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दंश.

  • दंश
  • आशा पाण्डेय

    सनेही के हाथ से मशीन का हत्था (हैन्डिल) आज फिसल-फिसल जा रहा है । ऐसा तो पहले दिन भी नहीं हुआ था जब बड़े साहब ने उसे मशीन का हत्था हाथ में पकड़ा कर घास काटना सिखाया था । पहली मर्तबा मशीन पकड़ते वक्त उसके हाथ काँप रहे थे । मशीन और साहब दोनों का डर था । ऐसा नहीं कि उसने पहले कभी घास नहीं काटी थी । काटी थी, अनेक बार काटी थी । गाँव में बरसात के महीनों में लम्बी-लम्बी घास उसे हसिया से काटनी पड़ती थी । उसने घास छीली भी थी। लेकिन बंगले के बगीचे में नहीं । खेतों में, मेडों पर, चकरोटों पर - खुरपी से ।

    जेठ बैशाख के महीने में जब खेती का काम नहीं रहता था तब सनेही खुरपा-खाँची लेकर निकल पड़ता था घास की तलाश में । जेठ की लपलपाती धूप घास को लील जाती थी । कहाँ बचती थी घास । खाँची भर घास छीलने के लिए सनेही खेतों से मेंड़ों पर, मेंड़ों से बाग-बगीचों में, बाग-बगीचों से कुआँ-तालाब के आस-पास घूमता रहता । शाम तक जब बमुश्किल खाँची भर घास हो जाती तब वह उसे चौधरी के घर दे आता । चौधरी के घर में गाय-गोरू थे । चौधराइन खाँची भर घास के बदले उसे किलो भर गेहूँ दे देतीं ।

    इस तरह घर में फांका होने से बच जाता । पर खुरपा की बात अलग है, मशीन की बात अलग है । बड़े साहब ने हिम्मत बंधाई थी तब कहीं जाकर उसका डर भागा था और एक दिन में ही वह मशीन चलाना सीख गया था ।

    ऐसी मखमली घास तथा घास काटने की ऐसी शानदार मशीन अब तक उसने सिर्फ सनीमा में ही देखा था । हीरो लोग अपने बगीचे की मखमली घास ऐसे ही, मशीन से काटते थे । सनेही का पक्का मानना है कि इस तरह मशीन से घास काटना अमीर और बड़े लोगों का काम है । अब जब सनेही मशीन हाथ में पकड़ता है तो उसका सीना गर्व से तन-सा जाता है । उसे लगता है कि जैसे वही इस बगीचे का मालिक है । वह मन ही मन सुन्दर को दुआ देता है । इस बंगले पर सुन्दर ने ही उसे रखवाया था ।

    बंगले के एक तरफ, बगीचे से थोड़ा पीछे ‘ आउटहाउस’ है । दो कमरों का घर । सनेही को परिवार सहित रहने के लिये बड़े साहब ने यही घर दे दिया था । पक्की फर्श और दीवालों पर प्लास्टर वाला यह ‘ आउटहाउस’ सनेही को किसी बंगले से कम खूबसूरत नहीं लग रहा था । खुशी से उसने अपनी घरवाली की ओर देखा तो मुस्कुरा उठा । उसकी घरवाली अपनी साड़ी समेंटते हुए पैरों को सम्भाल-सम्भाल कर उस चिकनी फर्श पर रख रही थी । धूल-मिट्टी से सने उसके पैर कहीं फर्श को गन्दा न कर दें, इसलिए |

    जब इस बंगले पर सनेही लगा तो उसके कुछ महीने पहले ही यहाँ का पिछला नौकर चला गया था । तब से यह ‘आउट हाउस’ बन्द पड़ा था । इसलिए धूल-मिट्टी और जाले हो गये थे, किन्तु गाँव के कच्चे घर से आई पार्वती को ‘आउट हाउस’ एकदम साफ लग रहा था । उसके तीनों बच्चे भी खुशी के मारे बगीचे से ‘आउट हाउस’ तक उछल-कूद कर रहे थे । शहर तथा पक्के मकान में रहने की खुशी उनके लिये किसी बड़े खजाने के मिल जाने जैसी थी ।

