मन्नू की वह एक रात
प्रदीप श्रीवास्तव
भाग - 1
बरसों बाद अपनी छोटी बहन को पाकर मन्नू चाची फिर अपनी पोथी खोल बैठी थीं। छोटी बहन बिब्बो सवेरे ही बस से आई थी। आई क्या थी सच तो यह था कि बेटों-बहुओं की आए दिन की किच-किच से ऊब कर घर छोड़ आई थी। और बड़ी बहन के यहां इसलिए आई क्योंकि वह पिछले एक बरस से अकेली ही रह रही थी। वह थी तो बड़ी बहन से करीब पांच बरस छोटी मगर देखने में बड़ी बहन से दो-चार बरस बड़ी ही लगती थी। मन्नू जहां पैंसठ की उम्र में भी पचपन से ज़्यादा की नहीं दिखती थी वहीं वह करीब साठ की उम्र में ही पैंसठ की लगती थी। चलना फिरना दूभर था। सुलतानपुर से किसी परिचित कंडेक्टर की सहायता से जैसे तैसे आई थी। मिलते ही दोनों बहनें गले मिलीं और फ़फक पड़ीं। इसके पहले उन्हें किसी ने इस तरह भावुक होते और मिलते नहीं देखा था।
कहने को दोनों के सगे बहुत थे। लेकिन आज दोनों एकदम अकेली थीं। छोटी बहन जहां बच्चों के स्वार्थ में अंधे हो जाने के कारण अपने को निपट अकेली पा रही थी, वहीं बड़ी बहन इसलिए अकेली थी क्योंकि बेटा-बीवी के कहे पर ऐसा दीवाना हुआ कि जिस मां को खाना खिलाए बिना खाता नहीं था, वह घर छोड़ते वक़्त न सिर्फ एक-एक सामान ले गया बल्कि मिन्नत करती मां की तरफ एक बार देखा तक नहीं। मां कहती रह गई ‘बेटा एक बार तो गले लग जा। मत जा छोड़ के, तू जो कहेगा हम करेंगे।’ मगर बेटा कहाँ देखता, कहां सुनता। वह तो अपनी आंखें, अपने कान, दिमाग अपनी बीवी के हवाले कर चुका था। और बीवी सास को दुश्मन की तरह देखती थी। एक क्षण उसे बर्दाश्त नहीं कर सकती थी। शादी के बाद तीन महीने में ही सास को तीनों लोक दिखा के चली गई थी।
भावुक मिलन के बाद दोनों बहनें शांत तो हो गई थीं लेकिन दोनों के आंसू शांत नहीं हुए थे। आंचल के कोर से वह बार-बार आंखें पोछतीं लेकिन वह फिर भर आतीं। कुछ देर बाद मन्नू ने कुछ बिस्कुट और पानी बिब्बो के सामने रख कर कहा ‘लो पानी पिओ बहुत थकी हुई लग रही हो। मैं चाय बना कर लाती हूं।’
‘अरे! नहीं दीदी तुम बैठो मैं बना लाती हूँ।‘
‘तुम क्या बनाओगी, तुम्हारी हालत तो ऐसे ही खराब है। तुम आराम करो मैं बना कर ला रही हूं।’ मन्नू ने उठते हुए कहा।
बिब्बो का मन तो था कि वह चाय खुद बनाए लेकिन पैरों की तकलीफ ने उसे उठने न दिया। किचेन में चाय बनाते हुए मन्नू ने पूछा,
‘बिब्बो इतनी दूर से अकेली क्यों आ गई किसी लड़के के साथ आती। एक दिन की छुट्टी तो तुम्हारे बेटों को मिल ही सकती है न।’
‘क्या दीदी तुम भी सब कुछ जान कर दिल जलाती हो। बेटों को एक दिन ही नहीं महीनों की छुट्टी मिल जाती है मगर जब उनके सास-ससुर, साली-सरहज कहती हैं तब। वो सब मां के लिए छुट्टी नहीं ले सकते क्योंकि वह तो मां से छुट्टी पाना चाहते हैं। ये तो कहो कि पेंशन मिल रही है तो खाना मिल जा रहा है नहीं तो भीख मांगनी पड़ती। मैं तो कहती हूं कि सभी मेरा पीछा छोड़ दो, मैं अकेले ही रह लूंगी लेकिन सब छोड़ते भी नहीं हैं। बस पेंशन मिलते ही पीछे पड़ जाते हैं। किसी न किसी तरह एक-एक पैसा निकलवा कर ही दम लेते हैं।’
