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कुल का दिया

  • कुल का दिया
  • आशा पाण्डेय

    मुझे रंजना दी के फोन से पता चला कि बुआ नहीं रहीं

    “मन्नो ने मार डाला, छोटी”

    ‘कब ? कैसे ?’ मैं चौंकी थी |

    ‘कल शाम, ..चार बजे, ...मैं रात में ही यहाँ आ गई ....बाबू, मुन्ना, लता –सब सुबह आये ...तू कब तक आ पायेगी, छोटी ?’ कराहती हुई आवाज में रंजना दी ने पूछा | मैं इस फ़ोन से भौचक हुई रिसीवर पकड़े खड़ी हूँ | कुछ क्षण बाद होश आया, बस, दी, जो भी पहला साधन मिलेगा उसी से निकल आऊँगी ...मुंबई से इलाहाबाद ...चौबीस घंटे तो ट्रेन में ही लग जायेंगे, दी | ’ एक एक शब्द को बटोरते हुए बस इतना बोल पाई मैं |

    ‘अब तू परसों पहुंचे या नरसों, तेरी बुआ तुझे नहीं मिलेंगी छोटी ...चल अब रखती हूँ फोन| ’ रंजना दी का एक एक शब्द आंसुओं में भीगा है |

    रिसीवर मैंने रख दिया पर वहीँ हतप्रभ-सी खड़ी हूँ | ‘मन्नो ने मार डाला छोटी’, रंजना दी का ये वाक्य हथौड़े की तरह मेरे दिमाग पर चोट कर रहा है |

    मन्नो भइया कम दिमाग के थे | जिस पर खुश हो जाते, उसकी हर बात मानते और जिससे नाराज हो जाते उसकी खटिया खड़ी कर देते | अगर किसी ने कह दिया कि मैं तुम्हारी शादी करवा दूंगा तब तो मन्नो भइया उसकी गुलामी तक करने को तैयार हो जाते | यूँ मन्नो भइया शादी का अर्थ बैंडबाजों के बीच, मौर पहन कर दूल्हा बनने तक ही समझते थे | गाँव वाले उनकी इसी कमजोरी का

    फायदा उठाते थे | उनके लिए मौर लाने, बैंड बजवाने की बात कह कर उनसे दिन दिन भर काम करवाते थे | कभी टुकड़ा भर मिठाई, तो कभी एक कप चाय पीकर मन्नो भइया मजदूरों की तरह काम में जुटे रहते | बुआ छटपटातीं, गाँव वालों से हाथ जोड़तीं, विनती करतीं, खीझ कर लड़तीं भी | गाँव वाले कह देते – ‘ हम उसे बुलाने नहीं जाते, वह खुद आता है काम करने | तुम्हें इतना ही बुरा लगता है तो उसे रोक लिया करो, न आया करे हमारे घर | ’

    क्या करतीं बुआ ? कैसे रोकतीं मन्नो भइया को ? रोकने पर तो वो बुआ पर ही आगबबूला हो जाते | विवश बुआ, बस देखती रह जातीं |

    एक बार बुआ ने कहा था, ‘देखना, छोटी, एक दिन तुझे सुनने को मिलेगा कि मन्नो ने मुझे मार डाला | ’

    ‘कुछ भी बोलती हो बुआ, ’ मैं खीझी थी |

    ‘देखती नहीं हो, कितना गुस्साता है मेरे ऊपर’, कहकर बुआ पहले तो हंसी फिर कुछ देर बाद उदास स्वर में बोलीं, ‘ठीक भी तो है, सबके बेटे किरिया - करम करके, पिंड दान करके, माँ –बाप का उद्धार करते हैं | मेरा मन्नो पागल- धागल है, ये सब तो कर नहीं पायेगा, मार कर ही मेरा उद्धार कर देगा |

    ‘क्या बुआ, आप भी | ऐसा कुछ नहीं होगा | ... माना कि मन्नो भइया को कम समझ है पर मुन्ना भइया तो हैं, वो करेंगे आपका सब कुछ | ’

    फिर हंसीं थीं बुआ, ‘मेहरलग्गू है मुन्ना, लता के आँचल से मुंह निकालने की फुर्सत ही कहाँ मिलती है उसे ...वो कुछ नहीं करेगा ...उद्धार तो मेरा मन्नो ही करेगा | ’

    ये कैसी भविष्यवाणी की थी बुआ ने !!

