मन्नू की वह एक रात
प्रदीप श्रीवास्तव
भाग - 18
ज़िया की इस बात से मैं सिहर उठी। कांप गई अंदर तक कि चीनू ने सब बता दिया है। उसने मुझे ज़िया के सामने एकदम नंगी कर दिया है। मुझे अपनी नजरों के सामने फांसी का फंदा झूलता नजर आने लगा था। क्योंकि मैं यह ठाने बैठी थी कि अगर चीनू ने किसी को भी बताया तो मैं ज़िंदा नहीं रहूंगी। आत्महत्या कर लूँगी । मैं इस ऊहा-पोह के चलते कुछ क्षण तक कुछ न बोल पाई तो ज़िया फिर बोली,
'‘हैलो! मन्नू क्या हुआ ?'’
‘अं ..... कुछ नहीं ज़िया।’
'‘मैं ये कह रही थी कि अगर तुम बुरा न मानो तो मैं कुछ कहूं।'’
‘नहीं ज़िया तुम्हारी बात का क्या बुरा मानना। कहो न क्या कहना चाहती हो।’
'‘असल में मन्नू ये बात मैं कहना तो बहुत समय से चाहती थी। लेकिन कुछ तो संकोच और फिर यह सोच कर कि ऑफ़िसों में आदमियों के साथ तो तमाम बातें होती ही रहती हैं। इन पर ज़्यादा ध्यान देने का कोई मतलब नहीं है। मगर भइया को लेकर कुछ ज़्यादा ही बातें हैं। तुम इन पर थोड़ा ध्यान क्यों नहीं देती। मेरा मतलब है कि मर्दों को बाहर मुंह मारने से रोका तो नहीं जा सकता लेकिन उन्हें एकदम खुला छोड़ना भी समझदारी नहीं है। मीनाक्षी को लेकर न जाने क्या-क्या बातें हो रही हैं। फिर चीनू आया तो वह भी बता रहा था। आखिर बात क्या है कि तुम दोनों के बीच खांई इस कदर गहरी होती जा रही है। मैं तो तुम्हें ही कहूंगी। हालात को काबू में करो नहीं तो मर्दों का कोई ठिकाना नहीं कि कब सौतन लाकर बगल में बैठा दें। कुछ करो तुम।'’
ज़िया की बातों ने मुझे उस समय कितनी बड़ी राहत दी मैं बता नहीं सकती। क्योंकि उनकी बात से यह तो साफ हो गया कि चीनू ने सब बताया था लेकिन उस स्याह रात परिस्थितियों के चलते जो एक अनकहा रिश्ता बन गया था हम दोनों के बीच, जिसकी फांस आज तक मुझे घायल कर रही है और शायद मरने के बाद भी करती रहेगी, उस रिश्ते के बारे में उसने बड़ी बुद्धिमानी से कुछ नहीं बताया था । मन ही मन मैंने भगवान और चीनू दोनों को ही धन्यवाद दिया और तुरंत ज़िया से बोली,
‘ज़िया शादी के बाद इतने बरसों में जो कुछ किया जा सकता है मैंने वह सब कुछ किया। यह सब कुछ करने में भूल गई या यह कहो कि भुला दिया कि एक औरत एक पत्नी के नाते मेरे भी कुछ अधिकार हैं। मेरे भी कुछ सपने हैं। मेरी भी कुछ भावनाएं हैं। ज़िया मैं क्या-क्या बताऊं कि मैंने सारी हदें पार करके सब कुछ किया। इनके मन की बात हो ? यह खुश संतुष्ट रहें हमेशा यही कोशिश करती आ रही हूं। लेकिन न जाने क्यों जितना किया दूरी उतनी ज़्यादा हुई। न जाने कितनी बातें हैं, कितनी ढेर सारी बातें हैं जो मैंने आज तक तुम्हें भी नहीं बताईं । आखिर यह चाहते क्या हैं मैं समझ ही नहीं पा रही। जब-जब सारी जोड़-गांठ करती हूं तो एक ही निष्कर्ष मेरे सामने होता है कि बहुत से मर्दों की आदत होती है कि जब तक चार जगह मुंह नहीं मार लेते उन्हें चैन नहीं पड़ता। पर मेरे यहां तो बात इससे भी आगे है। चार क्या चालीस जगह मुंह मार लेते हैं फिर भी मन है इनका कि भटकता ही रहता है। आखिर तुम्हीं बताओ ज़िया मैं और क्या करूं।’
