फिल्म रिव्यू ‘साहो’- एक्शन के नामे पे ‘हथौडा’    Mayur Patel द्वारा फिल्म समीक्षा में हिंदी पीडीएफ

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फिल्म रिव्यू ‘साहो’- एक्शन के नामे पे ‘हथौडा’   

‘खोदा पहाड निकला चुहा…’ कहावत ‘साहो’ पर बिलकुल फिट बैठती है. ‘बाहुबली’ के बाद प्रभास की एक और दमदार फिल्म देखने को बेताब दर्शकों के लिए हथौडा साबित होनेवाली है- ‘साहो’. मोटे-मोटे बडे-तगडे खड्डेवाली कहानी कुछ यूं है की…

दुनिया के किसी कोने में ‘वाजी’ नाम का आधुनिक शहर बसा है, जिसकी चकाचौंध के सामने ‘दुबई’ भी फिका लगे. इस आधुनिक शहर में डॉन रॉय (जैकी श्रॉफ) का राज चलता है. इसी दरमियान एक चोरी हो जाती है. पूरे 2000 करोड की चोरी..! प्रभास एक पुलिस अफसर है जो अपनी टीम बनाकर उस चोर को पकडने में लग जाता है. फिर… फिर क्या होता है..?

फिर वही होता है जो मंजूरे डिरेक्टर होता है. डिरेक्टर सुजीत की ही लिखी कहानी में इतने झोल है की पूछो मत. कलाकारों की भरमार है. एक आता है तो दूसरा मर जाता है. दूसरा मरता है तो तीसरा टपक पडता है. डॉन के उपर डॉन. उसके उपर एक और डॉन. कौन किसको धोखा देगा. कौन किसको डबल-क्रॉस करेगा. किसके मर्डर के पीछे किसका हाथ है. और उस हाथ के पीछे किसकी शाजिस है… हे, भगवान..! उठाले, उठाले… ऐसी बेतूकी, कन्फ्युज करनेवाली कहानी लिखनेवाले को उठाले…

सुजीतभाई को लगा होगा की होलिवुड-बोलिवुड की ब्लॉकबस्टर फिल्मों में से थोडा-थोडा मसाला चुराकर वो एक बहेतरीन एक्शन थ्रिलर बना देंगें. तो उन्होंने जमके चोरी-चकारी की है. कार चेज के सीन फिल्माने के लिए ‘द फास्ट एन्ड द फ्युरियस’ से ‘प्रेरणा’ ले ली. गोलियों की बौछार काफी पीछे जाकर ‘मेट्रिक्स’ से उठा ली. हीरो को मोटरबाइक पर भगाते देख ‘मिशन इम्पोसिबल’ जैसा कुछ याद आ जाता है. बीच में कहीं आर्नोल्ड की ‘टर्मिनेटर’ दिख जाती है. ‘स्पाइडर मैन’ एफोर्ड नहीं कर सके तो उन्होंने ‘जेट मैन’ दिखा दिए. यहां ‘ममी’ याद दिलाता रेत का तूफान भी है और ‘क्राउचिंग टाइगर हिडन ड्रेगन’ वाला क्लिफ जम्पिंग सीन भी है. सरजी, कहानी में उलजलूल ट्विस्ट ठूंस देने से कोई फिल्म ‘रेस’ जैसी क्लासिक थ्रिलर नहीं बन जाती. इतनी सारी चोरी-चपाटी और उधार के तोटकों के वाबजूद ‘साहो’ में कोई रोमांच नहीं है.