    आने वाले महीने में धीरन की बेटी की शादी है | रंजना दी कह रहीं थीं कि मन्नो भइया उन्हीं के घर लकड़ी के बड़े –बड़े कुंदो में से भट्ठे में जलाने लायक चैली फाड़ रहे थे | सुबह से दोपहर हो गई | बुआ भोजन बनाकर बैठी इंतजार कर रही थीं | जब दोपहर के तीन बज गए तब उनसे नहीं रहा गया, चली गईं मन्नो भइया को बुलाने | मन्नो भइया को गुस्सा आ गया | उन्होंने लकड़ी का मोटा कुंदा उठाया और बुआ के सिर पर दे मारा | क्षण भर भी नहीं लगा बुआ को प्राण छोड़ने में |

    रंजना दी जब गाँव पहुँचीं तो गाँव का कोई भी व्यक्ति दरवाजे पर नहीं आया था | किंतु उंचवा के सुमेर काका अपने बाल बच्चों सहित बुआ के पास बैठे थे | कुछ दूर पर एक ढिबरी जल रही थी, जो अँधेरे से तो लड़ ही रही थी, मृत्यु की भयावहता को भी कुछ कम कर रही थी | जब रंजना दी की आँखें गाँव वालों को ढूढने लगीं तो सुमेर काका ने कहा, ‘मन्नो को हक्तियारी लग गई है बिटिया, जब तक हक्तियारी हटेगी नहीं तब तक इस दरवाजे पर कोई नहीं आएगा | ’

    ‘तो तुम सुमेर मामा ?...कैसे आगये ?’

    ‘क्या बिटिया, दीदी दुनिया छोड़ कर चलीं गईं, मैं पाप-पुण्य का हिसाब करके उनकी मिटटी को अकेली लावारिस-सी पड़ी रहने दूँ ?... मैं ऊँची जाति का नही हूँ बिटिया कि यहाँ आने से मुझे पाप लग जाएगा| ’

    ‘तुम इंसानियत से भरे हो मामा, तुम्हारी बराबरी ये ऊँची जाति वाले नहीं कर सकते | ’ कृतज्ञ – भाव से सुमेर काका को देखते हुए मन ही मन रंजना दी ने सोचा |

    गाँव में मेरे घर के ठीक सामने बुआ का घर है | मैं गाँव गई हुई थी | उस समय मेरी उम्र सात - आठ वर्ष की रही होगी | अपनी समझ में मैंने पहली बार बुआ को तभी देखा और जाना था | बुआ मेरे पापा की दूर की चचेरी बहन थीं | अपने माँ – बाप की अकेली संतान थीं, इसलिए मायके की सम्पत्ति उन्हें मिल गई थी और बुआ वहीँ रहने लग गईं थी | रंजना दी उनकी बड़ी बेटी हैं | उनके बाद मुन्ना भइया, नीता दी, मुन्नी दी, गुड्डी दी और सबसे छोटे मन्नो भइया |

    मेरे ताऊ जी की बेटी रेनू, मुझे लेकर बुआ के घर गई थी | बुआ आंगन में बिछी खटिया पर बैठी थीं | उनके एक हाथ में टूटा चश्मा था | दूसरे हाथ से अपनी एक आंख दबाकर उसी टूटे चश्मे के सहारे चावल बीन रही थीं | मैं रेनू के पीछे सकुचाती हुई खड़ी हो गई | बुआ ने मुझे अपने पास खीच लिया | मेरा संकोच कुछ कम हो गया | मैंने धीरे से, अब तक भीतर घुमड़ रहे प्रश्न को पूछ लिया –‘आप टूटे चश्में से कैसे देख ले रहीं हैं ?’

    ‘ऐसे, ...ये देखो, मुझे सब दिख रहा है | ’अपनी आँख के पास चश्में का टूटा ग्लास ले जाकर उन्होंने चावल में से एक कंकड़ निकाल दिया |

    ‘गिर कर टूट गया था ...अब कौन इसे बनवाये ... अस्पताल जाना, आँख चेक करवाना...हजार झंझट ...पैसा भी तो लगता है ये सब करने में, है कि नहीं ?’ खिस्स से हंस दी थीं बुआ | उस समय मैंने उनकी परेशानी को कितना समझा ये तो नहीं कह सकती पर मम्मी के पास आकर मैं बहुत रोई थी, और तब तक रोती रही थी जब तक कि ताऊजी बुआ की आँख चेक करवा के दूसरा चश्मा बनवाने के लिए उन्हें लेकर अस्पताल नहीं चले गए | बस तब से मैं बुआ को बहुत प्रिय हो गई |