    सनेही को इस बंगले में बगीचे की देख-भाल का काम मिला था । बंगले में झाडू-पोंछा लगाने तथा बरतन मांजने का काम पार्वती ने सम्भाल लिया था ।

    सनेही को आश्चर्य होता, इतना बड़ा बंगला और रहने वाले बस तीन जन ! बड़े साहब, सहबाइन तथा एक बेटा, बस्स ! बाकी तो नौकरों का राज-पाट। रसोई बनाने वाला महराज, कपड़ा धोने वाला धोबी, बाजार से सौदा-सुलफ लाने वाला सुन्दर, ड्राइवर, सनेही, पार्वती---मालिक लोगों से जादा नौकर-चाकर ! बड़े लोगों की बड़ी बात !!

    छोटे साहब वकील हैं । सुबह-शाम उनसे मिलने आने वालों से बरामदा भरा रहता है । घंटों बैठकर लोग उनसे मिलने का इन्तजार करते हैं ।

    शाम को जैसे ही छोटे साहब घर आते हैं, सहबाइन पार्वती को आवाज लगाती हैं । पार्वती छोटे साहब के लिये चाय-पानी बनाने बंगले में चली जाती है । तीन-चार महीने पहले छोटे साहब ने खाना बनानेवाले महराज को निकाल दिया था । कहते हैं वह अच्छा खाना नहीं बनाता था तथा चोरी-छिपे घी-दूध खुद हज़म कर जाता था । महराज को निकालने के बाद से पार्वती ही रसोई का भी काम सम्भालती है । अब उसे दिनभर बंगले के काम में पिसे रहना पड़ता है, लेकिन वह खुश है । उसकी पगार बढ़ गई है ।

    शहर में दूसरे बच्चों को स्कूल जाते देख पार्वती के भी मन में आया कि उसके बच्चे भी स्कूल जायें, पढ़ें-लिखें । सहबाइन से विनती कर, एक दिन उनको साथ लेकर वह जिला परिषद के स्कूल में बच्चों का दाखिला करवा आई । सनेही भी खुश हो गया था । पार्वती से उसने कहा भी- ‘गाँव के नरक से शहर के स्वर्ग में आ गये हम लोग---अब अपने जगन, मगन और मुन्नी की तकदीर समझो खुल गई---सुध ले ली भगवान ने---चार अक्षर पढ़ लेंगे तो इंसान बन जायेगें ---मेरे जैसे काला अक्षर भैंस बराबर वाली हालत तो नहीं रहेगी| ’

    पार्वती हँस पड़ी थी । पार्वती को खुशी से हँसता देख सनेही और खुश हो गया था - बेचारी ! गाँव में कैसी मुरझाई-सी रहती थी । पेट भर के भोजन भी तो नसीब नहीं होता था उसे । अब तो यहाँ फल-फूल भी खा रही है, महकउआ तेल, साबुन भी लगा रही है ।

    गाँव से शहर आई पार्वती शहर के पहनावे - ओढ़ावे को बड़े गौर से देखती और वैसा ही पहनने ओढ़ने की चाह रखती । एक दिन उसने उल्टे पल्ले की साड़ी पहन ली । सनेही देखता ही रह गया इतनी सुन्दर ! एकदम सनीमा की हीरोइन की तरह !

    ‘अब ऐसे ही साड़ी पहना कर तू, कितनी सुन्दर लग रही है| ’ सनेही ने पार्वती का हाथ पकड़ कर उसे अपने समीप बैठाना चाहा पर बंगले से सहबाइन के बुलाने की आवाज आ गई । काम के लिए देर हो रही थी ।पार्वती सनेही का हाथ छुड़ाकर बंगले में काम करने चली गई । सनेही का दिल कुछ खिन्न हुआ पर उसकी आँखों में उल्टे पल्ले की साड़ी पहनी पार्वती समाई रही । वह दिन भर बगीचे में गुलाब के फूलों के बीच गुनगुनाता रहा ।

    दूसरे दिन बाजार जाकर वह पार्वती के लिये काजल, क्रीम, पाउडर, लिपस्टिक भी खरीद लाया । पार्वती श्रृंगार के उन साधनों को देख शरमा के बोली थी, ‘अब मैं क्रीम, पाउडर लगा कर घूँमूगी?’

