आसपास से गुजरते हुए - 17 Jayanti Ranganathan द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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आसपास से गुजरते हुए - 17

आसपास से गुजरते हुए

(17)

मेरी दुनिया, मेरे अपने

मैं भुनभुनाती हुई कमरे में आ गई। यहां रहने का अब कोई मतलब नहीं। भैया को जो क्रांति करनी हो करें, मुझे नहीं करनी। कमरे में आकर मैं सामान बांधने लगी, मूंज पर से सुबह सुखाए कपड़े उतारे, ड्रेसिंग टेबल पर पड़ी अपनी चीजें समेटने लगी। विद्या दीदी कमरे में आई, ‘क्या कर रही है अनु?’

मैंने उसकी तरफ देखे बिना कहा, ‘मैं जा रही हूं!’

‘कहां?’

मैंने रुककर कहा, ‘पुणे!’

विद्या दीदी घबरा गई, ‘कब? अभी तो रात होने लगी है।’

‘कल सवेरे जाऊंगी। अगर ट्रेन नहीं मिलेगी, तो प्लेन से मुंबई चली जाऊंगी। मुझे यहां रहकर तमाशा नहीं देखना।’

विद्या दीदी कुछ देर चुप रही, फिर धीरे-से कहा, ‘हां, अप्पा सही तो नहीं कर रहे। पर अनु, वे चाहे जो करें, इससे हमारी जिंदगी पर तो असर नहीं पड़ेगा न।’

‘बहुत स्वार्थी हो तुम। आई? उनका क्या होगा? तुम्हें पता है, अप्पा आई को तलाक देने का पूरा प्लान बना चुके हैं। आई पेपर पर साइन नहीं कर रहीं...’

‘अब उनके साथ रहने का भी तो कोई मतलब नहीं है!’

मैंने बिना कुछ कहे किटबैग की जिप लगाई और अपना अधूरा खत्म किया उपन्यास लेकर दीवान पर आ गई। विद्या दीदी और मेरे बीच वाकई अब कुछ नहीं बचा।

विद्या दीदी मेरे पास आ गई, अपने हाथों से मेरे बालों को सहलाती हुई बोलीं, ‘तू कितनी बदल गई है! बातचीत में, स्टाइल में, पहले कितनी सीधी-सादी लगती थी!’

अचानक उन्होंने मेरा चेहरा अपनी तरफ करते हुए पूछा, ‘तुझे शादी नहीं करनी? मुझे पता है, कोई तेरे लिए लड़का नहीं ढूंढ रहा है! मैं ढूंढूं? दुबई चलेगी?’

मैं मुस्कुराई।

विद्या दीदी भी मुस्कुराई, ‘अच्छा, तू कुछ दिनों के लिए दुबई क्यों नहीं आती? बस, थोड़े ही दिनों में दुबई फेस्टिवल शुरू होने वाला है, पता नहीं, तब तक मैं लौट पाऊंगी या नहीं। इस बार हम मुंबई में दो-तीन महीने रुकनेवाले हैं?’ वे रुककर बोलीं, ‘हम दोनों एक बच्चा गोद लेने की सोच रहे हैं।’

विद्या दीदी की आंखों में वात्सल्य उमड़ आया।

‘यह तो अच्छी बात है, लड़का एडॉप्ट करोगी या लड़की?’ मैंने पूछा।

‘मुकुंदन लड़की चाहते हैं। मैंने तो नाम भी सोच लिया है अरुंधती!’

हम दोनों न जाने कहां खो गए। सालों बाद हम दोनों एक स्तर पर इतनी निकटता से बोल रहे थे।

विद्या दीदी ने बताया कि किस तरह वे मुंबई के लिटिल एंजल अनाथाश्रम से संपर्क कर चुके हैं। वहां छह महीने की दो लड़कियां हैं। उनमें से एक उनकी बेटी होगी।

‘चेची,’ मैंने सालों बाद विद्या को बचपन की तरह पुकारा, ‘एक बेटी के आ जाने से तुम्हारी जिंदगी बदल जाएगी। तुम्हें पता है, वो किसकी बच्चियां हैं?’

