मन्नू की वह एक रात - 19 Pradeep Shrivastava द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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मन्नू की वह एक रात - 19

मन्नू की वह एक रात

प्रदीप श्रीवास्तव

भाग - 19

‘बताऊं क्यों नहीं, जब एक बार शुरू कर दिया है तो पूरा बता कर ही ठहर पाऊंगी। जैसे एक बार चीनू के सामने फैली तो बरसों फैलती ही रही।’

‘क्या! बरसों।’

‘हां यह सिलसिला फिर कई बरस चला। शुरू के कुछ महीने तो एक आस रहती थी कि शायद इस बार बीज उगेंगे, कोंपलें फूटेंगी। मगर धीर-धीरे यह आस समाप्त हो गई। हर महीने पीरिएड आकर मुझ को अंदर तक झकझोर देता। मेरे अंदर कुंठा भरती जा रही थी। और तब गांव की पंडिताइन चाची की बात याद आती जो वह अपनी बड़ी बहुरिया जिसके लाख दवादारू के बाद भी कोई बच्चा नहीं हुआ था, कोसती हुई कहती थीं कि ‘'अरे! ठूंठ मां कहूं फल लागत है।'' या फिर ''रेहू मां कितनेऊ नीक बीज डारि देऊ ऊ भसम होइ जाई। अरे! जब बिजवै जरि जाई तो फसल कहां से उगिहे।'’

ऐसी न जाने कितनी जली-कटी बातें वह अपनी बहुरिया को उसके सामने ही कहा करती थीं। मेरा सौभाग्य था कि मेरे सामने मुझे ऐसे कोसने वाला कोई न था। हां पीठ पीछे होने वाली तमाम बातें कानों में पिघला सीसा ज़रूर उडे़लती रहीं। मुझे भी एक समय ऐसा आया जब पूरा यकीन हो गया कि पंडिताइन चाची सही ही कहती थीं। ठूंठ में फल नहीं आते। अब मन में यह आने लगा कि जब ठूंठ हूं, फल आ नहीं सकते तो इस ठूंठ का जो उपयोग हो सकता है वही कर डालो।

मैं उपयोग में लग गई। मगर उपयोग कैसा हो यह मैनेज न कर पाई। और अंजाम यह हुआ कि एक दिन मैंने चीनू को खुद बुला लिया। पर वह किसी काम में व्यस्त हैं कहकर टाल गया। इससे मैं बड़ी खिन्न हुई। पहली बार की घटना के बाद जब वह घर से गया तो काफी दिन तक न आया। यही कोई डेढ़ महीने तक। इसी बीच उसके इग्ज़ाम खत्म हो गए थे। हमारे इनके बीच संबंधों में थोड़ी नर्मी भी आ गई थी। तीसरे चौथे यह अब मुझे लेकर कहीं न कहीं जाने भी लगे थे। इतने ही दिनों के अंतराल पर उनकी आग धधक उठती और मेरी ज्वाला भी, फिर हम दोनों बिस्तर पर एक दूसरे की ज्वाला शांत करने का प्रयास करते हुए वास्तव में अपनी आग बुझाने का प्रयास करते।

मैं इस बात से पूर्णतः संतुष्ट रहती थी कि मैं इनकी आग को पूर्णतः ठंडा कर देती हूं। इसका अहसास मुझे इनके वह खर्राटे देते जब यह ज्वाला के शांत होते ही कुछ ही देर में इतनी गहरी नींद सोते की होश न रहता। खर्राटे मुझे हिला कर रख देते। अब बिस्तर पर मैं संकोच की सारी बात भूल गई थी। जो इच्छा होती वही करती। मैं सेक्स को उसकी अंतिम सीमा तक जीने की कोशिश में लग गई। इस सोच के दिमाग में आते ही, संकोच को जुतिया के अलग करते ही बिस्तर पर मैं इतना अग्रेसिव होने लगी कि यह भी हिल उठे। एक दिन ज्वार के उतरने के बाद जब मैं इन्हीं में समाई गहरी सांसें लेकर अपनी उखड़ी हुई सांसों को सम्हालने की कोशिश कर रही थी तो इन्होंने मेरे एक स्तन को हाथ में दबोचते हुए बड़े दुलार से कहा,

'‘साली आज कल क्या हो गया है तुझे। एकदम पागल हो जाती हो।'’ मैं कुछ न बोली बस और कसके चिपक गई इनके साथ। इस पर इन्होंनें मेरे स्तन बड़ी बेदर्दी से उमेठ दिए। मैं चिहुंक कर थोड़ा अलग हो बोली,

’क्या करते हैं। दर्द होता है।’

’'वही तो जानना चाहता हूं कि तुम्हें अचानक इतना दर्द कहां से होने लगा। इसके पहले इतना जोश तो कभी नहीं दिखा था। माजरा क्या है?'’