    ‘घूमेंगी क्यों ? क्रीम, पाउडर, लिपस्टिक लगा कर मेरे पास बैठेगी | ले, अभी सब लगा कर दिखा| ’

    ‘धत्त, तुम भी न | ’ पार्वती फिर शरमा उठी । सनेही ने हँसकर उसके चेहरे पर ढेर सारा पाउडर छिड़क दिया । उसकी दुनिया बदल गई ।

    पर इधर कुछ दिनों से न जाने क्या –क्या हो रहा है सनेही के मन में । एक काँटा-सा चुभा रहता है हरदम । उसे लगने लगा है कि पार्वती उस से दूर भागती है । वह उसके पास रहना चाहता है पर पार्वती को बंगले के काम से ही फुर्सत नहीं है । छोटे साहब के आते ही पार्वती का उनके नाश्ते पानी, भोजन के लिए बंगले में चले जाना अब सनेही को बिल्कुल नहीं सुहाता है । एकदम विचलित हो जाता है सनेही । कई बार वह पार्वती से कह चुका है, ‘सब बना कर तो आई हो, अब सहबाइन परोस देंगी, तुम्हें अभी बंगले में जाने की क्या जरूरत है, बता दो एक दिन उन्हें कि इस समय न बुलाया करें। पर सहबाइन आवाज लगाकर पार्वती को बुला ही लेती हैं । न जाने क्यों सनेही को लगता है कि पार्वती खुद भी जाने के लिये उत्सुक रहती है ।

    कभी-कभी भोजन करते समय सनेही पार्वती के दिल में घुसकर पार्वती को कुरेदता है, ‘तू कितनी अच्छी सब्जी बनाती है पार्वती, मैं तो बस उँगलियाँ चाटता रह जाता हूँ ...छोटे साहब ने भी कभी तेरी बनाई सब्जी की तारीफ की...?’

    ‘ क्या पता, करते भी होंगे तो सहबाइन ने मुझसे कभी नहीं कहा...मैं तो रसोई में रहती हूँ, थाली तो सहबाइन ही ले जाती हैं उनके सामने | ’ पार्वती सहज और भोलेपन से जवाब देती है पर सनेही को सब नाटक लगता है ।

    अब जब कभी पार्वती तैयार होकर शीशे में अपना मुखड़ा निहारती है तो सनेही कुढ़ जाता है । बात-बेबात पार्वती पर अपना गुस्सा निकालता है । पार्वती को आश्चर्य होता है- क्यों खरीदकर लाया था क्रीम -पाउडर ! क्यों कहा था कि उल्टे पल्ले की साड़ी पहना कर - पार्वती साड़ी का पल्लू बदल देती है । सिंगार-पटार छोड़ देती है । पर अब पार्वती के पल्लू बदलने से सनेही का दिमाग नहीं बदलता ।

    सनेही कई बार कह चुका है, ‘नौकरी छोड़कर गाँव चले चलते हैं, पर पार्वती डट कर खड़ी हो जाती है । यही तो वह नहीं मान पाती है । सनेही बौखलाता है- ‘क्यों जाएगी गाँव, सोलह सिंगार का सुख तो यहाँ मिल रहा है | ’ सन्देह की आग नागिन-सा बल खाती हुई लपक पकड़ लेती है । पार्वती उसमें जलती है पर भस्म नहीं होती । उसके तीन बच्चे, तीन गैलन पानी हैं । वह भस्म कैसे हो सकती है । उसकी स्वप्न-यात्रा अभी शेष है । वह अपनी अन्तरशक्तियों को बटोरने में जुट जाती है ।

    सनेही बउरा गया है तो क्या पार्वती भी बउरा जाये ? बच्चों की उन्नति, तरक्की का स्वप्न जो पार्वती की आँखों में गहरे तक उतर गया है उसके चलते वह सनेही की बातों की ओर से काँन मूंद लेती है । पर कान मूंद लेने से क्या होता है । आँखें तो खुली हैं । सनेही के हाव-भाव, उसकी उपेक्षा, आँखों के रास्ते दिल में उतरती है और नश्तर की तरह चुभ जाती है ।

