Bade Bhaiya books and stories free download online pdf in Hindi

बड़े भइया

  • बड़े भइया
  • आशा पाण्डेय

    पूछताछ खिड़की पर यह पता चलते ही कि ट्रेन प्लेटफार्म नंबर- दो पर आ चुकी है, राकेश ने अपना सामान उठाया और लगभग दौड़ते हुए प्लेटफार्म नंबर – दो पर पहुंच गया | टिकट जेब में ऊपर ही रखा था | राकेश ने टिकट निकालकर देखा, कोच नंबर एस – पांच, सीट नंबर –पन्द्रह | वह कोच नंबर एस- पांच की तरफ बढ़ा | चढ़ने और उतरने वाले एक दूसरे से प्रतिस्पर्धा करते हुए से दिख रहे हैं| यद्यपि इस स्टेशन पर ट्रेन बीस मिनट रुकती है, लेकिन यदि भीड़ को धकियाते हुए चढ़ा उतरा न जाये तो भला कैसा सफर ! चाय, समोसा वडा बेचने वालों की भी कमी नहीं है | वे भी यात्रियों के साथ ही भाग-दौड़ कर रहे हैं | उतरने-चढ़ने वालों की धक्का-मुक्की के बीच राकेश डिब्बे में चढ़ गया | अपनी सीट पर पहुंच कर सबसे पहले उसने अपना सामान सीट के नीचे रखा फिर एक लम्बी साँस लेकर जेब से रुमाल निकाल माथे पर आये पसीने को पोछा और आराम से अपनी सीट पर बैठ गया | डिब्बे में लोगों की भीड़ की वजह से गरमी कुछ अधिक लग रही है | गरमी से राहत पाने के लिए उसने पानी की बोतल खोलकर दो घूंट पानी गटक लिया | अब तक डिब्बे में भी सब अपनी-अपनी सीटों पर बैठ चुके थे | अपने परिचितों, रिश्तेदारों को छोड़ने आये लोग खिड़की के पास खड़े होकर आपस में बातें कर रहे है | एक झटका लेकर ट्रेन थोड़ा आगे बढ़ी और देखते ही देखते रफ़्तार पकड़ ली |