फिल्म का ट्रेलर देखके सब चौंक गए थे. एक्शन धमाकेदार होने की अपेक्षा थीं, जो की कुछ हद तक पूरी भी होती है. फिल्म में पहेला एक्शन सीन बढिया है, जिसमें प्रभास एक 4-5 मंजिला इमारत में 40-50 गुंडो से भीडते है. ये पहेला एक्शन सीक्वन्स देखकर फिल्म से उम्मीदें बढ जाती है, लेकिन अफसोस… के उसके बाद का एक भी एक्शन सीन उस उम्मीद पे खरा नहीं उतरता. फिल्म का बजेट 350 करोड बताया गया है लेकिन फिल्म के कमजोर VFX देखकर बिलकुल भी नहीं लगता की इतना खर्चा फिल्म में किया गया होगा. आग के धमाके, गाडीयों का उछलना, हवा में स्टंट… कमजोर VFX के कारण सबकुछ फिका और बेअसर लगता है.

डिरेक्टर ने मानो ठान ली है की कुछ भी दिखाओ तो चलेगा, प्रभास की फिल्म है तो चल जाएगा. इसीलिए फिल्म काफी सारे झोल-झाल से भरी पडी है. ‘वाजी’ के निवासी किस मूल के है ये फिल्म के आखिर तक पता नहीं चलता. यहां चाईनिज भी है, गोरे भी है, काले भी है और भारतीय मूल के लोग भी है. अपना हीरो साहो किस मूल के लोगों के लिए लड रहा है ये साफ तौर पर बताने की दरकार फिल्म के डिरेक्टरने नहीं ली है. मुंबई की गलीयों में शतुरमुर्ग (ओस्ट्रिच/शाह्मृग) घूमते दिखाए गए है, बोलो..! लोगों के घर से ये बडे-बडे अजगर नीकलते है. कैसे..? ये मत पूछो, भैया..! और आम आदमीओं के रहेनेवाली चॉल में तेंदुआ (ब्लेक पेन्थर) कहां से आ गया, ये बताने का कष्ट करेंगे सुजीत-सरकार..? कुछ भी मतलब कुछ भी दिखा दिया है आपने..! दर्शक तो वेबकूफ ही है ना..!!!

सारा कसूर राइटर-डिरेक्टर सुजीत का ही है. प्रभास की लार्जर-देन-लाइफ पर्सनालिटी को एनकेश करने के लिए उन्होंने बिना बजह प्रभास की बहादुरी के सीन्स फिल्म में ठूंसे है. जैसे की, पहाड से छलांग लगानेवाले सीन की फिल्म में कोई जरूरत ही नहीं थी. दर्शकों से सीटीयां बटोरने के लिए हीरो को स्लो मोशन में चलकर स्टाइल मारते हुए दिखाना समज में आता है, पर फिल्म के बाकी के कलाकार क्यूं बेफिजूल में स्लो मोशन में फालतूगिरी करते रहेते है..? एक्शन के नाम पर प्रभास अपने से ज्यादा लंबे-चौडे गुंडो को एक ही वार में धोबीपछाड दे देता है, ये तो चलो फिर भी मान लेते है… लेकिन सरजी, आपने अपने हीरो को ऐसी कौन सी घूट्टी पीला दी थी की वो हवा में उडकर हिरोइन को बचा लेता है..? और अगर उसे बदला लेना ही था तो वो सीधे सीधा क्यों नहीं ले लेता, बीच में पुलिस डिपार्टमेन्ट को घूसेडकर बेकार का रायता फैलाने की क्या जरूरत थी..?

इन्टरवल पोइंट पर कहानी में एक जबरजस्ट ट्विस्ट आता है, और दर्शकों की उत्सुकता बढ जाती है. लेकिन फिर सेकन्ड हाफ में फिल्म में एसा और कोई मोड नहीं आता जिसे देखकर ‘वाउ’वाली फिलिंग आए. पौने तीन घंटे की फिल्म तब असहनीय लगने लगती है जब इन्टरवल के वाद मारधाड और केवल मारधाड ही चलती रहेती है. प्रभास एक को मारता है तो दस आते है, दस को मारता है तो सो आते है और… बस भाई, यही चलता रहेता है. टिपिकल साउथ इन्डियन स्टाइल में एक्शन ही एक्शन, और कुछ नहीं… अंत आते आते तो इस ‘साहो’ को ‘सहना’ मुश्किल हो जाता है.

