मन्नू की वह एक रात - 11 Pradeep Shrivastava द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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मन्नू की वह एक रात - 11

मन्नू की वह एक रात

प्रदीप श्रीवास्तव

भाग - 11

‘अब यह तो मैं बहुत साफ-साफ समझा नहीं पाऊंगी। शायद वह छात्र रहते हुए यह सब कर रहा था। और रुबाना वाली घटना भी मेरे छात्र जीवन की थी। इस समानता ने ही शायद एकदम से याद दिला दी रुबाना की।’

‘तो चीनू की हरकत तुमने जीजा से नहीं बताई।’

‘नहीं। उनको बताने का मतलब था एक बड़ा तमाशा खड़ा करना। और फिर उनसे मेरा संवाद ही कितना था। मैं अपने कमरे में आकर लेट गई। मूड इतना खराब था कि न तो कुछ पढ़ पा रही थी और न नींद आ रही थी। रह-रह कर नजरों के सामने हॉस्टल, रुबाना और चीनू घूम जाते। फिर मैंने सोचा कि चीनू कल चला जाएगा। चोरी पकड़े जाने के बाद अब यहां नहीं रुकेगा। यही सब सोचते- सोचते तीन बजे के आस-पास मुझे नींद आ गई।

सवेरे उठी तो बड़ी थकान महसूस हो रही थी, मगर काम कहां देखता है यह सब। रोज की तरह इन्हें चाय-नाश्ता दिया। फिर चीनू को आवाज़़ दी मगर वह हां कह कर रह जाता। नीचे नहीं आया। मैं समझ गई कि वह डर रहा है। तो बिना कोई हील-हुज़्जत किए उसका चाय-नाश्ता लेकर ऊपर चली गई। जब मैं ऊपर नाश्ता लेकर जा रही थी तो मन में यही था कि वह अपना सामान वगैरह पैक कर रहा होगा। लेकिन ऊपर पहुंची तो यह देख कर दंग रह गई कि वह अपेक्षा के विपरीत एक पढ़ाकू की तरह पढ़ता मिला। शायद पढ़ने का ड्रामा ही कर रहा हो, खीझ मिटाने का तरीका भी कह सकते हैं।

मेरे लिए यह एक आश्चर्यजनक अनुभव से गुजरने जैसा था। मैं जहां अपने अंदर एक अजीब सी शर्म-संकोच महसूस कर रही थी कि उससे कैसे क्या कहूंगी। लेकिन मेरी हालत के विपरीत वह एकदम बेफिक्र था। मैंने नाश्ता उसके सामने रख दिया। वह कुछ न बोला। मैंने भी कुछ न कहा चुपचाप चली आई नीचे। मगर तभी मन में यह बात फिर आई कि शायद वह इनके जाने की प्रतीक्षा कर रहा होगा फिर जाएगा। लेकिन नहीं ऐसा नहीं हुआ। वह शाम तक ऊपर से नीचे उतरा ही नहीं। मैंने भी खाना वगैरह ऊपर ही दे दिया। पानी की बड़ी बोतल भी ले जा कर रख आई। पूरा दिन बड़ी उधेड़-बुन में बीता।

शाम होते-होते अपनी अजीब सी हालत पर मैं हैरत में पड़ गई। ये सोचने लगी ये क्या हो रहा है मुझे।'

‘क्यों ऐसा क्या हो गया था तुम्हें’

‘हुआ यह कि मेरे दिमाग में चीनू की हरकत वाला दृश्य बराबर न जाने क्यों बना हुआ था। जितना उसे दूर झटकने की कोशिश करती वह और भी ज़्यादा मुझसे चिपक जाता। ऐसी व्याकुलता, दिमाग में ऐसी गड़बड़ हो रही थी कि कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था। ऐसे ही ऊहापोह में शाम बीत गई। यह शाम को आए तो न जाने क्यों पारा चढ़ा हुआ था। उनके पारे को देख कर मैंने नाश्ते से लेकर खाना तक सब वही बनाया जो इनका मनपसंद था। मगर सब बेकार। बदले में खाने को मिलीं गालियां। और सोते वक़्त जैसे गुलाम को आदेश दिया जाता है कुछ उसी अंदाज में यह आदेश मिला कि, ''दो हफ़्ते की एक विभागीय ट्रेनिंग के लिए बंबई जाना है। इसलिए सुबह कपड़े वगैरह सब तैयार कर देना ।''

