Mannu ki vah ek raat - 2 books and stories free download online pdf in Hindi

मन्नू की वह एक रात - 2

मन्नू की वह एक रात

प्रदीप श्रीवास्तव

भाग - 2

‘बिब्बो मेरी शादी कैसे हुई यह तो तुम्हें याद ही होगा ? पैरों की तीन अंगुलिया कटी होने के चलते जब शादी होने में मुश्किल होने लगी तो बाबू जी परेशान हो उठे। ऊपर से दहेज की डिमांड उन्हें और भी तोड़ देती थी। धीरे-धीरे जब मैं तीस की हो गई तो वह हार मान बैठे और एक दिन मां से कहा,

‘मन्नू मेरे गले का पत्थर बन गई है। न जाने कैसी किस्मत लेकर पैदा हुई है, कि जहां जाता हूं वहीं से दुत्कार दिया जाता हूं। लगता है इस जीवन में इसकी शादी के गम में ही मर जाऊंगा। इसके चलते ही बाकी बच्चे भी बिन ब्याहे ही बैठे रह जाएंगे।’

इससे आगे उनकी और बातें सुनने की ताब मुझ में जब न रह गई तो मैं हट गई वहां से। कमरे में जाकर अपनी किस्मत पर खूब रोई। खाना भी नहीं खाया। बाबूजी की एक-एक बात मेरे दिलो-दिमाग पर हथौड़े सी पड़ी थी। अगले दिन मैंने मां से कह दिया कि मेरी शादी की चिंता छोड़ कर बाबूजी बाकी सब की शादी ढूढ़ें। मेरा इतना कहना थी कि मां एकदम बिफ़र पड़ीं । बोलीं,

‘चार ठो किताब पढ़ लिए हो तो दिमाग खराब हो गया है। हमको बताओगी कि किसकी शादी करनी है। हम लोग अपनी शादी का नाम सुन कर हट जाते थे मां-बाप के सामने से, और तुम हमको बताओगी कि बिना तुम्हारी शादी के बाकी की शादी कैसे हो जाएगी। जब दुनिया पूछेगी कि बड़की की शादी काहे नहीं हो रही तब हम लाख सही बताएंगे लेकिन कोई यकीन नहीं करेगा। सब उल्टा ही सोचेंगे कि ज़रूर लड़की में कुछ ऐसा-वैसा है। तब तो और भी कोई तैयार नहीं होगा शादी के लिए।’

फिर अम्मा बड़ी देर तक न जाने क्या-क्या बड़बड़ाती रही। तभी छोटके चाचा आ गए। अम्मा का बड़बड़ाना तब भी चालू रहा। बातें तो चाचा को भी सब पता थीं। बाबूजी के साथ वह भी लड़का देखने जाते ही थे। और उस दिन चाचा ने एक ऐसी सलाह दी अम्मा को कि वह बजाय चाचा की बात को मना करने के एकदम हां कर बैठीं। जैसे कि वह पहले ही ऐसा ही कुछ सोचे बैठी थीं।

शाम को बाबूजी आए तो चाय नाश्ता करते-करते बाबूजी के सामने भी चाचा-अम्मा ने वही प्रस्ताव रखा। लेकिन बाबूजी ने इन बातों का कोई ज़वाब नहीं दिया। दरअसल वह भी चुप रह कर अपनी मौन स्वीकृति ही दे रहे थे पुराने जमाने की मौनं स्वीकृति लक्षणम् की बात को चरितार्थ करते हुए। और मैं अब भी यही मानती हूं कि मैंने जो भी जीवन में अब तक भोगा। और जो अनर्थ हुआ मुझसे उसकी नींव में चाचा का वह प्रस्ताव ही था। जिसके आधार पर यह तय हुआ कि किसी नौकरीशुदा विकलांग से मेरी शादी कर दी जाए।’

‘मगर दीदी तुम तो बहुत तेज-तर्रार थी मना कर देती ऐसी शादी से।’

