मन्नू की वह एक रात
प्रदीप श्रीवास्तव
भाग - 6
'‘ले तेरी मंशा अब पूरी हो जाएगी। इसे अपने संतान उत्पन्न करने वाले स्थान पर सात बार आधा प्रवेश कराओ और निकालो फिर सारी बाधाएं दूर हो जाएंगी। नौ महीने में ही तेरी गोद में बच्चा किलकारी भरेगा।'’
मैं बाबा की बात का मतलब समझ न पाई और हक्का-बक्का देखती रही तो वह गरज उठा
‘'देवी के आदेशों का अपमान करेगी तो अगले और दस जन्मों तक निसंतान ही रहेगी।'’
मैंने घबरा कर उस अनुकृति को अपनी गोद में रखा तो वह फिर गरजा '’तू मां बनने जा रही है और यह भी नहीं पता कि संतानोत्पति का स्थान क्या है। तू अपमान कर रही है देवी का।'’
मेरी आंखों से आंसू निकलने लगे। मुझे ज़िया की याद आ रही थी कि वह जल्दी आ जाएं। मुझे किंकर्त्तव्यविमूढ़ देख उसने लाल-लाल आंखें निकालते हुए मेरे स्त्री अंग की ओर इशारा कर कहा,
‘'वहां है संतान उत्पत्ति का स्थान। इसे वहां रख और निकाल।'’
बाबा की बात, उसका इशारा देख कर मैं हतप्रभ रह गई। धुएं का असर अलग मेरे होशो-हवास कमजोर किए जा रहा था। पानी और पसीने से मैं तर-बतर हो रही थी। धोती बदन से चिपकी जा रही थी, अपने अंगों को जगह-जगह से झांकते देख शर्म के मारे गड़ी जा रही थी। और अब बाबा के सामने अपने अंग में बच्चे की अनुकृति रखना निकालना मेरे मन में आया कि मैं मर क्यों नहीं जाती। मगर बाबा था कि मुझे कुछ सोचने-समझने का अवसर ही नहीं दे रहा था। वह जल्दी करने पर जोर दे रहा था। मैंने उसके रौद्र रूप को देख कर कहा कि अलग कमरे में जाकर यह क्रिया पूरी कर आऊं तो फिर आग बबूला हो गया
'‘तू पागल हो गई है। देवी से छिपने की बात कर रही है। देवी को धोखा देने की बात कर रही है। मुझ से अलग होने की बात कर रही है। साक्षात् देवी मुझ पर आई हैं। मुझ से कुछ भी छिपा नहीं है। मैं सब जान रहा हूं। तुझे संपूर्ण देख रहा हूं फिर अलग जाने की बात क्यों कर रही है।'’
बाबा ने जिस तरह से मेरे बदन की तरफ इशारा करके बताया मुझे लगा कि वाकई मैं उसके सामने निर्वस्त्र हूं। उस समय मेरे दिमाग में जरा सी यह बात नहीं आई कि पतली लगभग भीगी सी साड़ी लपेटे बैठी हूं तो बदन मेरा छिपा ही कितना होगा। मैंने खीझ कर उसके सामने ही उसने जैसा कहा अनुकृति वैसे ही साड़ी के अंदर हाथ डाल कर रखने लगी। और मन ही मन ज़िया को कोसने लगी कि वह अब तक आई क्यों नहीं। जितनी बार मैं अंदर डालती वह उतनी ही बार अंजुरी भर कर पानी मुझ पर छिड़कता। फिर मेरे मुंह में कुछ डालता, खाने में वह बट्ठाता था। अंततः सात बार कहे अनुसार मैंने कर लिया। सच कहूं तो अब-तक मैं अजीब से नशे की हालत में पहुंच गई थी। और यंत्रवत सी सब कुछ उसके अनुसार करे जा रही थी। कुछ ही देर में उसने मुझे लिटा दिया।''
‘मगर दीदी वह इतना कुछ करता रहा और तुम्हें डर नहीं लगा। या बुरा नहीं लगा।’
