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फिल्म रिव्यू – ‘ज़ीरो’… क्या किंग खान के करियर की डूबती नैया पार लगा पाएगी ये फिल्म..?

फिल्म रिव्यू – ‘ज़ीरो’… क्या किंग खान के करियर की डूबती नैया पार लगा पाएगी ये फिल्म..?

(Film Review by: Mayur Patel)

कुछ फिल्मों को देखकर विचार आता है की, ‘ईसे बनाया ही क्यूं गया है?’ जैसे की विशाल भारद्वाज की ‘रंगून’ और अनुराग कश्यप की ‘बोम्बे वेल्वेट’. यही सवाल मेरे जहेन में आया ‘ज़ीरो’ देखकर- ‘आखिर ईस फिल्म को क्यूं बनाया गया?’ शायद ये साबित करने के लिये की शाहरुक खान कितनी अच्छी एक्टिंग कर सकते हैं या फिर अनुष्का शर्मा कितनी अच्छी ओवर एक्टिंग कर सकती है?

‘ज़ीरो’ का ट्रेलर देखकर ही लगा था की ईतने विशाल फलक पर बनी फिल्म में कहीं कहानी बिखर न जाए. और वही हुआ जिसका हमें डर था. बडा बजेट और बडे स्टार्स तो ले लिए लेकिन जब फिल्म की नींव, फिल्म की कहानी ही कमजोर होगी तो सफलता कैसे हाथ लगेगी? बहोत ज्यादा संभावना होने के वाबजूद ‘ज़ीरो’ लेखन के मामले में ही मार खा जाती है.

आनंद एल राय के लिए ‘तनु वेड्स मनु’, ‘तनु वेड्स मनु रिटर्न्स’ और ‘रांजणा’ जैसी दमदार स्क्रिप्ट लिखनेवाले हिमांशु शर्माने ही ‘ज़ीरो’ की कहानी लिखी है, जो कुछ ईस प्रकार है. मेरठ के 38 साल के बउवा सिंह (शाहरुख खान) की शादी उनके छोटे कद की वजह से नहीं हो पा रही है. महज साढ़े 4 फीट के बउवा फिल्म स्टार बबीता (कैटरीना कैफ) के बहुत बडे प्रशंसक है और उससे शादी करने के सपने देखते रहेते है। उनका एक दोस्त है गुड्डू सिंह (महोम्मद जीशान अय्यूब), जो अकेला ईन्सान है जो बउआ को पसंद करता है. एक दिन बउआ की मुलाकात अमरिका की सायन्स संस्था एनएसएआर की अंतरिक्ष वैज्ञानिक आफिया यूसुफजई (अनुष्का शर्मा) से होती है. 'सेरेब्रल पाल्सी' से पीड़ित होने के बावजूद बउआ को आफिया से प्यार हो जाता है. कुछ दिनों बाद दोनों की शादी फिक्स हो जाती है. लिकिन शादी के दिन ही कुछ ऐसा होता है की बउआ शादी के मंडप से भाग जाता है। और फिर उन्हें प्यार हो जाता है बबिता कुमारी से…

पढने में ठीकठाक लग रही ये कहानी इन्टरवल तक तो अच्छे से चलती है, मनोरंजक भी लगती है, लेकिन आधी रेस के बाद फिल्म को थकावट महेसूस होने लगती है, गति सुस्त हो जाती है और लूडकते लूडकते फिल्म क्लाइमेक्स आते आते आखिरकार ढेर हो जाती है. मैं बेजिजक कहूंगा की निर्देशक आनंद एल राय यहां निशान वाकई में चूक गए हैं. उन्होंने प्रेजन्टॅशन तो वढिया किया है, लेकिन केवल देखनेलायक गार्निशिंग से खाने में जायका नहीं आ जाता. पटकथा में बहोत सारी कमजोरीयां है जो ईस फिल्म को डूबो देती है. जैसे की…

