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अंतर्द्वन्द्व

  • अंतर्द्वन्द्व
  • आशा पाण्डेय

    आज उसे घर से निकलने में थोड़ी देर हो गई थी | वह तेज कदमों से चलकर ठीक समय पर काम पर पहुँच जाना चाहता था | सामने से आते साइकिल सवार से उसने समय पूछा | उसके ‘साढ़े आठ’ कहते ही वह लगभग दौड़ने लगा | उफ ! आज तो आधा घंटा लेट हो गया ! दौड़ते-दौड़ते वह हाफने लगा, उसका पूरा शरीर पसीने से भीग गया | जून के महीने में तो सुबह सात बजे से ही धूप इतनी तेज लगने लगती है कि सहन नहीं होती | माथे पर आये पसीने को हाथ से पोछते हुए उसकी नजर कमीज की फटी आस्तीन पर गई | जानता तो वह पहले से ही था कि उसकी कमीज फट गई है, लेकिन अब यह पहनने लायक नहीं है इस बात को उसने आज ही महसूस किया | शायद इसका कारण यह था कि आज महीने की अंतिम तारीख है और आज उसे तनख्वाह मिलने वाली है | उसने सोचा, इस बार एक कमीज वह अपने लिए जरुर सिलवा लेगा | एक चप्पल भी खरीद लेगा | अब यह चप्पल तो सिलवाने लायक भी नहीं रही | गरमी बहुत पड़ने लगी है, सर में बांधने के लिए एक तौलिया भी बहुत जरुरी है | इस बार वह यह सब खरीद लेगा | सहसा उसने अपने सिर को झटका, उफ ! मजदूरी का आधा पैसा जब मैं अपने ही ऊपर खर्च कर दूँगा तो घर क्या भेजूंगा | उसकी आँखों के सामने असहाय माँ का चेहरा घूमने लगा | उसने मन में ही दृढ़ निश्चय किया – ‘मैं तौलिया नहीं खरीदूंगा, दुनिया में बहुत से लोग सिर में बिना कुछ बांधे ही काम करते रहते हैं, फिर मैं क्यों नहीं कर सकता | घर में कुछ फटे चीथड़े कपड़े पड़े हैं उन्हें ही सिर पर लपेट लूँगा | चप्पल अगले महीने खरीद लूँगा | एक महीने तो किसी तरह यह चप्पल चल जाएगी | और कमीज का क्या ! कोहनी पर अंदर से कपड़ा लगवा कर सिलवा लूँगा | अपने खाने-पीने के लिए कुछ पैसे रखकर मैं पूरा घर भेज दूँगा | ’ इसी उधेड़-बुन में वह कम्पनी के गेट पर पहुंच गया | ‘गेटकीपर’ को ‘गेट पास’ दिखाकर वह अंदर जाकर काम करने लगा | उसके हाथ जरुर काम कर रहे थे, किंतु दिल अपने परिवार में विचरण कर रहा था |

    कितना सुखी परिवार था | पिता जी ने शहर में कितना बड़ा मकान बनवाया था | गाँव में भी अच्छी खेती-बाड़ी थी | उसे और उसकी दीदी को स्कूल छोड़ने और लाने के लिए नौकर लगे थे | अचानक पूरा मानचित्र बदल गया | जब वह मात्र सातवीं कक्षा में पढ़ता था, उसी समय पता चला कि पिताजी लाइलाज बीमारी के शिकार हो गए हैं | साल भर सब शहर में ही रहे | किसी तरह खर्च पूरा होता रहा, लेकिन अब कमाने वाला कोई नहीं था | पिताजी बिस्तर पकड़ चुके थे | शहर में रहना भारी पड़ने लगा | घर की जमा पूंजी पिताजी की बीमारी में जाने लगी | अंत में उसकी माँ ने गाँव में रहने का निर्णय किया | गाँव में कम से कम खेत तो है, उसी के सहारे चलता रहेगा | सब गाँव आ गए | पिताजी की दवा के लिए धीरे-धीरे उसके खेत भी गिरवी रखे जाने लगे, लेकिन पिताजी बच नहीं सके | जब वह नौवीं कक्षा में पढ़ता था तभी उसके ऊपर अपने छोटे भाई-बहनों को पलने का पहाड़-सा बोझ आ पड़ा | हर पल उसे अपनी माँ का असमय ही मुरझा गया चेहरा, छोटे भाई-बहनों की अभाव ग्रस्त जिन्दगी, बनिये का उधार देना बंद कर देना, खेत का बंधक होना, महाजनों का कर्ज तथा उसपर बढ़ता हुआ ब्याज याद आता रहता | क्या वह कभी अपने परिवार को संभाल सकेगा ? यह चिंता उसे दिन-प्रतिदिन जला रही थी|

