मन्नू की वह एक रात - 7 Pradeep Shrivastava द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
  • स्वयंवधू - 31

    विनाशकारी जन्मदिन भाग 4दाहिने हाथ ज़ंजीर ने वो काली तरल महाश...

  • प्रेम और युद्ध - 5

    अध्याय 5: आर्या और अर्जुन की यात्रा में एक नए मोड़ की शुरुआत...

  • Krick और Nakchadi - 2

    " कहानी मे अब क्रिक और नकचडी की दोस्ती प्रेम मे बदल गई थी। क...

  • Devil I Hate You - 21

    जिसे सून मिहींर,,,,,,,,रूही को ऊपर से नीचे देखते हुए,,,,,अपन...

  • शोहरत का घमंड - 102

    अपनी मॉम की बाते सुन कर आर्यन को बहुत ही गुस्सा आता है और वो...

श्रेणी
शेयर करे

मन्नू की वह एक रात - 7

मन्नू की वह एक रात

प्रदीप श्रीवास्तव

भाग - 7

‘मगर दीदी तुम ने तो घर में भाइयों से भी ज़्यादा पढ़ाई की है। बहुत तेज होने के कारण ही बाबूजी तुम्हें हॉस्टल में रह कर पढ़ने देने के लिए लखनऊ भेजने को तैयार हुए थे। उनके इस निर्णय से चाचा-चाची यहां तक कि मां भी मुझे लगता है पूरी तरह सहमत नहीं थीं। मुहल्ले में लोगों ने जो तरह-तरह की बातें कीं वह अलग। और शादी के बाद जीजा ने रोका न होता तो तुम पी0एच0डी0 पूरी कर लेती। इतना कुछ तुमने पढ़ा फिर तुम से कैसे अनर्थ हो गया। मैं सोचती हूं कि बहुत ज़्यादा पढ़ाई भी हमें भटका देती है।’

‘बिब्बो अब इस बात का निर्णय करने में मैं समर्थ नहीं हूं। लेकिन किताबें जीवन को रास्ता देती हैं मैं इससे इंकार नहीं करती। मेरा तो यह दृढ़ मत है कि जितना पढ़ो उतना ही अच्छा है। जीवन है क्या इसे समझना उतना ही आसान हो जाता है। इसीलिए जब तुमने बी0ए0 के बाद पढ़ाई बंद करने का निर्णय लिया था तो मैंने तुम्हें मना किया था। कहा था कि और आगे पढ़ो।’

‘अब जो भी हो दीदी तुमने निश्चित ही मुझ से बहुत ज़्यादा पढ़ाई की लेकिन जैसा तुम बता रही हो उस हिसाब से अनर्थ भी तुम्हीं ने किया। जब कि ज़्यादा पढ़ाई तुम्हीं ने की। इसलिए बात मेरी समझ में नहीं आ रही है। ..... खैर जो भी अनर्थ किया उसे बताओ। मुझे तो लगता है जिसे तुम अनर्थ मान बैठी हो वह शायद अनर्थ हो ही न।’ ...... कह कर बिब्बो किचेन की ओर चल दी तो मन्नू ने पूछा ‘क्या हो गया?’

‘कुछ नहीं, सोचा न तो तुम्हारी बात पूरी हुई और न ही मुझे नींद आ रही है। बात है भी ऐसी की पूरी सुने बिना नींद आएगी भी नहीं, तो क्यों न चाय ही बना लूं, मेरी बार-बार चाय पीने की आदत भी तो तुम्हें याद ही होगी।’

‘हां बना लो, मेरा भी मन चाय पीने का हो रहा है।’

‘दीदी एक बात है किचेन तुमने बहुत अच्छा बनवाया है। फ़िल्मों में जैसा दिखाते हैं बिल्कुल वैसा ही लगता है।’

‘मैंने क्या- सब उन्हीं की पसंद का है। पश्चिमी जीवन-शैली इन्हें बहुत भाती थी। वह इनके हर काम में दिखाई देती है।’

‘कहीं तुम दोनों के बीच दूरी बढ़ने का कारण यही सब तो नहीं था।’