‘'आखिर कुछ तो यह बोलते होंगे कि ऐसा क्या है जो यह चाहते हैं और तुम नहीं दे पा रही हो।'’
‘ज़िया मैंने कहा न यह जो कुछ जैसा चाहते हैं वह सब दिया, यह जैसा चाहते हैं वह सब किया और कि करती ही आ रही हूं। लेकिन बात जहां की तहां रहती है। फिर अब तो ....... । चलो छोड़ो ज़िया जो किस्मत में था हुआ और जो होना है वह होगा। जब बात आएगी सामने वह भी देखेंगे, झेलेंगे। अच्छा यह बताओ चीनू के पेपर का क्या हुआ वह यहां आया नहीं।’
ज़िया बात आगे और न बढ़ा सके इस लिए मैंने चीनू की बात छेड़ दी। लेकिन बिब्बो कहते हैं न कि जब घर की बात घर से बाहर निकल जाती है न तब किसी को चुप नहीं कराया जा सकता। ज़िया चुप नहीं हुई खोद-खोद कर पूछती रही। एक घंटे तक बात की। जबकि अमूमन वह फ़ोन पर ज़्यादा बात करती नहीं थीं। और जब उन्होंने दुखती रग छेड़ दी तो कुछ देर बाद मैं भी बह गई भावना में और बहुत सी ऐसी बातें उस दिन उन्हें बता दीं जो वास्तव में नहीं बतानी चाहिए थीं। मैं यहां तक बता गई कि यह अननैचुरल सेक्स के भी आदी हैं, सेक्स के दौरान पीड़ा देने में इन्हें मजा आता है, सुख मिलता है। जिससे मुझे घृणा है। जिसकी इज़ाज़त भारत का कानून भी नहीं देता। मगर इस बात पर ज़िया की प्रतिक्रिया ने मुझे सकते में डाल दिया वह बोलीं,
'‘मन्नू क्यों नैचुरल-अननैचूरल के चक्कर में पड़ी हो। अरे! आदमी दो चार मिनट इधर का उधर, उधर का इधर कर देंगे तो उससे औरतों के शरीर पर कोई फ़र्क नहीं पड़ जाता। ऐसी छोटी-छोटी बातों को लेकर बैठोगी तो दूरिया बढ़ेंगी ही। तमाम औरतें इस तरह का भेद करती ही नहीं जो तुम कर रही हो। बेवजह जीवन कठिन किए हुए हो। भूल जाओ यह सब।'’
ज़िया ने जिस तरह से इनकी इस आदत का पक्ष लिया मैं दंग रह गई। मुझे पक्का यकीन हो गया कि ज़िया भी नैचुरल-अननैचुरल के फेर में पड़ने वाली औरत नहीं है। मैं कंफ्यूज हो गई उनकी बातें, उनके तर्क सुन कर। उस दिन मैंने यह भी जाना कि ज़िया खजुराहो की मैथुनी मुर्ति कला की परम प्रशंसक है। इतना ही नहीं प्रसंग आते ही वह वात्स्यायन के कामसूत्र का ब्योरा खोल बैठीं और यह भी बताया कि शादी के बाद जब वह पति के साथ ससुराल से बनारस गईं जहां पर उनके पति की पोस्टिंग थी तो वहां पर सिर्फ़ इस खातिर पति के साथ कई बार शराब पी कि जीवन का मजा लेते समय संकोच-शर्म आड़े न आए। इतना ही नहीं घर वालों को बताया कि वैष्णो देवी जा रहे हैं लेकिन गए खजुराहो, फिर ऐसा कई बार किया कि बताया तीर्थ स्थल लेकिन गए गोवा बीच या हिल स्टेशन।
