीं छोड़ते? ट्रेन अपनी गति से जा रही थी! कम्पार्टमेंट में अंधेरा था। मेरे अलावा सब चैन की नींद सो रहे थे। मैंने आंखें बंद करके सोने की कोशिश की, पर मुझे नींद आई ही नहीं।
ट्रेन दो घंटे लेट थी। मेरा बुखार उतरा ही नहीं। तीन बजे के लगभग जब ट्रेन कोचीन स्टेशन पहुंची, मेरा अंजर-पंजर ढीला पड़ चुका था। नस-नस में दर्द था, पोर-पोर में उदासी थी।
स्टेशन पर अप्पा, अप्पू और अप्पा की बड़ी बहन इन्दू कोचमच्ची का बेटा माधवन हमें लेने आए थे। अप्पा बड़े खुश नजर आ रहे थे। सफेद धोती, बुशर्ट और विभूति का तिलक लगाए अप्पा जब आगे आए, तो क्षण-भर उन्हें मैंने पहचाना नहीं। उम्र जैसे उनके पास आते-आते रुक गई थी।
‘वैलकम होम माई फैमिली!’ वे बांहें पसारकर बोले।
सुरेश भैया ने अप्पा से हाथ मिलाया, शर्ली ने उन्हें नमस्ते किया, मैं सबसे पीछे थी। अप्पा ने जोर से कहा, ‘येंदा मोले, अप्पा के पास नहीं आएगी?’
मैंने धीरे-से कदम बढ़ाया, मेरा सूखा चेहरा देखकर अप्पा घबरा गए, ‘क्या हुआ, तबीयत ठीक नहीं है?’
‘हूं! मैंने कुछ नहीं कहा।’
‘घर चलिए, इसकी तबीयत के बारे में वहीं बात करेंगे।’ भैया ने पहली बार मेरे बारे में व्यंग्य से कहा।
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