    वहाँ काम करने वाले सारे मजदूर आपस में हंस-बोल रहे थे | तनख्वाह का दिन था न इसलिए आज सभी कुछ अधिक खुश थे | लेकिन वह बहुत कम बोल रहा था | उसे पूरी दुनिया वीरान लग रही थी | साथियों को हँसता देख उसका सिर शर्म से झुक जाता था | चेहरा दयनीय हो जाता था | उसे लग रहा था कि सब उसकी दीनता का मजाक उड़ा रहे हैं | वह सुबह से चुपचाप गिट्टी फोड़ रहा था | डेढ़ बज रहे थे सारे मजदूर आफिस में जाकर अपना-अपना हिसाब ले रहे थे, लेकिन उसे जैसे कुछ होश ही नहीं था | अंत में बड़े बाबू ने आवाज लगाई – अरे भाई शंकर ! तुम भी आकर अपना हिसाब ले लो, और सुनो आज दूसरी मीटिंग काम बंद रहेगा, सुन रहे हो न ?’उसने धीरे से ‘जी अच्छा’ कहते हुए सर हिलाया | हथौड़ी स्टोररूम में जमा करके वह भी आफिस में गया और अपनी मजदूरी ली | अचानक उसे याद आया कि दीनू काका ने भी अपनी मजदूरी लाने को कहा है |