ज़िया उस दिन बात करते-करते जिस तरह से पति से अपने रिश्तों को लेकर चटखारे ले-ले कर बतिया रही थीं उसे सुन कर मैं सोच में पड़ गई कि यह वही धीर गंभीर कम बोलने वाली ज़िया है। जो वास्तव में इतनी बोल्ड है। और कहती हैं कि सेक्स संबंध जितना गहरा होगा, जितना खुला होगा, और संकोच रहित होगा भावनात्मक संबंध उतना ही ज़्यादा मज़बूत होगा। और जिन पति-पत्नी के बीच सेक्स संबंध ठंडे होंगे उनके बीच भावनात्मक रिश्ता या लगाव भी कम होगा। उस दिन ज़िया ने यहां तक बताया कि आज जब कि बच्चे उनके हाई स्कूल, इंटर में पहुंच गए हैं और वह प्रौढ़ावस्था जी रही हैं फिर भी दोनों के बीच सेक्स संबंधों में गर्मी बनी हुई है, मकान बनवाते समय कर्ज बहुत हो गया लेकिन उन्होंने सबसे ऊपरी मंजिल पर अपने लिए एक अलग कमरा बनवाया है। और आज भी मियां-बीवी बच्चों से अलग अकेले ही सोते हैं।
ज़िया की एक-एक बात न सिर्फ़ मेरे दिलो-दिमाग पर हथौड़े की तरह पड़ रही थी बल्कि मुझे पूरी तरह गड्मड् कर दिया था। आखिर उनकी अंतहीन होती जा रही बातों से मैं तंग आ गई तो उसे समाप्त करने के लिए कहा ज़िया बाद में फ़ोन करती हूं लगता है कोई आया है। जाऊं जाकर गेट खोलूं। यह कहने के बाद मैंने फ़ोन रख दिया। मगर ज़िया की बातें दिलो-दिमाग पर छाई रहीं। उमड़-घुमड़ चलती रही। हां एक बात ज़रूर दिमाग में आ रही थी कि ज़िया के पास डिग्रियां भले ही मुझ से बहुत कम हैं। वह केवल हाई स्कूल पास हैं लेकिन जीवन का असली राग, असली सुर वही जानती हैं। और जीवन के सातों सुर बड़ी होशियारी से साध रही हैं। मैं लगी करने विश्लेषण तो पाया कि मैं तो सुर सधता कहां से है? कैसे समझूं सुर, कैसे साधूँ सुर इसका ककहरा ही नहीं जान पाई हूं। जिंदगी के सरगम में सात सुर होते हैं या सैंतालीस मैं तो यह भी न जान समझ पाई हूं अब तक। इस उधेड़-बुन में शाम हो गई। यह आ गए। चाय-नाश्ता हुआ, फिर खाना -पीना हुआ। देर रात बेड पर सोने पहुंच गए।
आज फिर मैं इन्हीं के साथ सोई। ज़िया की बातें अब ज़्यादा बड़े हथौड़े की तरह ज़्यादा चोट कर रही थीं कि सेक्स जितना खुला, जितना गहरा, जितना तीव्र होगा भावनात्मक रिश्ता उतना ही मज़बूत होगा अंततः इन हथौड़ों की चोट ने इस निष्कर्ष पर पहुंचा दिया कि चलो ज़िया का फार्मूला अपनाएं। आश्चर्यजनक रूप से उस रात भाग्य मुझे अपने साथ खड़ा दिखा। जीवन में उस दिन मैं पहली बार बेहद उन्मुक्त अंदाज में पति के साथ सेक्स के लिए खुद पहल कर रही थी और आश्चर्यजनक रूप से उस पहल का बहुत ही जोशपूर्ण ढंग से उत्तर मिला भले ही थोड़ा देर से।
