अनुराग Mukteshwar Prasad Singh द्वारा क्लासिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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अनुराग

अनुराग
चारों ओर कितने परिवर्तन हो चुके थे। हों भी क्यों नही पूरा एक दशक जो बीत गया था। मुकुन्द डाक्टर बन गया था। जिन्दगी की दौड़ में वह उस मुकाम पर पहुँच गया था, जहाँ पहुँचने की आकांक्षा वह पाल रखा था। बावजूद के काॅलेज उन दिनों की याद बार-बार उसके जेहन में आ जाती थी, और धुंधली यादों के बीच से सुधा का सुन्दर चेहरा घूम जाता था। सुधा का हंसमुख परंतु घमंडी स्वभाव उसे कचोटने लगता। सुधा के व्यवहार के रूखेपन की कल्पना के बावजूद उसके मन में सुधा के लिए तनिक भी जुगुप्सा नहीं थी।अचानक उसके प्रति अप्रतिम प्यार उमड़ पड़ता। पता नहीं ,कहाँ होगी। उसकी शादी भी अब तक हो चुकी होगी। मुकुन्द के मन में एक तड़प और मिलने की उत्कंठा तेज हो जाती।
​ सिर्फ एक बार सुधा को देखने की लालसा बाकी थी। जैसी भी थी, वह भले न सही वह तो उससे प्यार करता था। आज उसी एकतरफा प्यार का नतीजा था कि डाॅक्टर बन जाने के बाद भी उसने शादी नहीं की थी। मुकुन्द के रोम-रोम में सुधा समायी हुई थी।
​मुकुन्द राजधानी एक्सप्रेस के अपने कूपे में जाने के लिए पायदान के सहारे ऊपर चढ़ा ही था कि अचानक उसकी टक्कर एक महिला से हो गयी।मुकुन्द देखता ही रह गया। उसकी निगाह उस महिला के हर अंग को निहार रहा था। सम्पूर्ण शरीर में अजीब स्पन्दन होने लगा।
​ महिला की भी एकटक नज़र मुकुन्द पर टिक गयी थी ।वह कुछ बोलना चाह रही थी, पर अचानक पायदान से डिब्बे के अन्दर घुसने वाले मुसाफिरों की भीड़ के धक्के ने दोनों को डिब्बे के अन्दर ठेल दिया।मुकुन्द के साथ वह महिला भी आगे -पीछे चलकर अपने आरक्षित कूपा में घुसे। दोनों का बर्थ आमने-सामने ही था।
​ धीरे-धीरे बीते लम्हों पर से पर्दा हटने लगा। यादों की धुँधली छाया साफ होने लगी। अचानक मुकुन्द के मुँह से निकला -"तु सुधा है ना।"
दूसरी तरफ वह महिला जो वास्तव में सुधा ही थी। अचानक बोल पड़ी - ’’मुकुन्द"।
हाँ, मैं मुकुन्द ही हूँ, सुधा। कितना बदल गयी हो।लम्बी,छरहरी स्लीम ट्रीम देह कितनी थुल-थुल गोल मेटल हो गयी है। क्या कोई कसरत योगा नहीं करती। तुम्हें तो अपने शरीर की सुन्दरता का पूरा ख्याल रहता था। पर इतनी जल्दी...?
सुधा बात काटती हुई बोली समय के साथ बढ़ती उम्र में चाहने के बाद भी शरीर में स्वत: बदलाव आ ही जाता है। तुम भी तो पहचान में नहीं आ रहे हो। आँखों पर चश्मा जो लग गया है।बाल खिचड़ी हो रहे हैं।
"सब समय चक्र का असर है ,दस साल बीत गये हम दोनों को अलग हुए। अच्छा ये बताओ तुम कहाँ तक जाओगी? अकेली हो या साथ में कोई है ? ’’मुकुन्द ने पुछा। अकेली हूँ दिल्ली जा रही हूँ। मेरे पति वहाँ इंजीनियर है। पर तुम कहाँ..... ? सुधा भी पूछ बैठी।
’’मैं भी दिल्ली जा रहा हूँ। मैं दिल्ली के एक मेडिकल काॅलेज हाॅस्पीटल में डाक्टर हूँ"-मुकुन्द ने बताया।
​ इसी बातचीत के बीच गाड़ी कटिहार स्टेशन से खुल गयी थी। मुकुन्द और सुधा के बीच वार्तालाप जारी था।
मुकुन्द ने बातों के क्रम में
पूछा-’’तुम्हारे पति महोदय तुम्हारे साथ नहीं हैं। तुम अकेली मैके आयी थी क्या...?"