मैंने गर्म लोहे पर चोट की। सीधे बेलौस कहा माजरा सिर्फ़ इतना है कि मैं अपने सामने आपको हमेशा खुश, संतुष्टि देखना चाहती हूं, जिससे आप को भटकना न पड़े। मैं मूर्ख थी जो इतने बरसों बाद समझ पाई कि बिस्तर पर आप मुझसे चाहते क्या हैं। और मेरा अनुभव अब यह भी कहता है कि यदि पति-पत्नी बिस्तर पर संतुष्ट हैं तो जीवन के हर क्षेत्र में संतुष्ट होंगे। दांपत्य जीवन सफल होगा। अब मैं यह भी मानती हूं कि सेक्स गलत नहीं है। इसको मन में दबाए रहना ही गलत है, बस माजरा यही। यह कहते हुए मैंने भी इनका पुरुष अंग पकड़ कर खींच दिया। इनके मुंह से हल्की सिसकारी सी निकल गई। इस पर इन्होंने भी मेरे स्तन और कस कर दबा दिए। बड़े प्यार से शब्दों को चबाते हुए बोले, ''देर से सही, ज्ञान आ तो गया।''

फिर वह और मैं एक और ज्वार का अहसास कर जुट गए। अपनी सुहागरात की तरह एक यह रात भी मुझे नहीं भूलती। मगर इन दोनों रातों के अविस्मरणीय होने के कारण अलग-अलग हैं। सुहागरात इसलिए नहीं भूलती कि वह पीड़ादायी थी। सपनों के सारे महलों के एक सेकेण्ड में भरभरा कर गिर जाने की रात थी। मगर यह रात रिश्तों में जमी तमाम बर्फ़ के पिघल जाने की रात थी। मगर इसी बीच मुझे नई समस्या ने घेरना शुरू कर दिया। मैंने महसूस किया कि बिस्तर पर अब मैं भोग इनको रही होती हूं लेकिन इस बीच दिमाग में चीनू घुस आ रहा है। उसका खून जो लग चुका था अब वह रंग दिखाने लगा था। अब इनका तुफान मुझे अंदर तक बेध कर शांत न कर पाता था। यह बात बड़ी तेजी से बढ़ती जा रही थी।’

‘और बच्चे की चाहत खतम हो गई थी।‘

‘नहीं बच्चे की चाहत की आग भी पूर्ववत् जलती रही थी। मगर अब कोई उम्मीद न बची थी सो निराश हो गई थी। हताशा-निराशा का फ्रस्ट्रेशन दूसरी तरफ से निकलने लगा था।

इस बीच इग्ज़ाम के समय जाने के करीब ढाई महीने के बाद एक दिन भरी तपती दोपहरी में चीनू आ गया। उसका आना थोड़ा अप्रत्याशित था मेरे लिए। क्योंकि जब वह यहां से गया था और जब ज़िया से बातें करने के बाद मुझे यह यकीन हो गया था कि उसने किसी से कुछ नहीं कहा तो मैंने बात को और पक्का करने के लिए कई बार फ़ोन ऐसे समय पर किया कि वह घर पर हो और फ़ोन वही उठाए। कई बार उसने उठाया, बात भी उससे मैंने की यह शो करते हुए कि जैसे मैं बात करना चाह रही थी ज़िया से लेकिन फ़ोन उसने उठा लिया। मगर उसने एक बार भी ऐसा ज़ाहिर नहीं किया कि वह बात नहीं करना चाहता बल्कि वह बात को लंबा खींचने की पूरी कोशिश करता था।

धीरे-धीरे बात को रोमांटिक मोड़ देते हुए वह एकदम मेरे साथ बिताए अंतरंग क्षणों की बात छेड़ बैठता था। और सीधे बोल बैठता था आप बहुत सेक्सी हो। इस पर मैंने उसे कई बार मना किया मगर वह बदतमीजों की तरह हंसता रहता। एक बार मैंने खीझ कर उसे झिड़कते हुए कहा,

’दोबारा यह बोलने की हिम्मत न करना।’

मगर वह शांत होने के बजाए और भद्दी बातें करने लगा और अगले दिन आने की बात कहने लगा। अब मैं आपा खो बैठी और कहा,