    बात मामूली नहीं है । सनेही ने पार्वती का स्वाभिमान घायल किया है और घाव पर लगाने के लिये कोई मरहम भी नहीं छोड़ा है ।

    अब तक न जाने कितनी बार पार्वती अपनी भावनाओं को शब्द देकर सनेही को समझा चुकी है पर धुंध से ढका उसका दिमाग, सीधा-सीधा कुछ सोच ही नहीं पाता है । उसने एक दुनिया गढ़ ली है जो कटीली होने के साथ-साथ बेतरतीब भी है । जिसमें सनेही उलझ-उलझ जाता है । सुकून बस इस बात का है कि अपनी बात मनवाने के लिए वह पार्वती पर कभी अधिक जोर-जबरदस्ती नहीं करता, मारता-पीटता नहीं...बस घुन लगे की तरह गलता जा रहा है । मन ही मन दोनों अविराम युद्ध लड़ रहे हैं । खोजी हो गये हैं दोनों । सनेही पार्वती के हाव-भाव में, बनाव श्रृंगार में, बात-चीत में, कुछ न कुछ खोजता है तो पार्वती सनेही में सनेही को खोजती है ।

    दिन भर खेतों में मजूरों के साथ काम करने वाली पार्वती थक कर घर जाती तो काम पर से उससे पहले लौटा सनेही उसके इन्तज़ार में पलक पावडे बिछाये मिलता । लोटा भर पानी उसके हाथ में पकड़ा देता, वह जुड़ा जाती । दिन भर के थकान का समापन । वह दिया बत्ती करती, सनेही चूल्हा जला देता । वह रोटी सेंकती, सनेही चटनी बना लेता । वह उनींदे सोये बच्चों को भोजन के लिए जगाती, सनेही थाली लगा देता । बच्चों के खाने के बाद अगर रोटी कम पड़ती तो वह भूख न होने का बहाना बना लेता, जिससे पार्वती भर पेट खा सके । कितना बड़ा खजाना था गाँव में उसके पास और अब यहाँ ! सब कुछ पाकर भी रीती छूँछी रह गई है वह ।

    कभी-कभी तो वह सनेही को ढूँढ भी लेती है । सोचती है अब नहीं गायब करूँगी इसे । पर सनेही है कि पल-पल गायब होता जा रहा है ।

    रसोई में दाल बघारी जा रही है। तड़के की महक रसोई और बरामदे को पार करती हुई लान में मशीन चलाते सनेही तक पँहुच रही है। छोटे साहब भोजन करके कचहरी के लिए निकल गये । पार्वती अपने आँचल से ढक कर कटोरी भर दाल घर ले आई है। पूरी की पूरी दाल उसने सनेही की थाली में उडेल दी| दाल की महक बड़ी सोंधी है, पर क्या करे सनेही, यह सोंधी दाल भी तो बिच्छू की तरह डंक मारती है उसे ।

    डंक सनेही को लगता है पर विष पार्वती को चढ़ता है । दर्द से छटपटाती है पार्वती ।

    उसकी आँखें सूखी हैं पर दिल झरता है । मन बेचैन रहता है । काम सूझता ही नहीं । कभी सब्जी में नमक अधिक डाल देती है तो कभी दाल बिना नमक के ही परोस देती है । रोटी की चित्तियां काली राख में तब्दील हो जाती हैं या फिर झक सफेद रोटी अपने कच्चे पन से छोटे साहब को बिफरा देती है । साहब खाना छोड़कर भूखे ही कचहरी चले जाते हैं । सहबाइन का पारा चढ़ जाता है, ‘कहाँ रहता है तेरा ध्यान आजकल ? लड़का बिना खाये ही चला गया ... तुझसे अच्छा तो पहले वाला महराज ही था ... देख, सुधर जा, नहीं तो काम से निकाल दूँगी तुझे । कब तक कोई कच्चा-पक्का खाता रहे । पहले तो तू ऐसी न थी, अब चार पैसा कमाने लगी तो दिमाग चढ़ गया है तेरा | ’

    पार्वती सुनती, फिर फिर सुनती । बार-बार कोशिश करती कि सहबाइन नाराज न हों पर उसे कुछ सूझता ही न, गलती हो ही जाती है उससे । खाना बनाने से मिलने वाली अतिरिक्त आमदनी से ही तो वह अपने बच्चों को स्कूल भेज पाई है । कहीं काम छूट गया तो !