‘तेज-तर्रार तो थी बिब्बो, लेकिन उंगलियां भी तो मेरी ही कटी थीं न। फिर लाख तेज-तर्रार होने की बावजूद मैं अति की हद तक भावुक थी। क्षण में भावना में बह कर मैं किसी के लिए कुछ भी कर बैठती थी, अपना हित-अनहित सोचे बिना। फिर वह तो मां-बाप थे । उनकी परेशानी, मां के आंसू देख कर मैं टूट गई और कह दिया। ‘जहां करना हो करो।’ फिर ऐसे लड़के की तलाश शुरू हो गई। इसी बीच अचानक इंदिरा गांधी ने देश में एमरजेंसी लगा दी और फिर बाबूजी समय से पहले ही ऑफ़िस को चले जाते। डर के मारे कभी छुट्टी तक न लेते।

अजीब दहशत थी हर तरफ। पहले जो बाबूजी बिना छुट्टी के ही दो-तीन दिन नहीं जाते थे अब वह जैसे ऑफ़िस में ही सारा वक़्त गुजार देने को तैयार रहते थे। इसके चलते मेरे लिए लड़का ढूढ़ने का काम कहीं नेपथ्य में चला गया। अंततः रोते-गाते वह घड़ी आ गई जब एमरजेंसी हटी और देश के लोगों ने राहत की सांस ली और उसी समय मेरी शादी भी तय हो गई। मैं अब तक नहीं समझ पा रही हूं कि उस घड़ी को अपने लिए शुभ कहूं या अशुभ। मैं समझती हूं कि सारी बात सुनने के बाद तुम्हीं बताना कि शादी तय होने वाली घड़ी मेरे लिए क्या थी।’

बिब्बो को उठते देख कर मन्नू ने पूछा,

’क्या - हुआ, कहां जा रही हो ? अब ऊब गई क्या मेरी बातों से।’

‘नहीं .... सोचा दो कप चाय बना लाऊं।’

इससे पहले कि मन्नू कुछ कहती बिब्बो किचेन में चली गई। और चाय का पानी गैस पर चढ़ा कर वापस आकर बोली।

‘दीदी घर पर मैं सब की शादी को लेकर होने वाली चक-चक सुनती तो थी। लेकिन लापरवाह स्वभाव, अपने में मस्त रहने की आदत के चलते इन बातों पर कभी ध्यान ही नहीं देती थी। जब कि तुम थी धीर-गंभीर, एक-एक बात पर ध्यान देती थी। शायद सबसे बड़ी होने के कारण तुमको बचपन से ही ऐसी घुट्टी पिलाई गई कि सब-कुछ सहना पर बोलना नहीं क्यों कि तुम बड़ी हो और उससे भी पहले एक लड़की हो।’

‘बिब्बो हर चीज के कुछ फायदे भी हैं कुछ नुकसान भी। गुरु जी कई बार कह चुके हैं कि जीवन में सभी को अपनी स्थितिनुसार कीमत चुकानी पड़ती है। मैंने अपनी उंगलियों की कीमत चुकाई। जब चाचा इनका रिश्ता लेकर आए और बताया सब कुछ इनके बारे में तो एक बार को मेरा कलेजा फट गया। कि कुछ उंगलियों के न होने की मुझे इतनी बड़ी कीमत चुकानी पड़ रही है। मन में आया कि कूद जाऊं कुएं में। या फांसी लगा लूं। अम्मा ने फोटो दिखाई तो देखने का मन नहीं हुआ। वह कमरे में छोड़ कर चली गईं यह कहते हुए कि जब तुम कहोगी तभी यह शादी होगी । मगर मैं जानती थी कि घर में सब इस रिश्ते के लिए तैयार बैठे हैं। मेरे इंकार का मतलब होगा घर में एक बड़े कोहराम को न्योता देना। मैं घंटों सोचती रही क्या करूं। एक अपने सुख के लिए मां-बाप, पूरे घर को चिंता, परेशानी में डालूं या फिर सबकी खुशी के लिए अपनी भावनाओं, अपनी खुशी को आग लगा दूं।