    जब ट्रेन चल पड़ी तो राकेश ने घड़ी देखी, शाम के पांच बज रहे थे | सिर्फ रात भर का सफ़र | वह खिड़की से बाहर देखने लगा | इस रास्ते पर पड़ने वाले खेत-खलिहान, जंगल-मैदान सब कुछ तो उसके चिर-परिचित हैं | हर दो महीने के बाद वह निकल पड़ता है अपने बड़े भईया के पास | इस बार वह अपने काम में कुछ अधिक व्यस्त हो गया था इसलिए दिवाली के बाद अब जा पा रहा है | बड़े भईया ने कई पत्र भेजे थे | इस उम्र में उन्हें पत्र लिखने की झंझट उठानी पड़ती है | अब तो फोन की सुविधा उपलब्ध है | बड़े भइया के पास भी फोन हो जाये तो कितना अच्छा होगा ! चाहते तो भइया भी होंगे लेकिन प्रायमरी स्कूल के हेडमास्टर की इतनी औकात कहाँ कि वह फोन लगा सके | हाँ, यदि लग जाये तो महीने का किराया भरना कोई कठिन नहीं होगा | इस बार वह दौड़-धूप कर घर पर फोन लगवा देगा | पैसा जरुर खर्च होगा, लेकिन बड़े भइया को आराम मिल जायेगा | सुरेश, राजेश और रमेश तीनों अच्छी नौकरी पर लग गए हैं, लेकिन माँ-बाप के लिए गाँव में कुछ सुविधा जुटा दें यह उनसे नहीं होता, अलबत्ता अपनी सलाह जरुर देते रहते हैं कि, ‘ आपके तीन-तीन बेटे, एक भाई, सभी शहर में हैं | आप लोग घूम-फिर कर बारी-बारी सबके यहाँ रहिये, गाँव में क्या धरा है जो यहाँ पड़े रहते हैं | अब उन्हें कौन समझाए कि गाँव में क्या धरा है | यह तो कोई बड़े भइया की आत्मा से पूछे | गाँव की मिट्टी में जो सोंधी सुगंध है वह शहर की खोखली धुएं-युक्त धूल में कहाँ ! अन्तःकरण की गहराइयों से निकले सुकोमल प्रेम-तारों से जुड़े ग्रामीण दिलों में शहर की औपचारिक भाव-भंगिमा को झेलने की शक्ति कहाँ ! पड़ोसियों तक से संवादहीनता और उनके झूठे दर्प को सह पाना बड़े भइया के बस का नहीं है | इसी पावन मिट्टी पर बड़े भइया ने जन्म लिया और अपना पूरा जीवन बड़ी ठसक से यहीं पर बिताया | अब अंत समय में वह एक बेटे से दूसरे बेटे के दरवाजे पर भटकते फिरें? चाहता तो वह भी था कि बड़े भइया दिल्ली आकर उसके साथ रहें | एक बार उसने हिम्मत करके कहा भी था, लेकिन बड़े भइया ने बेरुखी से जवाब दिया था, ‘तुम लोग क्या समझते हो, मैं लाचार हो गया हूँ ? तुम अपना ध्यान रखो, मेरी चिंता छोड़ दो | मुझे जब आना होगा आ जाऊंगा | दरवाजे पर एक गाय बंधी है, कुत्ता है, आम, महुआ, कटहल के पेड़ हैं, घर में पुरखों की निशानी है, तुम्हारी भाभी हैं, गाँव में जगेसर हैं, सभापति हैं, मैं अकेला कहाँ हूँ ?’ बड़े भइया को गाँव से हटाने का मतलब था उनकी आत्मा को उनके शरीर से अलग कर देना, उन्हें जड़हीन बना देना | वह चाहता था कि बड़े भइया के साम्राज्य को बगैर नकारे उनका ध्यान रखा जाये इसलिए उसकी इच्छा थी कि सब मिलकर आपस में तय कर लें और तीन-तीन महीने पर सब बारी-बारी से गाँव आया-जाया करें | कभी-कभी बड़े भइया को भी घूमने फिरने के लिए आदर से बुलाते रहें | इस तरह बड़े भइया को भी अकेलापन नहीं लगेगा तथा किसी एक को ही अपना काम-धंधा छोड़कर बार-बार गाँव भी नहीं आना पड़ेगा, लेकिन किसी को बड़े भइया की चिंता नहीं है | सुरेश को गाँव आये दो साल हो गए हैं | राजेश और रमेश भी कुछ कम नहीं हैं |

    इस बार तीनों बेटे आये हैं | बड़े भइया ने पत्र में लिखा था – ‘सुरेश की इच्छा जमीन – जायदाद का बंटवारा करने की है | अप्रेल प्रथम सप्ताह में तीनों घर आ रहे हैं | इसी समय तुम भी आ जाओ | अब मेरा स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता | तुम्हारी भाभी भी बीमार ही रहती हैं | काम धंधा अब नहीं होता है| खेती-बाड़ी की देखभाल करना अब मुश्किल जाता है | तुम सब लोग अपने-अपने हिस्से का लो, देखो और सम्भालो | ’ पत्र पढकर राकेश को आश्चर्य हो रहा था कि बड़े भइया के रहते बटवारे की बात वो स्वप्न में भी नहीं सोच सकता, सुरेश ने कैसे हिम्मत की ! बंटवारे की बात सुनकर बड़े भइया पर क्या बीती होगी!

