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पिनकोड

पिनकोड:
मैं किसी काम से हल्द्वानी बाजार गया था। बस स्टेशन से गुजर रहा था, नैनीताल की बस पर नजर पड़ी, सोचा नैनीताल घूम कर आऊँ। बिना उद्देश्य कहीं जाना भी मन को आन्दोलित तो करता है।बस में बैठ गया। बगल में दूसरा यात्री था। कुछ देर बाद बस चली। बगल का यात्री एक राजनैतिक दल को गाली दे रहा था और दूसरे दल की प्रशंसा कर रहा था।मैंने उसे अपना परिचय तबतक नहीं दिया था। वह छोटा व्यापारी था। काठगोदाम से ऊपर को जब बस गुजर रही थी तो मुझे लग रहा था जैसे मैं प्रकृति के सुन्दर द्वार में प्रवेश कर रहा हूँ।पहाड़ों की छटा मन में बैठने लगी है। कितनी यादें सुरसुराती निकल रहीं हैं।जिसे भूलना चाहता हूँ, वह सबसे पहले याद आता है।मन की भूमिका कोई नहीं जानता। दोगाँव पर बस रूकती है।वहाँ पर लगभग सभी यात्री चाय पीते हैं या नाश्ता करते हैं।चाय दस रुपये की थी। कभी दस पैसे में चाय आती थी। मन तुलना करना नहीं भूलता। पहाड़ बृहत्तर रूप में सामने थे।बस सर्पाकार सड़क पर दौड़े जा रही थी। बगल में बैठा यात्री धीरे-धीरे मेरा परिचय लेने लगा।फिर चुप हो गया।नैनीताल में उतरा तो बिना कहे चला गया। मुझे लगा मुझे अपना परिचय उसे नहीं बताना चाहिए था। परिचय ने हमारे बीच दूरी पैदा कर दी थी।
तल्लीताल, नैनीताल , डाकघर पर बैठता हूँ। ठंडी झील पर पानी लहरदार लग रहा था।मेरे अतीत को छुपाये। मानो कह रहा हो," मधुर छवि के साथ गये थे और अपनी वरिष्ठता के साथ मुझे निहारने आ गये हो।" मैं सोच रहा हूँ," मैं तो वही हूँ लेकिन और सब बदल गये हैं।"
मैं पत्रपेटी पर लिखा पिन कोड लिख रहा था।फिर मैंने डाकघर की पूरी तस्वीर खींच ली। यह वही डाकघर था जो मेरे पत्र लाता ले जाता था। इसका मुख्य प्रवेश द्वार झील की ओर है। शिक्षा लेते समय और उसकी समाप्ति के बाद इसकी भूमिका अलग-अलग होती हे।यही डाकघर है जहाँ सामने बस स्टेशन पर दोस्तों को छोड़ने आता था। शिक्षा पूरी होने के बाद सात महीने इसी डाकघर का लगभग हर रोज एक चक्कर लगाया करता था कि कहीं से कोई इंटरव्यू का बुलावा तो नहीं आया है।आशा को रगड़ते-रगड़ते फिर लौट जाता था। फिर आशा पर एक दिन फूल लग ही गया। बेरोजगारी के थपेड़े एक सुन्दर शहर को बेहद ऊबाऊ बना देते हैं। जिस डाल पर बैठने का प्रयत्न करते हैं, लगता है वही टूट रही है।लेकिन उत्साह आगे-आगे चलता रहता है।
फोन में बात होती है-
" कैसे हो?
ठंड कितनी है?
खाना खा लिया,
बर्तन मल लिये,
तबियत कैसी है
बच्चे स्कूल गये?"
"आज ठंड है
नहाया नहीं है,गेहूँ बो दिये"।
"बर्षा हुई या नहीं
बर्फ गिरी या नहीं
गूल बनी या नहीं
प्रधान कौन है?"
"पंचायत बहुत होती है
काम कम होता है।"
"जीवन की
यही तो कविता है
जो ठहरती नहीं
नदी सी बनी रहती है।"
"ये कोई नहीं पूछता
प्यार किया या नहीं?
मानो, वह सूरज की तरह
रोज आ जायेगा,
नक्षत्रों की भाँति टिमटिमायेगा,
धूप की तरह
चिलमिलाता रहेगा।"
मैं डाकिया बन कर दिमाग में चिट्ठियां एकत्र करता हूँ और सबको बताते जाता हूँ।