    उसने बड़े बाबू से कहा, ‘ दीनू काका का भी पैसा मुझे ही दे दीजिये | ’ दीनू तथा शंकर साथ-साथ ही रहते थे | वास्तव में शंकर को दीनू भगवान के रूप में मिल गया था | शंकर जब शहर में नौकरी करने आया तो इधर-उधर भटक रहा था | दो दिन से कुछ खाया-पिया नहीं था | दीनू एक चाय की दुकान पर बैठकर पकौड़े खा रहा था | शंकर दूर खड़ा होकर उसे ललचाई नजरों से देख रहा था | दीनू की नजर शंकर पर पड़ी | वह जीवन के थपेड़े झेल चुका था | शंकर को देखते ही वह समझ गया कि हो न हो, यह लड़का किसी अच्छे परिवार से है और इस समय बहुत भूखा है | वह उठा और प्यार से शंकर को अपने पास ले आया | सबसे पहले उसे कुछ खिलाया-पिलाया फिर उसकी पूरी कहानी सुनी | दीनू ने शंकर को हिम्मत दिलाई – ‘परेशान मत हो बेटा, मैं तुम्हारी पूरी मदद करूंगा | चलो आज से तुम मेरे साथ ही रहना | ’ शंकर चुपचाप दीनू के साथ चला आया | उसने ही यह नौकरी भी लगवाई | तब से दोनों साथ-साथ रह रहे हैं | दीनू उम्र में शंकर से बहुत बड़ा था लगभग उसके पिता की उम्र का | वह शंकर की सहायता भी पिता तुल्य ही कर रहा था | दोनों में बड़ा प्यार था | दोनों के इस प्यार से बड़े बाबू तथा मालिक भी परिचित थे | अकसर वे दोनों एक दूसरे की मजदूरी ले लिया करते थे | बड़े बाबू ने मालिक की तरफ देखा | मालिक ने दीनू की मजदूरी शंकर को देने के लिए संकेत किया | दीनू की मजूरी शंकर को मिल गई | अब उसकी जेब में सत्रह सौ बीस रुपये थे | वह घर जाने लगा | चलते-चलते उसने जेब में हाथ डाला, पैसा निकालकर देखा फिर सम्भालकर रख दिया | उसने सोचा – एक हजार तो दीनू काका का ही है, सिर्फ सात सौ बीस रुपये ही उसके पास बचेंगे | एक बार उसे लगा अगर यह पूरा पैसा उसका होता तो उसका बहुत-सा काम निकल जाता | उसे आँखों के सामने माँ का चेहरा दिखाई देने लगा | याद आने लगी माँ की बात जो चलते समय उसने कही थी – ‘बेटा कुछ पैसा जल्दी घर भेज देना ताकि बनिये को दे सकूँ, नहीं तो पिछला इतना अधिक बाकी है कि वह आगे उधार देने को तैयार नहीं है | ’ माँ यह कहते समय कितना संकोच महसूस कर रही थीं यह उससे छिपा नहीं था | उनके दिल की पीड़ा को वह उस समय भी महसूस कर रहा था, लेकिन आज तो जैसे वह उस दर्द को सह नहीं पायेगा | वह काफी तेज चलने लगा | दुःख को कम करने के लिए होंठ को दांत से काट लिया | उसे लगा, उसके फेफड़े में कोई आग जला रहा है | उसने सिर को थोड़ा पीछे की तरफ झटका और दोनों हथेलियों से कस कर सीने को दबा लिया | सहसा उसका हाथ कमीज की जेब पर गया | उसके दिमाग में बिजली कौंधी –‘ क्यों न ये सब पैसा लेकर मैं आज ही घर भाग जाऊं, एक साथ इतना पैसा देखकर माँ कितना खुश होंगी | दीनू काका को क्या, वे मेरे जितने गरीब थोड़े ही हैं | कम से कम छोटे भाई-बहनों के पेट की आग बुझाने की चिंता तो उन्हें नहीं है | और अगर होगी भी तो क्या ? मैं क्यों किसी के बारे में सोचूं, मेरे बारे में कोई सोचता है क्या ? सब कहते हैं कि ईमानदारी से रहना चाहिए | अरे कोई ईमानदारी से रहने दे तब न | ईमानदारी की बड़ी-बड़ी बातें करना कितना सरल है, किंतु निभाना ? अरे कोई निभाकर तो देखे | पग-पग पर कांटे मिलेगें | मुझे सब यही तो कहेंगे कि शंकर बेईमान था | दुनिया कुछ भी कहे उससे क्या | आज मुझे मौका मिला है, इसका लाभ उठाना चाहिए |