उस दिन सब खा-पी कर सो गए। सब निश्चिंत थे। क्योंकि लड़के वाले तो पहले से ही हां किए बैठे थे। और सब मेरी आदत को जानते हुए यह विश्वास किए बैठे थे कि मेरा जवाब भी हां ही होगा। मैं रात भर नहीं सोई। रात करीब डेढ़-दो बजे मैंने फोटो उठा कर देखी । लालटेन की रोशनी में मुझे फोटो में यह बहुत आकर्षक लग रहे थे। देखने से कहीं यह नहीं लग रहा था कि यह विकलांग हैं या चलते समय छड़ी का सहारा लेते हैं। न ही यह बातें मुझे बताई गई थीं। तो मैंने सोचा हो सकता है चलने-फिरने में कुछ दिक्क़़त होगी। कोई बात नहीं ज़िंदगी में सब कुछ तो अपने मन का नहीं मिलता। फिर पैर की समस्या को नौकरी पूरी कर रही थी। उस जमाने में किसी बैंक में प्रोबेशनरी ऑफ़िसर होना बहुत बड़ी बात थी। हॉस्टल में रहते हुए मैंने अपनी कई सहेलियों को पी0ओ0 की नौकरी के लिए तैयारी करते हुए देखा था। बहुत कठिन था पी0ओ0 इक़्जाम को कंप्टीट करना। मेरे भी मन में आया चलो अच्छी नौकरी है सब मिला के ज़िंदगी कट जाएगी। सवेरे जब मां आईं, बार-बार पूछने लगीं मेरा निर्णय तो मैंने भी दबे मन से हां कह दी। हां सुनते ही मां को न जाने कितनी खुशियां मिल गईं एक साथ। उनको इस बात की भी खुशी थी कि सुलतानपुर के उस कस्बे में शायद ही किसी का दामाद प्रोबेशनरी ऑफ़िसर होगा।’

इसी बीच बिब्बो ने एक कप चाय मन्नू की तरफ बढ़ाते हुए कहा, ‘दीदी ये बात तो सच है कि उस समय लोगों के बीच जीजा की नौकरी को लेकर बड़ी बातें हुई थीं। सारे रिश्तेदार, दोस्त सच जान कर यही कहते थे कि चलो कोई बात नहीं शरीर में थोड़ा सा नुक्स है लेकिन नौकरी तो बहुत अच्छी है। और फिर जब वह तुम्हें देखने कार से आए थे तो लोग और भी ज़्यादा बतियाने लगे थे।’

‘हां.. उस समय आज की तरह कार आम नहीं हो गई थी। ले दे कर वही फिएट और एंबेसडर यही दो कारें हुआ करती थीं। जो गिने-चुने लोगों के पास ही होती थीं। मुझ पर भी इस कार वाली बात ने बड़ा प्रभाव डाला था। मगर सच कहूं तो वह छड़ी लेकर चलते हैं यह जान कर मेरा मन टूट गया था। मैंने अपने को मैदान में फुटबाल की तरह छोड़ दिया था कि जो जैसा चाहे, जिधर चाहे किक मार कर उधर ले जाए और हुआ भी यही। सबने जैसा चाहा वैसा किया। मेरी शादी हो गई लेकिन एक बार भी किसी ने यह जानने की कोशिश नहीं की कि मेरे मन पर क्या बीत रही है। सब खुश थे कि चलो मन्नू की शादी हो गई। सुनने में तो यह भी आया था कि शादी खूब धूमधाम से हो तड़क-भड़क ढंग से हो इसके लिए इन्होंने अपने घर वालों की चोरी से काफी पैसा बाबूजी को दिया था। मगर इस बात को शादी के बरसों बाद भी इन्होंने कई बार पूछने पर भी नहीं बताया। पूछने पर बस एक ही ज़वाब मिला,

