Mannu ki vah ek raat - 16 books and stories free download online pdf in Hindi

मन्नू की वह एक रात - 16

मन्नू की वह एक रात

प्रदीप श्रीवास्तव

भाग - 16

इसके बाद हमारी दो चार बातें और हुईं। लेकिन उन सारी बातों से मुझे पूरी उम्मीद हो गई थी कि आते ही मैं अपनी योजनानुसार बहुत कुछ कर सकुंगी। न जानें क्यों मेरे दिमाग में यह कूट-कूट भर गया था कि मैं कुछ ही हफ़्तों में प्रिग्नेंट हो जाऊंगी। अब एक-एक पल जहां मुझे एक-एक बरस लग रहा था। वहीं मैं हर संभव कोशिश कर रही थी कि गर्भवती हर हाल में हो जाऊं। कोई कसर कहीं बाकी न रह जाए। अब जब क़दम बढ़ा है, उठ ही गए हैं तो क्यों न उसका फायदा उठाया जाए। अपनी सूनी गोद को हरा-भरा किया जाए। फिर इससे किसी को नुकसान तो हो नहीं रहा है। हालांकि अब यह सब मुझे एक पागलपन से अधिक कुछ नहीं लग रहा।’

‘अच्छा एक बात बताओ वह चुड़ैल उनके ही कमरे में है इसका तुमने जीजा से जरा भी विरोध नहीं किया।’

‘नहीं ... । जानबूझ कर नहीं किया। जानते-बूझते हुए भी एकदम अनजान बनी रही। उसका नाम तक नहीं लिया। क्योंकि यह जानती थी कि उसका नाम लेते ही इनका मूड खराब हो जाएगा और यह फिर आग-बबूला हो उठेंगे।’

‘वाकई बड़ी तेज थी तुम्हारी बुद्धि एक-एक पल का हिसाब था दिमाग में। मैं होती तुम्हारी जगह तो शायद पागल हो जाती, कहीं डूब मरती या फांसी लगा लेती।’

‘पता नहीं कोई और होता तो क्या करता। मगर इतना यकीन से कहती हूं कि मैंने जो किया वह भी उससे इंकार न करता।’

‘अच्छा ये बताओ फ़ोन पर तो जीजा से यह बातें उनके जाने के सात-आठ दिन बाद हुई लेकिन चीनू से संबंध तो उसी दिन हो गए थे। उसके बाद भी वह घर में था। इस बीच तुम उससे दुबारा भी मिलती रही तुम्हारी बातों से तो यही लगता है।’

‘बिब्बो बात भूलती तुम भी नहीं हो। मैं तो सोच रही थी कि तुम इनकी बातें सुन कर भूल जाओगी कि इस एक हफ़्ते तक मैंने चीनू से दुबारा संबंध बनाए थे कि नहीं। लेकिन नहीं, तुम भूली नहीं। क्योंकि तुम्हारा दिमाग पूरी तरह केंद्रित है कि चीनू के साथ उस रात जो संबंध बने उसकी परिणति क्या हुई।’

‘वो बात ही ऐसी है जो भुलाए नहीं भुलाई जा सकती। ऐसी बात है जिसे एक ही झटके में सब जान लेने का मन होता है। तुम्हीं बताओ यह बातें आसानी से भुलाई जा सकने वाली हैं क्या ?’

‘शायद तुम ठीक हो बिब्बो। मैं भी जल्दी से जल्दी बता कर राहत की सांस लेना चाहती हूं। हुआ यह कि उस रात चीनू से संबंध बनाने के बाद मेरे दिमाग में जो चल रहा था वह तो तुम्हें बता ही चुकी हूं। अगले दिन चीनू भी मुझे कुछ अपसेट लग रहा था। दिन में एक-दो बार गया बाहर फिर लौट आया। मैं बराबर उस पर नजर रखे हुए थी, अंदर-अंदर बहुत डर रही थी कि यह कहीं बात किसी और को न बता दे। खाना खाने के लिए दिया तो बोल दिया मन नहीं। तो मैंने भी दुबारा नहीं कहा।

