मन्नू की वह एक रात - 15 Pradeep Shrivastava द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
  • स्वयंवधू - 31

    विनाशकारी जन्मदिन भाग 4दाहिने हाथ ज़ंजीर ने वो काली तरल महाश...

  • प्रेम और युद्ध - 5

    अध्याय 5: आर्या और अर्जुन की यात्रा में एक नए मोड़ की शुरुआत...

  • Krick और Nakchadi - 2

    " कहानी मे अब क्रिक और नकचडी की दोस्ती प्रेम मे बदल गई थी। क...

  • Devil I Hate You - 21

    जिसे सून मिहींर,,,,,,,,रूही को ऊपर से नीचे देखते हुए,,,,,अपन...

  • शोहरत का घमंड - 102

    अपनी मॉम की बाते सुन कर आर्यन को बहुत ही गुस्सा आता है और वो...

श्रेणी
शेयर करे

मन्नू की वह एक रात - 15

मन्नू की वह एक रात

प्रदीप श्रीवास्तव

भाग - 15

‘तो फिर क्या तुमने फिर अपने को सौंप दिया उस सुअर को।’

‘बिब्बो और कोई रास्ता बचा था क्या मेरे लिए?’

‘हे भगवान! क्या यही सब सुनवाने के लिए जिंदा रखा है मुझे। अरे! तुम चाहती तो रास्ता ही रास्ता निकल आता। चाहने पर क्या नहीं हो सकता। अरे! इतनी कमजोर तो उस वक़्त नहीं रही होगी कि एक छोकरे से खुद को न बचा पाती। अरे! एक लात मार कर उस हरामजादे को बेड से कुत्ते की तरह बाहर कर सकती थी।’

‘बेड से क्या, उस कुत्ते को तो मैं घर से बाहर फेंक सकती थी। लेकिन तब वह चारों तरफ तुरंत बात फैला देता। क्योंकि उस समय वह बहुत आवेश में था। वो इतना कमीना था कि उसमें और नमक-मिर्च लगाता। चलो मैं तो निश्चित ही मरती ऐसी हालत में। लेकिन फिर इनका क्या होता ? समाज में ये कैसे निकलते बाहर। और फिर तुम लोग भी कैसे निकलते दुनिया के सामने। मेरे साथ सबका जीना मुश्किल हो जाता।’

‘ओह! सबकी इतनी चिंता थी तुम्हें, तो यह सब किया ही क्यों था।’

‘मैं बार-बार कह रही हूँ कि किया नहीं था हो गया था, परिस्थितियों के हाथों मैं बह गई थी। बह जाने के बाद संभली तो गंभीरता को समझा। हर हालत में एक ही कोशिश की कि बात फैल कर तुम सब तक न पहुंचे। तुम सब उसकी ताप में न झुलसो। तुम जो बार-बार इतना व्यंग्य कर रही हो, मेरी जगह होती तो समझती मैंने जो किया है वो किस हद तक गलत था या सही।

आज तक सब लोग शान से दुनिया के सामने चल रहे हो तो सिर्फ़ इसलिए कि इतने अत्याचार को चीनू के कमीनेपन अन्य कइयों के हरामीपन की आग से मैं अकेले जलती रही। उसकी आग को फैलने से रोकती रही कि वह तुम लोगों तक पहुंच कर तुम सबको न तपाए। और मुझे संतोष है कि मैं इस आग को फैलने से रोकने में कामयाब रही। हां लेकिन अब मुझे लगता है कि मुझे यह सब तुम्हें भी नहीं बताना चाहिए था।

अम्मा की बात याद आती है कि बने के सब साथी हैं बिगड़े में कोई नहीं। सोचा था कि बहन हो कम से कम तुम तो समझोगी लेकिन मैं हमेशा की तरह किसी को समझने में फिर गलती कर गई। मुझे यह सारी बातें अपने साथ अपनी चिता तक ले जानी चाहिए थीं। इन बातों को बजाए तुम्हें बताने के अपने साथ अपनी चिता में ही जलाना चाहिए था। लेकिन कहा न जैसे उस दिन बह गई परिस्थितियों के हाथों भावना में बह कर, वैसे ही बरसों से इस बोझ को ढोते-ढोते थक कर चूर हो गई थी। सो तुम्हें देख कर पसर गई, बिखर गई कि कुछ राहत मिलेगी लेकिन मेरा दुर्भाग्य कहां मुझे बख्सने वाला था उसने यहां भी आकर डस लिया। तुम ऐसे बोल रही हो जैसे कोई बाहरी हो।’

