झांसी की रानी लक्ष्मीबाई. एक ऐसी शख्सियत जो हर भारतीय के जहेन में सालों से बसी हुई है. स्कूल में हम सबने उनकी शौर्यगाथा के बारे में पढा है. उनके उपर लिखीं गईं किताबें, उनके उपर बनीं गई सिरियल्स और नाटक हमने देखें है. अब कंगना रनौत ‘रानी लक्ष्मीबाई’ बनकर एक मेगाबजेट (पूरे 125 करोड..!!!) फिल्म ‘मणिकर्णिका’ लेकर आईं हैं.
फिल्म की कहानी शुरु होती है 1828 से जब रानी लक्ष्मीबाई का जन्म हुआ था और अंग्रेज शासन भारतवर्ष पर अपनी जडें मजबूत कर रहा था. पेशवा (सुरेश ओबेरॉय) की दत्तक बेटी मणिकर्णिका उर्फ मनु जन्म से ही साहसी और सुंदर हैं. उन्हें युद्ध कौशल में पारंगत किया जाता है. एक दिन राजगुरु (कुलभूषण खरबंदा) मणिकर्णिका को एक जंगली शेर से भीडते हुए देख लेते है. मणिकर्णिका की वीरता से प्रभावित होकर वह झांसी के युवा राजा गंगाधर राव नावलकर (जीशू सेनगुप्ता) से उनके व्याह का प्रस्ताव रखते हैं. ईस प्रकार मणिकर्णिका झांसी की रानी बनती हैं. ब्याह के पश्चात उनका नाम 'लक्ष्मीबाई' रखा जाता है. समय तेजी से बीतता है और लक्ष्मीबाई के पति का निधन हो जाता है. ताक लगाए बैठे अंग्रेज झांसी को हड़पने की कोशिश करते हैं. अपने राज्य को बचाने के लिए रानी लक्ष्मीबाई झांसी के गद्दी पर बैठती हैं और ऐलान करती हैं कि ‘मैं अपनी झांसी किसी को नहीं दूंगी’. रानी लक्ष्मीबाई अंग्रेजो के खिलाफ युद्ध छेड देती हैं और अंत में मातृभूमि के लिए शहीद हो जाती हैं.
एक जानी-पहेचानी कहानी के आधार पर ‘बाहुबली’ के लेखक के.वी.विजयेन्द्र प्रसादने ‘मणिकर्णिका’ का स्क्रीनप्ले लिखा है, जो की ठीकठाक है, बहेतर हो सकता था. पहेले भाग में फिल्म धीमी गति से आगे बढती है और लंबी लगती है. कुछ सीन ओवर-ड्रामेटिक लगते है, मानो कोई साउथ की फिल्म चल रही हो. लेखक महोदय, रानी लक्ष्मीबाई को गरीबों की बस्ती में लेजाकर उन्हें डान्स करवाना, गाना गवाना क्या वाकई में जरूरी था? संजय लीला भंसालीने ‘बाजीराव मस्तानी’ में ‘वाजीराव’ से डान्स करवाने की गुस्ताखी की थीं. आपने उसे दोहरा दिया. अंगेजो के भारतीय लोगों पर होते जुल्म भी बहोत बासी से लगे. (यहां ये बताना जरूरी है की फिल्म की शुरुआत में डिस्क्लेमर में ही ये साफ बता दिया गया है की ये फिल्म एतिहासिक घटनाओं का नाट्यात्मक रुंपांतर है, मतलब के फिल्म में जो कुछ भी दिखाया गया है वो शत प्रतिशत सत्य इतिहास नहीं है.) फिल्म के पहेले हिस्से को थोडा काट के फिल्म को तराशा जा सकता था, पर एसा नहीं हुआ.
ईन्टरवल पोईंट पर फिल्म गति पकडती है और फिर शुरु होता है स्वतंत्रता संग्राम का एक्शन, जो की बहेतरीन है. युद्ध के जीतने भी दृश्य है, सभी बहोत ही रोमांचक है. बेकग्राउन्ड म्युजिक की वजह से युद्ध के दृश्य और भी दमदार लगते है. फिल्म का वी.एफ.एक्स(वीज्युअल ईफेक्ट्स) अच्छा है, लेकिन अगर थोडा और बहेतर होता तो ज्यादा मजा आता.