‘पर बिब्बो तुम्हारा छोटा बेटा अंशुल तो बहुत मानता था तुम्हें। हम लोग अक्सर कहते थे कि आज के जमाने में औलाद हो तो अंशुल जैसी।’
‘हां बहुत मानता था। लेकिन अब तो उसके लिए चारों धाम, सारी दुनिया उसके सास-ससुर हैं। उसका बस चले तो वह सुबह शाम उनकी पूजा करे। उसकी सारी कमाई निगोड़े ससुराल वाले पी रहे हैं।’
‘सही कह रही हो बिब्बो, पता नहीं ये लड़की वाले कौन सी घुट्टी पिला देते हैं इन लड़कों को कि ये अपने मां-बाप को ही दुश्मन मान बैठते हैं।’ मन्नू ने चाय की ट्रे बिब्बो के सामने रखते हुए कहा,
‘दीदी मैं तो कहती हूं कि इन लड़की वालों का वश चले तो लड़के के घर वालों को मार कर भगा दें और पूरे घर पर कब्जा कर लें।’ चाय के कुछ घूंट लेने के बाद मानो बिब्बो की आवाज़ कुछ ज़्यादा तेज हो गई थी।
‘हां .... मगर एक जमाना वह भी था जब लड़की वाले उसकी ससुराल के यहां का पानी तक नहीं पीते थे। मगर आज सास हो या साली या फिर ससुर से लेकर सरहज तक सब दामाद के घर में आकर बेशर्मी से पड़े रोटी तोड़ते हैं।’
‘हां! मगर सच तो ये है दीदी की अगर हमारे लड़के न चाहें तो क्या मजाल है कि बहू और उसके घर वाले आग मूतें।’
‘गुस्सा छोड़ो बिब्बो, चाय पियो। आज तो हर लड़की वाले यही कर रहें हैं। जमाने का खेल यही है तो क्या कर सकती हो।’
‘ऐसा नहीं है दीदी। विमला का घर देखो। उसके भी चार लड़के हैं। शादी के बाद भी चारों बेटे मां-बाप को हाथों हाथ लेते हैं। बहुएं तो मानो पूजती हैं अपने सास-ससुर को।’
‘बिब्बो ऐसी किस्मत वाले बिरले ही होते हैं। उनसे बराबरी करने का मतलब है अपना ही खून जलाना।’
‘खून तो जब से होश संभाला तभी से जल रहा है दीदी, और तुम अपनी कहो, क्या तुम ने ज़िन्दगी में एक दिन भी खुशी के पल जिएं हैं। मगर तुम से ये सब पूछना बेकार है। तुम अपनी बात अपना दर्द तो शुरू से ही कभी नहीं बताती थी। बस अपने में ही घुटते रहना तो तुम्हारी आदत है। यह सब जानते हुए भी न जाने मैं क्यों तुमसे बोल रही हूं। क्यों तुमसे पूछने लगी।’
‘ऐ बिब्बो लगता है लड़कों से आज कुछ ज़्यादा ही गुस्सा हो। बीती बातें करने से क्या फायदा ?’
‘फायदा है दीदी, मन में बातें भरी रहती हैं तो पूरी दुनिया ही भारी लगती है। इसलिए तुमको भी हर बार यही कहती हूं कि मन की बात कह दिया करो। मन हलका हो जाएगा। बड़ा सुकून मिलता है सब कह देने से।’
‘इस बात को मान ले बिब्बो कि हम दोनों के कम से कम मेरे जीवन में तो सुकून नहीं है। अब तो चली चला की बेला भी आ गई है। बचपन से एक के बाद एक घुटन भरे पल जीते-जीते ज़िन्दगी खत्म हो गई। अब किस बात को लेकर सिर खपाऊं। अच्छा बताओ खाना क्या बनाऊं ? क्या खाओगी तुम ?’