    चलते-चलते उसके पैर में एक लकड़ी फंसी और उसे हलकी ठोकर लगी वह संभला – उफ ! मैं ये क्या सोचने लगा था ? यह मुझे क्या हो गया था ?मुझे कोई माफ़ नहीं करेगा, शायद माँ भी नहीं | दीनू काका मुझे कितना प्यार करते हैं और मैं यह क्या करने जा रहा था | उसने माथे पर आये पसीने को हाथ से पोछा, पैसे को टटोला, उसे लगा जैसे दीनू काका का पैसा जेब में नहीं है | शायद उसे अपने विचारों के कारण ही ऐसा महसूस हुआ होगा | उसने जल्दी से पैसे निकाले और गिनने लगा | दो-तीन बार गिनने के बाद जब आश्वस्त हुआ तब पैसों को जेब में रखकर चलने लगा | आगे तिराहा था | वहाँ से एक सड़क उसके कमरे की तरफ जाती थी, दूसरी स्टेशन की तरफ | तिराहे पर पहुंचकर वह थोड़ी देर न जाने क्या सोचता रहा | अंत में स्टेशन जाने वाली सड़क पर हो लिया | एक बार फिर से दिल में धर्म और अधर्म की लड़ाई होने लगी | उसने सोचा, दुनिया में क्या मैं अकेला ही ऐसा कर रहा हूँ और फिर बेईमानी करना मेरी आदत नहीं है, मै तो अपनी मजबूरी के कारण ही ऐसा कर रहा हूँ | जो मुझे बेईमान कहेगा वह क्या मेरी जरूरतों को पूरा कर देगा ? उसके अंतर्मन से फिर आवाज उठी – तो क्या आवश्यकता पूरी करने के लिए किसी को धोखा देना जरूरी है ? तू अगर वैसे ही दीनू काका से पैसा मांग ले तो वे दे देंगे | उसके चेहरे पर एक कडवी मुस्कान फ़ैल गई | दे देंगे ! जब मुझे भीख ही मांगनी है तो सड़क पर निकलने पर तो सभी कुछ न कुछ दे देंगे | क्या दीनू काका मेरी स्थिति को नहीं समझते ?क्या उन्हें अपने आप ही कुछ मदद नहीं करनी चाहिए ? क्या यही इंसानियत है कि मैं मांगू तब वे मुझे दें | आत्मा ने फिर पुकार लगाई –पगले !बिना मांगे, बिना हाथ-पैर जोड़े अपने ही कुछ नहीं देते | दीनू काका तो तेरे कुछ भी नहीं लगते फिर भी तुझे कितना प्यार करते हैं | कितना विश्वास करते हैं तुझ पर | उनके विश्वास का इस प्रकार हनन करेगा तू | तेरे रिश्तेदारों की कमी तो नहीं है | अपने तो तेरे बहुत हैं दुनिया में, कोई सहायता करते हैं तेरी ? उसे याद आने लगे दीदी की ससुराल में बिताये वो दिन | पिताजी ने अपनी बीमारी के दौरान ही दीदी की शादी कर दी थी | उनकी इच्छा थी कि जल्दी से जल्दी अपनी कुछ जिम्मेदारियाँ निभा लें | पिताजी की मृत्यु के बाद वह बड़ी उम्मीद लेकर अपनी दीदी के घर गया था | जीजाजी निहायत निष्ठुर प्रकृति के व्यक्ति थे | वह चाहता था कि उसके जीजाजी कहीं पर उसकी नौकरी लगवा दें | लेकिन उसके जीजाजी उसकी हंसी उड़ाते थे – ‘जान न जहान चले हो नौकरी करने, कौन सी नौकरी करोगे ? तुम्हें लेकर जहाँ जाऊंगा क्या कहूँगा कि यह फटीचर मेरा साला है, इसे नौकरी दे दो ... मुझे अपनी बदनामी नहीं करनी है | यहाँ आये हो, घूम-फिर लो और लौट जाओ| ’ उस दिन जीजाजी के आफिस जाने के बाद असहाय दीदी कितना रोई थीं | उसे पता चल गया कि उसकी दीदी कितनी विवश हैं और किस तरह की जिन्दगी जी रही हैं | उसने यह भी जान लिया था कि उसके वहाँ रहने की वजह से दीदी को बहुत कुछ सुनना पड़ता है | एक दिन वह दीदी को बिना कुछ बताये ही भाग आया था | उसके बाद यहाँ उसे दीनू काका का संरक्षण मिला था | आज वह उन्हीं दीनू काका के विश्वास का गला घोंटने जा रहा था |

    ‘नहीं मैं ऐसा नहीं करूंगा, कभी नहीं करूंगा’ कहते हुए वह तेज कदमों से घर की तरफ चल दिया | उसे डर था कि धीरे चलने पर कहीं फिर से कोई कुविचार उसके मन में न आ जाये | वह दौड़ने लगा | दौड़ते हुए ही वह घर पहुँचा | उसने देखा दीनू काका उसका ही इंतजार कर रहे थे | उसे देखते ही बोल पड़े – ‘इतनी देर क्यों हो गई बेटा ? मुझे तो चिंता होने लगी थी | अच्छा चलो, अब जल्दी से हाथ-पैर धोकर कुछ खा लो, मैंने आज कढ़ी बनाई है, तुम्हें बहुत पसंद है न, इसलिए | ’

    दीनू काका की स्नेहसिक्त बातें उसे झकझोर रही थीं | उसने जेब से पूरा पैसा निकाला और दीनू काका को देकर उनके सीने से लिपट कर रोने लगा | दीनू काका को आश्चर्य हुआ, किंतु वह बिना कुछ बोले अनवरत रोता ही रहा ... पश्चाताप मिटने तक ...हृदय की कालिमा धुलने तक |

    आशा पाण्डेय

    अमरावती, महाराष्ट्र

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