    वह डर जाती । सनेही की बातों को दिमाग से झटक कर बड़ी मुस्तैदी से काम में लग जाती है पर सनेही है कि दिमाग में घुसता ही रहता है ।

    कल रात को कैसे पूछ रहा था--‘साहब को तो कटे बाल पसन्द होंगे, तू तेल चुपड़ी लम्बी चोटियों में बँगले में घूमती रहती है, उन्हें तो घिन आती होगी तुझसे...कभी कुछ कहते नहीं ?’ प्रश्न के निहितार्थ से पार्वती सुलग उठी थी ‘कैसी बात करता है तू ?... मैं वहाँ काम करने जाती हूँ कि साहब से बोलने बतियाने... अपने बाल दिखाने जाती हूँ मैं ?’ सनेही उसके जवाब को सुनकर मुस्कुरा दिया था । जैसे कह रहा हो ... बड़ी चालाक है तू, भनक नहीं लगने देगी मुझे, सारे निशान सोख जाती है । ...वाह रे, तिरिया चरित्तर !

    सनेही को बंगले में फूल-पौधे, बाग-बगीचे की देख-भाल का काम मिला था, इसलिए बंगले के भीतर उसका जाना नहीं होता । उसकी कभी इच्छा भी नहीं हुई थी बंगले में जाने की । किन्तु, इधर कुछ दिनों से जब छोटे साहब बंगले में रहते हैं और पार्वती काम करने आई रहती है तब सनेही का मन होता है कि वह अन्दर जाकर एकाध बार देख आये ।

    बंगले में जाने के लिए उसने एक अच्छी युक्ति भी सोच ली है । सहबाइन के लिए पूजा के फूल लेकर जाना । कभी-कभी तो सहबाइन बरामदे में ही फूल की टोकनी पकड़ लेती हैं तो कभी उसे निर्देश दे देतीं हैं कि जाकर पूजा घर में फूल रख आये । यहाँ काम करते हुए उसे दो वर्ष से ऊपर हो चुके हैं इसलिए घर में उसके प्रवेश पर अधिक रोक-टोक नहीं है ।

    आज भी वह फूल लेकर आया है । सहबाइन फोन पर किसी से बात कर रही हैं । उन्होंने सनेही को इशारा किया कि वह पूजा घर में फूल रख आये । सनेही अन्दर गया । अन्दर के कमरे से छोटे साहब की धीमी आवाज आ रही है । लग रहा है किसी से बात कर रहे हैं । पूजा-घर में फूल रखते हुए उसने रसोई में झाँक लिया । पार्वती रसोई में नही है । सनेही के हाथ-पैर सुन्न हो गये । पार्वती रसोई में नहीं तो कहाँ है ! क्या छोटे साहब के कमरे में है ! छोटे साहब पार्वती से बात कर रहे हैं ! वह छोटे साहब के कमरे में घुस जाना चाहता है । देखना चाहता है पार्वती का यह रूप, पर साहस है कि जवाब दे रहा है । छोटे साहब का डर ? नहीं, उसे छोटे साहब का कोई डर नहीं है । उसके मन का सन्देह ! हाँ, इसी से डरता है वह । हकीकत में वैसा ही देख पाना उसके बस का नहीं है । चाहता है उसके मन में उठने वाली सारी बातें गलत साबित हो जायें । कैसे देख पायेगा वह पार्वती को छोटे साहब के कमरे में ! कैसे करेगा उसका सामना !