’तुम औरतें कितना भी पढ़-लिख लें लेकिन पंचायत करने की आदत नहीं छोड़ पातीं।’ यह सुनकर मैं भी चुप रह जाती।

मन्नू ने चाय का आखिरी घूंट पीकर कहा, ‘बिब्बो अब तू शक्कर कम कर दे। मीठे के प्रति तेरी बचपन की दीवानगी गई नहीं अभी तक। अब इतना मीठा नुकसान करेगा।’

‘अरे! दीदी जो होगा देखा जाएगा। क्या-क्या बंद कर दें।’

‘हूँ...... शायद तुम ही सही हो। जितना ध्यान दो हर बातों पर चिंता उतनी ही ज़्यादा बढ़ती है।’

‘हां ...... इसीलिए मैं ज़्यादा सोच-विचार नहीं करती। मैं तो तुम्हें भी ऐसा ही मानती थी। लेकिन तुम्हारी बातें सुन कर लगता है कि तुम बचपन से ही कुछ ज़्यादा ही सोचती रही हो। खैर अभी तक तुमने जो बताया उसमें मुझे कुछ अनर्थ जैसी बात तो नजर नहीं आती।’

‘वह अनर्थ तो अब बताऊंगी बिब्बो। शादी को लेकर जो मेरे टूटे-फूटे सपने बचे थे वह पहली ही रात से और भी टूटने लगे। शादी के पहले मेरी इनसे जो बातचीत हुई थी और लोगों से जो मैंने सुना था, जो इनकी पढ़ाई-लिखाई थी उससे मेरे मन में इनकी तस्वीर एक बहुत पढ़े-लिखे, समझदार सज्जन पुरुष की बनी थी। जो औरत सहित सभी की भावनाओं का बहुत आदर-सम्मान करने, उनकी इज़्ज़त करने वाला है। जो मेरी भावनाओं की कद्र करेगा। मेरी बातों को समझेगा। मगर नहीं ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। मैं बड़े सपने लेकर बैठी थी सुहाग की सेज पर। अपने देवता का इंतजार कर रही थी। कि मेरा देवता आएगा। मैं उसकी अगवानी करूंगी। मेरा देवता मुझसे ढेर सारी-मीठी बातें करेगा। मगर नहीं मेरा देवता भी औरों की ही तरह सिर्फ़ मर्द ही निकला। वो मर्द जिसकी नजर में औरत की अहमियत सिर्फ़ उसके शरीर तक ही है। उसके शरीर को रौंदने में ही उसकी मर्दानगी है।

घर वालों ने जब पीछा छोड़ा तो करीब दो बजे आए कमरे में। मैंने एक आदर्श भारतीय नारी की तरह उनकी अगवानी की। इसके पहले कि मैं कुछ समझ पाती कि मेरा देवता मर्द बन टूट पड़ा मुझ पर। मेरी भावनाओं, मेरे हृदय को जाने बिना ही रौंद डाला मुझे। मेरी तकलीफ मेरे दर्द से उसे कोई लेना-देना नहीं था। कुछ देर बाद हांफता पड़ा मेरा मर्द मुझसे पानी मांगता है। मैं किसी तरह अपने को सम्हालती, कपड़े तन पर डालती उठी चार कद़म की दूरी पर रखे जग से पानी लाने के लिए। और जब पलटी तो देखा मेरा विद्वान पति, मेरा पढ़ा-लिखा अफ़सर पति बिस्तर पर ढूढ़ रहा था मेरे कुंवारे होने का निशान। उनकी इस चालाकी ने मुझे झकझोर कर रख दिया। कानपुर जैसे शहर में पैदा हुए। पढ़ाई के आखिरी छः साल दिल्ली में पूरी करके एक बड़े बैंक का अधिकारी उससे मुझे ऐसी ओछी हरकत की कतई उम्मीद नहीं थी। खैर पानी पिया फिर कुछ देर मुझे बगल में सटाए लेटे रहे। दर्द से परेशान मैंने सोचा शायद सो गए। चलो उठ कर कपड़े ठीक से पहन लूं। मुझे न जाने क्यों अचानक ही ठंड लगने लगी थी। मैंने उठना ही चाहा था कि मेरा मर्द फिर जाग गया।

