मन्नू की वह एक रात - 17 Pradeep Shrivastava द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
  • स्वयंवधू - 31

    विनाशकारी जन्मदिन भाग 4दाहिने हाथ ज़ंजीर ने वो काली तरल महाश...

  • प्रेम और युद्ध - 5

    अध्याय 5: आर्या और अर्जुन की यात्रा में एक नए मोड़ की शुरुआत...

  • Krick और Nakchadi - 2

    " कहानी मे अब क्रिक और नकचडी की दोस्ती प्रेम मे बदल गई थी। क...

  • Devil I Hate You - 21

    जिसे सून मिहींर,,,,,,,,रूही को ऊपर से नीचे देखते हुए,,,,,अपन...

  • शोहरत का घमंड - 102

    अपनी मॉम की बाते सुन कर आर्यन को बहुत ही गुस्सा आता है और वो...

श्रेणी
शेयर करे

मन्नू की वह एक रात - 17

मन्नू की वह एक रात

प्रदीप श्रीवास्तव

भाग - 17

‘पलक-पांवड़े बिछाए जिसका इंतजार करती रही वह जब आया तो पहले की ही तरह फिर गाली, दुत्कार अपमान मिला।’

‘पहले ही दिन में ?’

‘हां ..... पहले ही दिन में। जब आए तो रात को मैंने सोचा कि लंबे सफर से आए हैं सो उनकी देवता की तरह खातिरदारी की। मगर उनका रूखा व्यवहार ज्यों का त्यों बना रहा। बंबई से फ़ोन पर ठीक से बात शायद उस कमीनी के सामने होने की वजह से कर ली थी। खैर रात मैंने यह सोच कर इनके बदन की खूब मालिश की कि लंबे सफर के कारण बहुत थक गए होंगे इससे इन्हें आराम मिलेगा। फिर बजाय मैं पहले की तरह दूसरे कमरे में जाने के इन्हीं के साथ लेट गई।’

‘हां ... यह तो ज़रूरी था। अपने कुकर्म छिपाने के लिए तुम्हें आते ही संबंध जो बनाने थे।’

बिब्बो की बात मन्नू को फिर गहरे चुभ गई। वह देर तक अपने को जज्ब करती रही फिर बोली,

‘हां ..... लेकिन मेरे पति को मेरे बदन की ज़रूरत तो बरसों से ही नहीं रह गई थी। सो उस दिन कैसे आ जाते मेरे पास। मैंने जब हाथ लगाया उनके बदन को, उनके मन को टटोलने के लिए बंबई की बातें शुरू की बिना उस चुड़ैल का नाम लिए, तो बड़े अनमने ढंग से वह धीरे से बोले-

'‘सोने दो।'’

मैंने सोचा चलो आराम कर लेने दो दो-चार घंटे। फिर देर रात देखुंगी। मैं जागती रही और यह सोते रहे बेसुध। जैसे-जैसे रात गुजर रही थी मेरी धड़कन बढ़ती जा रही थी। मन अजीब से भय से भयभीत था। चीनू का चेहरा बार-बार भयभीत कर रहा था। इनके सोने के करीब डेढ़ दो घंटे बाद मन में उठते तूफान से विवश होकर मैं धीरे से चीनू के कमरे तक गई।’

‘क्या ...... जीजा के रहते तुम फिर उस छोकरे से तन की भूख मिटाने पहुंच गई। तुम्हें जीजा का डर बिल्कुल नहीं था क्या?’

‘नहीं, तन की भूख मिटाने नहीं गई थी। उसका चेहरा जो बार-बार मुझे डरा रहा था उसे देखने गई थी कि वह क्या कर रहा है ?वहां जाकर राहत मिली कि वह भी घोड़े बेच कर सो रहा था। लाइट जल रही थी, उसके पास ही फुटपाथिया अश्लील किताब पड़ी थी। हां एक बात तो बताया नहीं। पहले दिन उसके साथ जब संबंध बन गए तो उसके बाद वह जो चाहता वह करने लगा था। मेरे सामने ही अश्लील किताबें पढ़ता। मुझ से बेहिचक पैसे भी मांगने लगा था।

मैंने उसे मन ही मन खूब कोसा और नाइट लैंप आन कर ट्यूब लाइट ऑफ कर दी। चुपचाप नीचे आई तो सन्न रह गई। मेरे झुरझुरी सी छूट गई। पसीना चुहचुहा आया बदन में, गला सूख गया। ऐसे थरथरा रही थी जैसे कोई पुराना जर-जर पुल ट्रेन के गुजरने पर थरथराता है। मुझे ऐसा लगा मानो मेरी चोरी पकड़ी गई। और अब मेरा अंत समय आ गया। यह बेड पर नहीं थे। तभी एक आहट पर पलटी तो देखा यह बाथरूम से चले आ रहे हैं। मेरे जान में जान आ गई, पर सशंकित तब भी थी। यह बेड पर बैठ गए तो मैंने पूछा पानी पिएंगे क्या ?’

