परसाई महाराज ने अभी कुछ समय पहले ही तो गांव छोड़ा था।मैंने स्वयं उन्हें बहुत समझाया था कि - “महाराज पूरी जिन्दगी तो गाँव में ही गुजार दी है।वैसे भी सभी लोग आपको कितना मान देते हैं और फिर आप चले जाओगे तो गाँव में पण्डिताई का काम कौन करेगा।गाँव में ब्राह्मण का भी तो एक ही घर है।आजकल वैसे भी लोग पण्डिताई का काम छोड़कर नौकरी-धन्धे खोजने लगे हैं।”
तब परसाई महाराज ने कहा था कि- “पण्डिताई में अब रखा ही क्या है! वैसे भी नई पीढ़ी के लोग इसे भिक्षावृत्ति कहने लगे हैं।आज के समय में इस वृत्ति में पहले वाली बात भी कहाँ रह गई है।इससे तो घर चलाना ही मुश्किल हो गया है।अब लोगों में न तो पहले जैसी आत्मीयता रह गई है और न ही वह अपनापन रह गया है।आपस में कितना वर्गभेद खड़ा कर दिया गया है...नफरत की दीवार खड़ी कर दी गई है।तुम्हें तो मालुम है ही कि पिछली बरसात में लगभग पूरा मकान ही ढह गया था।वह तो तुमने पाँच चद्दरों की व्यवस्था करवा दी थी तो एक कमरा लीप-छाबकर जैसे-तैसे तैयार कर लिया और सिर छुपाने की जगह हो गई लेकिन इस स्थिति में कब तक रहा जा सकता है।मकान की सभी दीवारें तो कच्ची हैं,रही-सही भी ढह जाएगी,बाकी हिस्सा तो अभी भी खण्डहर बना हुआ है।अब वैसे भी पण्डिताई का काम उतना सम्मानजनक नहीं रह गया है।पहले की बात अलग थी कि घर-घर जाकर फेरा लगाने और एकम पर्वी या द्वितीया पर्वी कहने पर हरेक तिथि पर आवाज़ सुनकर गाँव के लोग दरवाजे पर दौड़े चले आते थे और सीदा दे देते थे लेकिन अब तो इंतजार करना पड़ता है और किसी-किसी घर से तो खाली हाथ लौटना पड़ता है।बहुत अपमानित सा महसूस करता हूँ।पहले अमावस्या, पूनम और एकादशी तिथि पर फेरा नहीं लगाते थे तो लोग घर आकर दे जाते थे लेकिन अब काफी बदलाव आ चुका है।इसीलिए मन भर गया है और यहाँ गाँव में रहने की इच्छा भी खत्म हो गई है।”
तब मैंने कहा था कि- “फिर भी परसाई महाराज अभी भी गाँव के लोगों की आपके प्रति अथाह श्रद्धा कायम है।उनका सबका आपके ऊपर कितना विश्वास है।जब छतर बाजी की गाय खो गई थी और जब सभी जगह खोजबीन के बाद भी नहीं मिली,तब सभी ने सलाह दी कि परसाई जी से ही पूछना चाहिए और जब आपसे पूछा गया तथा आपने जिस दिशा ,समय और जितनी दूरी पर मिलने की संभावना बताई,वहीं गाय मिली।देवीसिंह के चोरी गये आभूषण भी तो आपके बताये अनुसार ही मिले थे।गाँव वालों का सबका विश्वास है कि आप जो भी बताते हो ,वह सब सही बैठता है और यह सब तो आपके पिताजी परसाई बा के समय से चला आ रहा है।उनको तो लोग देवता कहते थे।वे गाँव में कहीं से भी गुजरते थे तो छोटा हो या बड़ा,सभी उनको धोक देते थे।लोग उनका कितना मान रखते थे।और फिर परसाई माँ की तो बात ही अलग थी।”
तब परसाई महाराज ने कहा था कि- “रामसिंह, बात तो तुम ठीक कर रहे हो।मान- सम्मान तो बहुत मिला लेकिन मान-सम्मान मिलने भर से क्या होता है।महाराज बा न तो ढ़ंग का मकान खड़ा कर पाए और न ही हम सभी की शिक्षा पूरी करवा सके।वह तो बड़े भैया ग्यारहवीं तक पढ़ लिये और शहर जाकर फैक्ट्री में नौकरी से लग गये और छोटे भाई ने भी उनके साथ रहकर थोड़ी बहुत पढ़ाई कर ली और छोटी-मोटी नौकरी पा ली जिसकी बदौलत कम से कम घर चलाने लायक स्थिति में तो आ गए।तीनों बहनों को भी पिताजी कहाँ पढ़ा पाए।उनकी भी जल्दी ही शादी कर दी।हाँ,यह बात जरूर है कि महाराज बा की गाँव में बहुत प्रतिष्ठा थी।वैसे भी गाँव के सभी लोग एक परिवार की तरह रहते आए हैं और एक दूसरे के सुख-दुख में सहभागी रहे हैं।शायद इसीलिए शादी-ब्याह में कोई परेशानी नहीं आई लेकिन अब गाँव में भी राजनीति इस कदर हावी हो गई है कि गुटबाजी और मतभेद बढ़ते चले जा रहे हैं।यह तो ठीक है कि हमारी बचपन की दोस्ती है लेकिन क्या तुम्हारे मन में भी ब्राह्मणों के प्रति विष भाव उत्पन्न नहींं हुआ है।”