‘मुझे तो नहीं लगता कि यह कारण रहा होगा, क्योंकि वो जैसा चाहते थे मैं वैसा ही करती थी। अपनी पसंद अपनी इच्छा तो कभी जाहिर ही नहीं होने दी। न चाहते हुए भी हर वह काम किया जैसा वह चाहते थे। फिर भी यदि असंतुष्ट रहे मुझसे तो शायद हम दोनों सोच के स्तर पर बहुत भिन्न थे। और अब तक मैं यही मानती हूं कि भारतीय पति सिर्फ़ एक ऐसी पत्नी चाहते हैं जो कि सोच-विचार या हर स्तर पर वह जो करें पत्नी भी वैसा ही करे। नहीं तो हम इनसे दूर हो जाते हैं।’

‘ये बताओ दीदी तुम एक बच्चे के लिए इतना तरसती रही। दर-दर भटकती रही लेकिन जीजा से इस बारे में साफ-साफ क्यों नहीं कहती थी, क्यों नहीं जिद पर अड़ गई कि तुम्हारे चले बिना काम नहीं चलेगा इसलिए साथ चलो।’

‘बिब्बो तुमको इतनी देर से बता रही हूं कि यह इस बारे में कुछ बोलते ही बिगड़ जाते थे। तुरंत बोलते थे,

‘'तुम्हारे पास इसके अलावा और कोई काम नहीं है क्या ? जब देखो पागलों की तरह बच्चा-बच्चा करती रहती हो। दुनिया में तमाम लोग बिना बच्चों के हैं ,आराम से हैं, खुश हैं। मेरे पास तुम्हारी इस बकवास के लिए कोई टाइम नहीं है। ऐसी ज़ाहिल पल्ले पड़ गई कि है कि ज़िन्दगी बरबाद कर दी है।'’

जब भी बात करती इसी तरह की गालियां मिलती थीं । उनका सहयोग था तो सिर्फ़ इतना कि मैं कुछ करूं तो उसके लिए मना नहीं करते थे।’

बिब्बो ने चाय लाकर मन्नू को एक कप थमाते हुए कहा,

’बाबा वाली बात जब हो गई उसके बाद भी तुम पहले जैसी कोशिश करती रही या ऊब कर छोड़ दिया सब कुछ हालात के ऊपर।’

‘असल में बाबा के कुकर्मों ने मुझे हिला कर रख दिया था। मुझे सदमे से निकलने में कई महीने लग गए थे। इस दौरान जिंदा रहने भर को किसी तरह कुछ खा-पी लेती थी और इनके जाने के बाद बेड पर पड़ी रहती। रोती रहती। कहीं भी आती-जाती नहीं थी। बस हर वक़्त यही बात दिमाग में घूमती की यदि ज़िया कुछ सेकेण्ड ही को देर कर देतीं तो उस कमीने बाबा ने मुझे कहीं का न छोड़ा होता। मगर वक़्त हर चीज पर धूल डाल देता है न ........। तो इस घटना पर भी वक़्त ने धीरे-धीरे धूल की मोटी चादर डाल दी।

मैं स्टूडेंट लाइफ के बाद एक बार फिर क़िताबों की ओर मुड़ गई। पढ़ाई के दौरान जिन लेखक-लेखिकाओं की बहुत सी प्रसिद्ध किताबें नहीं पढ़ पाई थी, जिनका नाम बहुत सुना था उन्हें एक-एक कर लाने लगी। दिन भर या जब भी टाइम मिलता खोई रहती इन्हीं किताबों में। सच यह था कि अब मेरे पास टाइम ही टाइम था। दिन में भी, रात में भी। क्योंकि दिन में कोई ख़ास काम नहीं था और साथ ही अब इनकी नजरों में मेरी कोई अहमियत नहीं थी। अब रात भर मुझे चिपकाए रहना इन्हें पसंद नहीं था और सच बताऊं तुम्हें कि कुछ दिनों बाद मेरी आदत भी बन गई थी कि मैं इनकी बाहों में समाई रहूं। लेकिन अब सब बदल चुका था मैं हर तरफ से नकारी जा चुकी थी। तो रात भी आंखों में कटती।