    दरोगा की बेटी थीं बुआ, उनका बचपन शहर में बीता था | जब आठवीं में थीं, उसी समय उनकी शादी हो गई | पढ़ाई छूट गई उनकी पर पढ़ाई की प्यास न बुझी | घर में काम करते हुए भी यदि कोई कागज का टुकड़ा मिल जाता तो उठाकर पढ़ने लगतीं और इस प्रकार पहर भर का काम घंटो में पूरा करने वाली ‘लवधरि’ औरतों में अपनी गिनती करा लेतीं

    रामायण, महाभारत के अलावा, गाँधीबाबा, सुभाषचंद्र बोष, नेहरु से लेकर आजादी मिलने के बाद मध्यप्रदेश बनने तक अनेक कहानियां थीं उनके पास | बच्चे उन्हें घेरे रहते और वो ख़ुशी से उन्हें कहानियाँ सुनाती रहतीं | मेरी दादी, ताईजी व गाँव की दूसरी औरतें उनकी इन बातों को उनके बकबकी स्वाभाव का हिस्सा बताकर अपने मुंह में आँचल ठूंस कर हंसती | दादी और ताईजी का तो पक्का मत था कि बुआ के इसी स्वभाव के कारण फुफा जी उन्हें अपने पास न रखकर गाँव में छोड़े हैं | पर बुआ कहतीं कि, स्वार्थी हैं तेरे फुफा | मुन्ना की शादी के पहले तक मुझे साथ रखते थे ...उन्हें काम प्यारा है, चाम नहीं | ... चार सगे, छ चचेरे भाइयों को बारी-बारी जबलपुर में रखकर पढाये – लिखाये उन सब के लिए खाना कौन बनाता ? इसलिए रखे थे मुझे अपने पास | जबसे लता आई, मुझे गाँव में फेक दिये | ...उनके भाई भी अब पढ़ – लिख कर नौकरी पर लग गए | अब मेरी क्या दरकार ?...और ठीक भी है, जवान बहू के आगे बुढ़िया को कौन पूछता है | ’ खिस्स से फिर हंस देतीं बुआ |

    दादी डांटती, ‘कुछ भी बोलती है लड़की, अपने ही पति को बदनाम कर देगी | ’

    बुआ फिर हंसतीं, ‘जो सच है वो कहती हूँ, कब तक ढ़ाक – तोप कर रखोगी, काकी ?’

    ‘चुप कर , पूरी तरह पगला गई है तू | ...अपना ही पति, अपनी ही पतोहू ... शक का कीड़ा घुस गया है तेरे दिमाग में ...बकबकाती रहती है | ’ दादी फिर डांटती, बुआ फिर हंसती |

    अपनों की दुत्कार से आहत मन को बुआ अपनी हंसी के सहारे ही तो सम्भाले रहती थीं | नहीं तो मन के कोमल तारों को टूटते देर लगती भला ! दुःख भरे प्रसंगों को मजेदार बना कर सुनाना बुआ ही कर सकती थीं |

    एक बार बुआ मुन्नी के जन्म के समय की बात बता रहीं थीं, ‘मुन्नी जब पेट में थी, छोटी, नंवा महीना शुरू था ...एक दिन दोपहर में, जब रसोईं से निपट कर मैं सुस्ताने बैठी ही थी कि पेट लगा मरोड़ने | पहले तो लगा कि खाने- पीने में कुछ नुकसान कर गया होगा, थोड़ी देर में ठीक हो जायेगा, पर दर्द बढ़ता ही जा रहा था | घर में मैं और दो साल की नीता | ...डर ये लगे कि अगर घर में ही बच्चा हो जायेगा तो नाडा कौन काटेगा | ...हिम्मत कर के उठी | बक्से में दो रुपये पड़े थे, उसे आंचल में गठिया के नीता की ऊँगली पकड़ी और चल पड़ी अस्पताल | दर्द था कि रुकने का नाम ही न ले, ...कुछ दूर चलूँ फिर सड़क के किनारे ही बैठ जाऊं, हिम्मत करके फिर से उठूं ...ऐसा लगे कि सड़क पर ही बच्चा हो जायेगा... आज भरी बाजार बेइज्जती पक्की है | नीता पैदल चलने को तैयार ही न हो | कहे, गोदी में उठाओ | रिक्शा करूं तो कैसे करूं ! टेंट में सिर्फ दो रुपये | अस्पताल में पर्ची कटवाने के लिए भी पैसा रखना था | रोती नीता को घसीटते हुए, राम-राम रटते हुए, किसी तरह पहुँच गई अस्पताल | ...बस यही जानो कि भगवान ने लाज रख ली | अस्पताल पहुँचने के दस मिनट बाद ही मुन्नी पैदा हो गई | रात दस बजे तुम्हारे फुफा पहुंचे अस्पताल | आफिस से आने पर बहुत देर तक तो वो जान ही नहीं पाए कि मैं कहाँ गई हूँ, फिर सोच विचार के अंदाज लगाये और पहुंचे अस्पताल | अस्पताल का बिल भरे, दाइयों के पास से नीता को लिए और लौट आये घर | अगले पांच दिनों तक मैं अकेली ही अस्पताल में पड़ी रही | उनके भाई पढ़ने चले जाते थे और खुद वे आफिस | मेरे पास कौन आता ?...अगल –बगल की खाट पर जो औरतें थीं, पूछतीं –‘तुम्हारे घर से कोई क्यों नहीं आता ?’ मैं चुप रह जाती | वे स्वयं अनुमान लगातीं –‘बेटी हुई है इसलिए ?’मुझे शर्म लग जाती | मैं कोई बहाना बना लेती, पर कितने दिन ?...वहां का खाना भी न अच्छा लगता मुझे | भूख के मारे कौर तोड़ती तो, पर गले के नीचे न उतार पाती | ...छठे दिन सबेरे मुन्नी को गोद में उठाई और चुपके से घर भाग आई | ’बुआ किसी रोचक किस्से की तरह बताती रहीं और हंसती रहीं | मुझे आश्चर्य हुआ –कहाँ से मिली है बुआ को ये हिम्मत कि दुःख से घिरी होकर भी उससे अलिप्त हुई हंसती रहती हैं |