एक-एक कर मेरे सारे सपने सवेरे तीन-साढ़े तीन बजे तक टूटते रहे। फिर मेरा मर्द सो गया एक देवता की तरह और मेरे उठ कर तैयार होने का वक़्त हो गया था। आखिर एक आदर्श बहू की तरह सवेरे-सवेरे सास-ससुर, जेठ-जेठानी सबको यथोचित प्रणाम जो करना था। चाय-नाश्ता, खाना-पीना बना कर अपने को जो एक आदर्श बहू साबित करना था। सो मैं कराहती, दर्द से तड़पती, करीब तीस पैंतीस घंटे से लगातार जागने के बावजूद चेहरे पर मुस्कान लिए सबकी खुशियों में लग गई। हर तरफ नंद से लेकर बाकी सब अपने-अपने हिसाब से हंसी-ठिठोली करने व्यंग्य मारने में लगे थे। मेरे देवता करीब नौ बजे सोकर उठे, तो चाय लेकर मुझे ही भेजा गया। मैं मकान की तीसरी मंजिल पर पहुंची चाय लेकर। वहीं हमारे सुखों की सेज बनाई गई थी। देखा मेरा मर्द अब बिल्कुल देवता बना बैठा था। मैं चाय सामने रख कर पैर छूने को झुकी तो मुझे बाहों में जकड़ लिया। चूमते हुए बोले,

‘तुम्हारी जगह मेरे दिल में है, बैठो इधर।’

बगल में बैठा कर एक तरह से जबरदस्ती चाय पिलाई। कई ऐसी बातें कहीं जो रात में कहनी चाहिए थी। मुझे लगा मेरा सारा दर्द कहीं दूर भाग गया है। बड़ी राहत महसूस हुई। ऊपर थोड़ी देर लग गई तो नीचे आते ही खिंचाई कर दी सबने। खैर ससुराल में सबने अपने-अपने स्तर पर अपने-अपने मन की की।’

‘दीदी तुम्हारे ससुराल वालों की एक बात समझ में नहीं आई। जब जीजा को चलने में इतनी तकलीफ थी तो उन्हें तीसरी मंजिल पर कमरा क्यों दिया।’

‘छड़ी लेकर यह आराम से सीढ़ियां चढ़ सकते थे इसी लिए । दूसरे घर में उस समय मेहमानों की भीड़ थी इसलिए नीचे हम लोगों के लिए उचित नहीं था। सौभाग्य से सब ठीक-ठाक हो गया था। और मैं ससुराल में लोगों की उम्मीदों पर खरी उतरने में लगी हुई थी। इस बीच यह शादी के तीन दिन बाद ही लखनऊ आ गए। छुट्टी इनकी खत्म हो चुकी थी। अब मैं अकेली थी। ससुराल में कोई मुझसे सीधे मुंह बात नहीं करता था। जागने से लेकर सोने तक सिर्फ़ काम ही काम। और व्यंग्य बाणों की पीड़ा। मुझे लगा कि यह यातना जीवन भर की मेरी संगनी हो गई है। मगर यहां मैं अपने को सौभाग्यशाली मानती हूं। मुश्किल से पंद्रह दिन बीते होंगे कि यह वापस आए। और दो दिन बाद लखनऊ आने की तैयारी हो गई। मुझे इनके साथ ही रहना था। आते वक़्त जब सास के पैर छुए तो गले से लगा कर उन्होंने फरमाइश कर दी। ‘मुझे नौ महीने बाद गोल मटोल सा पोता चाहिए। अपने बेटे को मैं तुम्हारे हवाले कर रही हूं।’ इसके बाद सबने अपने-अपने हिसाब से जो बातें कहीं उनका मैं लाख कोशिशों के बावजूद सिर्फ़ यही निष्कर्ष निकाल सकी कि उनके परिवार को एक बहू नहीं, एक ऐसी आया, एक ऐसी नौकरानी चाहिए जो साए की तरह लड़के की देख भाल करे, उन सबके लिए बच्चे पैदा करे। रात में बिस्तर पर इनकी ज़रूरतें पूरा करे। पैरों के चलते उसकी जो समस्या है उसका सारा समाधान वह खुद बन जाए।