    ‘भाई साहब ! आपके पास पीने का पानी हो तो थोड़ा सा दीजिये, मेरी बेटी प्यासी है | मेरा वाटरबैग खाली हो गया है | ’ सामने की सीट पर बैठे सज्जन ने कहा | पानी की बोतल देकर राकेश ने सामने बैठे उस दम्पत्ति का मुआयना किया | साधारण-सी सिंथेटिक साड़ी में लिपटी वह महिला अनवरत रोती बच्ची को चुप करने में जुटी है | लगता है पहली बच्ची है, क्योकि बच्ची को संभालने में वह अनुभवहीन- सी दिख रही है | राकेश का ध्यान उन लोगों के सामान पर गया | एक बड़ी-सी अटैची सीट के नीचे रखी है | एक चादर, जिसे वे लोग सीट पर बिछा चुके हैं, एक प्लास्टिक की डोलची भी पास में रखी है, जिसमें शायद खाने-पीने का सामान रखा होगा या फिर बच्ची का दूध, दवा, पानी आदि | पति किसी आफिस में क्लर्क या टीचर होगा या फिर साधारण-सी नौकरी होगी | वेशभूषा से तो ऐसा ही लग रहा है | रोजमर्रा की जिन्दगी में होने वाली अनगिनत परेशानियों से जूझते साधारण इंसान के चेहरे पर भला क्या चमक आएगी ? बच्ची अब शांत हो गई है, शायद सो गई है | महिला ने बच्ची को अपनी गोद से हटा कर सीट पर लिटा दिया |

    शाम के साढ़े छ बज रहे हैं | खिड़की से अब भी गर्म हवा का आना जारी है | डिब्बे में सब अपने आस-पास बैठे लोगों से बातें कर रहे हैं | उसे आश्चर्य हुआ कि वह बड़े भइया के पत्र तथा गाँव की बातों में इतना अधिक उलझा हुआ है कि उसके आस-पास कौन बैठा है, इसका उसे ध्यान ही न रहा | सामने बैठे आदमी से उसने पूछा, ‘आप कहाँ जा रहे हैं ?’

    ‘घर जा रहा हूँ, ... यहाँ दिल्ली में नौकरी करता हूँ | माँ –बाप गाँव में हैं, उन्हीं के पास जा रहा हूँ|

    माँ को तो राकेश ने बचपन से ही नहीं जाना था | पिता ने भी अधिक दिन तक साथ नहीं दिया| इसलिए माँ – बाप का नाम आते ही राकेश खामोश हो गया और खिड़की की तरफ देखने लगा | रात हो गई, अँधेरा गहराने लगा | छोटे-मोटे स्टेशन को पार करती हुई ट्रेन पूरी गति से अपनी मंजिल की तरफ चली जा रही है | खिड़की से बाहर कही-कहीं किसी गाँव या घर में बिजली जलती दिख जाती है |

    उसके गाँव के पिछवाड़े भी लगभग आधा किलोमीटर की दूरी पर रेल की पटरियां बिछी हुई हैं, जिसे छोटी लाइन कहा जाता है | दिन में एकाध रेलगाड़ी उस पटरी से गुजरती थी | बड़े भइया के लाख मना करने पर भी वह छुप-छुपाकर उस पटरी के पास तक पहुंच जाता था और और भागती ट्रेन के दरवाजे तथा खिडकियों से झांकते यात्रियों को हाथ हिलाकर विदा करता था | कभी-कभी तो जीभ निकाल कर चिढ़ा भी देता था | बड़ा मजा आता था रेलगाड़ी देखने में | एक बार बड़े भइया को पता चल गया, बहुत नाराज हुए थे | मार भी दिये होते अगर ढाल की तरह भाभी बीच में न आ गई होतीं | छ महीने का था तब से भाभी ने उसे पाला था | उसकी माँ भी शायद भाभी से बढ़कर प्यार न करतीं, बल्कि वह तो जान भी न पाया था कि उसके माँ-बाप इस दुनिया में नहीं हैं | बड़े भइया हमेशा कहते थे कि मुझे तीन नहीं चार बेटे हैं |