"सुबह उठा और मन गाना गुनगुनाने लगा " ये वादियां ये फिजायें बुला रही हैं....।" फोन तो आधुनिक है, मोबाइल।समय का खेल देखो, किसी को फोन करना चाहता हूँ, पर करता नहीं। फोन हाथ में है लेकिन मैं वही 21-22 की उम्र में बैठा, इधर-उधर देख रहा हूँ।आत्मा सरकती ही नहीं समय के अनुसार।मेरी नजर उस जगह पर रूक जाती है जहाँ सेंटमेरी में पढ़ने वाली पंद्रह,सोलह लड़कियों ने मेरा रास्ता लगभग दो-तीन मिनट तक रोक दिया था।उन्होंने एक चक्रव्यूह बना दिया था।मैं तब बी. एसी. में था।वे लड़कियां शायद कक्षा दस में पढ़ती होंगी। अच्छे डील-डौल की थीं, खाते-पीते घर की। प्रजातंत्र में संख्या का महत्व तो होता ही है। मैं चुपचाप खड़ा हो गया। दो-तीन मिनट बाद, एक लड़की ने रास्ता दे दिया। उसने सोचा होगा इतनी छेड़छाड़ काफी है।उन्हें अपूर्व आनन्द आ रहा था।खूब हँस रहे थे।संख्या में बल भी होता है, आनन्द भी।आज उन क्षणों को याद कर सहज मुस्कान फूट रही है।लेकिन उस क्षण किंकर्तव्यविमूढ़ था "
"तल्लीताल से नैना चोटी को ज्यों ही देखा, तो बहुत दूर लगी। जबकि दो बार पढ़ाई करते समय उस पर चढ़ा हूँ। उम्र की सीमा को अनुभव कर रहा हूँ। मैं बैठे-बैठे नैनीताल का बदलता स्वभाव देख रहा हूँ।धुंध का घिरना, साफ होना। झील के ऊपर तक आना, फिर साफ होना।पर्यटन अपनी धुन में।नाव वाले अपनी जीविका की तलाश में। फोटो लेने वालों की घूमती दृष्टि। थोड़ी देर में घना कोहरा। मैं वहीं खड़ा हूँ जहाँ प्यार को समझने जानने का प्रयास किया था। जूते पालिस करने के लिए मोची के सामने हूँ। वह बीस रुपये में पालिस करने की बात करता है। मछलियों का झुंड झील के किनारे खुश लग रहा है।मुझे भगवान के मत्स्य अवतार का ध्यान आता है। जब डरावने सपने आते हैं तो भगवान को पानी में अन्तर्धान होते देखा है।लेकिन इसबार जब झपकी लगी, तो भगवान पानी के ऊपर तक आये और लौट गये। उन्हें पानी गंदा लगा और उन्होंने पानी में प्रवेश करने का मन बदल लिया है। झील में पिछले साल से पानी अधिक है, लेकिन छलछलाता हुआ नहीं।
अल्मोड़ा में रघुनाथ मंदिर और अशोक होटल के सामने भीख मांगने वाले दो ,ैदो भिखारी बैठे थे। मैंने जेब से पाँच रुपये का सिक्का निकाल कर उन्हें दिया। उसी समय एक व्यक्ति ने दस रुपये का नोट उनके कटोरे में डाल दिया। रघुनाथ मंदिर में डालने वाला व्यक्ति पुलिस ड्रेस में था तो मन में थोड़ी शंका हुई। क्योंकि पुलिस के बारे में हम सकारात्मक कम ही होते हैं।आगे बढ़ता हूँ तो अल्मोड़ा थाना देख कर मन खुश हो जाता है। बहुत ही साफ-सुथरा है। आमतौर पर ऐसे थाने देखने में नहीं आते हैं। बना पुराने डिजाइन का है। आगे गया तो पुराने पिक्चर हाँल " मुरली मनोहर" की बिल्डिंग पर कुन्दनलाल साह स्मारक प्रेक्षागृह,थाना बाजार लिखा है। वहाँ पर एक बुजुर्ग मिलते हैं। उनसे पूछा तो वे कहते हैं यही मुरली मनोहर पिक्चर हाँल था। उन्होंने राजकीय इण्टर कालेज से १९५९ में इण्टर किया था। अभी अपनी उम्र अस्सी साल बता रहे हैं।बच्चे बंगलुरू, जयपुर और अल्मोड़ा में हैं। सबसे गरीब जो है वह अल्मोड़ा में है, कहते हैं। जयपुर वाला प्रोफेसर है। बंगलुरू वाला इसरो में है। हालांकि उन्होंने कहा," जो बंगलुरू में है वह उस विभाग में है जो मंगलयान आदि बनाते हैं।" दोनों अपने अपने शहरों में बस गये हैं। काफी बातें करते करते हम पलट बाजार पहुंच गये हैं।हाथ जोड़कर विदा लेते हैं तो वे कहते हैं हम दोनों के बीच इतनी बातें ऊपर वाले ने सुनिश्चित की होंगी।उनकी बात से लग रहा है, फिर हम कभी नहीं मिल पायेंगे। लेकिन यह वीतराग भाव से कही गयी बात है। लौटते समय कारखाना बाजार होते हुए आ रहा हूँ। ताँबे के गागर दुकानों में दिख रहे हैं। कुमाँऊनी भाषा में कोई बोल रहा है," अरे कथां मरि रै छै तु।" मैं सोच रहा हूँ यदि मर गया तो बोलेगा कैसे? लेकिन दूर से आवाज आती है ," यहीं पर हूँ।"