    दादी जब से नहीं रहीं मेरा गाँव जाना कम हो गया है | अब तो ताईजी और ताऊजी भी गाँव छोड़कर बेटे के पास शहर में रहने लग गए | बुआ से मिलना अब कम हो गया था पर रंजना दी से बुआ का समाचार मिलता रहता था |

    मन्नो भैया जब –तब गुस्सा हो, बुआ को घर से बाहर करके ताला लगा लेते और खुद चाबी लेकर घूमते रहते | एक बार पूरे दो दिन बुआ बाहर रहीं | तीसरे दिन उंचवा के सुमेर काका बुआ को अपने घर ले गए | बाहर लीप–पोत कर ईट का चूल्हा जलाये तथा आटा और आलू लाकर बुआ से बोले, ‘लो दीदी अपने हाथ से रोटी चोखा बनाओ और खाओ | ’

    दो दिन की भूखी बुआ अधिक देर तक मना न कर पाई, रोटी चोखा बनाकर खाई | जब बुआ भूखी-प्यासी घर के बाहर बैठी रहती थीं तब गाँव वालों को उनकी भूख-प्यास की परवाह नहीं हुई, पर सुमेर काका के घर भोजन करते ही गाँव वाले उन्हें अछूत मानने लगे | बुआ ने गाँव वालों की परवाह नहीं की | मन्नो भैया जब घर से निकाल कर ताला बंद कर लेते तो बुआ सुमेर काका के घर चली जाती और अब अपना भोजन खुद न बनातीं बल्कि सुमेर काका की रसोई में जो कुछ बना रहता वही खा लेतीं | जब मन्नो भैया का गुस्सा शांत होता तब वो जाकर बुआ को ले आते |

    मै जब गाँव पहुंची तो सुमेर काका बुआ के दुआरे, मलदहवा आम के नीचे अकेले बैठे थे | चेहरे पर उदासी छाई थी | मुझे देखते ही एक झटके में उठे, मेरे हाथ से सूटकेस लेकर ओसारे में रख आये | रंजना दी ओसारे में ही टीन का एक बक्सा खोले बैठी थीं | उन्हें देखते ही रास्ते भर धैर्य बांधे मेरे दिल ने जवाब दे दिया | मैं रंजना दी से लिपट गई |

    हम दोनों के मन का गुबार जब कुछ शांत हुआ तो रंजना दी ने पेटी की ओर इशारा किया, ‘देख छोटी, ये अम्मा की पेटी है ... अम्मा को अग्नि देकर बाबू जब घर लौटे तो पहला काम उन्होंने अम्मा की पेटी को खुलवा कर देखने का किया | दक्खिन वाली कोठरी मे अम्मा की ये पेटी धरी थी, याद है न, छोटी ? ...जंग खाई इस पेटी को देख-दाख कर उन लोगों ने इसे घर के पिछवाड़े फेक दिया | मैं नाउन के घर, उसे बुलाने गई थी | वहां से लौटी तो पिछवाड़े मुझे ये पेटी दिखी | मै इसे उठाकर घर लाई | बाबू और मुन्ना मुझे देखकर हंसने लगे, ‘कुछ नहीं है इसमें, कंकड़, पत्थर, डंडा, कंचे, गेंद, यही सब भरा है| ’ मैं उन लोगों के पास ही बैठकर इस पेटी को खोली | इतना कुछ था इसमें, छोटी | ...देख, तू भी देख |