मैंने भी एक गुलाम की तरह ही आदेश सुना और मन ही मन कुढ़ती हुई लग गई काम में।

जब सोने पहुंची तो नींद नहीं आ रही थी। आती भी कैसे ? वह तो न जाने कब की मेरी सौतन बनी रोज रात भर मुझे डसती आ रही थी। तो आज कैसे आ जाती। तब टी0वी0 में आजकल की तरह चौबीसों घंटे प्रोग्राम नहीं आते थे कि खुद को उसी में खपा देती। और फिर एक बार नजर घूम गई किताबों की ओर। वह निर्जीव किताबें ही उस समय मेरे सुख-दुख का साथी थीं। एक ऐसा कंधा थीं जिस पर अपना सिर रख कर मैं आंसू बहा सकती थी। हां ..... ज़िया । ज़िया को कैसे भूल सकती हूं वह तो मेरा दूसरा कंधा थीं। मगर इन दोनों कंधों में एक फ़र्क था। जहां किताबों का कंधा हर वक़्त मेरे साथ था वहीं ज़िया का कंधा दिन में ही मेरा साथ दे पाता था। वैसे ज़िया का वश चलता तो वो मेरा एक-एक कष्ट खुद पी जातीं। मगर एक जगह पहुंच कर वह भी विवश हो जाती थीं।

खैर उस दिन भी किताबों के ढेर से उठा लाई एक किताब आंसू बहाने के लिए। किताब और लेखक का नाम तो याद नहीं आ रहा। हां इतना याद है कि महाभारत के कुछ पात्रों को आधार बनाकर आज के सन्दर्भों में एक विश्लेषणात्मक उपन्यास जैसा था।’

‘मगर दीदी एक बात बताओ कि जब एक तरफ जीजा से इतना झगड़ा हो जाता था तो तुम किताब पढ़ने में मन कैसे लगा पाती थी।’

‘बिब्बो जब हर तरफ से मार पड़ती है तो आंखें बरसने के लिए कंधा ढूढ़ती हैं। वह कंधा किसी भी रूप में हो सकता है। किताबों के रूप में भी हो सकता है। मेरी आंखें भी पहले ज़िया को ढ़ूढ़तीं। जब वह न होतीं तो किताबों को कंधा बना लेतीं। उस दिन वह किताब मेरे आंसुओं को पोंछ रही थी। रात तीन बजे तक वह किताब पढ़ती रही। लगा जैसे वह किताब मुझे ही ध्यान में रख कर लिखी गई थी। अम्बिका, अम्बालिका, गांधारी, कुंती, माद्री, सब बच्चों के लिए ही क्या-क्या कर बैठी थीं। नियोग से लेकर और न जाने क्या-क्या। उसी में महिलाओं की आज़ादी उनके अधिकार आदि को लेकर बड़ी-बड़ी बातें कही गई थीं। गंगा तक के बारे में लिखा था। यहां तक कि तब की महिलाएं और ज़्यादा अधिकार संपन्न थीं। मर्दों से कम न थे उनके अधिकार। सेक्स संबंधों में भी बड़ी खुले विचारों की थीं। जैसे गंगा राजा प्रतीप की सुंदरता पर मोहित हो सीधे उनसे प्रणय निवेदन कर बैठीं।’

‘ये क्या कह रही हो दीदी। गंगा मइया के बारे में ऐसा लिखा था।’

‘हां ..... अच्छी तरह याद है मुझे यही लिखा था। और कुंती को ही देखो न। उन्होंने भी तो विवाह से पूर्व ही सूर्य से संबंध बनाए। और कर्ण जैसे पुत्र को जन्म दिया।’

‘पर दीदी वह सब देवी देवता थे। हम उनकी बराबरी तो नहीं कर सकते न।’

‘बिब्बो मैं बराबरी की बात नहीं कर रही हूं। मैं सिर्फ़ इतना ही बता रही हूं कि समय चाहे जो भी रहा हो महिलाएं हमेशा दोयम दर्जे की ही रही हैं। फर्क़ सिर्फ़ इतना रहा है कि स्थितियां कभी कम तो कभी ज़्यादा खराब रहीं, हां उस भीड़ में वही अपना अधिकार पाने में सफल हुई हैं जिन्होंने पुरुषों की बनाई डेहरी में नहीं बल्कि अपनी बनाई डेहरी में अपने को सुरक्षित किया। मेरा मतलब कि अपने बनाए दायरे में रहीं। और उस दिन वह किताब पढ़ते-पढ़ते मेरे भी दिमाग में पहली बार यह बात आई कि आखिर हम भी एक इंसान हैं। हमारा भी कोई वजूद है।