'‘ले आओ।'’

‘पानी पी कर यह लेट गए। मैंने राहत की सांस ली। फिर डरते-डरते मैं भी इनसे सट कर लेट गई। इनका मन जानने की कोशिश करने लगी, अचानक ही यह बोल पड़े, ''कहां गई थी?'' मैंने कहा चीनू ऊपर कमरे की लाइट जलती छोड़ कर सो गया था। बुझाने गई थी।’

'‘इसका इग्ज़ाम कब खतम होगा?’'

‘बता रहा था दो पेपर और रह गए हैं। उनकी ऐसी बातों से मेरा मन बढ़ गया। मैंने पहल शुरू की। और बहुत कोशिश की लेकिन व्यर्थ।’

‘क्यों ऐसा क्या हो गया। मेरे यहां तो ये कहते थे खसम मेहरूआ की कौन लड़ाई, फरीया खोले भीतर आई। फिर ऐसा कौन आदमी होगा कि औरत उसके बदन में ज्वाला भड़काए और वह भड़के ही नहीं।’

‘पता नहीं पर मेरे साथ यही हुआ। मेरे हाथ, मेरा तन मन सब थक गए लेकिन इनका ज्वालामुखी जो रूठा था मुझ से वह न भड़का। और फिर इन्होंने मेरे हाथ को रोकते हुए कहा '’सोने दो।'’ बस इन दो शब्दों ने मुझे भी ठंडा कर दिया। मेरी मायूसी समुद्र सी गहरी हो गई थी। मुझे रह-रह कर अपनी मौत निकट नजर आ रही थी। ये, चीनू, सारा मुहल्ला, सारी दुनिया सो रही थी पर मैं अकेली पड़ी अपनी किस्मत पर आंसू बहा रही थी। और उन्हें पोंछने वाला कोई नहीं था। आंसू भी बह-बह कर थक गए तो वह भी सो गए और मैं चुप पड़ी न जाने कब तक और न जाने क्या सोचती रही, फिर आंखें भी न जाने कब धोखा दे बंद हो गईं।

सुबह नींद खुली तो सात बज रहे थे। मैं हड़बड़ा कर उठी, देखा ये फ्रेश होकर पेपर पढ़ रहे थे। जीवन में पहली बार ऐसा हुआ था जब यह मुझ से पहले उठ गए थे। खैर उठी, चाय-नाश्ता, खाना-पीना सब तैयार किया, यह तैयार होकर चले गए ऑफ़िस। चीनू का पेपर था वह इनसे पहले ही चला गया था। मैं अकेली लड़ती रही अपने से। कोई नहीं था मेरे साथ। दिन में ज़िया आई थी लेकिन कुछ ही देर के लिए, चीनू की चिंता थी। कहीं और भी उसे जाना था सो वह जल्दी चली गई। उस दिन चीनू पेपर ख़तम होने के बहुत देर बाद आया, खाना खाया और घर जाने की बात कह कर चला गया। वह भी बड़ा उखड़ा-उखड़ा लग रहा था। शायद पेपर खराब हुआ होगा। या फिर इनका आना उसे खलल पड़ने जैसा लगा होगा। मैंने उसे एक बार भी रुकने को नहीं कहा। हां जाते-जाते बड़ी ढिठाई के साथ मुझसे सौ रुपए ले गया।

‘तुम्हारा गला सूख रहा है।’

बिब्बो ने उठ कर मन्नू को एक गिलास पानी दिया फिर जल्दी से दो कप चाय भी बना लाई और बाथरूम भी हो आई। इस बीच मन्नू शांत हो उसे आते -जाते देखती रही। उसके मन में आया कि जब उसकी सगी बहन यह बात सुन कर आग-बबूला हो रही है तो कोई अन्य तो पूरी बात सुनने से पहले ही न जाने क्या कहता, क्या कर डालता।