विद्या दीदी दार्शनिकता से बोली, ‘नहीं, जरूरत भी क्या है? मां की कोई मजबूरी होगी, तभी तो बच्ची को अनाथालय में दे दिया। मुझे इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता।’

मैंने देखा, उनकी आंखों में एक चमक थी। मैंने धीरे-से उनका हाथ छुआ, ‘चेची, मेरी बात सुनोगी? मुझे तुम्हें कुछ बताना है, मुझे डर लग रहा है। समझ नहीं आ रहा, क्या करूं?’

‘बोल न?’ वह उतावली हो गई।

‘मैं मां बननेवाली हूं!’

विद्या दीदी का चेहरा राख की तरह सफेद हो गया। आंखों की चमक गायब हो गई। आवाज कठोर हो गई, ‘क्या कह रही है तू? पागल हो गई है! शादी कर ली क्या?’

मैंने आवाज को संयमित रखने की कोशिश की, ‘नहीं। बस...’

विद्या दीदी ने मुझे बुरी तरह झकझोर डाला, ‘क्या कर लिया तूने? ऐसा है, तो तू शादी क्यों नहीं कर लेती उससे? कौन-सा महीना चल रहा है? सच-सच बता!’

मैं उठ गई। विद्या दीदी ने पीछे से मेरा हाथ पकड़कर बिठा लिया, ‘बताती क्यों नहीं? मजाक कर रही है?’

मैंने उसकी तरफ देखा, ‘हां, मजाक कर रही थी। देखना चाहती थी कि यह सुनकर तुम क्या कहोगी?’

विद्या ने सशंकित होकर मेरी तरफ देखा, ‘सच, तूने तो मुझे डरा ही दिया था। एक पल को मुझे लगा कि तू सच कह रही है। पर...’

मैंने धीरे-से शब्दों को तौलते हुए पूछा, ‘सच होता तो?’

‘जाने दे, हमारे घर की लड़कियां ऐसा कर ही नहीं सकतीं।’ विद्या दीदी ने सहजता से कहा।

मैं चुपचाप तकिया बांहों में भींच कर लेट गई। मैं उससे पूछना चाहती थी, तुम दूसरों का बच्चा गोद लेना चाहती हो, मेरे बच्चे के बारे में सुनना तक नहीं चाहतीं?

मैं कुछ नहीं कह पाई। रात को देर तक नींद नहीं आई, दोपहर को जमकर जो सोई थी। वैसे रात का खाना भी काफी हल्का था, रसम और केले के तने का कूट। अप्पा पता नहीं कहां चले गए थे, रात को खाने पर भी वे घर नहीं आए।

सुबह जल्दी आंख खुल गई। विद्या दीदी कमरे में नहीं थी। मैं हाथ-मुंह धोकर बाहर निकली, चबूतरे पर अप्पा, विद्या दीदी और मुकुंदन बैठे थे। सबके हाथ में गर्म कॉफी का गिलास था। अप्पा काफी तनाव में लग रहे थे। कोचम्मा मेरे लिए भी स्टील के बड़े गिलास में झागदार कॉफी ले आई। मैंने बस एक घूंट भरा था कि सामने से अयप्पा गेस्ट हाउस का नौकर सुरेश भैया का पैगाम लेकर आ गया। भैया ने मुझे और विद्या दीदी को बुलाया था।

अप्पा गरजे, ‘वहां जाने की कोई जरूरत नहीं। कल यहां शादी है। बहुत सारे काम पड़े हैं। तुम दोनों अम्मा की मदद करो।’

‘अप्पा’, विद्या विनीत स्वर में बोली, ‘बस आधे घंटे में आ जाएंगे। मैं तो शर्ली से अभी तक ठीक से मिली भी नहीं हूं। मैं दुबई से उनके लिए थोड़ा-बहुत गिफ्ट लेकर आई हूं, वह भी तो देना है!’