    रंजना दी एक-एक सामान उठाकर मुझे दिखाने लगीं |

    ‘देख, ये बांस का छोटा डंडा, मिट्टी का ये गुल्लक, कपडे में बंधा हुआ ये काला धागा, ये गेंद, ये गुल्ली, ये कजरौटा, ये कड़ा, ये फीता, ये कनटोप, ये बाली, ये क्लिप .... सब कह रहे थे इसमें कुछ है ही नहीं !... ये डंडी उठाते ही मैं रो पड़ी छोटी, मुन्ना हंसने लगा | मुझे बहुत गुस्सा आया| मैंने मुन्ना से पूछा, ‘तुझे याद है ये डंडी ? दिन भर तू इसे लिए रहता था | गुल्ली खेलना हो या गेंद, इसी डंडी से खेलता था तू | हम लोग छीनकर फेंक देते तो तू रो रोकर पूरा घर सिर पर उठा लेता था | फिर अम्मा इसे खोज कर लाती थीं | ... याद है, एकबार खेलते समय ये डंडी तेरे हाथ से छूटकर चूल्हे के पास बैठी अम्मा की आँख में जा लगी थी | महीनों सूजी रही थी उनकी आँख | ’

    ‘ये गुल्लक देख रही है, छोटी, मैंने इसे उठाया तो खनक उठा | पतली चाकू की सहायता से, बड़ी मशक्कत करने पर तांबे के, छेद वाले ये दो सिक्के निकले | सब फिर हंसने लगे | मैंने सोचा अब चुप ही रहूँ, पर नहीं रहा गया छोटी | मैंने कहा, ‘ अम्मा जानती थीं कि उनके न रहने पर उनके बच्चे दुखी होकर रोयेंगे, तड़पेगें, इसलिए बक्से में ये सब चीजें भर दी थीं कि जब ये खुलेगा तो इसे देखकर बच्चे हँस लेंगे | दुःख कम हो जायेगा उनका | ’

    पता नहीं मेरे कहने में ऐसा क्या था, छोटी, कि सब झेप-से गए | मैंने सिक्का उठाकर मुन्ना से कहा, ‘ये तेरे कमर में बंधा रहता था | ये काला धागा, ये कजरौटा तुझे बुरी नजर से बचाने के लिए था| ...देख मुन्ना, ये कनटोप मेरा, ये कड़ा नीता का, ये बाली मुन्नी की, ये गेंद मन्नो का | ... बचपन की ये हमारी प्रिय चीजें, अम्मा के लिए कितनी कीमती थीं ! ...उन्होंने इन सामानों में हमारा बचपन बचा के रखा था ! जिन्दगी भर वो हमारी चीजों को संभाले रहीं और हम उन्हें दो दिन भी घर में न रख पाए ! पिछवाड़े फेंक आये !! ... जब तक ये अम्मा के पास थीं, तब तक ये हमारी चीजे थीं, अम्मा ने इन्हें संभाला था अब ये अम्मा की चीजें हैं, मैं इन्हें संभालूँगी | ...बस तेरह दिन और इसे इस घर में रहने दो फिर मैं इन चीजों को अपने साथ ले जाऊँगी | ’

    बाबू कुछ दूर पर बैठे थे, सब देख सुन रहे थे पर बोले कुछ नहीं | अम्मा को वो एकदम उजड्ड समझते थे | ये सब देखकर क्या उन्हें ये लगा होगा कि अम्मा कितनी प्रेममयी और ममत्वभरी थी ! ...नहीं लगा होगा छोटी | हो सकता है अम्मा उन्हें टूटे-फूटे सामानों को इकट्ठा करने वाली पगली लगी हों | ... हो सकता है आश्वस्त भी हुए हों कि - देख लो तुम, इसलिए दूर रहता था मै तुम्हारी अम्मा से |

    ये दोनों धोती देख रही हो – फटी पुरानी –अम्मा के कपड़ों के नाम पर बस यही दो धोतियाँ मिली इस घर में | तीसरी वो रही जो उनके शरीर पर थी ...किसी का ध्यान इस ओर नहीं गया कि अम्मा के पास ढंग के कपड़े भी नहीं थे | ’रंजना दी फिर रो पड़ी |

    मुझे आये घंटे भर से अधिक हो गए थे पर रंजना दी के सिवा कोई और घर में नहीं दिखा | मैंने पूछा, ‘सब कहाँ गए हैं, दी ? घर खाली क्यों है ?’