’अगर तुम सीधे न माने तो मैं आत्महत्या करके तुम्हारा नाम लगा दूंगी।’

इतना कह कर मैंने फ़ोन काट दिया, मगर डर रही थी कि वह अगले दिन आ गया तो क्या करूंगी। मगर वह आया नहीं और न ही फ़ोन किया। मगर जब उस दिन अचानक ही तपती दोपहरी में आ गया तो मेरा दिल धक् से हो गया। वह साइकिल से आया था। पसीने से लथपथ था। पहले जहां वह आने पर पैर छूता था अब तभी छूता जब उसके परिवार का कोई सदस्य साथ होता था । आज भी उसने पैर नहीं छूए सिर्फ़ नमस्ते किया। उसकी आवाज़़ उसके अंदाज में बड़ी ढिठाई थी। मेरे कुछ कहे बिना ही धम्म् से सोफे पर बैठ गया। फिर मुझे जाने क्या हुआ कि यंत्रवत सी अंदर गई और दो पीस मिठाई और पानी लाकर उसके सामने रख दिया।

उसने बड़े अधिकार से एक पीस मेरी तरफ बढ़ा दिया, मैंने मना किया तो बोला, ''आप नहीं लेंगी तो मैं भी नहीं लूंगा। जिद् के आगे हार कर मैंने ले लिया। फिर मुझे आश्चर्य में डालते हुए अंदर फ्रिज से एक बोतल और एक गिलास लेकर आया। पानी भर के गिलास मुझे पकड़ा दी। मैं किंकर्त्तव्यविमूढ़ सी देखती रही सब। जो गिलास मैं लाई थी वह उसने खुद ले ली। इसके बाद उसने अपनी शर्ट की दो बटनों को खोल कर कालर पीछे पलट दिया। उस समय सीलिंग फैन पूरी रफ्तार से चल रहा था। मैंने महसूस किया मेरे अंदर भी कुछ चलना शुरू हो गया है। बेचैनी सी होने लगी तो मैं उसे वैसा ही छोड़ कर दूसरे कमरे में आ गई।

बाहर तेज धूप की तपिश अपने पूरे चरम पर थी। मैं समझ नहीं पा रही थी मैं क्यों बेचैन हो रही हूं। मन में यह भी आया कि कह दूं इससे कि चला जाए यहां से। मगर ज़िया क्या कहेंगीं या सोच कर रुक गए क़दम। गला सूखने लगा तो पानी पीकर आ गई। मगर लगा पानी भी मेरी प्यास नहीं समझ पाया है। मैं कमरे में इधर-उधर चहल क़दमी करने लगी। बार-बार जितना कोशिश करती कि चीनू की तरफ से ध्यान हट जाए लेकिन मन था कि सारी बाड़ें कूद कर चला जाता चीनू के पास। जब मन ज़रूरत से ज़्यादा भटकने लगा तो मैंने तय कर लिया कि आज चीनू को इस तरह डांट कर भगाऊंगी कि जीवन में दुबारा नहीं आएगा।

ज़िया को बुरा लगता है तो लगता रहे। बहुत होगा वह भी आना बंद कर देंगीं । खत्म हो जाएंगे सारे संबंध। हो जाए मेरी बला से। इसको जो भी बताना है बता दे दुनिया को। यकीन कौन करेगा इसकी बात पर। और कर भी लिया तो दुनिया क्या कर लेगी। दुनिया पहले अपने अंदर झांके। बाहर तो बाहर अंदर बंद कमरों में लोग जाने क्या-क्या कर रहे हैं। यह सोच मैं एक झटके में उठी चीनू को बाहर करने के लिए। कमरे के दरवाजे पर पहुंची तो चीनू से टकराते-टकराते बची। वह अंदर ही आ रहा था। एक झटके से रुक गए हम दोनों। हमारे बीच दूरी सिर्फ़ इतनी थी कि मुश्किल से हम दोनों के बीच से एक चुहिया गुजर पाती।