अप्पा ‘जो करना है करो’ कहते हुए उठ गए। कॉफी पीने के बाद मैं विद्या और मुकुंदन गेस्ट हाउस गए। शर्ली रात वाली साड़ी में ही थी। सुरेश भैया ने मुझे देखते ही पूछा, ‘तूने कुछ तय किया या नहीं?’ मैंने दीदी का चेहरा देखा। विद्या ने रोष से कहा, ‘तुम अपना गुस्सा इस पर क्यों निकाल रहे हो?’

‘तो तुम्हें पता नहीं इसने क्या किया है?’ सुरेश की आवाज कठोर थी, ‘तुम तो घर में सबसे बड़ी हो ना चेची, तुम ही बताओ, इसे क्या करना चाहिए?’

विद्या अवाक् मेरा चेहरा देखने लगी। इस तरह सबके सामने मेरे बारे में चर्चा करना अंदर तक मुझे हिला गया। शर्ली मेरे पास आई, ‘अनु, देख हम सब मेरे अपने हैं। जो हो गया, सो हो गया। अब भावुक बनने से कोई हल नहीं निलेगा!’

‘मैं भावुक नहीं बन रही, पर कम-से-कम मुझे तो निर्णय लेने दो! मैं बच्ची नहीं हूं। मुझे पता है मैंने क्या किया...मेरे बारे में तुम सब लोग सोचना छोड़ दो।’ मैं फट पड़ी।

विद्या दीदी को समझने में थोड़ा वक्त लगा। मुकंदन तो अब भी हक्के-बक्के-से हम भाई-बहनों का चेहरा देख रहे थे।

‘कल तू जो मुझे कह रही थी, सच है? ओह! तूने बात इतनी बढ़ाई क्यों? दिल्ली में ही कुछ क्यों नहीं कर लिया?’ विद्या दीदी की आवाज सपाट थी।

‘क्या किया है अनु ने?’ मुकुंदन ने धीरे-से कहा।

सुरेश भैया फट पड़े, ‘वही! अप्पा और आई की खुली छूट का नतीजा! अनु इज प्रेग्नेंट!’

मेरी आंखों में आंसू आ गए। सुरेश भैया की आवाज नीची हुई, मेरे पास बैठकर कहने लगे, ‘तूने मुझे बहुत परेशान किया है अनु! मैं हर कदम पर तेरी मदद को तैयार रहता हूं, तुझे प्रोटेक्ट करता हूं। मैंने सोचा था कि मैं तुझे अच्छी तरह जानता हूं, पर तूने मुझे शॉक दे दिया! क्या तुझे लगता है कि मैं तेरा बुरा चाहता हूं? आज ही तू विद्या दीदी और शर्ली के साथ डॉक्टर के पास जा। हम सबके रहते एबॉर्शन करवा ले। इस वक्त तुझे सबके साथ की जरूरत है।’

मेरी आंखों से लगातार आंसू बह रहे थे। इसलिए नहीं कि सब चाहते थे कि मैं एबॉर्शन करवा लूं, इसलिए कि मेरा सच जगजाहिर हो रहा था। मैंने कभी किसी को अपने इतने पास नहीं आने दिया। आज मौका मिला है, तो सब मेरी कमजोर नस पर वार कर रहे हैं।

‘सुरेश ठीक कह रहा है अनु!’ विद्या दीदी ठंडी आवाज में बोलीं। सुरेश भैया ने जोड़ा, ‘शर्ली पता लगाकर आई है। मैदान के बिल्कुल सामने डॉ. मरिअम्मा का क्लीनिक है। नौ बजे क्लीनिक खुलेगी, तुम तीनों अभी चली जाओ।’

मैंने धीरे-से सिर उठाया। अचानक मुझे अपने ऊपर गुस्सा आने लगा। जब भी मेरा अपने ऊपर से नियंत्रण खोने लगता है, इसी तरह गुस्सा आता है। मैं उठ खड़ी हुई।

सुरेश भैया ने पूछा, ‘कहां जा रही हो?’