    एक बार बड़े भइया बीमार पड़ गए थे | तीनों बेटे हास्टल में रहकर अपनी पढ़ाई में व्यस्त थे, लेकिन राकेश ने दिन रात एक करके बड़े भइया की सेवा की थी | स्वस्थ होने पर बड़े भइया ने रुंधे गले से कहा था – ‘ राकेश न रहा होता तो मैं इस बीमारी में चल बसा होता ...सुरेश, रमेश को तो पढ़ाई से ही फुर्सत नहीं है ...हास्टल में क्या डाल दिया, गाँव की तरफ देखते भी नहीं | पैसा ख़त्म होने पर जरुर चले आते हैं ...वह तो अच्छा किया जो राकेश को गाँव के कालेज में दाखिला दिलाया ...कोई तो है हमारे आगे पीछे | ’ बड़े भइया की आवाज में ढलती उम्र के प्रभाव से कमजोर होती साँस की चिंता साफ झलक रही थी | यत्र-तत्र बिखरी उम्मीदों को समेट कर तदनुकूल व्यवहार करने का यही तो समय है | शायद इसलिए बड़े भइया ने कहा – ‘सुन रही हो सुरेश की माँ ! मुझे रिटायरमेंट के बाद जो भी पैसा मिलेगा सब चार भागों में बाटूंगा ...मेरा जो कुछ भी है सब में राकेश का बराबर का हिस्सा लगेगा | ’

    गीले हाथों को अपने आँचल से पोंछती हुई भाभी वहीं पास की चारपाई पर बैठते हुए बोलीं, ‘यह भी कोई कहने की बात है जी, वह तो है ही मेरा बेटा, उसे भला हिस्सा कैसे नहीं मिलेगा ? सुरेश, रमेश चाहे पीछे हो जाएँ, लेकिन लल्ला जी का स्थान हर जगह आगे रहेगा | ’

    वह गद्गद हो गया था | पैसे, रुपये, जमीन जायदाद आदि का तनिक भी लालच उसे नहीं है | प्यार की जो छाया उसे मिल रही है वह उसी से खुश है | इतने अच्छे भइया भाभी जिसे मिले हों, उसे माँ –बाप की कमी क्यों खलेगी ?

    ट्रेन किसी स्टेशन पर रुकी | उसने घड़ी देखी, रात के दस बज रहे हैं | कम्पार्टमेंट में कुछ लोग सो चुके हैं कुछ खा-पीकर सोने की तैयारी कर रहे हैं | वह शाम को घर से खा-पीकर निकला था | रात भर के सफर में खाने का डिब्बा भी कहाँ ढोए ? लेकिन तरह-तरह के अचार तथा सब्जी की महक जो डिब्बे में फैल गई है, उससे उसकी भी भूख उद्दीप्त हो गई है, लेकिन खाए क्या ? पास में तो कुछ है ही नहीं | स्टेशन पर चाय वाले घूम रहे हैं | उसने एक चाय ली और धीरे-धीरे पीने लगा | गाड़ी पुनः अपनी पटरी पर दौड़ने लगी | उसका ध्यान सामने की सीट पर बैठे दम्पत्ति पर गया | महिला बच्ची को साथ में लेकर लेट चुकी है | उसका पति सीट के एक किनारे चुपचाप बैठा हुआ है | लगता है, इनको एक ही सीट का आरक्षण मिला है | राकेश को नींद तो नहीं आ रही है लेकिन बीच की सीट वाले ने सीट खोलकर सोने की इच्छा व्यक्त की | बीच की सीट खुल जाने पर नीचे की सीट पर बैठना आसान नहीं है, अतः वह भी लेट गया | सामने बैठा व्यक्ति सीट पर बैठे-बैठे ही ऊँघ रहा है | उसकी पत्नी तथा बच्ची सो चुकी हैं | झक-झक की आवाज के बीच न जाने कब राकेश को भी नींद आ गई | सुबह चाय वालों की आवाज से उसकी नींद टूटी | गाड़ी किसी स्टेशन पर रुकी है | उसने उठकर प्लेटफार्म की तरफ देखा, ‘धीरपुर’ | बस, यहाँ से एक घंटे की यात्रा और रह गई है | अगले स्टेशन पर उसे उतरना है | वहां से बारह किलोमीटर की बस यात्रा, फिर डेढ़ किलोमीटर पैदल | यदि बस जल्दी मिल गई तो वह आठ बजे तक घर पहुँच जायेगा | सामने बैठे पति-पत्नी इसी स्टेशन पर उतर गए | राकेश ने अपना सामान उठाकर सीट पर रखा तथा बैग से टूथपेस्ट-ब्रश निकालकर फ्रेश होने के लिए चल दिया |