‘तुम्हारा जो मन हो बना लो दीदी।’
’नहीं आज तू बहुत दिन बाद आई है। जो बनाऊंगी तुम्हारे मन का ही बनाऊंगी। बताओ क्या बनाऊं ?’
‘दीदी कुछ खाने पीने का मन बिल्कुल नहीं हो रहा है, बस यही जी कर रहा है कि तुम को सारी बातें बताऊं। क्योंकि बाकी तो बात छोड़ो मेरे पास बैठना भी नहीं चाहते हैं।’
‘ठीक है सारी बात कहना, जी भर कर कहना। मैं सुनूंगी तुम्हारी सारी बात। मगर तुमने अपनी हालत क्या बना रखी है। सेहत का ध्यान नहीं रखोगी तो पीने को एक गिलास पानी भी नहीं मिलेगा।’
‘दीदी तुम तो जानती हो जब मुझे गुस्सा आता है तो मुझसे खाना पीना कुछ भी नहीं हो पाता। और अब तो उमर भी हो चुकी है।’
‘हां .... ये तो है तू तो बचपन से ही गुस्सा होते ही दो तीन दिन के लिए मुंह फुला लेती थी। मगर बिब्बो अब ये बात अच्छी तरह दिमाग में बिठा लो कि हम खुद ही अपना सहारा हैं। इसलिए इस सहारे को मज़बूत बनाए रखो। क्योंकि हमारे बेटे हमें बोझ नहीं बल्कि मांस का सड़ा लोथड़ा मानते हैं जिससे वो हर हाल में छुटकारा चाहते हैं।’
‘कह तो ठीक रही हो दीदी लेकिन कैसे करें कुछ समझ में नहीं आता। अपने लिए कुछ करने में मन अजीब सा होने लगता है। हमेशा आदमी बच्चों के लिए करने में सुकून मिलता था। इसकी आदत सी है। इस उमर में कैसे बदलूं कुछ नहीं समझ पाती।’
‘कोशिश करो सब कुछ नहीं तो कुछ तो बदल ही जाएगा।’
‘ऐ.... दीदी मैं बदलूं या न बदलूं मगर लगता है तू ज़रूर कुछ बदल गई है। कैसी बड़ी-बड़ी बातें करने लगी है।’
‘बड़ी-बड़ी बातें नहीं बिब्बो बस कुछ ऐसी बातें जो जीवन में शुरू में ही हम लोग जान लेते तो शायद आज हम लोग जिस ताप में जल रहे हैं उसमें न जलते।’
‘कौन से ताप की बात कर रही हो?’
‘यही कि ये मेरा बेटा है। ये मेरी बहू है। मेरा परिवार है। और ये सब हमें मानते नहीं हैं। हमारा ख़याल नहीं रखते हैं।’
‘क्यों हम औलादों से क्या इतनी भी अपेक्षा नहीं कर सकते। आखिर अपने खून से पालते हैं उन्हें। उनको बड़ा करने पढ़ाने लिखाने के लिए अपनी सारी इच्छाओं सुख सुविधाओं को तिलांजलि दे देते हैं।’
‘नहीं बिब्बो हम लोग यही तो गलत सोचते हैं। सच ये है कि हम जो कुछ करते है वह बच्चों के लिए नहीं अपनी खुशी के लिए करते हैं। हम बच्चे इसलिए पैदा करते हैं कि हम मां-बाप कहलाएं। हम उनकी किलकारियों से खुश होते हैं। उनकी अच्छी परवरिश करके पढ़ा-लिखा के खुश होते हैं। अगर ऐसा न हो तो हमें कष्ट होता है। इस कष्ट से बचने के लिए हम सब कुछ करते हैं न कि बच्चों के लिए।’
‘अरे! दीदी तुम तो बिलकुल आस्था चैनल के संत महात्माओं की तरह प्रवचन देने लगी। ये बड़ी-बड़ी बातें किससे सीखी।’