साधारण परिवार के बउआ जब जी चाहे गली-महोल्ले के लोगों में पैसा बांटते फिरते हैं..! गर्लफ्रेन्ड को इम्प्रेस करने के लिए छे लाख रुपये यूं ही खर्च कर देते हैं..! चुटकी बजाते ही प्लेन पकडकर अमरिका पहुंच जाते है..! मान लेते हैं की उनके घर में शायद कोई पैसे का पेड लगा होगा… बउआ की मां एक सीन में बउआ के प्रति बहुत प्यार दिखाती है, तो दूसरे सीन में चाहती हैं की वो आत्महत्या करके मर जाए. भाई, भारतवर्ष में ऐसी मां भी होती है क्या..? बउआ सिंग जब जी चाहे अपनी उंगली को आसमान की तरफ ताकते है और अच्छे-भले तारे को तोड के गिरा देते है..! अब ये सुपरपावर उन्हें कौन सी चक्की का आटा खाके मिला है ईस बात की स्पष्टता करने की जरूरत निर्देशक को नहीं लगी. हां भई, भारत का दर्शक तो वेबकूफ हैं ना, तो सब चलता है… सेरेब्रल पाल्सी से पीडित लडकी खुद की शादी की बात करने के लिए अकेले ससुराल पहुंच जाती है और शादी फटाक से तय भी हो जाती है..! न कोई सोच-विचार, न किसी और घर-परिवारवालों से मुलाकात… आनंदभाई, हिन्दुस्तान में शादीयां ऐसे होती है क्या..? दो सीन में बउआ सिंह का कद चार फिट छे ईंच बोला जाता है और एक सीन में चार फिट दो ईंच..! तो हम क्या समजे..? उनकी हाइट का एवरेज निकाल ले..?

ऐसी तो कई उल-जजूल बातें है जो फिल्म में जबरन ठूंसी गई है. और कई सारे सीन भी है जिनकी फिल्म में कोई जरूरत ही नहीं थीं फिर भी दर्शकों के सर पे मारे गए है. बेकार में फिल्म को पौने तीन घंटे तक खींचा गया है जबकी ईसकी लंबाई आराम से २५-३० मिनिट काटी जा सकती थीं.

तो ईस लिहाज से कह सकते हैं की पटकथा, निर्देशन और एडिटिंक के लेवल पर ‘ज़ीरो’ निराश करती है. अब जांचते है फिल्म के अच्छे पहेलूओं को…

शाहरुक खान ईस फिल्म की जान है. लंबे अरसे के बाद वो एक्टिंग में वाकई में किंग साबित होते दिखे हैं. उनकी भावभंगीमा, संवाद बोलने का ढंग, हावभाव, उछलकूद सभी बढिया है. पिछली बार वो १३ साल पहेले ‘ओम शांति ओम’ में ईतने जचे थे. फिल्म में उन्हें बौना दिखाने के लिए काफी खर्चा किया गया है, और वो महेनत रंग लाई है. यहां तक की उनके चहेरे पर भी vfx की महेरबानी दिखती है, जिसकी वजह से वो अपनी पिछली फिल्मों के मुकावले जवान दिखते है. मेरे हिसाब से ईस फिल्म के शाहरुख के पर्फोर्मन्स को उनकी करियर के टोप फाइव पर्फोर्मन्स में गिना जा सकता है, वो ईतने अच्छे है. अनुष्का शर्मा कहीं कहीं बहोत अच्छी है, पर कई सीन्स में ओवर एक्टिंग करने लग जाती है. उनका मुंह कभी टेढा तो कभी सीधा कैसे हो जाता है वो तो वो ही वता सकती है. वहोत सारी संभावनाएं थीं ईस रोल में, पर अनुष्का उसे पूरी तरह से निभा नहीं पाईं. केटरिना कैफ के साथ भी यही हुआ है. वो कुछ दृश्यों में सरप्राजिंग्ली अच्छा अभिनय कर गईं है तो कुछ दृश्यों में कमजोर पड जाती है. वैसे मानना पडेगा की वो पर्दे पर बहोत ही खूबसूरत दिखीं है.

फिल्म के डायलोग वहोत ही बढिया है. न केवल शाहरुख खान बल्की सभी किरदारों को हार्ड-हिटिंग संवाद दिए गये है. काश की फिल्म की पटकथा-लेखन में भी संवाद-लेखन जितनी महेनत की गई होती. फिल्म की सिनेमेटोग्राफी अफलातून है. गाने (संगीत अजय-अतुल और तन‍िष्‍क बागची) भी देखने सुनने में पसंद आते है. फिल्म का vfx इन्टरनेशनल स्टान्डर्ड का है. शाहरुख के किरदार और स्पेस के सीन पे किया गया खर्चा आंखो को भाता है.

तो कुल मिलाकर ये कहा जा सकता है की ‘ज़ीरो’ एक ऐसी फिल्म हैं जो दर्शनीय बनते बनते रह गई. बोक्स ओफिस पर टिकना मुश्किल होगा. 200 करोड़ जैसे भारी-भरकम वजेट की वसूली नामुमकिन सी लगती है. अगर आप शाहरुक के फैन है तो ये फिल्म आपको पसंद आएगी, बाकी…

मेरी ओर से पांच में से 2.5 स्टार.