आखिर हम गुलामों की तरह जीते ही क्यों हैं। सोचते-सोचते बार-बार मेरा निष्कर्ष यही होता कि प्रकृति तो हमें पुरुषों की ही तरह आज़ाद ही पैदा करती है। बंदिशें पुरुष ही लगाते हैं और उन बंदिशों को हम औरतें शर्म-संकोच के नाम पर और कड़ा करते हैं। उस दिन पहली बार मेरे दिमाग में यह बात आई कि मेरी भी जो हालत है उसके लिए एक हद तक मैं खुद ही ज़िम्मेदार हूं। और सच कहूं कि उसी दिन मेरे मन में पहली बार यह बात भी आई कि अब अपने हालात मैं खुद बदलूंगी। अब न जीयुंगी गुलामों की तरह। आखिर मैं भी एक इंसान हूं कोई जानवर नहीं। ऐसी ही तमाम बातें मन में उथल-पुथल मचाए हुए थीं कि न जाने कब नींद आ गई।

सुबह जब एलार्म की घंटी बजी तब मेरी नींद खुली। ऐसा बरसों बाद हुआ था कि सुबह मेरी नींद एलार्म की घंटी से खुली। नहीं तो रात चाहे जितने बजे सोती सुबह छह बजे मेरी नींद अपने आप खुल जाती थी। खैर जल्दी-जल्दी उठ कर चाय-नाश्ता, खाना-पीना सब तैयार किया। इनकी ट्रेन शाम को थी। हां कुछ देर के लिए इनको ऑफ़िस जाना था। अचानक मेरे मन में आया चलो इनके साथ ही बंबई घूम आऊं। बरसों से कहीं गई नहीं। मेरी फ़िल्मी हस्तियों को देखने की बड़ी इच्छा थी।

बरसों की छिपी इच्छा अचानक ही मन में उछल-कूद करने लगी। और फिर मैंने तय कर लिया कि मैं भी शाम को इनके साथ जाऊंगी। लेकिन तभी मन में यह बात आई कि ट्रेन में रिजर्वेशन तो इन्हीं का है। फिर मेरे दिमाग में आया कि बड़े-बड़े लोगों से इनका संपर्क है ही कोई न कोई रास्ता यह निकाल ही लेंगे। यह बात मन में आते ही मैंने रात की सारी बातें भुलाते हुए इनसे कहा मैं भी साथ चलना चाहती हूं। मैं भी इसी बहाने घूम लूंगी बंबई। ऐसे तो कभी मौका मिल नहीं पाता। मेरी बात जब इन्होंने अनसुनी कर दी तो मैंने फिर अपनी बात दोहराई। इस पर यह नाराज हो उठे। बोले,

'‘मैं ऑफ़िस के काम से जा रहा हूं , घूमने नहीं।'’

‘दो हफ़्ते का वक़्त कम नहीं होता है। एकाध दिन तो निकाल ही सकते हैं घूमने-फिरने के लिए। ऐसा तो नहीं है कि आप लोग दोनों हफ़्ते काम में ही व्यस्त रहेंगे । फिर काम तो शाम तक ही होगा। उसके बाद तो खाली ही रहेंगे।’

'‘बोल तो ऐसे रही हो जैसे वहां के सारे प्रोग्राम तुमसे ही बात करके तय किए गए हैं।'’

उनकी बेरुखी बातों ने मेरा मूड और खराब कर दिया। मैंने चिढ़ कर फिर कहा,

‘ये कोई बात नहीं हुई। ये तो कॉमन सेंस की बातें हैं कि काम कितना भी हो शाम को तो छुट्टी ही रहेगी। और फिर आप लोग ही अक़सर बात करते हैं कि ऐसे ट्रेनिंग प्रोग्राम खानापूर्ति के सिवा कुछ और नहीं होते हैं।’