    ‘इस घर में था ही कौन, छोटी ? अम्मा के बाद अब ये घर खली ही रहेगा | ’

    ‘मेरा मतलब फूफाजी, मुन्ना भैया, भाभी ...

    ‘आज सुबह ही सब चले गए ...अब श्राद्ध के दिन आयेंगे | ’

    ‘नीता दी, मुन्नी दी, गुड्डी ...

    ‘सब गए, छोटी, यहाँ किसी का मन कभी लगा था ?’

    ‘और मन्नो भैया ?’

    ‘चल दिखाती हूँ | ’ रंजना दी मुझे आंगन के बगल वाली कोठरी में ले गईं | कोठरी में अँधेरा है | मन्नो भैया घुटने में सिर छुपाये चुपचाप बैठे हैं | हम लोगों की आहट पाकर उन्होंने सिर ऊपर उठाया | मुझे देखे तो फिर सिकुड़ कर बैठ गए | रंजना दी ने कहा, ‘अम्मा को मारकर अब दिन-दिन भर बैठा रोता रहता है अभागा, पता नहीं कौन-सी भाग्य लेकर पैदा हुआ है | ’ मैं रंजना दी को चुप रहने का इशारा करके मन्नो भैया के पास बैठ गई | धीरे से उनके सिर पर हाथ रखी तो वो रो पड़े | रंजना दी भी रोने लगीं | कुछ देर हम तीनों रोते हुए, उसी अवस्था में बैठे रहे | फिर रंजना दी अपने आंचल से मन्नो भैया के आंसू पोछकर बोलीं, ‘रो मत मन्नो, अम्मा अमर होकर नहीं आई थीं | एक न एक दिन तो उन्हें जाना ही था | ... तू चिंता मत कर, मै तुझे अपने साथ ले चलूंगी | बस तेरहवीं तक रह ले यहाँ | ’ मन्नो भइया रोते रहे, रंजना दी उनके आँसू पोछती रहीं | कुछ देर बाद रंजना दी मेरी ओर मुड़कर बोलीं, ‘अरे छोटी, मुझे तो होश ही नहीं रहा, इतनी देर तुझे आये हो गया, मैं न पानी पूछी, न चाय ...तू इतनी दूर से आ रही है, चल पहले तुझे कुछ चाय –पानी दूँ | ’

    ‘चाय-पानी कर लूंगी दी, अभी तो बस बैठो | ’

    बाहर से कोई बुला रहा है, रंजना दी ने सुना तो बाहर चली गईं | मैं मन्नो भैया को उस अँधेरी कोठरी से निकाल कर बाहर लाना चाहती हूँ | कई बार कहने के बाद मन्नो भैया उठकर बाहर ओसारे में आ गए|

    सुमेर काका अब भी मलदहवा के नीचे बैठे हैं |

    बुआ के दुआर की हद्द जहाँ समाप्त होती है वहीँ खड़े होकर चंद्रशेखर बाबा रंजना दी से पूछ रहे हैं, ‘ये बताओ, सब तो चले गए, शाम को पीपल के नीचे दिया कौन जलाएगा ?

    ‘मैं जला दूंगी, नाना | ’ रंजना दी ने आगे बढ़कर जवाब दिया |

    ‘तुम ? बिटिया होके ? बेटियों को नहीं जलाना चाहिए | ’

    ‘फिर मन्नो जला देगा | ’

    ‘वो ! उसे तो हक्तियारी (हत्या का पाप ) लगी है | जब तक हक्तियारी छूटेगी नहीं तब तक वो कुछ नहीं कर सकेगा | ’

    ‘फिर नाना ?...आप लोग कोई जला दीजियेगा | ’ रंजना दी ने बड़ी सहजता से कहा, किंतु चंद्रशेखर बाबा भड़क गए |

    ‘हम सब ? हम सब कैसे जलाएंगे ? हमारा कुल-गोत्र अलग है | ...हमारे घर में शूतक नहीं लगा है, हमारे घर में मौत नहीं हुई है और भगवान करें हमें घंट के नीचे दिया जलाने की नौबत न आये | ...कुछ भी बोलती हो, अपने भाई और माँ की तरह तुम भी पगला गई हो क्या ?’