‘बिब्बो मैंने कहा न मैं डरी थी, सहमी थी। बड़ी बात यह थी कि मैं नशे में थी। और सच यह भी है कि मैं बाद में समझ पाई कि बाबा तंत्र के नाम पर न सिर्फ़ पैसा वसूल रहा था बल्कि उसकी निगाह मेरे शरीर पर थी। जब वह मुझे लिटा कर तंत्र के नाम पर जगह-जगह छू रहा था तब मुझे अहसास तो हो रहा था लेकिन विरोध करने की ताकत मुझ में न रह गई थी। मैं कितनी पस्त हो गई थी इसका अंदाजा तुम इसी बात से लगा सकती हो कि मैं जान रही थी कि वह धीरे-धीरे मेरी साड़ी खोल चुका है। मैं उसके सामने निर्वस्त्र हो चुकी हूं मगर नशा ऐसा था कि विरोध का कोई प्रयास नहीं कर पा रही थी। यहां तक कि जब वह मेरा सब कुछ लूटने के लिए मेरे ऊपर आ चढ़ा मैं तब भी पस्त पड़ी थी। मगर मेरी फूटी किस्मत में थोड़ा सा बेहतर छुपा था। इसीलिए ऐन वक़्त पर ज़िया हांफती-दौड़ती आ गईं । उन्होंने मेरी हालत देखते ही सबसे पहले एक जग पानी मेरे चेहरे पर कस कर फेंक कर मारा। उनकी इस हरकत से बाबा बौरा गया।
'‘देवी का प्रकोप मैं .....'’ इसके बाद के शब्द उसके मुंह में ही रह गए क्यों कि कुछ बोले बिना ज़िया उस पर टूट पड़ीं । उनके हाथ में जो आया उसी से उसे मारने लगीं । मगर एक भी शब्द बोल नहीं रही थीं । उनकी चप्पलों ने उसका चेहरा सुजा दिया था। बाबा को लगा कि वह घिर गया है तो जान बचा कर भागने लगा। वह डर गया था कि कहीं मुहल्ला इकट्ठा हो गया तो वह सही सलामत नहीं बचेगा। जाते-जाते जब वह अपना झोला उठाने लगा तो ज़िया ने उसे भी नहीं लेने दिया। मैं हमेशा धीर-गंभीर रहने वाली ज़िया की समझदारी और उसका रौद्र रूप देख रही थी। जब बाबा भाग गया तो ज़िया ने नीचे दरवाजा बंद किया। जो तब से खुला पड़ा था जब से ज़िया सामान लेने गई थीं । वह ऊपर आईं तो एकदम शांत थीं । मुझे लेकर बाथरूम में गईं, अपने हाथों से खूब नहलाया। और फिर एक गिलास दूध गरम करके दिया। फिर खुद ही सारी सफाई कर पूजा का नामों- निशान साफ कर दिया। बाबा का झोला उसका सारा सामान खंगाल कर उन्होंने सोने की वह चूड़ियां भी ढूंढ़ कर मुझे दीं जो मैंने बाबा को दी थीं। नहाने और दूध पीने के बाद मैं करीब-करीब नार्मल हो गई थी । सब ठीक-ठाक कर ज़िया बहुत शांत होकर मेरे पास आकर बैठ गई थीं । मैं काफी देर तक रोती रही। उन्होंने मुझसे बहुत कुछ कहने-सुनने के बजाय सिर्फ़ इतना ही कहा,
'‘जो कुछ हुआ उस बारे में कभी किसी से बात न करना। अपने पति से भी नहीं। बस ये समझो कि बुरा वक़्त था, एक बुरा सपना था जो बीत गया। और आज के बाद कभी इन हरामियों के पास नहीं जाना है। औलाद हो या न हो। दुनिया में करोड़ों लोग हैं बिना औलाद के। क्या वो जिंदा नहीं हैं। किस्मत में होगा तो बिना कुछ किए भी हो जाएगा।'' मुझे चुप कराते-कराते ज़िया भी रोने लगीं । बड़ी देर तक हम दोनों बिना कुछ बोले चुप-चाप रोते रहे।’
‘तो बच्चे की चाहत में तुम से यही अनर्थ हो गया था। एक ढोंगी बाबा ने तुम्हारी इज़्ज़त तार-तार कर दी थी।’
‘नहीं बिब्बो अनर्थ यह नहीं था। ज़िया दो-चार मिनट नहीं दो-चार सेकेंड देर कर देतीं तो ज़रूर वो हरामी मेरी इज़्ज़त तार-तार कर चुका होता। मगर ईश्वर ने इतनी कृपा ज़रूर की, कि वह मेरी इज़्ज़त नहीं लूट पाया। मैं बाल-बाल बच गई थी।’
