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फिल्म रिव्यू बाटला हाउस

बाटला हाउस. साल 2008 में दिल्ली के जामिया नगर के एल- 18 बाटला हाउस में हुए एनकाउंटर पर आधारित इस फिल्म की कहानी कुछ यूं है की…

13 सितंबर 2008 को दिल्ली में हुए सीरियल बोम्ब ब्लास्ट की जांच के लिए दिल्ली पुलिस के स्पेशियल सेल के ओफिसर संजीव कुमार यादव (जॉन अब्राहम) अपनी टीम के साथ बाटला हाउस की इमारत की तीसरी मंजिल पर पहुंचते हैं. वहां इंडियन मुजाहिदीन के संदिग्ध आतंकियों के साथ पुलिस की मुठभेड़ होती है और गोलीयों की बौछार के चलते दो संदिग्धों के साथ पुलिस अफसर के. के. (रवि किशन) की मौत हो जाती है. एक संदिग्ध घटनास्थल से भाग निकलने में कामियाब रहेता है. इस मुठभेड़ के बाद पूरे देश में आक्रोश का माहोल बन जाता है. इस एनकाउंटर को फर्जी बताकर मायनोरिटी धर्म के बेकसूर छात्रों को मारने का गंभीर आरोप पुलिस डिपार्टमेन्ट पर लगाया जाता है. मीडिया, राजनितिक पार्टियां, मानवाधिकार संगठन और आम जनता पुलिस डिपार्टमेन्ट पर, खास कर संजय कुमार को, कसूरवार घोषित कर देती है. सक्ते में आए पुलिसवालों को कई सारी परेशानियों को सामना करना पड़ता है. इन सब के बीच संजीव कुमार यादव पोस्ट ट्रॉमैटिक डिसॉर्डर नामक मानसिक बीमारी से जूझने लगते है और उसका वैवाहिक जीवन भी तूटने की कगार पर आ जाता है.

गैलेंट्री अवॉर्ड्स से सम्मानित जांबाज पुलिस अफसर के रोल में जॉन अब्राहम बिलकुल सही कास्ट किए गए है. उनका उठना-बैठना-चलना, उनका पहेनावा सभी कुछ एक असली पुलिस अफसर जैसा है. पुलिस की वर्दी उनके गठिले बदन पर खूब जचती है. उनका अभिनय भी सराहनीय है. जॉन द्वारा तुफैल (आलोक पांडे) को कुरान की आयत को समझाने वाला सीन तथा कोर्ट रुम में जॉन की आखरी स्पीच वाला सीन फिल्म के दमदार सीन्स कहे जा सकते है. काफी नपा-तुला और सहज अभिनय किया है उन्होंने इस फिल्म में. के.के. का रोल छोटा है लेकिन इस छोटे से रोल में भी रवि किशन अपनी छाप छोड जाते है. जॉन के सिनियर ओफिसर की भूमिका में मनीष चौधरी का काम उमदा है. डिफेन्स लॉयर के रोल में राजेश शर्मा ने हमेशा की तरहा बढिया काम किया है. जॉन की पत्नी की भूमिका में नजर आईं मृणाल ठाकुर बस ठीकठाक ही लगीं. उनके मुकाबले नोरा फतेही बहेतर थीं. ‘साकी’ गाने में खूब नाचनेवाली नोरा के अभिनय में थोडी कमी फिर भी लगीं. उनमें वो तीखी मिर्ची वाली बात नहीं है जो इस रोल के लिए जरूरी थी. सहिदुर रेहमान और क्रांति प्रकाश झा अपने अपने किरदारों में फिट लगे.

सुपरहिट ‘कल हो ना हो’ और सुपरफ्लोप ‘चांदनी चौक टु चाइना’ जैसी फिल्में देनेवाले निर्देशन निखिल आडवाणी का काम ‘बाटला हाउस’ में ठीकठाक कहा जा सके एसा ही है. गंभीर विषय पर उन्होंने गंभीर फिल्म बनाई है, पर मनोरंजन की कमी खलती है. पुलिस डिपार्टमेन्ट की अंदरूनी धोखाधडी, गंदी राजनीति और धार्मिक कट्टरता को उन्होंने अच्छे से दिखाया है, लेकिन इन सब के चलते फिल्म कुछ ज्यादा ही वास्तविक और अतहः बोजिल सी बन गई है. उन्होंने फिल्म में बाटला हाउस एनकाउंटर से संबंधित कई रियल फूटेज भी इस्तेमाल किए है जिनमें लालकृष्ण आडवाणी, अमर सिंह, अरविंद केजरीवाल, दिग्विजय सिंह और सलमान खुर्शीद जैसे दिग्गज नेताओं को देखा जा सकता है. इन्टरवल के बाद नेपाल-भारत के बोर्डर पर घटनेवाली घटनाएं रोमांचक है. फिल्म के क्लाइमेक्स में कोर्टरूम के सीन्स भी दमदार है. पुलिस डिपार्टमेन्ट को व्हाइट (हीरो) या ब्लॅक (विलन) दिखाने के बजाय ग्रे शेड में दिखाने के लिए निर्देशक निखिल की सराहना करनी पडेगी.

औसतन निर्देशन के उपरांत फिल्म के संवाद भी एवरेज ही है. माहिर जवेरी का एडिटिंग कहीं कहीं ढिला पडता नजर आता है. सौमिक मुखरजी का कैमेरावर्क तारीफेकाबिल है. संगीत पक्ष की बात करे तो पर्दे पर केवल दो गाने दिखें. ‘मुसाफिर’ फिल्म का रिमास्टर्ड गाना ‘साकी’ काफी अच्छा बना है और इसका फिल्मांकन भी एक नंबर है. जबकी दूसरा गाना ‘रुला दिया…’ बस ‘आया और गया’ टाइप का है.

कुल मिलाकर देखे तो ‘बाटला हाउस’ वास्तविकता से भरपूर एक इन्टेन्स फिल्म है, लेकिन मनोरंजन की साफ कमी के चलते इस फिल्म का बोक्सओफिस परफोर्मन्स कुछ खास नहीं होगा. मेरी ओर से 5 में से केवल 2 स्टार्स.

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