‘बिब्बो तुम इसे बड़ी बात कहो या प्रवचन मगर सच ये है कि ज़िंदगी में किसी अच्छे गुरु को ज़रूर अपना मार्ग-दर्शक बनाना चाहिए। इससे आदमी तमाम मुश्किलों से आसानी से निकल जाता है। दूसरे तमाम पाप, भूल आदि करने से बच जाता है। .... और यह कोई सुनी सुनाई बात नहीं कह रही हूं। ये मेरा अनुभव है। समय से मुझे गुरु मिल गया होता तो शायद जो कष्ट मैंने भोगे, तकलीफों का जैसा अहसास किया या करती आ रही हूं वो न होता। और जो अनर्थ मुझसे हुआ वह निश्चित ही न होता।’
मन्नू ने अनर्थ वाली बात बड़ी गहरी सांस ले कर कही। .... बात पूरी होते-होते उसकी आंखें भी भर आई थीं।
‘तुमसे ऐसा कौन सा अनर्थ हो गया है दीदी जो तुम्हें इतना पछतावा है।’
‘है बिब्बो ..... एक ऐसा अनर्थ मैंने जीवन में किया है जिसके लिए भगवान मुझे नर्क में ही डालेगा। तुमको देखते ही वह अनर्थ एकदम आंखों के सामने नाच गया। मैं अंदर तक हिल गई हूँ और सच कहूं तो मैं तो चाहती हूं कि भगवान मुझे सबसे बड़ी सजा दे। मैं तो रौरव नर्क की अधिकारिणी हूं।’
यह कहते-कहते मन्नू की आंखें बरसने लगीं। उसने उन्हें रोकने की कोशिश की मगर रोक न सकी तो बिब्बो से न रहा गया। उसने कहा
‘चल बस कर दीदी .... मेरी समझ में नहीं आता तुम ऐसा क्या कर बैठी हो ? तुमने जीजा के रहते आत्महत्या की जो कोशिश की थी उसे मैं तुम्हारा पाप या अनर्थ नहीं बस तुम्हारी नादानी मानती हूं, असल में गलती मेरी ही है। मैं ही बेवजह अपना पोथा पुराण खोल बैठी .....। बेवजह तुम्हें रुला दिया।’
‘नहीं बिब्बो ऐसा मत सोचो।’
‘मैं कुछ नहीं सोच रही, तुम बैठो खाना मैं बनाती हूं। कहती हुई बिब्बो किचेन में चली गई। मन्नू के लाख मना करने पर भी नहीं मानी। दरअसल वह मन्नू के आंसू और नहीं देखना चाहती थी। मगर अनर्थ वाली बात उसे अंदर कहीं टीसने लगी थी। सफ़र के थकान पर अनर्थ वाली बात कहीं ज़्यादा भारी पड़ती जा रही थी । खाना बनाते-बनाते उसके मन में एक बात बैठ गई कि खाने-पीने के बाद अगर माहौल ठीक रहा तो पूछेगी अनर्थ के बारे में। मगर बिब्बो को मौका नहीं मिला। क्योंकि खाने के बाद ही मन्नू की पड़ोसन अपने पोते को गोद में लिए आ गई। और फिर बड़ी देर तक बतियाती रही। गिन-गिन कर अपने बहू बेटे की तारीफ करती रही। जब वह गई तो बिब्बो ने कहा,
‘दीदी बड़ी भाग्यशाली है तुम्हारी पड़ोसन।’
‘काहे की भाग्यशाली। नौकरानी से बढ़ कर काम करती है। बस समझो बहुरिया ने मुफ़्त की नौकरानी पाल रखी है।’
‘अरे नहीं दीदी! वह तो मगर तारीफ़ ही किए जा रही थी।’
‘तारीफ़ न करे बेचारी तो क्या करे, अपनी झूठी इज़्जत जो बनाए रखना चाहती है। दुनिया में कुछ लोग ऐसे होते हैं जो अपनी बात कह देते हैं और कुछ ऐसे लोग होते हैं जो अंदर-अंदर घुटते रहते हैं मगर चेहरे पर मुस्कान बनाए रखते हैं। ये अंदर-अंदर घुटने वाले लोगों में है।’
‘दीदी तुम और हम ... हम दोनों किस तरह के हैं।’
‘तुम खुदी तय कर लो न।’
‘नहीं दीदी तुम्हीं तय करो वैसे भी ऐसी बातें बचपन से तुम्हीं तय करती आई हो।’
‘हां ... क्योंकि बचपन से तुम ऐसे ही बातों को मेरी ओर ठेलती आयी हो।’
‘जब जानती हो तो फिर बताओ न कि हम दोनों कैसे हैं?’