सुधा कुछ देर चुप रही। फिर बोली- उन्हें सिर्फ काम ही काम है। फुरसत ही नहीं मिलती कहीं आने जाने की। इसलिए अकेली सफर करती हूँ। बात का रूख मोड़ते हुए सुधा ने भी पूछ लिया-तुमने शादी की ? तुम्हारी पत्नी कैसी है, क्या करती है ?
शादी ,मत पूछो मेरे जीवन में कई मोड़ पड़े हैं। और हर मोड़ ने मुझे छला है। इसलिए जीवन सूना-सूना हो गया है। ’’शादी"शब्द से भी डर लगता है। बस प्रतीक्षा कर रहा हूँ। अच्छे दिन की।मेरे जीवन में कोई आये या कि न आये। वैसे मैं इस बात से भी पूर्ण आश्वस्त हूँ कि मेरी प्रतीक्षा कभी खत्म नहीं होगी।मुकुन्द भावातिरेक में बहता चला गया।
प्रतीक्षा क्यों नहीं खत्म होगी ?’’ सुधा ने बड़े अपनेपन से पूछा।
क्यों, का जवाब क्या दूँ। सोचता हूँ अब दुहराने से कोई फायदा नहीं। दस वर्षो का लम्बा फासला यही क्या कम होता है। मैं छला हुआ इंसान हूँ।’’
’’क्या मैं नहीं सुन सकती। किसके छल ने तुझे दस वर्षो से तड़पा रहा है ?
’’सुनना चाहती हो, धैर्य है ?’’ मुकुन्द भावुक हो गया।
’’जरूर सुनूंगी’’ - सुधा ने ढृढ़तापूर्वक कहा।
’’अच्छा सुनो। मैं और तुम एक साथ पढ़ते थे। तुम मेरी ’लैब’ मेट थी। धीरे-धीरे तुम्हारी संगति में मुझे तुमसे अनुराग हो गया। पर मैंने प्रकट नहीं होने दिया ।किस तरह ’लैब’ में हाथ छू जाने पर सिहरन पैदा हो जाती थी। मैं उन अनुभूतियों से कुछ उत्तेजित हो जाता था। पर तुममें कोई अन्तर न देख चुप्पी साध लेता था। परन्तु, साथ-साथ रहने का इतना गहरा असर ज़रूर हुआ कि मैं एक तरफा प्यार की आग में जलने लगा। चूँकि मैं तो डाक्टर बनने का अरमान पाल रखा था इसलिए आइ॰ एससी०उत्तीर्ण होने क बाद बैचलर क्लास छोड़कर मेडिकल ’प्री मेडिकल एडमिशन टेस्ट की तैयारी करने लगा। तुमसे दूर हो गया। मैं प्रतियोगिता परीक्षा में सफल हुआ और छह सालों तक मेडिकल काॅलेज और हाॅस्पीटल में पढ़ाई से लेकर हाउस सर्जनशीप पूरा किया। तीन वर्षो से दिल्ली में पदस्थापित हूँ। इस बीच शादी के कई प्रस्ताव आये, परन्तु मैंने ठुकरा दिया। मेरे मन मस्तिष्क में सिर्फ तुम ही तुम थी। पर मैं तुम्हारे मन में कहीं नहीं था। तुम इतनी सुन्दर और मॉड थी कि मुझ जैसे सामान्य रहन सहन वाले सहपाठी पर जरा भी ध्यान केन्द्रित नहीं हुआ। कभी-कभी तुम्हारा यह घमंडी स्वभाव मुझे उद्वेलित भी कर देता था। परन्तु मेरे सपनों की रानी सिर्फ तुम थी। इसलिए चुपचाप तुम्हें प्यार करता रहा।मुकुन्द ने दर्द भरी दास्तान सुनाकर सुधा पर पैनी दृष्टि डाली।
"आज इतने दिनों बाद मुझसे जो कुछ कह रहे हो। क्या पहले कहने की हिम्मत नहीं थी ? अब तो सब कुछ बदल गया। मेरी शादी हो गयी।’’ सुधा की आँखों के कोने से पवित्र प्यार की लहरें आंसू बन ढ़लक गये।