नींद आती नहीं थी और किताबें भाने लगी थीं। सो रातें भी किताबों के साथ बीतने लगीं। अब इनके बजाय रात में किताबों से चिपकी रहती। ये जल्दी सोते थे इसलिए मैं दूसरे कमरे में जाकर पढ़ती रहती थी। सोते वक़्त इनके पास आती। तब तक ढाई-तीन बज रहे होते थे। कई बार तो ऐसा होता कि पढ़ते-पढ़ते दूसरे कमरे में ही सो जाती। अब हमारे पति-पत्नी के संबंध में मधुरता समाप्त हो गई थी। बस न जाने कौन सी मज़बूरी थी कि दोनों एक ही घर में रह रहे थे। जब मज़बूरी को जानने की कोशिश करती तो मुझे हर बार यही समझ में आता कि हम दोनों की शरीर की कमियां ही हमें शायद एक ही घर में रखे हुए थीं। हां आज भी यह कहती हूँ कि मैंने जी-जान से इन्हें हमेशा चाहा था। आज भी मेरे मन में उनके लिए वैसी ही जगह है जैसी शादी के बाद थी। हम दोनों के बीच ऐसी स्थाई खाईं बन चुकी थी जिसके भरने की कोई उम्मीद नजर नहीं आ रही थी।

जल्दी ही हम दोनों के कमरे स्थाई रूप से अलग हो गए। मेरे कमरे में किताबों की संख्या बढ़ती जा रही थी। अब हम बस काम भर को ही बोलते थे। जहां तक होता बिना बोले ही काम चलाते थे। अब घर में सिर्फ़ इनके ही लोगों का आना-जाना था। उन लोगों के आने पर ही घर में हंसी-ठहाके गूंजते थे। अब यह चाय-नाश्ता सब नौकर से ही मंगवाते थे। इस बीच अगर कोई थी जिसके कंधों पर मैं अपना सिर रखकर दुख-दर्द कह सकती थी तो वह थी ज़िया। जिनके यहां से हमारी घनिष्ठता बढ़ती ही जा रही थी। उनके बच्चे भी बड़े हो गए थे। इसलिए वह ज़्यादातर वक़्त मेरे पास आती थीं । उन्होंने कई बार हमारे बीच खाईं को पाटने की कोशिश की लेकिन इनकी ऐसी नकारात्मक प्रतिक्रिया होती कि अंततः वह भी हार मान गईं। बस मुझे मज़बूत बने रहने को कहतीं मुझे धीरज बंधातीं। मैं तो कहती हूं कि वह न होतीं मेरे जीवन में तो शायद मैं दूसरी बार प्रयास कर आत्म-हत्या कर चुकी होती।

ऐसे ही रोज जीते-मरते मैं जीवन के चौवालीस-पैंतालीस वर्ष तक पहुंच गई। इस बीच एक नया परिवर्तन यह हुआ कि ज़िया ने भी अपना मकान ले लिया। मकान एल0डी0ए0 का था। इत्तेफ़ाक से बढ़िया मिल गया था तो वह छोड़ कर चली गईं कानपुर रोड कालोनी। अब वह महीने में एक दो बार ही आतीं। अब पहले की तरह उनके पास मेरे लिए वक़्त न था। मैं एकदम अलग-थलग पड़ गई। मुझे अब घर काटने को दौड़ता। किताबों से कितना चिपकी रहती। बच्चे की चाहत दिलो -दिमाग से निकली न थी। और अब मुझे सब कुछ समाप्त होता दिख रहा था। इतनी उम्र के बाद वैसे भी मां बनने के चैप्टर को क्लोज़ ही माना जाने लगता है। यह बात दिमाग में आते ही व्याकुल हो उठती। मेरा गुस्सा इनके प्रति और बढ़ता जा रहा था। क्योंकि इनका डॉक्टर के पास जाने से इंकार करना मेरे मन में यह बात पक्की कर चुका था कि कमी इन्हीं में थी जिसके कारण यह कभी डॉक्टर के पास नहीं गए। अन्यथा ट्रीटमेंट होने पर बच्चे ज़रूर होते।