‘ऐ ... बिब्बो अब जैसे भी हैं जो भी हैं वैसे ही रहेंगे। कुछ भी बदलने वाला नहीं है। मुझे लगता है कि हम दोनों के बदलने का वक़्त नहीं है।’
‘दीदी बुरा मत मानना लेकिन तुम जब युनिवर्सिटी में पढ़ने गई तो उसके बाद से ही बातचीत में इतनी उस्ताद हो गई थी कि बाबा भी तारीफ करते हुए कहते थे कि तुझे तो वकील बनना चाहिए। जबकि पहले वही बाबा पढ़ने के लिए युनिवर्सिटी जाने से रोक रहे थे।’
‘बिब्बो बंद कर न यह सारी बातें। ..... आज मैं तुझे अपने गुरु के पास ले चलूंगी। देखना वहां कैसे-कैसे लोग आते हैं। कितनी शांति मिलती है वहां।’
‘ठीक है, लगता है मेरी बातों से तुम ऊब गई हो।’
‘नहीं बिब्बो, ऐसा मत सोचो मैं तुम्हें इसलिए वहां ले चलना चाहती हूं कि तुमने मन पर जो बोझ पाल रखा है, उसे दूर कर दूं। गुरु की बातें बड़े से बड़ा बोझ हटा देती हैं। मैं भी जब मन में ऐसी ही तमाम बातों का बोझ लेकर चल रही थी और जीना मुहाल हो गया था तब गुरु जी के ही पास जाकर राहत मिली। इसके लिए मैं ठकुराईन चाची की हमेशा एहसानमंद रहूंगी जो मुझे वहां लेकर गईं । जब उन्होंने मुझसे कहा था तब मैं भी तुम्हारी ही तरह जाने को तैयार नहीं थी। बड़े बेमन से गई थी । लेकिन वहां कुछ समय बिताने के बाद लगा कि वहां पहले क्यों नहीं गई।’
‘तो तुम यह मानती हो कि अब तुम्हारे मन पर कोई बोझ नहीं है।’
‘है .... मगर इतना भी नहीं कि उस बोझ तले जीवन कुचल जाए।’
‘ठीक है दीदी ज़रूर चलूंगी। जब तुम्हें इतना यकीन है उन पर तो मैं हर हाल में चलूंगी।’
गुरु जी के यहां तीन घंटे कैसे बीत गए बिब्बो को पता ही नहीं चला। लौटते वक़्त शाम के सात बज गए थे। रास्ते में रिक्शा रोक कर मन्नू ने बिब्बो की मनपसंद सब्जी भिंडी और करेला खरीदी। मन्नू छोटी बहन की पसंद भूली नहीं थी। रिक्शा जब घर की ओर मुड़ा तो मन्नू ने कहा,
‘आज तुम्हारी मन पसंद भरवा भिंडी और करेला बनाऊंगी।’
‘दीदी तुम इतने दिन बाद भी मेरी पसंद भूली नहीं।’
‘कैसे भूल सकती हूँ, जिस दिन भी इन दोनों में से कोई सब्जी बनती थी उस दिन तुम बस खाने पर ही टूट पड़ती थी। और जब कुछ बड़ी हुई और खाना खुद बनाने लगी तो तुम अपने लिए पहले ही अलग निकाल लेती थी।’
‘हां! अम्मा भी पहले डांटती थीं फिर बाद में तो खुद ही न सिर्फ़ मन भर सब्जी देती थीं बल्कि सीजन आने पर बड़े प्यार से बोलती थीं।’
‘..... लावा बिब्बोईया के लिए भरवा भिण्डिया बनाई दें।’
मन्नू-बिब्बो की बातें घर पहुँचने तक चलती रहीं और बचपन की यादें ताजा होती रहीं।
घर पहुंच कर मन्नू ने रिक्शे वाले को पैसा दिया फिर गेट का ताला खोल कर अंदर ड्रांइग रूम में धम्म से सोफे पर बैठ गई। बिब्बो भी उसी तरह बैठ गई। बिब्बो के चेहरे पर पसीने की बूंदें बता रही थीं कि शरीर से वह बड़ी बहन के मुकाबले ज़्यादा कमजोर है। उसकी हालत देख कर मन्नू ने उठ कर पंखा चला दिया, फ्रिज से दो गिलास पानी और चार पीस मिठाई लाकर बिब्बो के सामने रखते हुए कहा,