झांसी की रानी के बारे में हिन्दी भाषा की सुप्रसिद्ध कवयित्री सुभद्रा कुमारी चौहानने जो पंक्तियां लिखीं थीं वो हर भारतीय को मुह जुबानी याद है. इतिहास के पन्नों में अमर हो चुकी वो पंक्तियां थीं— 'खूब लड़ी मर्दानी, वो तो झांसी वाली रानी थी…' मानना पडेगा की कंगना रनौतने ईन पंक्तियों को सिनेमा के पर्दे पर पूरी शिद्दत से जिवीत किया है. 12-14 साल की किशोरी ‘मनु’ से लेकर, युवा ‘मणिकर्णिका’ और फिर झांसी की रानी ‘लक्ष्मीबाई’ तक का सफर उन्होंने बहोत ही सटिक ढंग से दिखाया है. उनका अभिनय ईतना सटिक है की लगता है की उनके अलावा और कोई अभिनेत्री ईस रोल को ईतने बढिया तरीके से नहीं निभा पातीं. लक्ष्मीबाई के शौर्य, सुंदरता, साहस, जूनून और वीरता से भरपूर व्यक्तित्व को कंगनाने चार चांद लगा दिये है. ईस रोल को निभाने में उन्होंने कोई कसर नहीं छोड़ी है. लेकिन फिल्म में उनके किरदार को ईतना ज्यादा महत्व दिया गया है की बाकी सारे कलाकार साइड-लाइन से हो गये है. ‘झलकारी बाई’ के रोल में हिन्दी सिनेमा में डेब्यू कर रहीं अंकिता लोखंडे फिकी लगीं. उनको ज्यादा स्क्रीन स्पेस नहीं दिया गया है. एसा ही हाल डैनी डेंगजोंग्पा, अतुल कुलकर्णी, मोहम्मद जीशान अयूब, कुलभूषण खरबंदा, सुरेश ओबेरॉय, जीशूसेन गुप्ता जैसे मंजे हुए अदाकारो का हुआ है. कोई भी प्रभावशाली नहीं लगा. विलन बने दोनों अंग्रेज एक्टर्स भी पानी-कम-चाय ही लगे.
फिल्म का संगीत फिल्म में जान डाल देता है. ‘विजयी भव’ और ‘भारत’ ये दो गाने सुनके दर्शक देशभक्ति के रंग में रंग जाते है. ‘मैं रहूं या ना रहूं, भारत ये रहेना चाहिए…’ जब भी बजता है तो आंख में आंसू आ जाते है. ईस एक लाइन का प्रयोग फिल्म में कई बार उमदा तरीके से किया गया है. प्रसून जोशी के संवाद कई जगह बहोत ही अच्छे है, तो कुछ जगह कमजोर भी है. फिल्म में कंगना के लुक्स पर भी काफी महेनत की गई हैं. नीता लुल्ला द्वारा डिजाईन किये गए उनके पोशाक और गहने आंखो में बस से जाते है. केमेरावर्क शानदार है और सेट डिजाइनिंग भी एक नंबर. बडे बडे महेल और किले फिल्म को भव्य लूक देते हैं.
‘मणिकर्णिका’ को थियेटर का मुंह देखने से पहेले कई सारी तकलिफों का सामना करना पडा. बजेट का प्रोब्लेम था, फिल्म ओवर बजेट हो गईं थीं. फिल्म के डिरेक्टर राधाकृष्ण जगरलमुदी बीच में ही ईस प्रोजेक्ट से निकल गए, फिर कंगनाने खुद निर्देशन की बागडोर हाथों में ली. फिल्म में एतिहासिक तथ्यों को तोडा-मरोडा गया है, ईस मुद्दे को लेकर समाज के ठेकेदारों ने ईसका विरोध भी किया, जैसे ‘पद्मावत’ का किया था… ईन सब मुश्किलों के बावजूद मानना पडेगा की ‘मणिकर्णिका’ के रुप में एक अच्छी फिल्म देखने को मिली है. कंगना रनौत ने कहा है की फिल्म कें 70 प्रतिशत हिस्से को उन्होंने ही डिरेक्ट किया है. अगर ये सच है तो उनकी तारिफ करनी पडेगी. सशक्त अभिनेत्री तो वो हैं ही, लेकिन एक निर्देशक के रुप में भी उनका काम काफी सराहनीय हैं. ईतना सराहनीय की उनको और भी फिल्में निर्देशित करनी चाहीए.
‘मणिकर्णिका’ का मुख्य आकर्षण है उसका एक्शन, और आखिर के ४५ मिनट, जिसमें रणभूमि की ज्वाला का माहौल पूरी तरह से अपने उफान पे चढता है. प्रिक्लायमेक्स युद्द में रानी लक्ष्मीबाई को अकेले 40-50 अंग्रेजो के सामने लडते हुए दिखाया गया है. उनकी तलवार खचाखच चलती है और अंग्रेज सिपाहीओं को काट-काटकर ढेर कर देती है. जिस अंदाज में कंगनाने वो एक्शन सीन निभाया है वो देखकर रोंगटे खडे हो जाते है. बहेतरीन. आफरिन.
तो ईस रिपब्लिक डे पर अपनेआप में देशभक्ति का अलख जगाने के लिये ‘मणिकर्णिका’ एक अच्छा विकल्प है. मेरी ओर से कंगना रनौत के खून-पसीने से सजी ईस फिल्म को पांच में से 3.5 स्टार्स. जय हिंद.