    रंजना दी का चेहरा तमतमा गया | मुंह से शब्द खौल कर निकलने को बेताब थे, किंतु संयम रखते हुए उन्होंने कहा, ‘माफ़ करें नाना, मेरे कहने को गलत न लें | मेरा मतलब वो नहीं था | ... रही बात दिया जलाने की तो जब कोई है ही नहीं, तो नहीं जलेगा दिया | ’

    ‘अंधेर मचा रक्खा है तुम लोगों ने, घंट बंधने की जगह पर दिया नही जलेगा !! तुम्हारे घर के सब लोग तो भाग लिए | तुम्हारी माँ की आत्मा हम लोगों के घरों में ही तो भटकेगी ... एक तो अकाल मौत ऊपर से विधि –विधान भी ठीक से नहीं हो रहा है ...

    चंद्रशेखर बाबा बडबडाते हुए लौट गए | मुझे पापा और ताऊजी पर गुस्सा आ रहा है | वे लोग भी श्राद्ध के दिन ही आने वाले हैं | रंजना दी का कहना है कि वे लोग भी आकर क्या करेंगे, कुल-गोत्र तो उनका भी अलग है |

    शाम होने वाली है | अब तक सुमेर काका मलदहवा के नीचे बैठे थे, किंतु चंद्रशेखर बाबा के जाने के बाद वो भी उठकर चले गए |

    रंजना दी चिंतित हैं, ‘अम्मा के लिए दस दिन तक दिया जलाने वाला भी कोई नहीं है | ’

    अँधेरा घिरने लगा तो रंजना दी ने भीतर आकर दो लालटेन जलाया | एक लालटेन बाहर लाकर ओसारे की डेहरी पर रख दीं तथा दूसरी मन्नो भैया की कोठरी में | मन्नो भैया फिर से कोठरी में चले गए हैं | यूँ गाँव में बिजली आ गई है पर सप्लाई का कोई ठिकाना नहीं रहता | परसों शाम से बिजली नहीं आई है | शाम गहराते ही पूरा गाँव अँधेरे में डूब गया है |

    पीपल का पेड़ घर से लगी बाग़ के एक किनारे पर है | वहां से किसी के डांटने –डपटने की आवाज आ रही है | मैं और रंजना दी बाग़ की ओर कुछ आगे बढ़े | चंद्रशेखर बाबा गुस्से में चिल्ला रहे हैं, ‘ससुर, खुद को बाभन – ठाकुर समझ रहा है क्या ? तू यहाँ दिया जलाएगा ? तेरा जलाया दिया उन्हें मिलेगा ? ससुर ... बहुत दिमाग चढ़ गया है ? पहले अपनी रसोई में खिला के धरम भ्रष्ट किया अब दिया जलाके उन्हें नरक में डाल रहा है ?’

    कुछ लोग और आ गए हैं | वहां शोर बढ़ रहा है, ‘मारो साले को, तोड़ दो हाथ-पैर ...ससुरा खुद को बभनन का भयवाद समझ रहा है | ’

    मैं और रंजना दी तेज क़दमों से पीपल की ओर बढ़ रहे हैं | कुछ लोग दिया जलाने वाले व्यक्ति को पकड़ कर मार रहे हैं | सबको रोकते हुए रंजना दी भीड़ में घुस गईं

    ‘सुमेर मामा !! ... तुम ! तुम्हें सब मार रहे हैं ?...तुम यहाँ दिया जलाने आये हो !’ रंजना दी आश्चर्य मे हैं | कुछ हाथ फिर सुमेर काका को मारने के लिए उठते हैं | रंजना दी बीच में डटकर खड़ी हो गई हैं ‘खबरदार, कोई आगे नहीं बढ़ना | सुमेर मामा के दिया जलाने से जो पाप-पुण्य होगा वो मेरी अम्मा को होगा | हमलोगों को होगा | आपलोग क्यों इतना परेशान हो रहे हैं ? एक अकेले सुमेर मामा को मारने के लिए पूरा गाँव इकट्ठा हुआ है ! अभी तक आप लोग कहाँ थे ?...धर्म का ठेका ले रक्खा है आपलोगों ने ?’ रंजना दी गुस्से में कांप रही हैं | मैं जाकर रंजना दी के पास खड़ी हो गई | गाँव के कुछ बुजुर्ग लोग रंजना दी को घूर रहें हैं | चंद्रशेखर बाबा तमतमा कर बोले, ‘कुछ लाज-लिहाज है तुम्हें ? तब से टिबिर –टिबिर बोले जा रही हो | यहाँ खड़े सब पागल हैं क्या ? वेद-पुराण में सब झूठ लिखा है क्या ?’