मैं जब ज़िया के बच्चों को देखती तो मेरा दिल रो पड़ता। इस बीच ज़िया का बड़ा लड़का इंटर में पहुंच चुका था। उसका कॉलेज क्योंकि इधर ही पड़ता था इसलिए ज़िया ने उसे एक मोपेड ले दी थी। वह जब कॉलेज आता तो अक्सर यहां भी चला आता। उसे देख न जाने क्यों मेरे दिल में एक हूक सी उठती। मेरा मन करता कि वह यहां से जाए ही न। मगर किसी के लड़के को रोक कैसे सकती थी। फिर इंटर का इग्ज़ाम आया तो उसका सेंटर घर से काफी दूर था, लेकिन हमारे घर से दूरी आधी थी। सो मैंने ज़िया को सलाह दी कि अपने लड़के चीनू को इग्ज़ाम तक यही रोक दीजिये । इससे इग्ज़ाम टाइम में उसे आसानी होगी। मेरी बात जैसे ज़िया के मन की थी। वह तुरंत तैयार हो गईं। चीनू भी तुरंत तैयार हो गया। मैं उस समय यह नहीं जानती थी कि चीनू का यहां रुकना मेरे जीवन का सबसे बड़ा घटनापूर्ण समय होगा। उस समय जो घटेगा वह मैं जीवन भर नहीं भूल पाऊंगी। जीवन भर उसकी ही आग में जलूंगी, जल-जल कर अंततः समाप्त होऊंगी। और खुद अपने हाथों अपनी सजा न सिर्फ़ तय करूंगी बल्कि दूंगी भी।

‘दीदी तुम क्या बार-बार सजा की बात कर रही हो, आखिर इसका मतलब क्या है ? मुझे यह सुनकर डर लगता है। ’

‘बिब्बो तेरी बीच में बोलने की आदत गई नहीं। ध्यान से सुन सब समझ में आ जाएगा।’

‘मैं ध्यान से ही सुन रही हूं लेकिन बार-बार सजा की बात करती हो तो अजीब सा मन होने लगता।’

‘बिब्बो कम से कम तू तो मेरे मन की पूरी बात सुन ले। सोच जिसका पति भी जीवन भर उसकी बात न सुनता रहा हो उस औरत के मन पर कितना बोझ होगा।’

‘अरे! कैसी बात कर रही हो मैं तो न जाने कब से तुम्हारी सारी व्यथा जान लेना चाहती हूं। मैं तो तुम्हारी बात सुन-सुन कर हैरान परेशान हूं कि तुम कैसे जीवन भर इतना कुछ झेलती रही लेकिन कभी चेहरे पर शिकन तक न आने दी। हम यही समझते रहे कि तुमसे ज़्यादा खुश परिवार में कोई है ही नहीं।’

‘पति साथ देता तो शायद मैं हर हाल में खुश रहती। पर यह भी सोचती हूं कि उनको दोष क्यों दूं, होगा वही जो किस्मत में होगा। चीनू का यहां इग्ज़ाम के लिए रुकना यदि मेरे जीवन का सबसे घटनापूर्ण अध्याय बना तो यह भी किस्मत का ही किया-धरा मानती हूं।’

‘चीनू ने ऐसा क्या किया ? एक सत्रह-अठारह साल का लड़का ऐसा कौन सा काम कर सकता है जो कि तुम्हारी जैसी औरत के लिए सबसे घटनापूर्ण अध्याय बन जाए।’

‘तुम्हारी जगह जो भी होगा वो यही सोचेगा। मगर सच यह है कि यहां उसके रुकने के समय से जो अध्याय उसके चलते शुरू हुआ और तब मैं पैंतालीस वर्ष की हो चुकी थी वह करीब तिरपन की उम्र पार करने पर पूरा हुआ।’

‘ऐसी क्या बात थी जो यह अध्याय आठ वर्षों में पूरा हुआ। और जीजा तक को उसके बारे में पता नहीं था। और आज पहली बार वह अध्याय तुम मेरे सामने खोल रही हो, पढ़ रही हो।’

‘जो अध्याय लिखा जाता है वह कभी न कभी तो खोला भी जाता है और पढ़ा भी जाता है न।’

‘तो इस अध्याय में क्या हुआ बताओ।’

‘चीनू के इग्ज़ाम शुरू हो चुके थे पेपर की डेट ऐसी पड़ी थी कि गैप लंबे थे। साइंस साइड से पढ़ रहा था। औसत से कुछ बेहतर था पढ़ने में । कद-काठी में अपने बाप से आगे निकल चुका था।