खैर मैं लखनऊ आ गई। यहां इन्होंने तीन कमरे का बड़ा सा मकान किराए पर लिया था। कुल मिला कर सच कहूं तो कुछ चीजों को छोड़ कर जीवन बहुत अच्छा बीतने लगा। धीरे-धीरे मैं इन्हें काफी हद तक समझ गई। मैं हर वो काम करती जो इनको अच्छा लगता, कभी भी ऐसा कुछ सपने में भी न करती जिससे इनको जरा भी पैरों को लेकर कोई आत्मग्लानि या हीन भावना पैदा होने का डर हो। मगर कुछ महीनों बाद मैंने महसूस किया कि यह मेरी साफ तौरपर निगरानी करते हैं । खा़स-तौर से मैं किससे बात करती हूं इस बात की तो बहुत ही ज़्यादा। यहां तक कि इस बीच देवर और नंदोइ आए, मैंने जरा हंस कर बात कर ली तो उन लोगों के जाने के बाद ऐसी कौन सी कटी-छटी बात थी जो मुझे नहीं कही। उसके बाद तो बात-बात पर ताना मारते, मेरे हॉस्टल में रहने की बातों को न जाने क्या-क्या कह-कह कर उल्टी सीधी बातें करतें।’

‘जीजा इतना पढ़-लिख कर ऐसी ओछी हरकतें करते थे।’

‘यह तो कुछ भी नहीं है बिब्बो, उनकी बातें इतनी स्तरहीन और गंदी होती थीं कि सुन कर यकीन करना मुश्किल हो जाता था कि यह एक पढ़े-लिखे तमाम विषयों के जानकार व्यक्ति हैं। लगता जैसे मैं किसी जरायम पेशा वाले की बीवी हूं। स्लम की किसी झोपड़ी में रहती हूं। हां जब कोई आता तो इनकी शालीनता देखने लायक होती। इनका कड़कपन ऐसा कि अच्छे-अच्छे आर्मी आफ़िसरों को भी मात दे दे। इनका शक इनकी बातें सुन कर मुझे डी0एच0 लारेंस के उपन्यास ‘लेडी चैटर्ली का प्रेमी’ की नायिका ‘कोनी’ की याद आ जाती। यह उपन्यास मैंने हॉस्टल में पढ़ा था। मुझे अपनी ज़िंदगी कुछ-कुछ इस उपन्यास की नायिका कोनी जैसी लगती। तब मुझे यकीन नहीं होता था कि आदमी ऐसा भी होता है। साल पूरा होते-होते मेरी हालत यह हो गई कि दिन भर इनकी बातों, इनके तानों पर आंसू बहाती। जब आते तो नए ताने-गाली सुनती और रात में इनकी मर्दानगी दिखाने के अतिरिक्त प्रयासों का शिकार होती। कुचली जाती। वास्तव में बहुत बाद में यह समझ पाई कि उनके मन में अपंगता को लेकर जो कुंठा भर गई थी, इन सबके पीछे वह भी बल्कि यह कहना सही होगा कि वही एक कारण था।

इस बीच मुझे कई बार बाबूजी लेने आए लेकिन इन्होंने जाने नहीं दिया। सास-ससुर की भी न सुनी। तब सास-ससुर यह कह कर बात संभालने की कोशिश करते कि, 'भइया को परेशानी होगी इसलिए बहू को रहने दो साथ।' मगर कहने वाले कहते रहे तरह-तरह की बातें। लेकिन यह ऐसे थे कि अपने आगे सुनते ही नहीं थे किसी की। दुनिया में किसी की बात की कोई परवाह नहीं करते थे। फिर देखते-देखते एक साल बीत गया। और इस दौरान मैं सिर्फ़ एक बार दो घंटे के लिए मायके पहुंची।