    पूजा घर में फूल रख कर सनेही बड़ी फुर्ती से पलटा । जल्दी निकल जाना चाहता था वह घर से, पर सहबाइन ने उसे रोक लिया ।

    ‘क्यों रे सनेही, पार्वती का मिजाज तो आसमान पर चढ़ता जा रहा है | ’

    तो सहबाइन को सब पता है ! सनेही सहम गया है ।

    क्या जवाब दे ! बस सिर झुकाए खड़ा रहा ।

    ‘इधर तीन-चार महीने से न जाने कहाँ खोई रहती है । काम में उसका मन नहीं लगता ... ऐसा खाना बनाती है कि पानी के सहारे गले के नीचे उतारना पड़ता है । हर दिन मेरा प्रमोद ठीक से खाये बिना ही कचहरी चला जाता है ।... उसका बस चलता तो वह कब का पार्वती को निकाल बाहर करता । लेकिन मैं, ढाल-सी तन जाती थी... तेरा मुंह देखती थी... सोचती थी, तीन बच्चे हैं | बँधी-बँधाई आमदनी है । क्यों नौकरी छीनूँ । समझा-बुझा कर देख लिया । डांट-डपट कर देख लिया ।... चार-पाँच दिन पहले की बात है, फिर से बिना नमक की सब्जी परोस दी उसने । प्रमोद बहुत चिढ़ गया । उठा कर थाली फेक दी । उस दिन शाम से मैंने पार्वती से रसोई का काम छुड़ा दिया । पर अब तो उसका मन बरतन-झाडू में भी नहीं लग रहा है । बरतन इतना जूठा मांजती है कि क्या कहूँ ... कल से उसे मैंने सारे कामों से छुट्टी दे दी | ’

    सनेही चौंक उठा- ‘क्या ? पार्वती काम पर नहीं आई है ?’

    ‘नहीं, मैंने उसे निकाल जो दिया काम से । उसने तुझे नही बताया ?’

    ‘नहीं !... मैं तो सुबह जल्दी ही बगीचे में आ जाता हूँ ...मुझे तो लगा पार्वती बंगले में ...

    ‘देख सनेही, मैंने पार्वती को बता दिया है । तुझे नहीं पता तो तुझे भी बता दे रही हूँ ... अगर पार्वती काम नहीं करेगी तो तेरा काम भी छूटेगा... अब सिर्फ माली के लिए मैं ‘आउट हाउस’ नहीं दूँगी । आखिर तो मुझे दूसरी कोई कामवाली रखना ही है तो मैं ऐसा ही परिवार देखूँगी जो सारे काम करे |

    सनेही अवाक है । सहबाइन उसकी नौकरी छूटने की बात कर रही हैं और वह अपने भीतर कुछ टटोल रहा है । उसने अपने भीतर कुछ चित्र बनाये हैं । सहबाइन के बोलने के ठीक पहले भी उसने एक चित्र गढ़ा था । सहबाइन की बातों से इन चित्रों का मेंल नही हो रहा है । चित्र टकरा कर खण्डित हो रहे हैं । चाहता तो यही था वह । पर अब दिमाग जाने क्यों सुन्न-हुआ जा रहा है । वह अपने सुन्न पड़ते दिमाग को सम्भालते हुए आउटहाऊस की ओर बढ़ने लगा । तभी सुन्दर ने उसे आवाज दी । सुन्दर अभी-अभी प्रेस के कपड़े लेकर आया है । आज वह सनेही से बात करने के मूड में है । दोनों बगीचे के एक कोने में बैठ गये हैं ।

    ‘बँगले में तैयारी शुरू हो गई है ?’

    ‘कैसी तैयारी ?’ सनेही की आवाज प्रश्न से निर्लिप्त है । सच तो यह है कि इस समय वह सुन्दर से बात करने के मूड में भी नहीं है ।

    ‘अब महीने भर ही तो बचे हैं, शादी के लिए ?’

    ‘किसकी शादी के लिए ?’

    ‘छोटे साहब की और किसकी ?’

    सनेही को झटका लगता है ‘छोटे साहब की शादी ?’

    ‘हाँ यार, तुम दिन-रात यहीं रहते हो फिर भी तुम्हें कुछ नहीं पता ? ... मैं तो घंटे, दो घंटे के लिए ही बंगले पर आता हूँ । पार्वती भाभी के सामने ही तो सहबाइन मुझे बता रहीं थी । शादी तय हुए तो पन्द्रह-बीस दिन हो रहे हैं । बड़ी जल्दी में तय हुआ है रिश्ता ।... किस दुनिया में रहते हो यार तुम?’