‘फिर तुम से कौन सा अनर्थ हो गया था और कि तुम इतना कुछ झेलती रही और हम लोगों को भनक तक न लगने दी। जब मिली ऐसे हंसती खिलखिलाती मिली मानों तुमसे ज़्यादा खुश कोई है ही नहीं।’
‘मैंने पहले ही कहा कि मैं घर वालों को किसी उलझन में नहीं डालना चाहती थी। इसलिए न मायके और न ससुराल कहीं मुंह नहीं खोलती थी। सबसे बड़ी बात कि जब अपना आदमी ही किसी मदद को तैयार नहीं था, उसे ही कोई परवाह नहीं थी तो किसी से कुछ कहने का मतलब था क्या? मेरा तो मानना है कि जिस औरत का पति उसकी सुनता है उसी की दुनिया भी सुनती है। नहीं तो वह राह की धूल समान है।’
‘हां ये बात तो सही कह रही हो दीदी। मगर अभी तक तुमने जो बताया उसमें तो मुझे कहीं से ऐसा नहीं दिखता कि तुमने कोई अनर्थ किया। बल्कि तुम्हें तो हर तरफ से धोखा ही मिला। चाहे डॉक्टर हो या तांत्रिक सबने तुम्हें ही ठगा। अनर्थ तो उन सबने किया। बच्चे के लिए तरसती एक औरत को बस लूटने की ही कोशिश की। और इस समय मुझे तुम पर गुस्सा बहुत आ रहा है। मेरे बराबर बच्चे हो रहे थे। तुम कहती तो जन्मते ही एक संतान दे देती तुम्हें। आखिर तुमने लड़का गोद लिया ही न।’
‘बिब्बो तुम शायद समझ नहीं पाओगी। पहले तो यह तैयार ही न हुए। और जब हुए तो इस तरह कि क्या बताऊं।’
‘बताओगी क्या दीदी। सारे आदमी एक जैसे ही होते हैं। मगर दीदी मैं फिर दोहरा रही हूं मैं अभी तक नहीं समझ पाई हूं कि तुम कौन सा अनर्थ किए बैठी हो। जब कि अनर्थ तो तुम्हारे साथ होता रहा।’
‘बिब्बो मैं अनर्थ के बारे में सब कुछ बताऊंगी। आज तुम से कुछ भी नहीं छुपाऊंगी। मैं बरसों से जो असह्य बोझ ढोती आ रही हूं, आज तुम्हें बता कर उसे हल्का करने की मैं ठान चुकी हूँ । मैं शुरू में ही अपना अनर्थ बताना चाहती थी लेकिन मुझे लगा कि पहले उन हालात के बारे में तुम्हें बताऊं जिनके कारण मैं वह अनर्थ कर बैठी और तब मुझे उसका अहसास हुआ। अगर हालात वैसे न बनते, अगर मेरे साथ वह न होता जो कुछ हुआ या होता रहा तो मैं यह मानती हूँ कि मुझसे उतना बड़ा अनर्थ कभी न होता। मैं यह नहीं कहती कि मेरी कोई गलती नहीं थी मगर यह भी सही है कि सारी गलती मेरी ही नहीं थी।’
‘दीदी इतना घुमा-फिरा कर बात न करो नहीं तो मैं कुछ न समझ पाऊंगी और यह बाबा वाली घटना तुमने जीजा को बताई थी।’
‘नहीं ...... एक तो ज़िया ने मना किया था और दूसरे उनको बताने का सीधा सा अर्थ था हमेशा के लिए उनसे अलग हो जाना। उन कुछ वर्षों में मैं यह भली-भांति जान गई थी कि वह लाख विद्वान हैं। बहुत प्रगतिशील विचारों के हैं लेकिन अन्य अधिकांश भारतीय मर्दों की ही तरह औरत के मामलों में वह भी एक से थे।
पत्नी की पवित्रता उनके लिए बहुत अहम थी। मैं तुम्हें बता ही चुकी हूं कि वह शादी के बाद पहली ही रात मेरे कुंवारे होने का निशान ढूढ़ना नहीं भूले थे। मैं यह तो आज तक न जान पाई कि वह मेरे कुंवारेपन का निशान ढूंढ़ भी पाए थे कि नहीं। या जीवन भर मुझ पर संदेह ही करते रहे। मौक़ा मिलने पर वह मेरी हॉस्टल लाइफ के बारे में कुरेद-कुरेद कर पूछना नहीं भूलते थे। जब कि मुझे बाद के बरसों में यह पता चला कि वह स्वयं औरतों के संबंध में बहुत कमजोर थे। कई औरतों से संबंध बनाए थे। सुना तो यहां तक था कि बल्कि कुछ साल में ही सब खुल कर सामने भी आ गया कि यह जब कभी कहीं बाहर जाते थे, तो वह जहां भी रहते होटल या गेस्ट हाउस जहां भी, वहां जितने दिन रुकते उतने दिन औरत का इंतजाम ज़रूर करवाते थे।’