मां-बाबूजी तुम सब मुझे देख कर ऐसे आंसू बहाए जा रहे थे जैसे मैं मौत के मुंह से बचकर आ गई हूं। जिन बाबूजी को हम कभी भावुक होते भी न देख पाते थे उनके आंसू ऐसे झर रहे थे कि मानों कभी रुकेंगे ही नहीं। सब खुशी के मारे फूले जा रहे थे। और गर्व से भी। कि उनका दामाद कार से आया है। बहुत बड़ा अफ़सर है। इनकी तो देवताओं की तरह आवभगत की गई। मगर घंटे भर में सबकी खुशी काफूर हो गई। जैसे ही इन्होंने बेहद रूखे और सख्त लहजे में चलने का आदेश दिया। बाबू, अम्मा, भइया सब लाख मिन्नत करते रहे। एक रात ही रुकने को कहा पर यह टस से मस नहीं हुए। आखिर में सबने हार कर मुझे विदा कर दिया। मेरा कलेजा मुंह को आ गया लेकिन इनसे भय इतना था कि एक बार भी मैं न कह सकी कि सबकी बात मान लो, दिल रखने के लिए ही सही, मान क्यों नहीं जाते।’

‘तुम तो जीजा के डर से एक बार भी नहीं बोली रुकने को। मगर तुम्हारे जाने के बाद सब यह बात भी कर रहे थे कि देखो मन्नू भी कैसे चार दिन में बदल गई। मां-बाप के घर एक रात भी नहीं रुक सकी। अम्मा ने तो गुस्से में यहां तक कहा कि, "अरे! मन्नू का ही मन नहीं था। कहती तो क्या भइया रुकते न। ये तो खुदी न बोली एक बार भी। जब अपना ही खून मुंह फेर लिए है तो और किसी को क्या कहना, वह तो पराया खून है, दामाद है।" ऐसी ही तमाम बातें बहुत दिन तक होती रहीं। मगर किसी को यह अहसास नहीं था कि तुम भी विवश थी, जीजा के आतंक से चुप थी।’

‘मगर बिब्बो यह सब क्यों बता रही हूं तुम्हें! उस समय तो तुम थी ही वहां ?’

‘हां मगर बहुत सी बातें तो उस समय पल्ले ही न पड़ी थीं। लड़कपन कह लो यह लापरवाह स्वभाव इसलिए पूरी बात बताओं, क्यों कि लगता है कि उस समय जो समझा था बात तो उससे उलट या कुछ और भी थी।’

‘सही कह रही हो तुम, उस समय उमर के लिहाज से तो तुम बड़ी हो गई थी लेकिन स्वभाव में कोई गंभीरता नहीं थी। खैर उस समय मेरे मन में कई बार आया कि किसी तरह तुम लोगों को सही बात बताऊं लेकिन न जाने तब किस संकोच के कारण कुछ नहीं कह पाई। तब यह अहसास ही नहीं था कि स्पष्ट बात न कह पाने से तुम लोग यह भी सोच लोगे। और उस दिन दिल पर पत्थर रखे मैं चुप रही। यह वहां से मुझे लेकर सीधे ससुराल आ गए। यहां भी हाल कुछ-कुछ वैसा ही था जैसा मायके में। सब खुशी से निहाल थे। सास ने गले लगा लिया। शायद उनकी उम्मीदों से कहीं ज़्यादा खरी उतरी थी। उनके लड़के की मैं उनकी आशाओं से बढ़ कर देखभाल करने में सफल हुई थी। मगर घंटे भर भी न बीता था कि सास की एक बात ने हिला कर रख दिया। उन्होंने नंद, चाची सबके सामने ही कहा,

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