"कहता कैसे ? साथ पढ़ते हुए भी तुमने कभी मौका नहीं दिया। मैंने तुम्हें हर दिन पढ़ा और महसूसा कि तुममें मेरे प्रति कोई आकर्षण नहीं है। चूंकि औरत मन सुन्दरता की पुजारिन होती है। और मैं सुन्दर नहीं था।’’ मुकुन्द ने भावावेश में असलियत सामने रख दी।
सुधा आवाक थी। कुछ क्षण बाद सुधा स्वस्थ होती हुई बोली -’’आज नदी के दो तटों के समान एक दूसरे से दूर हैं।मेरी याद में अब ज़िन्दगी भर तड़पना बेवक़ूफ़ी है।तुम्हें शादी रचा लेनी चाहिए। तुम्हें अपने जीवन को आनन्दमय बनाना चाहिए। यादों के साये में जीवन को वीरान बनाने से क्या फायदा।
"जो सूरत मुझे संबल प्रदान करती रही ,उसकी जगह कोई दूसरी सूरत बन ही नहीं पाती है। यह अंतिम क्षणों तक कायम रहेगी। ईश्वर को किसने देखा है ? फिर भी एक काल्पनिक छवि बनाकर पत्थर या माटी की मूरत बनाकर उसके आशीर्वाद के लिए लोग पूजा अर्चना करते हैं। मैं भी तेरी पूजा अर्चना कर जीवन बीता रहा हूँ।’’ मुकुन्द ने दार्शनिक अन्दाज में समझाया।
’’मुकुन्द तुम्हें शादी करनी होगी। मेरे लिए। अपने मन में बसी मेरी याद के लिए। तुम मान लो कि मैं तुम्हारीं हूँ और तुम मेरी इच्छा को पूरी कर रहे हो। मेरा अनुरोध स्वीकार लो। जब मेरे कारण तुमने भीष्म प्रतिज्ञा कर ली है तब मेरे ही कहने पर प्रतिज्ञा तोड़ दो। उजड़े जीवन को संवारना मेरा कर्तव्य है। ’’सुधा ने अपने सजल नेत्रों को साड़ी के पल्लू से ढ़ंक लिया।
इसी बातचीत के मध्य कब रात हो गयी पता ही नहीं चला।दोनों अपने अपने बर्थ पर सोने का प्रयास करने लगे।
मुकुन्द सुधा के बारे में सोच रहा था। ट्रेन के दिल्ली पहुँचते ही वह उससे दूर हो जाएगी। पता नहीं फिर कब मिलेगी। मुकुन्द का संतोष था कि चलो दस वर्षों बाद ही सही सुधा को अपने दिल की बात तो बता सका। उसके मन का बोझ बहुत हद तक उतर गया था।
उधर सुधा अपनी आंखों और चेहरे को ढांपे बिल्कुल चुप थी। परन्तु, शरीर के हलचल से लग रहा था, वह फफक रही है।.... आंसुओं को बाहर आने से रोकने के परिणामस्वरूप वह बुरी तरह कंपाकंपा रही थी।
मुकुन्द ने सांत्वना दिया। ’’सुधा.......बस ! चुप हो जाओ। मेरे प्रति प्रदर्शित यह स्नेह मुझे नयी जिंदगी दे गया। अब मुझे कुछ नही चाहिए। मेरे अकेलेपन को आज सुकून मिल गया।’’
"मेरा अपनत्व तुम्हें सुकून देता है तो शायद वह तुम्हें सदा मिलता रहेगा। मै, भी आज एक निर्णय की ओर बढ़ रही हूँ। तुम कल मेरे आवास पा आ जाना।’’ सुधा ने अपना पता मुकुन्द को नोट करा दिया।