‘पुणे!’ मेरी आवाज शांत थी, ‘ग्यारह पचास पर कोच्चि एयरपोर्ट से मुंबई के लिए फ्लाइट है। हो सकता है, टिकट मिल जाए...’

विद्या दीदी गुस्से से बोली, ‘पागल हो गई है तू? हम तुमसे क्या कह रहे हैं, और तुम क्या कर रही हो?’

‘मैं अपनी मां के पास जा रही हूं, इसमें गलत क्या है?’

सब चुप हो गए। विद्या दीदी ने रुककर पूछा, ‘अगर फ्लाइट में जगह नहीं मिली?’

‘तो किसी ट्रेन से निकल जाऊंगी। वैसे भी आजकल भीड़ नहीं होगी। मेरे पास क्रेडिट कार्ड है, कुछ रुपए भी हैं, मैनेज कर लूंगी।’ मैंने बारी-बारी सबकी तरफ देखा, ‘अब मैं जाऊं? नहा-धोकर आधे घंटे में निकलना होगा।’

सुरेश भैया ने धीरे-से कहा, ‘अनु, तू आई के पास जा रही है, अच्छी बात है। पर जल्दबाजी में कोई मूर्खतापूर्ण निर्णय मत लेना! वैसे ही जिंदगी में हजारों दिक्कतें आती हैं, अपनी तरफ से मुसीबत मोल लेना कहां की अक्लमंदी है?’

‘मैं याद रखूंगी।’ मैं दरवाजे की तरफ बढ़ी , तो शर्ली ने लपककर मेरा हाथ पकड़ लिया, ‘तुम ऐसी हालत में अकेली जाओगी?’

‘कोई बात नहीं शर्ली, मैं मैनेज कर लूंगी।’

‘पर तू वहां जाकर करेगी क्या?’ विद्या दीदी ने बौखलाकर पूछा।

‘अभी सोचा नहीं है!’ मैं कमरे से बाहर निकल गई।

अपना सामान बांधकर मैं घर से निकली, तो सड़क के उस पार सुरेश भैया और शर्ली खड़े थे। भैया ने चुपचाप मेरा बैग उठा लिया। नि:शब्द हम तीनों टैक्सी में बैठ गए। एयरपोर्ट पर टैक्सी खड़ी करके भैया फ्लाइट का पता करने चले गए। फ्लाइट में सीट थी, वे मेरे लिए इकोनॉमी क्लास का एक टिकट खरीद लाए।

मैं टैक्सी से नीचे उतरी तो भैया भावुक होकर बोले, ‘मुझे पता है, तू जिद्दी है। पर हमेशा एक बात ध्यान में रखना, पहले मैं तेरा भाई हूं, फिर कुछ और। मैं हमेशा तेरे साथ रहूंगा। मैं तुझे खुश देखना चाहता हूं! अब भटकना छोड़ दे अनु...’

मेरी आंखें भीग गईं। भैया ने टिकट और बैग मेरे हाथ में पकड़ा दिए, ‘मैं भी सोच रहा हूं कि कल ही वापस चला जाऊं। अप्पा के जो दिल में आए, करें। आई को चाहिए तो मैं पुणे में दूसरा घर ले दूंगा।’

मैंने बैग थाम लिया, एयर टिकट हैंडबैग में रख लिया। चलने को हुई, तो अपने आप मुंह से निकल गया, ‘सॉरी भैया! मैं वही करूंगी, जो आप कह रहे हैं, पर इस वक्त में आई के साथ रहना चाहती हूं।’

सुरेश भैया ने मेरे सिर पर हाथ रखा, गाल थपथपाए। मैंने धीरे-से हाथ हिलाया और एयरपोर्ट के अंदर चली गई।

***