मैं भी कितनी पागल हूं, न जाने किस रौ में आकर बहक गई और बता रही हूं सब कुछ, जो बात अपनी चिता में भस्म कर देने वाली थी वह बता दी। अब बिब्बो न जाने यह अपने ही दिल में इसे दफ़न कर पाएगी कि नहीं। कहीं इसने भी इन बातों के बोझ को न सह कर अपने बेटों, बहुओं, बेटियों को बता दिया तो दुनिया में इसके फैलते देर न लगेगी। वैसे भी यह बचपन से ही बड़ी वाचाल रही है। कुछ छिपा नहीं पाती। घर पहुंचते ही न जाने यह क्या करेगी। हे भगवान! मैं ये कैसा पागलपन कर बैठी। कभी तो मुझे शांति दोगे या अंतिम सांस तक ऐसे ही तड़पाते रहोगे।

समझ में नहीं आता तुम्हें अपने ही बनाए लोगों को तड़पाने में क्या मिलता है। कहते तो हो कि बिना तुम्हारी इच्छा के कहीं कुछ होता ही नहीं तो हम सब जो करते हैं जब वह सब तुम्हारे ही इशारे पर होता है तो पाप के, पूण्य के भागीदार हम कहां हुए? यह वैसा ही हुआ कि काम तुम्हारे और सजा हम निरीह प्राणियों को, यह तुम्हारी कैसी व्यवस्था है भगवान ? तुम्हें यह अंधेरगर्दी जैसा नहीं लगता क्या?

मन्नू की यह विचार-श्रृंखला बिब्बो ने आकर तोड़ दी। उसे चाय का कप थमाती हुई बोली,

‘हम दोनों का यह जो जोश जगा है ऐसा शायद ही किसी का रहा होगा। तुम्हारी बातें ऐसी हैं, इतनी ढेर सारी हैं कि उन्हें एक आध घंटे में समेटा नहीं जा सकता। और मैं तो ठान बैठी हूं कि पूरी बात सुने बिना न सोऊंगी। क्योंकि चाहूंगी भी तो नहीं सो पाऊंगी। नींद ही नहीं आएगी।’

‘हां .... मैं भी यह तय कर चुकी हूं कि जब इतना बता ही दिया है, बात खुल ही गई है तो सब बता ही दूं। अब परिणाम चाहे कुछ भी हो।’

‘परिणाम तो जो निकलना था वह निकल ही चुका। अब भी कुछ होने को रह गया है क्या ? यह तो खाली दिल का गुबार निकालने जैसा है। गुबार भी ऐसा है जो यहीं रह जाएगा। कहीं और उसका कण भी न जा पाएगा। सो जितना गुबार भरा है मन में आज वह सब निकाल दो मेरे सामने। अच्छा बताओ इतना बड़ा कांड तुम ने किया, इससे जीजा की नजरों का सामना तुम कैसे करती थी। पहले ही दिन तुम उनके पास गई, उनके पास लेट गई। तुम्हारा मन तुम्हें कचोट नहीं रहा था कि तुम एक ऐसे आदमी को धोखा दे रही हो जो भले ही किसी वजह से तुम से सारे संबंध सामान्य न रख रहा हो लेकिन तुम्हारे ऊपर विश्वास पूरा करता है। अगर विश्वास न करता होता तो पैसे रुपए से लेकर बाक़ी सारी चीजें तुम्हारे हाथों में न दी होतीं। ऐसे में तुमने जरा भी यह नहीं सोचा कि ऐसा आदमी, बुरा मत मानना जो अपंग भी था। उसके साथ तुम कितना अन्याय कर रही हो। आंखें तुम्हारी जरा भी न सकुचाईं उनके सामने जाने से ?’

‘सब हुआ था। ऐसी परिस्थितियों में किसी भी इंसान को जो कुछ भी अहसास होता, जो महसूस होता वह सब मुझे भी हुआ था। मगर एक बात अच्छी तरह समझ लो कि मैं यह बात बिल्कुल नहीं मानती कि मैंने उन्हें धोखा दिया। मैंने धोखा देने के बारे में कभी सोचा भी नहीं था, चीनू प्रसंग ऐसा प्रसंग था जैसे खाने में भूलवश नमक ज़्यादा पड़ गया हो, जिसे अलग नहीं किया जा सकता। बस उसके तीखेपन को झेलते हुए खाना ही एक रास्ता होता है। या ऐसे समझ लो कि.... खैर छोड़ो किसी भी सफाई का मुझे कोई मतलब नहीं दीख पड़ता। मैं सिर्फ़ इतना ही कहती हूं कि हां गलती मुझ से हो गई, मैंने जानते बूझते हुए या प्रीप्लैंड कुछ नहीं किया। बस हो ही गया हां गलती ऐसी हुई कि बाद में न चाहते हुए दल-दल से न निकल पाई।’

‘दल-दल से तो विरले ही निकल पाते हैं। पर चीनू नाम का जो तीखा नमक खाया उसका परिणाम क्या हुआ ?’