    अगले स्टेशन पर उतरकर वह बस स्टाप पर आया | बस लगी ही थी, उसे ख़ुशी हुई | जब वह बस से उतरा तो उसे बड़े भइया दिखे | उसे लेने आ गए थे | वह ख़ुशी से बड़े भइया के पास पहुँचा, उनके पैर छूकर उन्हें प्रणाम किया | फिर उनकी साइकिल पर अपना सामान रख साइकिल खुद पकड़ लिया और पैदल ही बड़े भइया के साथ घर की तरफ चल पड़ा |

    घर में गजब की रौनक थी | सुरेश, राजेश, रमेश सभी अपने-अपने बाल-बच्चों के साथ आये हैं| राकेश की पत्नी भी गाँव आना चाहती थी, लेकिन उसके बेटे की परीक्षा अभी बाकी थी, इसलिए न आ सकी | राकेश के आने से उसकी भाभी बहुत खुश दिख रही हैं | चाय-पानी देने के बाद घंटे- डेढ़ घंटे बैठकर वह उससे बातें करती रहीं, फिर उठकर बहुओं के साथ राकेश की पसंद का भोजन बनाने में जुट गईं | रसोई से करैले की कलौंजी की खुशबू आ रही है | जब भी वह गाँव आता है उसकी भाभी बगैर कलौंजी खिलाये जानें नहीं देती | दिल्ली में तो वह अपनी पत्नी से कह-कह कर थक जाता है, लेकिन अधिक काम का बहाना बनाकर वह टालती रहती है | वैसे भी भाभी के हाथ की बनी कलौंजी में जो स्वाद है वह कहीं और कहाँ ?

    राकेश जब नहाने जाने लगा तब कपड़े निकालने के लिए उसने अपनी अटैची खोली | भइया-भाभी के लिए उसने जो कपड़े लाये थे वे ऊपर ही रखे थे | उसने भाभी के लिए लाई हुई साड़ी को झटककर खोला – हल्के हरे रंग की पूरी साड़ी पर नारंगी रंग के छोटे-छोटे बूटे | वह साड़ी लेकर रसोईघर में आया और भाभी के कंधे पर ओढ़ा कर बोला- ‘ देखो भाभी, कैसी लग रही है ? ...आज यही साड़ी पहनो | ’

    ‘ अरे लल्ला, इतनी अच्छी साड़ी लाये हो ?’ खुश होते हुए भाभी ने कहा | फिर साड़ी को ध्यान से देखते हुए बोलीं, ‘ मुझे हरा रंग पसंद है यह तुम्हे हमेशा याद रहता है | ’

    ‘ कैसी बात करती हो भाभी, यह भी कोई भूलने की बात है ?... जल्दी से इसे पहनो, मैं देखूँ कि मेरी भाभी हरे रंग में अब कैसी दिखती हैं | ’

    ‘ देवर भाभी में क्या चल रहा है ?’ दरवाजे से अंदर आते हुए बड़े भइया ने कहा |

    ‘ कुछ नहीं बड़े भइया ... आपके लिए ये कुरता-धोती लाया हूँ | देखिये कैसा है ?’