‘बात बाहरी की नहीं है। तुम जो बता रही हो, ऐसा नहीं है कि वह सिर्फ़ तुम्हारे साथ हुआ है। अपने यहां तो औरतों के साथ अत्याचार होते ही रहते हैं। और बच्चे न हों तो कोढ़ में खाज जैसी स्थिति होती है। मेरा तो मानना है सौ में नब्बे औरतें ऐसी होती हैं जिनके जीवन में पति मनचाहा सुख ले लेते हैं, वह इतना ही जो जानते हैं। पत्नी को सुख मिला कि नहीं इससे उनको कोई मतलब नहीं होता। रही बात बच्चों की तो ऐसी न जाने कितनी औरतें हैं जो पति के सुख से, बच्चे के सुख वंचित हैं, लेकिन अगर सब तुम्हारी तरह करने लगतीं तो दुनिया में चरित्र नाम की कोई चीज ही न रहती।

मुझे तुम पर बार-बार गुस्सा इसलिए आ रहा है क्यों कि तुम्हारी बातों से मैं यह समझ पा रही हूं कि तुम्हें जीजा से रुपया, पैसा, सामान का तो सुख था, शरीर का सुख नहीं था। औरतें ऐसे में बच्चों के साथ अपने को खपा देती हैं लेकिन तुम्हारे बच्चे भी नहीं थे। ऊपर से वह दवा-दारू में तुम्हारा साथ नहीं दे रहे थे, वक़्त निकलते जाने के कारण तुम व्याकुल हुई जा रही थी। ऊपर से अन्य औरतों के साथ जीजा के खुलेआम संबंधों के कारण तुम अंदर ही अंदर घुटती जा रही थी। भरती जा रही थी। और उस दिन जब वह बंबई उस चुड़ैल के साथ गए तो तुम फट पड़ी।

‘उस दिन तुम बच्चे को लेकर नहीं अपने शरीर की भूख की गिरफ़्त में ज़्यादा थी। और आग में घी का काम उस चुड़ैल ने किया। प्रतिशोध की आग में जल उठी तुम, तुम्हारे मन में आया कि अगर जीजा औरतें भोग सकते हैं तो तुम आदमी क्यों नहीं। तुम्हारे तन-मन की भूख उस दिन चरम पर पहुंच गई थी और संयोग से चीनू जैसा भरे-पूरे शरीर का जवान लड़का था साथ। घर में कोई नहीं था उसको देख तुम्हारी भूख और भड़क गई। और जब उसने तुम्हें चुप कराने के बहाने खुद तुम्हारे स्पर्श का मजा लेना चाहा तो तुम अपनी वासना नहीं रोक पाई, एक जवान मर्द शरीर का स्पर्श पाते ही वासना फूट पड़ी और बजाय वह कुछ करता तुमने ही सब कुछ कर डाला।’

‘ये सच नहीं है बिब्बो।’

‘यही सच है। सच यही है कि तुम वासना की आग में इतनी अंधी हो गई थी कि यह भी भूल गई कि जिस लड़के के साथ तुम वासना का सुख लेने जा रही हो यदि समय पर तुम्हारा सब कुछ सामान्य रहा होता तो जो बच्चा होता वह उसी उम्र का होता। यानी अपने बच्चे की उम्र के लड़के से तुमने अपनी वासना शांत की। यह सोचे बिना कि इसका उसके भविष्य पर क्या असर पड़ेगा।

तुम वासना की आग में, स्वार्थ में, प्रतिशोध में इतनी अंधी हो गई थी कि एक पराए लड़के के सामने तुम्हें अपना तन, अपनी लाज खोलते उसको अपने निर्वस्त्र तन पर खींचते तुम्हें जरा भी लाज संकोच नहीं आई। और इससे बढ़ कर निर्लज्जता और क्या होगी कि उस छोकरे के साथ बनाए संबंधों की तुलना अपने पति के साथ भोगे क्षणों से कर रही हो कि उसके अंग ने, उसके तपते लावे ने तुम्हारे में जमा ...... हे भगवान! न जाने क्या-क्या बोल रही थी तुम कि वह सब साफ हो गया।

