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फिल्म रिव्यूः 'द ऐक्सिडेंटल प्राइम मिनिस्टर'… बेमतलब की राजकीय ड्रामेबाजी…

रिलिज के पहेले ही विवादों में घीरी फिल्म 'द ऐक्सिडेंटल प्राइम मिनिस्टर' को शूरुआत से ही एक ‘प्रोपगेंडा’ फिल्म कहा जाता रहा है. कहा जाता रहा है की ‘भारतीय नेशनल कोंगेस’ की छबि धूमिल करने के खास मकसद से ये फिल्म बनाई गई है, और वो भी उस वक्त जब 2019 के चुनाव सर पर है. 'द ऐक्सिडेंटल प्राइम मिनिस्टर' देखने के बाद ये वाकई में साफ हो जाता है की ये फिल्म सही मायने में एक प्रोपेगेंडा ही है. (जिनको नहीं पता वो जान लें की प्रोपेगेंडा फिल्म मतलब ऐसी फिल्म जो किसी एक व्यक्ति, समाज/समुदाय या संगठन को अच्छा या फिर बुरा दिखाने के लिए बनाई जाती है. पिछले साल रिलिज हुई ‘संजु’ को भी संजय दत्त की छवि साफ करने के लिए बनाई गई प्रोपगेंडा फिल्म कहा गया था, जो की सही भी था) फिल्म के शुरुआती डिस्क्लेमर में बताया गया है कि ईस फिल्म के पात्र एवं घटनाएं काल्पनिक हैं, लेकिन पूरी फिल्म के दौरान कई बार भूतकाल के वास्तविक फुटजे का इस्तेमाल किया गया है, जो ईस फिल्म के डिस्क्लेमर पर एक बडा सवाल उठाता है. उसी प्रकार फिल्म में ड्रामा क्रिएट करने के लिये कई घटनाओं में कुछ ज्यादा ही छूटछाट ली गई है. फिल्म में कई बातें तो ऐसी भी है जिनका संजय बारू द्वारा लिखित मूल किताब में कहीं जिक्र तक नहीं है. स्पष्ट हैं की ये सारा ताम-झाम किसी एक राजकीय पार्टी के फायदे के लिये ही दिखाया गया है.

2004 से 2008 तक पूर्व प्रधानमंत्री श्री मनमोहन सिंह के मीडिया सलाहकार रह चुके संजय बारू ने कोंग्रेस पार्टी को छोडने के बाद एक किताब लिखी थी और उसी किताब पर आधारित है फिल्म 'द ऐक्सिडेंटल प्राइम मिनिस्टर'. संजय बारु का दावा है की उनकी किताब पूर्व पीएम को एक मजबूत सख्शीयत के तौर पर पेश करती है, लेकिन फिल्म में एसा नहीं है. फिल्म में हमें एक असहाय, कमजोर पीएम दिखाए गये है और ईसका कारण दिखाया गया है कोंग्रेस पार्टी और पार्टी की तत्कालिन अध्यक्ष सोनिया गांधी. फिल्म UPA सरकार के 2004 से लेकर 2014 तक के सफर को दिखाया गया है. फिल्म का टेम्पो सेट करने के चक्कर में शूरुआती घटनाक्रम बहोत ही जल्दबाजी में और ड्रामेटिक अंदाज में दिखाया गया है. उसके पश्चात जो कुछ भी दिखाया गया है वो भी कुछ खास दमदार नहीं है. कुछ जगहों पर ये फिल्म डोक्युमेन्ट्री जैसी लगने लगती है और कई जगहों पर बोर भी करती है.

अभिनय की बात करें तो अनुपम खेर जैसे उमदा एक्टर से काफी सारी उम्मीदें थीं लेकिन अफसोस… वो बूरी तरह से निराश करते है. हम सब ने मनमोहन सिंह को बोलते हुए और चलते हुए टी.वी. पर देखा है, पर अनुपमजीने उनकी जो भद्दी नकल की है वो असहनीय है. जिस प्रकार से वो चलते है, जिस तरहा से वो बोलते है और अपने हाथों का इस्तेमाल करते है वो दर्शकों को खटकता है. फिल्म में पूर्व पीएम को महज एक केरिकेचर के रूप में दिखाया गया है. सोनिया गांधी के किरदार को सुजैन बर्नेट ने अच्छे से निभाया है, उनका गेटअप भी बढिया है, लेकिन ईस पात्र को फिल्म में बहोत ही नकारात्मक ढंग से प्रस्तुत किया गया है, जो की बिलकुल ही गलत लगता है. संजय बारु बने अक्षय खन्ना ने अपनी भूमिका को जबरदस्त अंदाज में पेश किया है. एक वो ही है जिनकी वजह से ये फिल्म देखी जा सके. राहुल गांधी बने अर्जुन माथुर और प्रियंका गांधी बनीं अहाना कुमरा के गेटअप भी तारीफ के काबिल है लेकिन ताज्जुब की वात है की उन्हें फिल्म में कोई महत्त्व ही नहीं दिया गया.

फिल्म की कहानी में बिलकुल भी दम न होने की वजह से निर्देशन भी काफी सुस्त लगता है. म्युजिक की बात तो ना ही करें तो बहेतर है. जिनको राजनीति में दिलचस्पी है उनको भी ये फिल्म मुश्किल से हजम होगी. मसाला फिल्मों को चाहनेवाले दर्शक ईस फिल्म में मनोरंजन ढूंढने की कोशिश बिलकुल ना करें.

इस विवादास्पद लेकिन फिकी फिल्म को मेरी ओर से पांच में से सिर्फ 1.5 स्टार्स... वो हकते है ना की, गलत ईतिहास पढने से तो ईतिहास से दूर रहेना ही अच्छा. इस प्रोपगेंडा फिल्म से भी दूरी बनाए रखने में ही भलाई है…