फिल्म के आखिर में सारे कलाकार एसा बर्ताव करते है जैसे कोई महा-विस्फोटक रहस्य खुलनेवाला हो. दर्शकों को भी लगता है की कुछ तो गहेरा राज खुलने जा रहा है. लेकिन फिर जो राज खुलता है वो बिलकुल ही ‘फूस्स…’ नीकलता है. समजदार दर्शक आधी फिल्म में ही भांप ले, समज ले एसा राज है वो. पूरी फिल्म में हर कोई एक रहस्यमय ब्लेक बोक्स को पाने के लिए लडता रहेता है, पर जब वो ब्लेक बोक्स क्या है ये पता चलता है तो… फिर से एक फूस्स… अमा छोडो, यार…

अभिनय की बात करे तो… अब एक्शन फिल्म में कोई कलाकार एक्टिंग के नाम पे क्या उखाड लेगा..? फिर भी प्रभास ने अच्छा काम किया है. उनकी पर्सनालिटी दमदार लगती है, और कहीं कहीं उनकी डायलोगबाजी भी अच्छी लगी. श्रद्धा कपूर बस ठीकठाक ही लगीं. इस रोल में कोई और हिरोइन होती तो शायद ये पात्र ज्यादा निखरके सामने आता. शायद. प्रभास-श्रद्धा के बीच की केमेस्ट्री भी कुछ खास रंग नहीं ला पाईं. नील नितिन मुकेश शुरुआत में पसंद आते है— उनके पात्र के आसपास बुने गए जाल के कारण— लेकिन क्लाइमेक्स आते आते उनको बाजू में धकेल दिया जाता है. इन तीनो के अलावा इस मल्टिस्टारर फिल्म में जैकी श्रॉफ, चंकी पांडे, मंदिरा बेदी, टीनु आनंद, महेश मांजरेकर, इवलिन शर्मा जैसे कलाकारों की पूरी फौज भरी पडी है. सबने अपने अपने हिस्से में आया काम इमानदारी से निभाया है, पर कोई भी केरेक्टर यादगार नहीं बन पाया है.

फिल्म के म्युजिक की बात ना ही करें तो बहेतर होगा. फिल्म में चार गाने है और चारों एक से बढकर एक पकाते है. सारे के सारे गाने फिल्म में जबरन ठूंसे गए है. एक बार पुलिसवाले विलन को पकडने एक क्लब में जाते है, जहां अपना काम भूलकर सारे पुलिसवाले नाचने-गाने लगते है और मोहतरमा इन्स्पेक्टर श्रद्धा तो शराब पीकर इतना टुन्न हो जाती है की विलन भी साइड में रह जाता है. गाना गाकर वो वापिस आ जाते है. विना विलन को पकडने की कोशिश किए..! एक गाने में जैकलिन फर्नान्डिस आकर कुले मटका जाती है, लेकिन वो भी बिलकुल ही बेअरस लगतीं है.

सिनेमेटोग्राफी, बेकग्राउन्ड स्कोर जैसे फिल्म के टेक्निकल पासें बढिया है, पर वो कोई विशेष उपलब्धि नहीं है. आजकल तो हर फिल्म टेक्निकली ए-ग्रेड ही होतीं हैं.

कुल मिलाकर देखें तो ‘साहो’ इतनी बेकार फिल्म है की इसका नाम ‘साहो’ नहीं बलके ‘सहो’ होना चाहीए, क्योंकी इसे देखनेवाले हर किसीको इसे ‘सहना’ मुश्किल होगा. मेरी ओर से 5 में से केवल 2 स्टार्स. घर में अगर दहीं खतम हो गया हो तो जरूर देखिएगा. दिमाग का दहीं पक्का हो जाएगा.