क्या यह सच नहीं है कि तुमने जीजा से उस बात का बदला लिया जो उन्होंने गुस्से में तुम्हारी तुलना मीनाक्षी से कर डाली और उसे बेहतर कहा था। मगर इससे बड़ी बात यह थी कि तुम्हारी वासना की जो हवस थी वह जीजा से शांत नहीं हो पाती थी उसे तुमने मौका पाते ही एक छोकरे से शांत करने की सोची। बोलो क्या मैं गलत कह रही हूं कि तुम उस दिन प्रतिशोध, अपनी वासना की आग को बुझाने के लिए सब कुछ भुलाकर कर रही थी। और जीजा के व्यवहार को, काम को एक हथियार के तौर इस्तेमाल किया। बोलो क्या यह सच नहीं है। क्या ज़वाब है तुम्हारे पास इन बातों का। इसके बाद भी चाहती हो कि मैं तुम्हारी बातों को सही कहूं, तुम्हारी तारीफ़ करूं। मगर क्यों ? इसमें बनने-बिगड़ने की बात, साथ होने की बात कहां से आती है।’

बिब्बो का धारा-प्रवाह इतना बोल जाना मन्नू को कुछ हैरत में डाल गया। उसकी बातें मन्नू की उम्मीदों से अपेक्षाओं से, कहीं बहुत आगे थीं। उसे कुछ देर तक कोई जवाब नहीं सूझा। चुप रही वह। तो बिब्बो फिर बोली,

‘तुम कहती हो कि बहन होकर तुम मेरी बात मेरा दुख सुनने को तैयार नहीं हो। मगर जरा तुम्हीं बताओ कौन बहन अपनी बहन के ऐसे कर्मों। कर्मों नहीं बल्कि कुकर्मों कहो, को सुनना चाहेगी। तुमने जो किया उसका दूसरा उदाहरण ढूढ़े कहीं हो तो बताओ। मैंने तुम्हारी तरह तो बहुत सी किताबें नहीं पढ़ीं लेकिन जितना पढ़ी हूं मुझे कहीं भी ऐसा वाक़या पढ़ने-सुनने को नहीं मिला। और फिर अभी तो तुम बार-बार यही कहे जा रही हो कि अनर्थ तो तुमने आगे किया है। यह जो अभी तक बताया यह तो तुम्हारी नजर में अनर्थ था ही नहीं। तो अब जल्दी से वह अनर्थ बता दो। जरा वह भी सुन लें। देखें इस कलियुग में इस दुनिया में कैसे-कैसे अनर्थ हो रहे हैं।’

‘ताने कस रही हो या सच में ये सब कुछ सुनना चाहती हो ?’ मन्नू बिब्बो की जली-कटी सुन कर आहत हो बोली,

‘तुम जो चाहे समझो। मैं तो सुनने को तैयार बैठी हूं। अब तो एकदम लगता है कि सब कुछ बिना सुने यहां से जा भी न पाऊंगी। हां तो बताओ जब जीजा आए तब क्या हुआ।’

‘हुआ यह कि मैं बराबर यही सोच-सोच कर परेशान थी कि आते ही उन्हें कैसे मनाऊंगी। जाते वक़्त तो इतना गुस्सा हो कर गए थे। आएंगे तब क्या होगा। इनके फ़ोन का इंतजार करती रही कि पहुंच कर यह फ़ोन करेंगे। लेकिन कई दिन तक जब फ़ोन नहीं आया तो खीझकर मैंने ज़िया से कह कर चौहान जी से वहां का फ़ोन नंबर मंगवाया जहां यह रुके थे। तब आज की तरह मोबाइल की सुविधा तो थी नहीं। बड़ी मुश्किल से पांचवें दिन बात हुई। मगर फो़न उठते ही जो पहली आवाज़़ सुनी उससे तनबदन एकदम जल उठा। लेकिन मुझे क्योंकि हर हाल में अपने पर नियंत्रण रखना था, इसी में मेरी भलाई थी सो मैं एकदम शांत रही।’

‘उसी चुड़ैल ने फ़ोन उठाया था क्या ?’