‘लो पानी पिओ, तुम तो चार घंटे में ही थक कर निढाल हो गई हो।’
बिब्बो ने पानी पीने के बाद गहरी सांस ली। फिर बोली,
‘दीदी अब तो मन करता है कि जितनी जल्दी हो भगवान उठा ले। किसी की सेवा लेने की नौबत न आए।’
‘बिब्बो ये सब अपने हाथ में नहीं है। विधि ने जो लिखा है वही होगा। इसलिए मैं अब यह सब सोचती ही नहीं।’
‘मैं तुम्हारे जैसा नहीं सोच पाऊंगी दीदी। मगर तुम्हारी एक बात एकदम सच है कि गुरु जी की बातें मन का बोझ ज़रूर हल्का कर देती हैं।’
‘मैं तो पहले ही कह रही थी कि सुनोगी तभी यकीन होगा। मैं तो उस दिन को धन्य मानती हूं जिस दिन उनके दर्शन हुए। एक और चीज बिब्बो कि जब गुरु की कृपा होती है तभी उनके दर्शन होते हैं। जैसा कि आज उनकी तुम पर कृपा हुई तो देखो कैसे बातों ही बातों में दर्शन मिल गए।’
‘मगर दीदी उनकी एक बात मैं अब तक नहीं समझ पाई कि खुद तो इतने बड़े सिंहासन पर बैठे थे। सोने का कितना बड़ा ओम् पहने थे। सिल्क के जो कपड़े पहने थे वह भी दसिओं हज़ार के रहे होंगे। और भक्तों को बता रहे थे कि,
‘असली दुख का कारण धन संपत्ति का मोह है।’
‘बिब्बो एक बार में ही सब समझ जाओगी ? उन्होंने जीवन को चलाने के लिए धन कमाने को कभी भी गलत नहीं कहा। धन के पीछे भागने या उसकी हवस को गलत कहा। कल तुमको फिर ले चलूंगी। तब तुम्हें बातें और ज़्यादा समझ में आएंगी, अच्छा बताओ खाना कितने बजे खाओगी।’
‘खाने के लिए क्यों परेशान हो रही हो दीदी ........। थोड़ा सा आराम कर लो फिर मिलके बना लेंगे।’
‘तुमको कुछ करने की ज़रूरत नहीं। ....... पहले तुम अपने को संभालो, मैं खाना बना लूंगी।’
मन्नू ने बिब्बो की कमजोर हालत पर तरस खाते हुए उसे आराम करने का एक तरह से आदेश दिया। उसकी बात में बड़े होने की तस्वीर साफ झलक रही थी। सच तो यह था कि बिब्बो भी आराम से लेटे रहना चाहती थी।
मन्नू ने अकेले ही नहा-धोकर खाना बनाया। फिर टीवी पर महिलाओं के संघर्ष पर केंद्रित एक धारावाहिक देखते-देखते दोनों ने खाना खाया। इस दौरान भी दोनों की बातें रुक-रुक कर चलती रहीं। खाना खत्म होने और सोने के लिए बिस्तर पर पहुंचने तक ग्यारह बज गए थे। एक ही कमरे में आमने-सामने पड़े बेड पर लेटी दोनों सोने की कोशिश में आँखें बंद किए रहीं। मगर नींद दोनों की आंखों में नहीं थी। मन्नू जहां खोई रही भूली बिसरी यादों में वहीं बिब्बो के मन में यही प्रश्न उथल-पुथल मचाए हुए था कि आखिर मन्नू दीदी ने कौन सा अनर्थ कर डाला था। और कि उससे अभी पूछूं कि न पूछूं। इसी ऊहापोह में करवट बदलती रही। अंततः उठ कर बैठ गई। तो मन्नू ने पूछ ही लिया।
‘क्या हुआ बिब्बो नींद नहीं आ रही क्या ?’