‘मगर तुमको यह सब कैसे पता चल गया।’
‘अक्सर इनकी मित्र मंडली यहां जमघट लगाए रहती थी। उनकी तमाम बातें मैं सुन लेती थी। फ़ोन पर जब यह बातें करते तो वह भी सुन लेती थी। यह अपनी अंग्रेजी शान के आगे मुझे जाहिल ही समझते थे। मगर जब अंग्रेजी में यह सारी बातें करतें तो समझ मैं सब लेती थी। फिर शादी के पांच-छः वर्षों बाद यह जैसे-जैसे आगे बढ़ते गए इनकी यह आदतें बढ़ती गईं और पहले जहां रात या दिन मौका मिलते ही मुझे छोड़ते नहीं थे, शरीर से ऐसा चिपके रहते थे जैसे मैं ब्रह्मांड में सबसे खूबसूरत औरत हूं। मगर जब बाहर औरतों को भोगने लगे तो मैं उनको जाहिल, फूहड़ नजर आने लगी।
जिस बदन पर रात में एक भी कपड़ा पहनने पर बिफ़र पड़ते थे। सोते में भी बांहों में जकड़े रहते थे भले मुझे अच्छा लगे या नहीं इसकी परवाह नहीं करते थे। वही बदन अब उन्हें एकदम भाता नहीं था। अब हालात यह हो गए थे कि बात-बात पर मुझे झिड़कना, गाली देना कोई आ जाए तो उसके सामने अपमानित करना इनकी आदत बन गई थी। गालियां तो इतनी भद्दी-भद्दी देते कि मन करता कि जाकर कूद जाऊं गोमती में। फिर सोचती यह तो कायरता होगी। भागने से अच्छा है की कोशिश की जाए हालात को बदलने की।
औरत इनकी कमजोरी है यह मैं भली-भांति जान समझ चुकी थी। यह भी कि औरत को यह किस तरह किस रूप में देखना पसंद करते हैं। तो मैंने इस हथकंडे को अपनाने की सोची और परंपरागत तरीके से साड़ी-वगैरह पहनना बंद कर दिया। सलवार सूट और कभी-कभी जींस आदि भी पहनने लगी। हालांकि जींस सिर्फ़ घर में ही पहनती। बाहर कभी नहीं गई। उस समय जींस औरतों के बीच आज जितनी आम नहीं थी वो भी मेरी उम्र की औरतों में। सिंदूर लगाना करीब करीब बंद ही कर दिया क्यों कि यह सब इनको बिल्कुल पसंद नहीं था। अपने शरीर को और बेहतर शेप देने और उनकी पसंद के अनुसार शरीर को कर्वी बनाने के लिए तरह-तरह की एक्सरसाइज करने लगी। मेरी मेहनत रंग भी ला रही थी।
हॉस्टल लाइफ के दौरान तरह-तरह की सहेलियों से मिले ज्ञान का फायदा अब मुझे समझ में आ रहा था। मेरा शरीर काफी बेहतर होता जा रहा था। जब कि सच यह था कि यह सब व्यक्तिगत तौर पर मैं खुद पसंद नहीं करती थी। बस इनकी चाहत मेरे लिए पहले जैसी बन जाए इसके लिए यह सब कर रही थी। इतना ही नहीं चाहत के चलते खूब मेहनत करके अपनी अंग्रेजी खूब इंप्रूव की। इनसे अंग्रेजी में ही बात करती मतलब यह कि पश्चिमी महिलाओं की तरह जीने लगी। रात में इनकी इच्छा को ध्यान में रख कर ही सोते वक़्त एक भी कपड़ा नहीं पहनती। शुरू में कुछ दिन ऐसा लगा कि मेरा प्रयास रंग ला रहा है। क्योंकि कई बार मेरे इन प्रयासों की इन्होंने तारीफ की।’
‘मगर दीदी बिना कपड़ों के तुम्हें नींद आ जाती थी ?’