तब मैंने कहा भी था कि- “महाराज कैसी बात कर रहे हो!कभी आपको इस बात का मैंने या मेरे परिवार के लोगों ने एहसास भी होने दिया।वैसे भी आपके हमारे सम्बन्ध बचपन की दोस्ती के रहे हैं तथापि पीढ़ियों से हमारे परिवारों के सम्बन्ध चले आ रहे हैं।कभी ऐसी बात तो नहीं हुई कि कहीं मनोमालिन्य उत्पन्न हुआ हो।हमने भी जितनी दूरी बनाकर रखना थी,वह सदैव रखी।कभी अपनी सीमा और मर्यादा का उल्लंघन नहीं किया।धार्मिक आस्था और विश्वास कायम रखने तथा आपके ज्ञान और पवित्रता का मान रखने के लिए जो भी बन पड़ा,वह किया ही तब यह बात आपके मन में कैसे आ गई!”
तब उन्होंने कहा था कि- “रामसिंह ऐसी बात नहीं है।तुम मेरी बात को गलत ले रहे हो।व्यक्तिगत रूप से कहीं मनभेद की स्थिति नहीं है।मूल बात यह है कि सरकार जो सुविधा तुम लोगों को दे रही है, यदि वह सुविधा हमारे समाज के गरीब तबके को भी मिलती तो हमारा जीवन स्तर भी सुधर जाता।तुम्हें तो मालूम ही है कि मैं अपनी तीनों बेटियों को ज्यादा पढ़ा लिखा नहीं पाया। मेट्रिक से आगे वे पढ़ नहीं पाई या यूं कहें कि मैं उन्हें आगे पढ़ा नहीं पाया।उनको कॉलेज तक जाने का मौका ही नहीं मिल सका।मजबूरन उन तीनों की शादी कम उम्र में ही कर देना पड़ा।तुम्हारी भाभी का इलाज भी कहाँ ठीक से करवा पाया।उसने भी तो सरकारी दवाखाने में दम तोड़ दिया था।मेरी हैसियत नहीं थी कि किसी अच्छे प्रायवेट दवाखाने में उसका इलाज करवा लेता और फिर सरकारी सहायता में हमारा वर्ण आड़े आ गया था।कहने को हम उच्च वर्ण से हैं लेकिन हमारी माली हालत भी तुमसे कहाँ छुपी है।किन्तु उन्हें कौन बताये कि गरीबी का कोई वर्ण नहीं होता!बस दुनिया में अमीरों का एक वर्ग होता है और दूसरा वर्ग गरीबों का।लेकिन इस बात को राजनीति के ठेकेदारों को कौन समझा सका है।हमें ही तो आपस में एक दूसरे से लड़वाकर दूर करते चले जा रहे हैं।”
तब मैंने उनकी बात से सहमत होते हुए कहा था कि- “सही कह रहे हो परसाई महाराज!हमारे वर्ग में भी सभी को यह लाभ कहाँ मिल पा रहा है।आजादी के इतने वर्षों के बाद भी अधिकांश लोगों की स्थिति वहीं के वहीं है।जहाँ तक आपसी मनमुटाव की बात है, पुरानी पीढ़ी के लोग तो इस बात को समझते हैं लेकिन नई पीढ़ी के मन में इतना जहर भर दिया है कि अब यह वर्ग भेद मिटाना आसान भी नहीं है।”
“तब तुम ही बताओ कि क्या ऐसी स्थिति में अब गाँव में रहना उचित है!धीरे-धीरे नई पीढ़ी में पण्डिताई के प्रति मखौल का माहौल बनता जा रहा है।शहरों की बात अलग है।वहाँ पण्डिताई का व्यावसायिकरण हो गया है और वे अच्छी स्थिति में हैं।फिर भी मनभेद तो बढ़ा है।कुछ नेता पुरानी व्यवस्था को मनुवादी व्यवस्था का नाम दे रहे हैं लेकिन तुम खुद देख रहे हो कि हमारी तुम्हारी स्थिति में कहाँ अन्तर है!क्या हम तुम्हारा शोषण कर रहे हैं!पुरानी धार्मिक व्यवस्था तो पीढ़ियों से स्थापित होकर चली आ रही है।कहीं कोई घटना घटित हो जाती है तो इस बिना पर सम्पूर्ण सामाजिक तानेबाने को दोष देना कहाँ तक उचित है।”परसाई महाराज ने अपना दर्द बयां किया था।