‘हां बिब्बो तुम सही कह रही हो, फ़ोन उसी चुड़ैल ने उठाया था, रात करीब नौ बज रहे थे और वह चुड़ैल उनके कमरे में थी। बड़ा इठला कर बोली थी’

‘'भाभी जी कैसी हैं आप ?’'

‘ठीक हूं ...... आप कैसी हैं।’

‘'मैं भी ठीक हूं।'’

‘जरा इनसे बात करा दीजिए .....’

‘'हां बिल्कुल एक मिनट होल्ड किजिएगा बाथरूम में हैं।'’

यह करीब दो मिनट बाद आए लाइन पर तो मैंने अपनी परंपरा अपनी श्रद्धानुसार चरण-स्पर्श बोला तो बड़े बेमन से बोले,

'‘खुश रहो।'’

‘कैसे हैं आप ?’

‘'ठीक हूं ...... । मुझे क्या हुआ ... ?’'

‘नहीं, कई दिन हो गए थे कोई समाचार नहीं मिला, तो मन लगा हुआ था।’

‘'खुशी हुई कि तुम्हारा मन मुझ पर लगा रहा। .... वहां किसी चीज की कोई कमी तो नहीं है। उनकी यह बात मरहम सा असर कर गई।'’

मैंने पूछा

‘बंबई कैसा लगा आपको।’

‘'लगना कैसा है। जैसे बाकी शहर हैं, वैसे ही यह शहर भी है। बस कहीं भीड़ ज़्यादा है कहीं कम। यहां भीड़ ज़्यादा है, इतनी है कि दम घुटता है।’

‘काम के बाद थोड़ा घूम लिया करिए मन लग जाएगा। अपनी मन-पसंद हिरोइनों, हीरो से मिल लीजिए। अच्छा लगेगा।’

‘पर्दों पर यह सब अच्छे दिखते हैं। कईयों को देखा है यहां इधर-उधर आते-जाते। मुझे तो सब बकवास लगे। पता नहीं लोग क्या देखते हैं इन सबमें कि दीवाने हुए भागते हैं इन सबके पीछे। ..... खैर घर पर चीनू है कि गया।’

‘अभी है। काफी लंबे-लंबे गैप हैं इसलिए समय ज़्यादा लग रहा है।’

‘'ठीक है और कोई बात ?’'

‘आप कब तक आ रहे हैं ?’

‘'क्यों कोई काम रुक रहा है क्या मेरे बगैर।'’

‘मेरी दुनिया तो आपके रहने पर ही चलती है, एक दो काम की बात कहां?’

'‘ये सब बेकार की बातें हैं, किसी के रहने न रहने से कुछ भी नहीं रुकता और फिर हमारे संबंधों में ऐसी कौन सी गर्मी या मिठास है कि कहीं कुछ फ़र्क पड़ता है।’

‘ऐसा नहीं है। थोड़ी बहुत तकरार का मतलब यह नहीं कि संबंध में कहीं गर्मी नहीं है। कोई मिठास नहीं है। ज्वालामुखी शांत रहे तो इसके मायने यह नहीं कि उसमें अंदर उथल-पुथल नहीं हो रही है। उसके अंदर दहकता लावा नहीं है। बस उचित माहौल स्थितियों की ज़रूरत होती है। जिसके आते ही रिश्तों में गर्मी दहकने लगती है। सुर्ख तपता लावा रिश्तों की गर्मी को चरम ऊंचाईयों तक पहुंचा देता है। मुझे लगता है हमारे बीच भी ज्वालामुखी अंदर ही अंदर धधक रहा है। उथल-पुथल मचाए हुए है। बस ज़रूरत है हम दोनों को उपयुक्त माहौल पैदा करने की ?’