वैसे मैं स्वयं बहुत अपसेट थी, खाना-पीना कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा था। खाना आदि तो सिर्फ़ इसलिए बनाया कि चीनू को किसी तरह लक्ष्मण रेखा से बाहर न जाने दूं। मन में ऐसा तूफान चल रहा था कि लगता दिमाग की नसें फट जाएंगी। मगर इन सारे झंझावातों के बीच मैंने एक बात का दृढ़ निश्चय कर लिया था कि जब इतना बड़ा हाहाकारी क़दम उठ ही गया है तो अवसर का उपयोग ज़रूर करूंगी। मां बनने का सपना ज़रूर पूरा करूंगी। और चीनू ने कहीं बात खोली तो आत्महत्या कर लूंगी। मगर यह भी कहीं दिमाग में आता था कि अगर चीनू कहेगा भी तो उसकी बात को लोग उसकी गप्प के सिवा कुछ और न समझेंगे। एक तरफ मैं डरती, तो दूसरी तरफ खुद ही अपने तर्क-वितर्क से अपने ही को ढाढ़स बंधाती, कहती नहीं, कुछ नहीं होगा तू मां ज़रूर बनेगी।

मां बनने की तेरी मंजिल का माध्यम चीनू बनेगा नैतिकता-अनैतिकता के द्वंद्व पर जहां एक तरफ अपने मन को समझाती अरे! हम महाभारत में नियोग से बच्चे पैदा करने का प्रसंग तो पढ़ते ही हैं। सत्यवती ने अपनी विधवा पुत्र वधुओं अम्बिका-अम्बालिका को व्यास से संभोग करा कर ही मातृत्व प्रदान किया था। अम्बिका ने धृतराष्ट्र, अम्बालिका ने पांडू को जन्म दिया था और इस कलियुग में यदि मैं भी नियोग से मां बन जाऊंगी तो कैसा पहाड़ टूट जाएगा। जब द्वापर युग में नहीं टूटा तो इस युग में कैसे टूटेगा। फिर यह बात तो किसी को पता भी नहीं चलेगी। मैं किसी न किसी तरह चीनू को वश में किए ही रहूंगी।

इसी उथल-पुथल में दिन बीत गया। रात जैसे-जैसे गहराती गई मेरा दिल तरह-तरह की बातों के बोझ से भारी होता जा रहा था। हां इस दौरान एक बात और हो रही थी। मेरे और चीनू के बीच एक मूकवार्ता भी कहीं परवान चढ़ रही थी। फिर हम अपने-अपने कमरे में आए। खाना-पीना अलग-अलग बेमन से हुआ था।

‘और इस रात भी पिछली रात को दोहराया तुम दोनों ने।’

बिब्बो के स्वर में घृणा-गुस्सा व्यंग्य सब कुछ दिख रहा था। उसके इस व्यवहार को मन्नू बराबर एक तरफ कर देती और आगे बढ़ जाती। इस बात को भी उसने बारीकी से साइड दिखा दिया। कहा,

‘देखो बिब्बो मैं यह तो अच्छी तरह जानती हूं कि मैं असंख्य तर्क दूं, सफाई दूं लेकिन तुम्हारे मन को बदल नहीं पाऊंगी। मेरी जो तस्वीर तुमने बना ली है उसमें कोई बदलाव आने वाला नहीं है। मेरी जो तस्वीर तुम्हारे मन पर है रंच मात्र को नहीं बदलेगी।’

‘तुम हद कर रही हो, अरे! जो तुम बता रही हो उसे सुन कर कौन होगा जो तुम्हारी तारीफ करेगा, तुम्हें सम्मान देगा। हां तुम्हारी हिम्मत की तारीफ ज़रूर कर रही हूँ कि देवी-देवताओं, महाभारत आदि का नाम लेकर अपने काम को अच्छा बनाने में ज़रूर लगी हो। मैंने पूछा कि चीनू के साथ फिर संबंध बनाए। क्या पहल तुम्हीं ने की थी तो साफ-साफ बताने के बजाए तुम महाभारत बता रही हो।’