    ‘पार्वती को सब पता है ! वह धीरे से फुसफुसाता है, और मैं सोच रहा था कि अब क्या होगी साहब की शादी ! अब कोई शादी की उमर है क्या ! वाक्य पूरा करते-करते आश्चर्यजनक तरीके से उसकी आवाज तेज हो गई थी और वह हँसने की भरसक कोशिश करने लगा था । वह नहीं चाहता था कि इस समय जो तूफान उसके अन्दर जोर मार रहा है उसकी भनक भी सुन्दर को लगे । सुन्दर के साथ सामान्य होने की कोशिश में वह और अधिक असामान्य होता जा रहा था | अचानक वह एक झटके में वहाँ से उठ गया ।

    ‘यार सुन्दर ! तुम जाओ अपने काम देखो, मैं जरा घर होकर आता हूँ । पार्वती की तबियत कुछ खराब है| ’

    सुन्दर ने महसूस किया कि कुछ अस्वस्थ, कुछ बदरंग, कुछ उदास और असक्त तो सनेही ही दिख रहा है, पार्वती की तबियत का तो भगवान जानें । जरूर सनेही कुछ छिपा रहा है ।

    घर में प्रवेश करते समय सनेही के कदम लड़खड़ा रहे हैं । अपना ही घर बेगाना लग रहा है । पिछले कुछ महीनों से सनेही ने अपने भीतर जो कुछ जमा कर लिया था, वो सब आज उसके ही गले में अटक-अटक जा रहे हैं । घुट रहा है उसका गला आज । बूँद भर तरल बात जो पार्वती के मुंह से निकले तो उससे सनेही का गला घुटने से बच सकता है ।

    बच्चे स्कूल जा चुके हैं । पीछे के कमरे में एक कोने में पड़ी चारपाई पर पार्वती मुंह ढके लेटी है । सनेही चारपाई के पास खड़ा है ।

    ‘पार्वती !’

    ‘हूँ’

    ‘मैं बहुत गलत था’, पार्वती के चेहरे से चादर हटा दिया है सनेही ने । पार्वती की आँखे लाल हुई हैं

    ‘मुझे माफ़ कर दो पार्वती, ’

    ‘जगन-मगन की किस्मत में भी घास छीलना ही बदा है | ’ पार्वती बुदबुदाई

    ‘मैंने तुझे गलत समझा, तेरे ऊपर शक किया, मैं पापी हूँ, पार्वती | ’

    ‘जगन-मगन अब नहीं पढ़ पाएंगे | ’ पार्वती की आँखे डबडबा आर्इं ।

    ‘पार्वती, तूने मुझसे नौकरी छूटने की बात नहीं बताई ?’

    ‘मेंरा अरमान चूर-चूर हो गया। नहीं देख पाऊँगी मैं बच्चों को बाबू बनते | ’

    ‘छोटे साहब की शादी तय हो गई है, तूने ये भी मुझे नही बताया । अच्छा किया, मैं था ही कहाँ इसके लायक | ’

    ‘मुन्नी का जीवन भी अब मेंरे जैसा ही बीतेगा-घरों में बर्तन मांजते हुए | ’

    ‘ऐसा कुछ नहीं होगा पार्वती, हम कहीं दूसरी जगह काम तलाशेंगे... बस तू मुझे माफ़ कर दे | बहुत बड़ी भूल हुई है मुझसे ।अब तेरे बारे में मैं कभी गलत नहीं सोचूंगा । सच पार्वती । बस एक बार माफ़ कर दे | ’

    पार्वती चुप है । क्या बोले ! इस माफीनामे का अब क्या करे वह । निचुड़ तो गई पूरी तरह । क्या जैसी दिखाई दे रही है वैसी ही बची है पार्वती । नहीं दिखेगा सनेही को। दिल में उतर कर भीतर देखना आता ही कहाँ है उसे ।

    ... अब किस बात की माफ़ी ! उसने तो ये सोचना ही छोड़ दिया था । जीती रही बच्चों के लिए । टुकड़ों- टुकड़ों में टूट जाने के बाद पार्वती को जुड़ने की अब कोई चाह ही नहीं है । वह तो अच्छा है कि उसका टूटना, उसका दरकना ऊपरी तौर पर दिखाई नहीं दे रहा है और इसी के सहारे तो पार्वती आगे की जिन्दगी भी बिता देगी ।

    आशा पाण्डेय

    ***

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