    ‘ बहुत अच्छा ... कपड़ा बड़ा मुलायम है ... महंगा होगा ?’

    ‘आपको पसंद आया न ? महंगे-सस्ते की चिंता आप न करें | ’ बड़े भइया की सजल आँखें बता रहीं थी कि वे कपड़ा देखकर बहुत खुश हुए |

    दोपहर का भोजन तैयार था | सब लोगों ने मिलकर भोजन किया | बहुत दिनों बाद तीनों भतीजों के साथ बैठकर भोजन करने का मौका मिला था राकेश को | भोजन के बाद थोड़ी देर आराम करके राकेश गाँव घूमने निकल पड़ा | सबसे मिलते-मिलाते शाम हो गई | जब वह घर पहुँचा तो हल्का अधेरा छा गया था | बाहर दालान के सामने से किसी के बोलने की आवाज आ रही थी | राकेश को लगा सब लोग बाहर बैठे हैं | वह भी वहीं जाने लगा | सहसा उसके कदम रुक गए |

    ‘ शहर के बंगले का क्या होगा जो दादाजी ने बनवाया था ?’ रमेश पूछ रहा है |

    ‘ सब चार भागों में बंटेगा’, बड़े भइया धीरे से बोले |

    ‘और दादी का सोना ?’

    ‘वह भी| ’

    ‘चाचा अगर नहीं माने तो ?’ सुरेश कह रहा है |

    ‘मानेंगे कैसे नहीं ? कभी भाई नहीं समझा, और फिर अपनी पेंशन आदि की जमा राशि भी तो मैं चार भागों में बाँट रहा हूँ | ’ ये बड़े भइया की आवाज है |

    ‘वो तो ठीक है, लेकिन दादाजी की संपत्ति लाखों में है | आपकी जमा राशि से कितना मिलने वाला है उन्हें | ...दादाजी की पूरी संपत्ति के आधे के हिस्सेदार हैं वो | ’

    ‘ मैंने बचपन से उसके दिमाग में यही भरा है कि वह तुम तीनों जैसा ही है | ...पूरी संपत्ति चार भागों में ही बटेगी | ’ बड़े भइया ने दृढ़ता से कहा |

    ‘अगर लल्लाजी ने कह दिया कि आधा हिस्सा मुझे देने के बाद अपने आधे हिस्से में से चार हिस्सा करो और यदि दे सको तो उसमें से एक हिस्सा मुझे दो, तब क्या होगा ?’ अब तक चुप बैठी भाभी ने धीमी आवाज में अपनी शंका व्यक्त की |

    ‘ऐसा कुछ नहीं होगा | वह हमें भगवान की तरह मानता है ... बस तुम लोग बीच में कुछ मत बोलना | मैं सब ठीक कर लूँगा | ’

    बड़े भइया की बातें सुनकर राकेश अवाक् रह गया | प्रेम के जिस तने के सहारे चिपक कर वह अब तक खड़ा था, वह इतना खोखला निकलेगा, उसे पता न था | उसके प्रबल विश्वास का महल धराशायी हो गया | उसे लगा कि वह किसी के शब्द अथवा वाक्य नहीं सुन रहा है अपितु उसके कानों में कोई पिघला हुआ सीसा उड़ेल रहा है जो उसकी समस्त नसों को फाड़ता चला जा रहा है | उसके पैर सुन्न पड़ गए | सारी चेतना न जाने कहाँ लुप्त हो गई | एक कदम भी आगे-पीछे हो पाना उसके लिए मुश्किल है | उसके सुस्त पड़े दिमाग ने धीरे-धीरे बस इतना सोचा, ‘ तो क्या ... बड़े भ ... इ ...या इसलिए ...? उससे ... इ ...त ...ना बड़ा छल !!’

    आशा पाण्डेय

    अमरावती, महाराष्ट्र |

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