“हाँ,बात तो ठीक है महाराज!भेदभाव तो हमारे साथ भी हुआ है।लेकिन जब तक जातिवादी व्यवस्था समाप्त नहीं हो जाती,यह भेदभाव मिटना मुश्किल है।जाति ही उपजातियों में बंटी हुई है और उनमें ही आपसी भेदभाव है।पहले यह भेद तो मिट जाए।वैसे ज्यादा दुखद स्थिति अमीर-गरीब के भेदभाव की है।जब तक आर्थिक विषमता विद्यमान है तब तक सामाजिक विषमता दूर करना सम्भव नहीं है।इस दिशा में ईमानदार प्रयास नहीं हो रहे हैं और हमें ही आपस में लड़ाये जा रहे हैं लेकिन क्या इसका हल गाँव छोड़ देना है।”मैंने उनसे प्रश्न किया था।
“नहीं रामसिंह यह बात नहीं है।मूल कारण यह है कि गाँव में हमारी तुम्हारी स्थिति एक समान ही तो है।अब गाँव में पण्डिताई पेट भरने का जरिया नहीं रह गया है और फिर उम्र की ढलान पर भी हूँ।शहर में ज्योतिष के ज्ञान से रोजी-रोटी की समस्या हल हो जाएगी और फिर बेटियाँ भी चाहती हैं कि गाँव में अकेले रहने से अच्छा है कि उनकी देखरेख में उनके साथ ही रहूँ।”परसाई महाराज ने कहा था।
इस वार्तालाप के कुछ समय बाद ही तो वे गाँव छोड़कर चले गए थे।गाँव वालों ने भी बहुत अनुनय विनय की थी।गाँव से जाने के बाद उन्हें वापस बुलाने के लिए गाँव के प्रतिष्ठित लोग भी तो गये थे लेकिन वहाँ जाकर पता लगा कि परसाई महाराज बीमार हैं और सरकारी दवाखाने में भर्ती हैं। उन लोगों को टालने की गरज से यह आश्वासन दे दिया था कि स्वस्थ्य होते ही वे गाँव लौट जायेंगे लेकिन जैसा कि उन्होंने मुझे बताया था कि उनके मन में भी यह टीस अवश्य ही थी कि शहर आकर कहाँ उन्हें अच्छा लग रहा था और फिर भला जड़ो से कटकर कोई कहाँ अपना अस्तित्व बनाये रख सका है।
इसके बाद उनकी बीमारी बढ़ती गई और स्थिति गम्भीर होने लगी।खुद का होश भी न रहा।कितना समय बीत गया,उन्हें पता ही नहीं चल पाया।वह तो जब होश आया तो पता चला कि शहर के बड़े प्राइवेट अस्पताल में हैं और अब स्थिति में काफी सुधार है।इसी स्थिति में उन्होंने मुझे अस्पताल में अपने सामने ही पाया।मैंने ही उन्हें बताया कि जब उनके बीमार होने की खबर मिली तो सारे गाँव के लोग एकत्रित हो गए और यह जानकर तो सबके दुख की सीमा न रही कि जिस सरकारी दवाखाने में परसाई जी की पत्नी ने दम तोड़ा था,उसी सरकारी दवाखाने में अभावों के बीच परसाई महाराज का भी इलाज चल रहा है तो गाँव के सभी लोगों ने बिना वर्ग और वर्ण भेद के यह निश्चय किया कि परसाई जी का इलाज किसी अच्छे अस्पताल में ही करवाया जाए।जितना भी पैसा लगेगा, गाँव के सभी लोग मिलकर वहन करेंगे।इस निश्चय के साथ गाँव के प्रमुख लोग जिला अस्पताल पहुँचे थे और परसाई जी के परजनों की सहमति से उन्हें शहर के सबसे बड़े अस्पताल में भर्ती करवाकर बेहतर उपचार की व्यवस्था करवाई गई।पन्द्रह दिवस के उपचार के बाद ही वे बेहतर स्थिति में आ पाए थे।
मुझसे यह सब जानकर परसाई महाराज की आँखों से अश्रुधारा बह निकली।उन्हें शायद अपनी गलती का अहसास हो गया था कि पण्डिताई वृत्ति नहीं कर्म है और उन्हें कर्तव्य पथ से विमुख नहीं होना चाहिए।अतः वे ग्राम्यजनों के प्रेम और स्नेह के प्रति कृतज्ञता और आभार प्रकट करने के साथ गाँव वापस लौटने के अपने निश्चय से मुझे अवगत करा रहे थे।