मैं चकित थी अपनी किस्मत पर। उस दिन सेक्स का मेरा अनुभव एकदम नया था। बिल्कुल नए रूप में एकदम ताजा। उमंग से भरा, आवेग की सारी सीमाएं तोड़ता हुआ। उस दिन न सिर्फ़ मैं बल्कि उनके लिए भी अचरज भरा अनुभव रहा होगा। क्योंकि जब ज्वार उतरा तो उसके बाद उनका जो व्यवहार था जिस ढंग से उन्होंने मेरे अंगों को कई बार चूमा, दांत गड़ा दिया उससे मुझे पूरा विश्वास हुआ कि आज बात बहुत बदली हुई है। वजह शायद ज़िया की बातें रहीं। उनकी बातों का जो असर हुआ था मुझ पर, जिसके कारण मैंने सेक्स में नई तरह से पहल की थी वह इनके मन की थी। इतने बरसों बाद मैं कुछ हद तक समझ पाई कि वास्तव में यह चाहते क्या हैं। इनका टेस्ट क्या है।’
‘जो भी हो, मानना पड़ेगा कि तुम और तुम्हारी ज़िया कमाल की हैं। सेक्स-वेक्स की इतनी अहमियत होती है ज़िंदगी में आज तुम्हीं से सुन रही हूं। सेक्स के लिए ऐसी हवस के बारे में पहली बार सुन रही हूं। वो भी अपनी सगी बड़ी बहन से। अरे! मैं भी औरत हूँ । हमारे भी आदमी था। कभी-कभी वह भी आपा खो बैठते थे। बेड पर ऐसे रौंदते थे मानो मैं उनकी पत्नी न हो कर कोई जानवर हूं जिसे जैसे चाहें हलाल करें । लेकिन यह भी तभी होता था जिस दिन यह भांग छक के खाते थे। उस मुई भांग में न जाने ऐसा क्या जहर होता था कि यह आपा खो बैठते थे। इनकी अति तो इतनी होती कि समाज, घर के अन्य सदस्यों की परवाह भी नहीं करते तो मैं जबरदस्ती ठंडा पानी इनके सिर पर डाल देती थी, खटाई भर देती थी मुंह में, मगर ये जो आवेग, नया प्रयोग, जाने क्या-क्या सुना रही हो यह कभी मेरे पल्ले नहीं पड़ा।
ज्वार-भाटा सब मेरी समझ के परे था, है और रहेगा। बस इतना ही मुझे ठीक लगता है, वही जो मैं जीवन भर करती रही कि औरत आंख बंद किए पड़ी रहे, और पति जल्दी से निपट ले। मगर औरत हवस में पागल हो जाए मेरी नजर में यह कभी यह सही नहीं था। मैंने अपनी लड़कियों को यही समझाया। यही सिखाया। क्योंकि मैं यह निष्कर्ष निकाल रही हूँ कि अगर तुम प्रयोग, ज्वार-भाटा, आवेग जैसी चीजों से अपरिचित रहती या इसे अहमियत न देती, तो निश्चित ही चीनू जैसे छोकरे के सामने तुम न फैलतीं। तुम हिम्मत ही न कर पाती एक छोकरे के सामने फैलने की। वैसे जब जीजा ने सब तुम्हारे मन का कर दिया तो उसके बाद फिर चीनू का क्या हुआ। क्या इसके बाद चीनू से तुम्हें ज़्यादा संतुष्टि महसूस हुई और बाद में भी चीनू से तुम्हारे संबंध कायम रहे।’