‘तो सुनो तो पहले, मैं साफ-साफ ही बता रही हूं कि उस रात भी हमने पिछली रात दोहराई। चीनू तो चला गया था ऊपर। दुनिया भर के उथल-पुथल के बाद मैं रोक न पाई अपने को। मैं चली गई उसके पास।’

‘और पूरी रात उसके साथ मजा लूटा।’

‘नहीं, चली आई थी कुछ समय बाद।’

‘वाह .......। एक बात मैं साफ-साफ बताऊं तुम लाख सफाई दो कि तुमने चीनू के साथ बच्चा पाने के लिए संबंध बनाए लेकिन तुम्हारी अब तक की एक-एक बात चीख-चीख कर यही चुगली कर रही है कि तुमने अपनी वासना की हवस शांत करने के लिए उसे सिर्फ़ इस्तेमाल किया और पहली रात जो तुम यह कह रही हो कि दूसरी बार चीनू ने एक तरह से तुम से जबरदस्ती संबंध बनाए, तुम्हारी मर्जी के बिना तुम्हारे साथ तुम्हारे बेड पर लेटा यह भी मेरे गले नहीं उतर रहा है। और तुम बताओ उसके पहले मैं बताए देती हूं और पूरे यकीन के साथ कि मैं एकदम सही कह रही हूं कि चीनू के साथ तुम्हारा यह वासना का खेल जब तक जीजा नहीं आए तब तक चलता रहा ..... । बोलो क्या मैं गलत कह रही हूं।’

‘हां ...... सही कह रही हो तुम, लेकिन मेरी इस बात पर भी ध्यान दो कि मैं बार-बार कह रही हूं कि मेरे इस काम में अंतिम उद्देश्य केवल बच्चा था। तुम यकीन करो इस बात का कि मैं संबंध बनाते समय भी बच्चा ही जी रही होती थी। और यही यकीन करती कि बस अब मैं बीज धारण कर चुकी हूं। तुम चाहो तो इसे एक पंथ दो काज जैसा भी कह सकती हो।’

‘अब पता नहीं एक पंथ दो काज जैसा होता था या कि एक पंथ और सिर्फ़ एक ही काज यह तो तुम्हीं जानो पर मेरी समझ में यह नहीं आ रहा कि जो जीजा शादी के बाद कुछ सालों तक तुम्हें जी जान से चाहते थे वह बाद में तुम से इतने दूर क्यों हो गए। हां ....... लेकिन यह पूछना तो बेवकूफी है। इस प्रश्न का महत्व तो जब वह भी होते तभी था। तो तुम अब सिर्फ़ इतना बताओ कि जब वह लौटे तब क्या हुआ।’

‘बाद के दिनों में जीजा क्यों अलग हो गए अगर तुम यह पूछती तो भी अच्छा था। न जाने तुम्हें अब तक यह यकीन क्यों नहीं हो रहा कि इस समय मैं जो कुछ बता रही हूं सही बता रही हूं। जब मैं जो नहीं बताना चाहिए था वह भी बता रही हूं तो यह बात क्यों नहीं बताऊंगी कि बाद के दिनों में यह क्यों दूर रहने लगे थे। मैं बहुत साफ बता रही हूं कि मेरा जो अनुभव है, मैंने जो जीया उसका निष्कर्ष यही है कि मर्दों को पत्नी चाहे कितनी अच्छी हो कुछ दिन बाद उसमें उनको वो आकर्षण, वो सुख नहीं मिलता जो शुरू में वह भोगते हैं। और फिर अगर बाहर उसके लिए औरतें उपलब्ध हैं तो उसके लिए तो जैसे सारी दुनिया ही उसके हाथ में है। ऐसे में पत्नी उसे दाल में कंकर की तरह नजर आती है।