मेरे दिल की धड़कन बढ़ कर एकदम आसमान को छूने लगी। उखड़ी हुई सांस या दिल की तेज धड़कनें थरथराहट न सिर्फ़ मैं बल्कि उसका अहसास चीनू भी कर रहा था। साफ़ सुन रहा था वह सारी हलचलें। कुछ क्षणों तक न मैं कुछ बोली न वह। वह एकटक देखता जा रहा था मुझे। मेरा सिर उसकी ठुड्डी तक ही पहुंच रहा था। मैंने नजर उठा कर देखा तो वह बड़ी कामुक नजरों से कभी मेरे चेहरे, तो कभी मेरे वक्ष-स्थल की गहराई में उतर रहा था। हम चूंकि दरवाजे के बीचो-बीच थे इसलिए बगल से न मैं निकल सकती थी न वह। मैं पीछे हटी तो वह और आगे बढ़ आया। फिर उसने अपने दोनों हाथों से बहुत प्यार से मेरी बांहें थाम ली। मैं आज तक वैसी स्थिति का मनोविज्ञान न समझ पाई कि ऐसी कौन सी ऊर्जा तब की स्थिति में सक्रिय हो जाती थी कि मैं विरोध करने का प्रण करके बढ़ती थी, मगर उस छोकरे के सामने पड़ते ही समर्पित हो जाती थी।’

‘मतलब की उस भरी दोपहरी में तुम दोनों ने फिर अपनी वासना की आग बुझाई। हे! राम .... कैसा अनर्थ करती रही तुम। चलो एक बार गलती हो गई। बार-बार वही काम। यह गलती नहीं यह तो जानकर किया जाने वाला काम है, धृष्टता है। बेहयाई बेशर्मी है। न जाने अम्मा की परवरिश कहां गच्चा खा गई कि तुम ऐसा पतित काम करती रही।’

‘बिब्बो मां-बाप के संस्कारों, शिक्षा की सीमा वहीं समाप्त हो जाती जब व्यक्ति खुद कुछ सीखने लायक बन स्वतंत्र रूप से सोचने लगता है।’

‘अब पता नहीं। चलो माना कि वो तो एक मनचला था मगर तुम .... । कैसे तुम्हारी हिम्मत पड़ती थी कि भरी दोपहरी में निर्द्वंद्व होकर वासना का खेल-खेल रही थी, जरा भी लिहाज या शर्म संकोच नहीं था।’

‘जब क़दम एक बार बहक जाते हैं तो बहकते ही रहते हैं। मेरे साथ भी यही हो रहा था।’

‘फिर इसके बाद क्या हुआ ? तुम दोनों कब तक यह गुल खिलाते रहे।’

‘फिर यह चलता ही रहा।’

‘जब इस तरह के घिनौने खेल में तुम लगातार डूबी रही तो बच्चा गोद लेने की बात कब आ गई।’

‘गोद लेने की बात तो मेरे दिमाग में तभी आ गई थी जब पूरी तरह से यह तय हो गया, मुझे यह विश्वास हो गया कि मैं ठूंठ की ठूंठ ही रहूंगी। तभी मैंने बच्चा गोद लेने की बात सोची। मेरी इस मंशा को जानते ही देवरानियों-नंदों में एक होड़ सी मच गई कि मैं उनके बच्चे को गोद ले लूं। अब मुझे जीवन का एक नया अनुभव मिला। सब अपने-अपने बच्चे को लेकर खड़े हो गए। यहां तक कि किशोरावस्था पार कर चुके भतीजे खुद अपनी पैरवी करते हुए कहते,

‘'अरे! चाची हमें ले लो हम जैसी सेवा करेंगे वैसी कोई न कर पाएगा।'’

धन कितना ताकतवर होता है यह अब मैं और साफ देख रही थी। जो मांएं बड़ी-बड़ी बातें करती थीं आज वही यह सोच कर कि उनके बच्चे को गोद लेने पर उसे मेरी सारी प्रॉपर्टी मिल जाएगी, टूटी पड़ रही थीं मुझ पर। जो सालों दिखाई नहीं देते थे वह अब आए दिन आकर टिके रहते। इससे मैं और यह दोनों ही आज़िज़ आ गए। ये तो खैर उस समय तक बच्चा गोद लेने के बारे सोच ही नहीं रहे थे इसलिए मुझ पर बेहद गुस्सा होते। मार गाली देते। सारे हालात को देख कर मैंने भी सोच लिया कि जो भी हो जाए इन लोभियों को पास नहीं फटकने दूंगी। फिर एक-एक कर मैंने सबको भगाना शुरू कर दिया। ऐसा किया कि चार-छः महीने में सबने बंद कर दिया। क्योंकि मैंने सबको साफ बता दिया कि लूंगी तो किसी बाहरी को किसी रिश्तेदार को नहीं। इस बीच चीनू में भी कई बदलाव आते जा रहे थे। वह अब हम दोनों का बहुत ख़याल रखने लगा था। उसके व्यवहार से यह भी काफी इंप्रेस हो गए थे।’

***