‘देखो बिब्बो बहुत साफ बताऊं। जब सच बता रही हूं तो इस बारे में भी साफ-साफ सुन लो। मैं कुछ भी छिपाने नहीं जा रही बार-बार कह रही हूं। जहां तक चीनू के सामने फैलनें, आवेग, प्रयोग और न जाने क्या-क्या बोल गई तुम इन सबके लिए पहले तो यही कहूंगी कि तुम सिर्फ़ यही जानती हो कि पति देवता है वह जो करे वही सही है। वह पूजनीय है। पत्नी उसकी चरण-वंदना करती रहे। उसकी लाख इच्छाएं हों लेकिन वह उन सबका गला घोंट दे। कभी प्रकट न करे। दीनहीन दासी बनी उसकी ठोकरें खाती रही। मगर मेरी नजर में यह सब गलत है। यदि पति देवता हैं तो मैं मानती हूं कि पत्नी देवी है। जब तक पत्नी देवी नहीं होगी देवता अधूरा रहेगा। और देवी चीनू जैसे छोकरों को सामने फैलती तभी हैं जब देवता देवी को पहनी हुई जूती समझ कर कहीं कोने में डाल देता है। मैं भी चीनू जैसे छोकरे के सामने निश्चित ही इसीलिए फैल गई, क्योंकि मैं एक पहनी जा चुकी हमेशा के लिए कोने में डाली गई जूती थी। फिर भी सच यही है कि फैलने का मुख्य कारण सिर्फ़ और सिर्फ़ मां बनने की चाहत थी,जुनून था। सेक्स नहीं। मैं कोई कामुक स्त्री नहीं थी।’
‘मान गई तर्कों से सच अपने पक्ष में किया जा सकता है। सच को भी स्याह बनाया जा सकता है। जैसे कोर्ट में वकील बनाते हैं। और अदालत अंधी हो जाती है। मुझे भी यकीन हो गया है कि चीनू के सामने शरीर डाल देने या यह कहें कि हवस में अंधी हो उसको शिकार बना लेने को भी तुम सही साबित कर दोगी। और मैं भी बिल्कुल साफ कहती हूं कि बच्चा नहीं हवस शांत करने के लिए तुम फैल गई चीनू के सामने। क्योंकि मैं अब तक अच्छी तरह समझ गई हूं कि तुम्हारे शरीर की सेक्स की भूख इतनी बड़ी थी कि जीजा के वश में नहीं था कि वह उसे उस हद तक शांत कर पाते। आखिर उमर के साथ आदमी की ज्वाला की तपिश कम हो ही जाती है।’
‘बिब्बो मैं क्या कह रही हूं और तुम कह क्या रही हो। एक प्रौढ़ व्यक्ति, एक युवा होते व्यक्ति की ज्वाला में तपिश का फ़र्क तो होगा ही यह स्वाभाविक है, सब जानते हैं।’
‘हां इसीलिए तो कह रहीं हूं कि जीजा से ज़्यादा तुम्हें चीनू से संतुष्टि मिलती रही, बोलो सच है कि नहीं।’
‘हां ..... हां ..... चीनू धधकती आग को ठंडा करता था। और ...... । खैर जब तुम यह विचार बना चुकी हो कि मैं सिर्फ़ और सिर्फ़ हवस की शांति के लिए ही चीनू के सामने फैलती रही तो यही सही। मैं इस पर कोई और सफाई नहीं देना चाहती क्योंकि उनका कोई अर्थ निकलता मुझे नहीं दिखता।’
‘इतना गुस्सा होने का कोई मतलब नहीं है। बताना तुम्हीं ने शुरू किया। मुझे क्या मालूम था कि ऐसी बातें भी सुनने को मिलेंगी फिर चाहो तो बताओ और चाहो तो न बताओ। अब मेरी तरफ से कोई दबाव नहीं है। हां मन में यह बात ज़रूर उमड़-घुमड़ रही है कि आखिर जीजा इस तरह के व्यवहार वाले थे तो फिर वह बच्चा गोद लेने को तैयार कैसे हो गए। और चीनू कब तक तुम्हारे साथ जुड़ा रहा। चाहो तो बताओ चाहो तो न बताओ।’
***