‘कहा न ..... यह सब लड़ाई जीतने के लिए कर रही थी। व्यक्तिगत तौर पर मैं इन चीज़ों को कभी पसंद नहीं करती थी। मैं हमेशा भारतीय परंपरा में रची बसी महिला बन कर रहना चाहती थी जो मेरे आदमी को पसंद नहीं था।’
‘तो यह सब करने से जीजा तुम्हें पहले की तरह चाहने लगे थे।’
‘यही तो अफसोस है बिब्बो कि मैं जितनी कोशिश करती गई उतना ही लड़ाई हारती गई। जिससे मैं चिड़चिड़ी होती गई। मगर कभी हार न मानने की आदत के चलते मैं मैदान में डटी रही। यह सब होते करते शादी के बारह साल बीत गए। इस बीच इन्होंने अपने घर और ससुराल सभी से नाता-रिश्ता काफी पहले ही खत्म कर लिया था। इतने बरसों में ससुराल तभी गई, जब देवरों, ननदों की शादी हुई और आखिरी बार तब गई जब ससुर की डेथ हुई। सास उनसे आठ महीने पहले ही गुजर गईं थी। मायके भी तभी पहुंची जब तुम लोगों की शादी हुई थी या फिर अम्मा बाबू जी के न रहने पर।’
‘दीदी वाकई तुम कैसे सहती रही यह सब। और हम सब भी कितनी गलती करते रहे थे कि तुमसे एक बार भी यह जानने की कोशिश नहीं की कि किस हाल में हो तुम। रिश्ते-नातेदार सब जब मिलते यह बात ज़रूर होती कि मन्नू बहुत घमंडी हो गई है, आदमी पैसे वाला मिल गया है तो दिमाग खराब हो गया है।’
‘बिब्बो मैं अच्छी तरह जानती थी कि इनके ऐसे व्यवहार के कारण सास-ससुर और बाकी सब पर कितना खराब असर पड़ रहा होगा। यह घमंड वाली बात छन-छन कर हमारे कानों तक भी पहुंचती थी। मैं इनसे कहती तो यह कुछ सुनने को तैयार ही न होते। मैं यहां तक कहती कि न रखो किसी से संपर्क कम से कम अपने मां-बाप को तो मानो। तो एकदम बिगड़ पड़ते थे मुझ पर। हर बार एक ही बात कहते कि,
'‘मुझे क्या करना है, किससे संबंध रखना है, किससे नहीं यह मैं तय करूंगा तुम नहीं, समझी।'’
इसके साथ ही दो चार गालियां ज़रूर मिलतीं। बाद के दिनों में तो बात-बात पर मां-बहन की गाली देना उनके लिए कोई बड़ी बात नहीं थी।
बिब्बो एक बात और ध्यान से सुन लो कि अपने पति के बारे में जो कुछ तुम्हें बता रही हूं इसे मेरे द्वारा दिवंगत पति की निंदा करना मत समझना। मैंने जब तुम्हें अनर्थ को बताने का निर्णय लिया था तो उसी वक़्त अपने गुनाहों की सजा भी मैंने खुद तय कर ली थी। अब मैं खुद को अपने गुनाहों की सजा भी दूंगी। और बरसों से जो बोझ लिए जी रही हूं उसे निकाल एकदम से हटा कर मुक्ति पा जाऊंगी।’
‘ए दीदी ये तुम क्या सजा-वजा की बात कर रही हो मैं कुछ समझ नहीं पा रही हूं।’
‘सब समझ जाओगी बिब्बो। वो कहते हैं न कि आदमी जो करता है उसे उसका बदला यहीं मिल जाता है। मैंने जो किया है उसका फल आज मुझे मिल जाएगा।’
‘दीदी मुझे लगता है तुम कुछ ज़्यादा लिख पढ़ गई हो। न जाने कैसी-कैसी बातें किए जा रही हो।’
‘बिब्बो मैं तो पछताती हूं कि मैंने और पढ़ाई क्यों नहीं की। मैं सिर्फ़ डिग्रियों के लिए पढ़ाई की पक्षधर नहीं हूं। मेरा तो मानना है कि सभी को जब भी समय मिले कुछ न कुछ ज़रूर पढ़ते रहना चाहिए। बल्कि पढ़ने के लिए हर हाल में समय निकालना ही चाहिए। इससे ज़िंदगी में उससे गलतियां कम होंगी । और शायद उससे वह अनर्थ नहीं होगा जो मुझसे हुआ।’
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