‘'ओह! बड़े दार्शनिक अंदाज में बात कर रही हो। कुछ ख़ास बात हो गई क्या।'’

‘हां यही मान लीजिए।’

‘'अच्छा ....... तो जरा हम भी जाने कि ऐसा क्या ख़ास हो गया कि रिश्तों की गर्मी को ज्वालामुखी की गर्मी की तरह चरम तक ले जाना चाहती हो।'’

‘अभी तो बस इतना जान लीजिए कि आपसे दूरी बड़ी असहनीय है। जब भी बाहर जाते हैं तो मेरे अंदर का ज्वालामुखी धधकने लगता है। उथल-पुथल एकदम से कुलांचें मारने लगती है। जब से गए हैं एक पल को चैन नहीं मिला है। इसीलिए चाहती हूं कि जल्दी से जल्दी आ जाएं।’

‘'मगर आने से फायदा भी क्या?आते ही मिलते ही फिर सब कुछ ठंडा हो जाएगा।'’

‘नहीं ..... ठंडा होने की भी एक सीमा होती है न उसके बाद तो बारी लावे के बाहर आने की होती है। बहुत दिन हो गए, अब हमारे रिश्तों के हिमयुग के समाप्त होने का समय आ गया है। गर्मी आने का वक़्त आ गया है। यह गर्मी रिश्तों को जीवंत बनाएगी। बस जल्दी आइए, मुझे पूरा यकीन है अब हम जीवंत युग में प्रवेश करेंगे। सारी बर्फ़ पिघल जाने का वक़्त आ गया है। फिर यह सब है तो हमारे ही हाथ में न। जब चाहें कर सकते हैं।’

'‘आज तुम्हारी बातें समझ में नहीं आ रही हैं। इतनी दार्शनिकता इतनी रूमानियत पहले तो कभी नहीं दिखाई दी। आज क्या हो गया है।'’

‘हिमयुग के ख़त्म होने का दौर शुरू हो गया है। जीवंत युग के आने की तपिश है जो तुम तक पहुंच रही है।’

‘'इसीलिए पूछ रहा हूं क्या हो गया है ?’'

‘पिछले कुछ बरसों में आपने भी तो नहीं पूछा था इस तरह। इसीलिए निवेदन कर रही हूं कि जितना हो सके उतनी जल्दी आइए। मैं बेसब्री से इंतजार कर रही हूं।’

‘'पहले ये बताओ सब ठीक-ठाक तो है न। इन बहकी हुई बातों के पीछे क्या छिपा रही हो ?'’

‘सब कुछ बिल्कुल ठीक है। और जो ठीक नहीं है अब वह भी ठीक हो जाएगा। मैं उसी तरह जीना चाहती हूं, आपका वैसा ही प्यार चाहती हूं जैसा शादी के बाद कुछ समय तक आप करते रहे थे। फिर न जाने किसकी काली छाया पड़ी कि हम एक घर में रह कर भी एक नहीं हैं। दुनिया के सामने हम मुखौटा लगाए रहते हैं तो दुनिया समझती है कि हम बड़े खुशहाल हैं। मगर अंदर ही अंदर हम दोनों ही कहीं घुल रहे हैं। मैं बस यही ख़त्म करना चाहती हूं, मैं फिर से शुरुआती दिनों की खुशियां पाना चाहती हूं, तुम्हें देना चाहती हूं। घर को स्वर्ग बनाना चाहती हूं।’

'‘ये अचानक इतना बड़ा परिवर्तन कहां से आ गया मैं कुछ समझ नहीं पा रहा हूं। खैर आऊंगा तब देखूंगा। कुछ समस्या हो तो बोलो।'’

‘हां एक बड़ी समस्या है।’

‘'तो वो बताओ न। इतनी लंबी-चौड़ी बातें करने, भूमिका बनाने की क्या ज़रूरत है।'’

‘मुझे तुम्हारी बहुत याद आ रही है। मैं तुम्हारी बाहों में खोना चाहती हूं पिघलना चाहती हूं तुम्हारी गर्मी से। यही पहली और आखिरी समस्या है। बोलो दूर करोगे न।’

'‘चलो अच्छा बहुत हो गई बात, आऊंगा तो देखूंगा तुम्हारी समस्या क्या है। अब रखो फ़ोन मुझे कुछ काम करना है।'’

***