‘'हां बाकी काम तो तुम्हारे बाप कर आते हैं। यह सब खानापूर्ति होती है तो इंडिया में सारे बैंक अपने आप ही रन करते। बदतमीजों की तरह कान लगा कर हमारी बातें सुनना फिर ज़रूरत पड़ने पर ताने मारना ये तुम्हारी बेहयाई बेशर्मी की हाइट है।'’

‘घर में बातें होंगी तो कान में नहीं पड़ेंगी क्या ? और फिर मैंने ऐसा क्या कह दिया जो बेहयाई, बेशर्मी के दायरे में आ गई। साथ चलने की ही बात कर रही हूं , ऐसा तो नहीं है कि मैं पहली औरत हूं जो पति के साथ घूमने की इच्छा प्रकट कर रही हो।’

'‘जितना घूमना था घूम चुकी अब ज़्यादा बहस करने की ज़रूरत नहीं है।'’

‘कह तो ऐसे रहे हो मानो सारा जहां ही घुमा दिया हो। मुझे तो याद नहीं आ रहा कि शादी के बाद शुरू में कुछ दिन एक दो जगह ले जाने के सिवा कहीं और ले गए हो। सच तो यह है कि बीवी हो कर मैं तुम्हारे साथ जितना घूमी होऊंगी उससे कहीं सौ गुना ज़्यादा तो आपकी मीनाक्षी मैडम आप के साथ घूम चुकी होंगी। आखिर उनके सामने मेरी क्या हैसियत, जब वो जा रहीं हैं साथ तो मैं कैसे जा सकती हूं।’

मेरा इतना कहना था कि इनके तन-बदन में जैसे आग लग गई। एकदम भड़क कर बोले,

'’चुप कर हरामजादी, ज़्यादा जुबान चली तो खींच लूंगा बाहर। साली सालों साल हॉस्टल में यारों के साथ घूमी और यहां मेरे साथ घूमी, ड्रामा करती है, अभी और घूमने को भड़क रही है। ताने मारती हो मीनाक्षी के, वह साथ काम करती है, वह साथ नहीं रहेगी तो क्या तुम रहोगी, और फिर जरा उससे अपनी तुलना करके देखो कहीं ठहरती हो उसके सामने।'’

एक गैर औरत के साथ अपनी तुलना से मैं भी आग-बबूला हो उठी। मैं भी भड़क कर बोली,

‘होगी वह तुम्हारी नजर में हूर की परी, और काबिले-हिंद। लेकिन मेरी नजर में एक करेक्टरलेस सबसे गंदी औरत है। रही बात काबिलियत की तो अगर आपने मेरी पढ़ाई-लिखाई बंद न की होती तो अब तक मैं भी कहीं प्रोफ़ेसर होती।’

'‘ओह! तो मेरी वजह से तुम प्रोफ़ेसर नहीं बन पाई। इस बात के अलावा और किस-किस बात का फ्रस्ट्रेशन भरा हुआ है।'’

‘यह फ्रस्ट्रेशन-वस्ट्रेशन नहीं है। हमेशा मुझे अपमानित करते रहते हैं। एक बाहर की थर्ड क्लास औरत से मेरी तुलना करते हैं, अपनी बीवी की तुलना एक बाहरी औरत से करते आपको संकोच भी नहीं होता और ऊपर से मुझे ही ऊट-पटांग कहते रहते हैं।’

यह सब कहते वक़्त मेरी आवाज़़ थोड़ी तेज थी। जिसने आग में घी का काम किया। यह एकदम आग-बबूला होकर बोले।

'‘कमीनी तेरा बहुत दिमाग ख़राब हो। मुझे नसीहत देती है कि मैं क्या-करूं क्या नहीं। तुम क्या हो ये मैं अच्छी तरह जानता हूं। तुम्हारी तुलना किससे करनी चाहिए किससे नहीं यह भी मालूम है। तुम्हारी जाहिलों जैसी हरकत देख कर तो लगता है कि तुम किसी से तुलना के काबिल ही नहीं हो। और एक बात ध्यान रखना कि आज के बाद फिर कभी मुझे नसीहत देने की हिम्मत नहीं करना नहीं तो वह दिन तुम्हारे लिए सबसे बुरा दिन साबित होगा, समझी।'’

हम दोनों का फुल वॉल्यूम में चल रहा वाक्-युद्ध सुन कर चीनू भी सामने आ गया। उसने धीरे-से मुझसे कहा,

‘'चाची जी चुप हो जाओ न।'’

***