‘बह गया .... सारे परिणाम बह गए।’

‘मतलब मैं नहीं समझी।’

‘मतलब कि उनके आने के दो हफ्ते बाद पीरिएड आ गया। सारे सपने खून बन बह गए। हालांकि डेट तो इनके आने के एक हफ़्ते बाद की थी लेकिन एक हफ़्ते देर से आया। यह एक हफ्ते मैं अंदर ही अंदर खुश हो रही थी कि शायद मेरी इच्छा पूरी हो रही है। शायद चीनू के बीज ने मुझे गर्भवती बना दिया है। क्यों कि पीरिएड्स मेरे एकाध बार को छोड़ कर कभी अनियमित नहीं होते थे। मगर बह गई सारी खुशी एक हफ़्ते बाद। मेरे सपने का भगवान ने फिर खून कर दिया। आ ही गया एक हफ़्ते देर से पीरिएड।’

‘मैं इस बात के लिए तुम्हारी इस हिम्मत के लिए तारीफ़ करती हूं कि तुम किस्मत को बदलने की कोशिश कर रही थी। तुम इतनी हिम्मत वाली थी कि विधि का विधान बदलने उससे टकराने चली थी।’

‘मगर मेरा कहना है कि मैं कुछ नहीं कर रही थी। जो कुछ हुआ, जो कुछ हो रहा है, हम तुम जो यह बातें कर रहे हैं यह सब विधि का ही विधान है। उसने जो तय किया था वही सब हुआ।’

‘अच्छा! तो विधि ने इसके आगे क्या लिखा था। तुम जिस नमक चीनू की बात कर रही थी उसके नमक का तुमने फिर सहारा नहीं लिया एक और कोशिश के लिए ?’

‘तुम घबड़ा क्यों रही हो। मैं सब बता रही हूं, कुछ नहीं छिपाऊंगी। बार-बार कह रही हूं।’

‘मैं कहां घबड़ा रही हूं, मैं तो सिर्फ़ यही जानना चाहती हूं कि चीनू नामक नमक तुम और कितने दिनों तक खाती रही। और किस-किस तरह से।’

‘ज़रूर .... नमक जैसे-जैसे खाया सब बताती हूं। चीनू उस दिन जब घर गया तो क़रीब हफ़्ते भर नहीं आया। दो-तीन दिन ज़िया का भी फ़ोन नहीं आया तो मैं चिंता में पड़ गई। क्योंकि मैं समझ रही थी कि बाकी बचे पेपर देने ज़रूर आएगा। और फ़ोन करने से हिचक रही थी कि कहीं उसने ज़िया को बता दिया होगा तो किस मुंह से उनसे बात करूंगी। एक बार मन कहता नहीं बताया होगा। फिर मन कहता क्या पता छोकरा है न जाने क्या कर बैठे। यह उधेड़-बुन बेचैनी जब ज़्यादा बढ़ गई तो मैंने अंततः ज़िया को फ़ोन किया। इसके लिए मुझे बड़ी हिम्मत जुटानी पड़ी थी। ज़िया से बात करते वक़्त मारे घबराहट के मेरे शब्द लड़खड़ा रहे थे। अनुभवी ज़िया ने मेरी घबराहट की थाह लेने की कोशिश में पूछा,

‘'क्या हुआ ? तुम्हारी तबीयत तो ठीक है न।'’

‘हां।’

'‘क्या भइया से कुछ बात हो गई है ?’'

‘नहीं ज़िया ऐसा कुछ नहीं। बस ऐसे ही न जाने क्यों मन बहुत परेशान हो रहा था। पहले सोचा कि अमीनाबाद चली जाऊं। कुछ खरीदारी भी कर लूंगी और हनुमान जी के दर्शन भी। मगर इस गर्मी में निकलने की हिम्मत नहीं हुई। तुम यहां पास में थी तो चल देती थी तुम्हारे साथ। ...... पर अकेले हिम्मत नहीं जुटा पाती।’

‘'जब मन हुआ करे तो एक दो-दिन पहले बता दिया करो, मैं आ जाऊंगी।'’

‘अरे! ज़िया कैसी बात करती हो। इतनी दूर से बार-बार बुलाना अच्छा नहीं लगता।’

'‘मन्नू .... अगर बुरा न मानों तो एक बात कहूं ........ ।'’

***