‘नहीं दीदी ........ अब नींद कहां आती है बस आँखें मूंदे-मूंदे कट जाती है रात। जरा सी नींद लगती नहीं कि पता नहीं कैसे-कैसे सपने आने लगते हैं।’
‘तुम सोचती बहुत हो इसी लिए सपने आते हैं। मन को शांत रखो तो सब ठीक हो जाएगा।’
‘मन को शांत रखना अपने वश में कहां है दीदी, ये तो संत महात्मा ही कर पाते हैं। अच्छा तुम बताओ .... तुम्हारा मन शांत रहता है। नींद तो तुम्हें भी नहीं आ रही। ..... जब कि मुझ से ज़्यादा थकी हो, सारा काम भी तुम्हीं ने किया है।’
बिब्बो की बात सुन कर मन्नू को कोई ज़वाब नहीं सूझा बस छत को देखती रही।
‘क्या हुआ दीदी कुछ बोलती क्यों नहीं!’
‘हूं ...... ! अरे क्या बोलूं ....... शायद तुम्हीं सच बोल रही हो।’
‘दीदी...... . एक बात पूछूं ......।’
‘पूछो!’
‘तुम दिन में कह रही थी कि कोई बहुत भारी भूल तुम से हो गई थी। जो मुझे देखते ही तुम्हें एकदम से याद आ गई। जिसके लिए तुम्हें बड़ी से बड़ी सजा मंजूर है। आखिर कौन सा अनर्थ तुमने किया है जिसकी आग में आज भी तप रही हो?’
बिब्बो की बात सुन कर मन्नू काफी देर चुप रही तो बिब्बो ने फिर पूछ लिया। उसके प्रबल आग्रह को देख कर मन्नू को अहसास हो गया कि अब उस अनर्थ के बारे में बताना ही पड़ेगा। जिसके बारे में उसने दिन में न जाने किस भावना में बह कर बोल दिया था।
‘बिब्बो बताती हूं, लेकिन डरती हूं कि पता नहीं तुम सुन भी पाओगी कि नहीं और जो सुन भी लोगी तो कहीं उसके बाद तुम भी मुझसे हमेशा के लिए नफ़रत न करने लगो।’
‘दीदी तुम ऐसा क्यों सोचती हो। तुमसे नफ़रत करके कहां जाऊंगी। फिर हम सगी बहनें हैं। एक खून हैं। लाठी मारने से कहीं पानी फटता है क्या ? तुमने चाहे जो किया हो, लेकिन हो मेरी बहन और सदा रहोगी । इसलिए दिन वाली तुम्हारी ही बात दोहराती हूं कि मन में जो इकट्ठा हो गया है उसे कह डालो। मन हल्का हो जाएगा।’
‘मैं भी यही सोच रही हूं, कि आज कह ही दूं सब, मगर तुम से इतना ज़रूर कहूंगी कि किसी और से न कहना, क्यों कि जिस दिन तुम किसी से कहोगी उसी दिन मैं खुद को ख़त्म कर लूंगी।’
‘ऐसी बात है तो मैं मर जाऊंगी पर किसी से मुंह न खोलूंगी।’
बिब्बो ने उठ कर एक गिलास पानी पिया और मन्नू को भी दिया। मन्नू ने मुश्किल से दो घूंट पानी पीकर गिलास रख दिया। कुछ देर बड़ी बेचैन सी होकर कमरे में चल रहे सीलिंग फैन को देखती रही। फिर बोली,
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