कुछ और भी बातें थीं जिसमें वह बाप से आगे निकल चुका था। एक तरफ बाप जहां कम बोलता था, बहुत नपा-तुला बोलता था वहीं वह बहुत बातूनी था। उस उम्र में ही बड़ी प्रभावशाली बातें करता था। दूसरे बाप जहां संकोची था, महिलाओं की तरफ जहां जल्दी नजर उठा कर नहीं देखता था वहीं वह बिंदास किस्म का एक कामुक लड़का था। लड़कियों, औरतों को देखना या तांक-झांक करने में वह संकोच नहीं करता था। यह कहना ज़्यादा अच्छा रहेगा कि कुल मिला कर उसे अच्छी नजर वाला नहीं कहा जा सकता था।

उसकी इस आदत की ओर मेरा ध्यान तब गया जब यह पाया कि वह कनखियों से मेरे शरीर पर नजर डालने की कोशिश करता है। ख़ासकर तब-जब आंचल ढलका हो या झुक कर कुछ कर रही हों या ऐसी कोई भी स्थिति जब शरीर का कोई हिस्सा नज़र आने लगता है। जैसे ब्लाउज से छाती दिख जाए या पेट दिख जाने आदि पर वह घूर कर देखने की कोशिश ज़रूर करता। उसका हर प्रयास ज़्यादा से ज़्यादा झांकने का रहता था। उसकी नजरों में मुझे अजीब सी कामुकता नज़र आती थी।’

‘तो तुम उसे आने से रोक भी सकती थी, न आने देती उसे घर में।’

‘ऐसा नहीं कर सकती थी। ज़िया के परिवार से इमोशनली इतना जुड़ चुकी थी कि हम उनसे अलग होने की सोच ही नहीं सकते थे।’

‘मैं अलग होने की बात कहां कर रही हूं। ज़िया को उनके लड़के की हरकत बता कर उसकी इन हरकतों पर रोक लगा सकती थी।’

‘तुम कैसी बचकानी बात कह रही हो बिब्बो। कोई मां अपने युवा होते लड़के पर ऐसा आरोप कभी सहन नहीं करेगी भले ही लड़का कितना ही गलत क्यों न हो। माना ज़िया बहुत मानती थी मुझे लेकिन वह भी सहन न करती। तुरंत भले ही कुछ न कहती लेकिन मन में गांठ पड़े बिना न रहती। इसलिए मैं चुप रही। या ये कहो कि एक नजर में यह सब देखती और फिर भूल जाती कुछ ही देर बाद। और फिर यह एक ऐसी बात थी जिसे जो भी सुनता उलटा मुझे ही दोषी कहता।

अपने समाज को शायद तुम अभी तक समझ नहीं पाई हो। लोग मुझे ही गलत कहते कि ऐसे कपड़े क्यों पहनती हो कि शरीर दिखे। और कि चालीस-पैंतालिस की उम्र में ही सठिया गई है या फिर लड़के-बच्चे नहीं हैं तो क्या जाने कि बच्चे क्या होते हैं। और जानती हो मैं यह भी सोचती कि यह उम्र के साथ होने वाली एक स्वाभाविक क्रिया है। इसे रोका नहीं जा सकता। यह तो अपोजिट सेक्स के प्रति किशोरावस्था में ही प्रारंभ हो जाने वाले आकर्षण का उम्र के साथ बढ़ते जाने का परिणाम है।

और फिर अपनी किशोरावस्था भी याद आ जाती। जब खुद अपने ही शरीर में आने वाले बदलावों को, उभरते आ रहे अंगों को बार-बार छूने, देखने का मन करता था। देख कर फिर संकोच से गड़ जाना। या फिर स्पर्श के साथ ही अजीब सी रोमांचपूर्ण स्थिति का अहसास होना। या फिर चलते वक़्त जब वक्ष हिलते तो एकदम से सुरसुरी महसूस करना। या यह देखना कि कोई देख तो नहीं रहा है। या फिर बाहर एकदम किनारे-किनारे दबे पांव चलना। ऐसी न जाने कितनी बातें थीं जो मेरे ख़याल में आ जातीं और मैं चीनू के खिलाफ कुछ न कर पाती। और फिर युवावस्था में प्रवेश के साथ ही अपोजिट सेक्स के प्रति जो अजीब उत्सुकता, किसी युवक को देखकर उसे देखने की मन में उठती तरंगे सब गड़बड़ा कर रख देती थी। और तुम ....... तुम्हें क्या अब याद नहीं है वह छत वाली घटना।’

‘कौन सी ?’

‘अरे! तुम बड़ी भुलक्कड़ हो।’

***