    ‘वेद-पुराण में कुछ भी लिखा हो, मै सिर्फ इतना जानती हूँ कि मेरी अम्मा भूख से छटपटाती थीं तब सुमेर मामा उन्हें खिलाते थे | जब मर गईं तो पाप लगने का विचार करके आप में से कोई मेरे दरवाजे पर नहीं आया, तब अम्मा की लाश के पास रात भर सुमेर मामा ही बैठे रहे ...अब आप लोग आकर धरम-करम और वेद-पुराण समझा रहे हैं ?...देखो, कितना मारा है आप लोगों ने इनको | ” रंजना दी सुमेर काका की ओर मुड़ी तो सुमेर काका हाथ जोड़ लिए, ‘बिटिया, माफ़ कर दो, जब तुमने कहा कि दिया जलाने वाला कोई नहीं है तो नहीं जलेगा दिया, तब मैं भागता हुआ महाबाभनों के गाँव गया | उनके हाथ – पैर जोड़ा कि चलकर घंट के नीचे दिया जला दें | ...मैंने सोचा कि जब सारा क्रिया-कर्म वो करा सकते हैं तो दिया भी जला सकते हैं | ...पर बिटिया कोई आने को तैयार नहीं हुआ | मैं निराश होकर लौट रहा था | फिर अचानक मेरे मन में आया कि क्यों न मैं ही दिया जला दूँ | ...दीदी को मेरा जलाया दिया मंजूर होगा तो ठीक नहीं तो कम से कम घंट के नीचे का अँधियारा तो मिट जायेगा | ... बस बिटिया, यही सोचकर ...मुझसे गलती हो गई | ’

    ‘ तुमसे कोई गलती नहीं हुई है सुमेर मामा, अम्मा प्रेम और ममता से भरीं थी, तुम भी प्रेम और इंसानियत से भरे हो | तुम अम्मा के कुल के ही हो मामा | अम्मा को तुम्हारा ही जलाया दिया मंजूर होगा | अब यहाँ दस दिन तक तुम ही जलाओगे दिया | ’ रंजना दी की आवाज आत्मविश्वास से भरी है| भीड़ में खुसुर- फुसुर शुरू थी | रंजना दी के दस दिन तक दिया जलाने की बात कहते ही आवाज कुछ तेज होने लगी तो रंजना दी ने दृढता से कहा, ‘आप सब अपने- अपने घर जाइये ... आप का कुल-गोत्र अलग है, मेरी अम्मा का कुल- गोत्र अलग है | मेरी अम्मा के कुल-गोत्र में क्या चलेगा, क्या नहीं चलेगा, इसका निर्णय मैं लूगीं, आप लोग नहीं | ...जाइये यहाँ से ...और ध्यान रहे फिर से सुमेर मामा के ऊपर हाथ न उठने पाए | ’

    ‘धमकी ? हम लोगों को !” अपमान से तिलमिलाता मदन, जो मन्नो के उम्र का ही था, एक जोरदार धक्का सुमेर काका को दिया | सुमेर काका औंधे मुँह गिर पड़े | मैं सुमेर काका को उठाने दौड़ी | रंजना दी अपनी चप्पल उतार कर मदन की ओर खींच कर मारीं पर मदन खुद को बचाते हुए भाग निकला | रंजना दी चिल्ला पड़ीं – ‘कहाँ भाग रहा है ? रुक ... पुलिस रिपोर्ट करुँगी मैं, किसी को नहीं छोडूंगी, सबको अंदर करवा के ही रहूँगीं...क्या समझ रक्खा है तुम लोगों ने ...

    ‘पगला गई है | ’

    “है तो मन्नो की ही बहन, सटक गई है | ”

    “अपरबल हो गई है, बिलकुल अपनी माँ की तरह | ”

    “धरम-करम सब धोकर पी लिया है इसने| ”

    वहाँ एकत्र भीड़ पुलिस का नाम सुनते ही गुस्साती – बड़बड़ाती हुई वहाँ से हट गई | रंजना दी गुस्से से कांप रही हैं | मैं रंजना दी का हाथ पकड़ कर उनसे शांत रहने की विनती करती हूँ | पीपल की एक डाल पर घंट लटक रहा है, उसके नीचे कुछ दूर पर सुमेर काका के द्वारा जलाया हुआ दिया अपनी रोशनी फैला रहा है, जिसमें घंट और सुमेर काका का चेहरा दोनों चमक रहा है |

    ***

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