मेरे साथ भी यही हुआ था। बाद के दिनों में जैसे-जैसे वह आगे बढ़ते गए प्रभावशाली होते गए इनके शौक भी बदलते गए इनका टेस्ट बदला तो मुझ में उन्हें कोई रुचि नहीं रह गई। घिन आने लगी थी मुझसे, जो बातें कहते, गालियां देते थे, और जिस तरह अपनी लात और छड़ी से मुझे मारते थे, तुम होती मेरी जगह तो एक दिन न बर्दाश्त करती। उनके साथ मैंने जीवन भर जिस तरह निभाया मैं दावे से कहती हूं कि तुम क्या कोई भी औरत उस तरह न निभा पाती उनके साथ। तुम तो कुछ देर पहले कह ही चुकी हो कि तुम बर्दाश्त न करती। जबकि मैंने न सिर्फ़ जीवन भर निभाया बल्कि उन्हें कभी यह अहसास न होने दिया कि मैं उनकी ज़्यादतियों से ऊबकर कई बार यह सोच बैठती हूं कि अलग ही हो जाऊं क्या ?’

‘अलग होने की बात मन में आने के बाद भी शायद तुम्हारे पास विकल्प नहीं था इसलिए साथ रही तुम आखिर तक।’

‘तुम कैसी बात कर रही हो। मैंने कहा न कि गुस्से में कई बार मन में आता था ऐसा लेकिन यह क्षणिक होता था। गुस्सा कम होते ही ऐसी बात पर पक्षताती थी, सच यह है कि मैंने सामान्य स्थितियों में जीवन में कभी भी उनसे अलग होने की बात नहीं सोची। मेरे मन में कभी ख़याल तक न आया। तुम इसका कारण विकल्पहीनता मानती हो तो मैं इसे सच नहीं मानती। मन में यह आता तो निश्चित मानों मैं विकल्प भी तलाश लेती। अगर ऐसा होता मन में तो जब यह अठारह दिनों बाद लौटे बंबई से तो मैंने जिस उत्साह के साथ इन्हें सिर आंखों पर बिठाया, और कि जब तक आए नहीं तब तक टूट कर करती रही इनका इंतजार यह सब न होता। जबकि यह भी बाद में मालूम हुआ कि जिस बंबई में मैं घूमना चाहती थी अपने पति के साथ उसी बंबई में मेरा पति ऑफ़िस का काम पूरा होने के बाद दो दिन तक उस चुड़ैल के साथ घूमता रहा। लाख असहजतापूर्ण बातों के बावजूद मेरे मन में उनके लिए दुर्भाव या उनसे अलग होने की बात कभी नहीं आई। सिवाय बहुत ज़्यादा मार खाने और अपमान के समय क्षणिक तौर पर।’

‘हां मगर एक बात तो यह भी है न कि थोड़ी देर पहले तुमने यह भी कहा कि चीनू से बने संबंध की पोल न खुल जाए, इसलिए तुम जीजा से जल्द से जल्द मिलना चाहती थी। तो इंतजार तो इस स्वार्थ के लिए ज़्यादा था न।’

‘चलो मान लेती हूं तुम्हारी इस बात को कि मैं अपनी गलती छिपाने के लिए कर रही थी उनका इंतजार। अपने स्वार्थ के लिए कर रही थी ?’

‘तो अब यह भी बता दो कि जब वह आ गए तब कैसे तुमने उनका सामना किया ? चोरी अपनी कैसे छिपाई ? तब जीजा को कैसे फंसाया अपने जाल में।’

‘बिब्बो तुम इतनी जली-कटी बात क्यों कर रही हो ? मुझे भला उनको अपने जाल में फंसाने की ज़रूरत क्या थी। आखिर वो मेरे पति थे। मैं तो खुद ही वक़्त के हाथों खेली जा रही थी, वक़्त के जाल में मैं खुद फंसी घुटती जा रही थी।’

‘ठीक है, जब जीजा आए तब क्या हुआ ?’

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