दिल्ली का सफर लगभग आधा बीत चुका था। रात भी आधी बीत रही थी। मुकुन्द ने कहा -’’सुधा थोड़ा सो लेना चाहिए। सुबह तक दिल्ली पहुँच जाएँगे।"
बातों का सिलसिला रूक गया। दोनों ने अपने चेहरे को चादर से ढंक लिया।हालांकि दोनों की आँखो से नींद गायब थी। फिर भी रात की गहराई में कब नींद आ गई, पता नहीं चल सका। दोनों की नींद तब खुली जब नयी दिल्ली स्टेशन पर यात्रियों के उतरने एवं कुलियों के पुकारने का शोर सुनायी पड़ा।
सुधा एवं मुकुन्द ने अपना-अपना सामान समेटा। एयर बैग में झटपट ठूंस लिया और बाॅगी से नीचे उतर आये ।प्लेटफार्म से बाहर निकलने के बाद वे दोनों कुछ देर मौन रहे। अब दोनों के अलग होने का समय जो आ गया था।
सुधा ने टैक्सी ली। ड्राईवर ने सामान डिक्की में रखा। सुधा ने कार में बैठने से पहले मुकुन्द को मिलने का पुनः निमंत्रण दिया।
मुकुन्द ने अगले दिन आने का वादा कर सुधा को विदा किया। सुधा के जाने के बाद जाती हुई टैक्सी को तब तक देखता रहा जब तक कि वह आँखों से ओझल नहीं हो गयी।
मुकुन्द को सुधा का स्वभाव परिवर्तन अबूझ पहेली के समान लग रहा था। एक दशक बाद तो पुराने मित्रों से बात भी करना आदमी मुनासिब नहीं समझता है। सुधा ने तो आधी रात बातों में बिता दी। फिर अचानक अगले दिन सुधा से मिलने की बेताबी ने उसके तन बदन में बिजली भर दी थी। मुकुन्द का उतावलापन देखने योग्य था। उसने भी टैक्सी इशारे से बुलाया। थैला, व्हील बैग इत्यादि डिक्की में रखा और सफदर जंग के लिए चल पड़े।
दूसरे दिन मुकुन्द पता के सहारे सुधा से मिलने त्रिलोकपुरी स्थित मयूर एपार्टमेंट के फ्लैट नं॰-115 में दाखिल हुआ। सुधा भी मानों उसी का इंतजार कर रही थी। उसने मुकुन्द का गर्मजोशी से स्वागत किया। अन्दर अपने कमरे में बिठाया। चाय-नाश्ता के बाद सुधा ने बातें शुरू की- ’’तुम शादी कर लो मुकुन्द। मेरे कारण तुम अविवाहित नहीं रह सकते। मुझे अभिश्प्त मत बनाओ।"
"इस विषय पर ट्रेन में बहुत सारी बात हो चुकी है। अब दुहराने से कोई फायदा नहीं है।’’ मुकुन्द ने झिड़कते हुए कहा- ’’शादी करने से अगर जिन्दगी और मनहूस हो जाय तो तुम्हीं सोचों, मैं जी सकूँगा ?’’
"किसने कहा कि शादी जीवन को मनहूस बनाता है ? शादी तो जीवन को सरस बनाता है। जिन्दगी जीने की कला सिखाता है। जिन्दगी के प्रति भूख बढ़ाता है। मुझे पाँच वर्षो के अपने दामपत्य का तजुर्बा है।’’सुधा ने कहा।
मुकुन्द सुधा की बातों पर कुछ तेज होता हुआ बोला- ’’तुम बेकार की बहस कर रही हो। बेकार बातों में मेरे मस्तिष्क को उलझा रही हो। कोई अन्य बातें करें हम।’’
तुमने कल कहा था- ’’तुम्हारा अपनत्व मुझे सुकून देता है। क्या तुम नहीं चाहते हो कि यह अपनापन तुम्हें सदा मिलें ?’’