"मई का महीना है। शाम के छ बज चुके हैं।मल्लीताल से तल्लीताल को रिक्शे बंद हो गये हैं।आठ बजे तक यह नियम लागू रहेगा।सोचा पैदल ही तल्लीताल चला जाय।मालरोड पर काफी भीड़ है।पर्यटक खरीदारी भी कर रहे हैं। ठंड है।गरम भुट्टे भी कुछ कुछ दूरी पर बिक रहे हैं।एक भुट्टा लिया और खाते खाते चलने लगा। भुट्टा बाहर से पका है और अन्दर से हल्का कच्चा।एक जगह पर बेंच पर बैठता हूँ।सामने सुलभ शौचालय है जिस पर लिखा है सार्वजनिक शौचालय।शुल्क है 5रुपये।एक व्यक्ति वहाँ के कर्मचारी से बहस कर रहा है कि सार्वजनिक लिखा है।कर्मचारी शुल्क जहां लिखा है उस ओर इशारा करता है।उठ कर आगे बढ़ता हूं।एक छोटा सा पार्क आता है, झील के किनारे।हल्का अंधेरा गिरने लगा है।पार्क में पांच छ लोग बैठे हैं।एक जोड़ा प्यार कर रहा है, जो फिल्मी लग रहा है।और लोगों को असहज कर रहा है।एक आदमी उनसे बोलता है," ये सार्वजनिक स्थान है।" लड़की बोलती है," आपको अच्छा नहीं लग रहा तो आँखें बंद कर लो।" इतने में लड़का अपने मोबाइल को देखता दूर जाकर बैठ जाता है। विचार आता है दिल्ली की घटना का जो समाचारों में है, जहां एक ई रिक्शा वाला सार्वजनिक स्थान पर पेशाब करते लड़के को जब पेशाब करने को मना करता है तो वह अपने साथियों को बुला कर ई रिक्शे वाले को इतना मारते हैं कि उसकी मृत्यु हो जाती है।"

"मैंने उससे कहा,"मैं तुमसे प्यार करता हूँ ।" वह चुप खड़ी रही।दिनभर हम एक दूसरे की आँखों में झांकते रहे । दूसरे दिन मैंने उससे पूछा," कल मैंने जो कहा,तुमने बुरा तो नहीं माना ।" उसने कहा,"क्या?।" मैंने फिर कहा,"कल जो कहा । वह बोली,"क्या?" मैंने फिर कहा,"कल जो कहा। वह बोली,"क्या?" मैं उस वाक्य को फिर दोहरा नहीं पाया। मैं कुछ कहे बिना वहां से चला गया ।दूसरे दिन वह मुझे रास्ते में अपनी सहेलियों के साथ मिली।वह रूकी और मेरी ओर बढ़ी, लेकिन मैं बात नहीं कर पाया ।"
ये दिमागी चिट्ठियां बिना पिन कोड के चाहता तो चलती रहतीं लेकिन तभी दो बुजुर्ग महिलाओं की बातें मेरे कानों में आ रही थीं- एक महिला कह रही है," रिटायर होने के बाद मेरी सास बने रहते हैं । २००८ में रिटायर हुए। ऐसा तो मेरी सास भी नहीं करती थी। दिमाग खा जाते हैं। फोन पर लगे रहते हैं या टेलीविजन देखते हैं। तुम्हारे पति क्या करते हैं?" दूसरी महिला बोलती है," वे तो अपने काम में लगे रहते हैं। मेरे काम में हस्तक्षेप नहीं करते हैं। बाहर का काम वही करते हैं। घर का काम नहीं करते हैं।" तीसरी महिला बगल में खड़ी पहली महिला की बातों पर हँस रही है। पहली महिला उससे कहती है," तुम्हारे पति अभी रिटायर नहीं हुये हैं ना, रिटायर होने के बाद तुम्हें भी पता चलेगा।तब घर में एक और सास आ जायेगी। "
मैं फिर डाकघर का पिन कोड पढ़ता हूँ और दिमाग की चिट्ठियों को बन्द कर वर्तमान में लौट आता हूँ।

*महेश रौतेला

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