’’मैं तो दस वर्षो से यह चाहत संजोए हूँ। पर यह संभव कैसे होगा। तुम तो शादीशुदा हो। किसी की ब्याहता हो, धर्मपत्नी हो। तुम्हारा अपनापन मुझे क्यों कर मिलेगा।’’ मुकुन्द ने सुधा की बातों पर अविश्वास प्रकट करते हुए कहा।
’’मैं विश्वासभरी बातें कह रही हूँ। यह एक प्रेमी के लिए सांत्वना के ’अल्फाज’ नहीं। बल्कि सच्चाई का तोहफा है। तुम स्वीकार करो तो मैं सदा-सदा के लिए तुम्हारी बन जाउँगी।’’सुधा ने दृढ़ता पूर्वक कहा।
’’नहीं-नहीं ! मैं अपने स्वार्थ पूर्ति के लिए किसी के घर को बर्बाद नहीं कर सकता। मेरी परीक्षा मत लो। इतनी घिनौनी और ओछी हरकत मैं नहीं कर सकता।’’ मुकुन्द ने उठते हुए कहा- ’’मैं जा रहा हूँ। अब शायद मेरी सूरत फिर कभी देखने को नहीं मिलेगी। भला मैं क्यों दूसरे के घर को उजाड़ने लगा।’’
"तुम समझने की कोशिश करो। मेरा घर ज्यों का त्यों आबाद रहेगा। क्या यह खुशी की बात नहीं होगी कि मेरे सानिध्य में तुम सदा खुशी के माहौल में झूमते रहो-सुधा ने जोर देकर कहा।
वह कैसे ?मुकुन्द ने पूछा।
"आज से एक माह पूर्व मेरा पति संजय से तलाक हो चुका है। संजय के एक आफिस सहकर्मी लड़की से प्रेम चल रहा था। मुझसे तलाक लेकर अब उसी से शादी भी कर ली है। मैंने अवरोध पैदा नहीं किया। मैं नये ढ़ग से जीने की तैयारी कर चुकी हूँ। यहाँ अपने बचे खुचे सामान लेने आयी हूँ। आज ही एक बजे गाड़ी से लौटने वाली हूँ।’’सुधा ने सच्चाई पर से पर्दा हटाया।
मुकुन्द ने चौंकते हुए कहा- यह तो अच्छा नहीं हुआ। संजय को इस कदर मुँह नहीं फेरना चाहिए था। पर यह संयोग या मेरे सच्चे प्रेम का चमत्कार है कि भगवान ने हमदानों की भेंट करा दी। तुम ट्रेन में ही मुझे यह सब बता देती तो क्या हो जाता।
डबडबायी आँखों को पोंछते हुए सुधा ने कहा- ’’दस वर्षो बाद अचानक तुमसे मुलाकात हुई। मैं सोच भी नहीं सकती थी कि अब तक तुम मेरी प्रतीक्षा में अविवाहित होगे। मुझे तुम्हारी बातें व्यंगात्मक व झूठी लग रही थी ,जो अक्सर एक वेवफा प्रेमिका से कही जाती है। मैं तुझे अनुभव कर रही थी। सच्चाई की गहराई में टटोल रही थी। प्रेम की प्रगाढ़ता को महसूस कर रही थी। वास्तव में मैं तुम्हारी जरूरत हूँ, यह आभास होने के बाद ही मैंने तुम्हें अपना पता लिखाया और आज बुलाया। जब तुम यहाँ पहुँच गये तब लगा कि अब भी तुम्हारा प्रेम जाग्रत है। ताजा है। मैं तुमसे हार गयी। फलस्वरूप, तलाक की बात कह पायी। वरना ये राज तुम नहीं जान पाते। अब मुझे अपना बना लो, मैं बाँहे फैलाये तुम्हारी राह देख रही हूँ।’’
मुकुन्द और सुधा एक दूसरे के सीने से चिपक गये। आँखों में खुशी के आँसू भरे थे। वर्षो की प्रतीक्षा समाप्त हो गयी। दोनों की विरान जिन्दगी में हरियाली छा गयी।
मुकुन्द ने सुधा के माथे पर हाथ रखकर कहा- ’’अब ये सामान मेरे आवास में जाएँगे तुम्हारे मैके नहीं।
सुधा फफक पड़ी।
मुकुन्द ने सांत्वना दिया- ’’ये समय रोने का नहीं मुस्कुराने और खुशी मनाने का है। सुधा देखो तुम्हारा ’लैब मैट अब लाइफ मैट’’ बन गया है।मेरा प्रेम जीता। मेरी प्रतीक्षा खत्म हुई।

मुक्तेश्वर प्र० सिंह