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बंद हो चुकी खिड़की

बंद हो चुकी खिड़की

आज बत्तीस साल के बाद उससे सामना हुआ था।पहले तो सोचा भी कि उसके सामने नहीं जाऊं। फिर भी मन के किसी कोने में कहीं कोई दबी-छुपी ख्वाहिश मुझे उसके सामने जाने को विवश कर रही थी।मैं देखना चाह रही थी कि अब इस उम्र में वह कैसा दिखाई देता होगा,शायद उसके सिर के बाल भी उड़ चुके होंगे,कंधे भी झुक गए होंगे और उसकी पत्नी अलका भी तो अब बुढ़ा गई होगी।

मैं यह भी सोच रही थी कि जब मैं उसके सामने जाऊंगी,तब वह मेरे बारे में क्या सोच रहा होगा।शायद उसके जेहन में भी यही बात हो और वह भी मेरे बारे में यही सोच रहा होगा कि मैं भी बुढ़ा गई होगी।चेहरा झुर्रियों से भर गया होगा लेकिन मैं जानती हूं कि मुझे देखकर उसे आश्चर्य ही होगा , क्योंकि शुरू से ही मैं अपने खानपान और दिनचर्या पर ध्यान देती आई हूं। मैंने अबतक अपना पूरा ध्यान रखा है। मैं बचपन से ही योग करती रही हूं और हमें पापा ने ही तो ढ़ाला है…वे ही हमारे खानपान का भी पूरी तरह से ध्यान रखते थे।यही कारण रहा कि मैं अपने फिगर को मेंटेन किए हुए हूं।भले ही साठ पार कर लिए हों लेकिन लोग मुझे पैंतालीस-पचास से अधिक की नहीं कहते। हां, राजीव इस मामले में बहुत अधिक लापरवाह रहे हैं और इसीलिए उनपर उम्र का असर कुछ ज्यादा ही दिखाई देने लगा है…सिर के बाल तो साथ छोड़ ही चुके हैं,मुटिया गए सो अलग…कितनी भद्दी तोंद लिए घुमते हैं। मैं तो ठीक बेटियां भी टोकती रहती हैं लेकिन उनकी सेहत पर इससे कोई फर्क नहीं पड़ता।

हां तो बात कर रही थी उसके आने की। पूर्व तक उसके बारे में, मैं यही सोच रही थी कि क्या वह आज भी उसी तरह लोगों की निगाह बचाकर चोरी-चोरी और चुपके से मेरी ओर देखेगा और आंख मिलते ही झेंपकर नजरें चुरा लेगा या अब संभव है कि उसे मुझमें कोई दिलचस्पी नहीं रही हो और यह भी संभव है कि मेरे प्रति कोई आकर्षण भी नहीं रहा हो।शायद शादी हो जाने और घर-गृहस्थी में लग जाने के बाद हर किसी के साथ यही होता होगा कि कौन किसे याद रखे…लेकिन यह भी हो सकता है कि वास्तविक जिंदगी में ऐसा होता नहीं हो।दिल के किसी कोने में ऐसे लोग जगह बनाएं रखते हों।

मेरे मन की उथलपुथल शायद कह रही थी कि शुरू-शुरू का आकर्षण,मेलजोल ही पहला और सच्चा प्यार होता है।या फिर यह कच्ची उम्र का अस्थाई या कहें अस्थिर झुकाव होता है जो समय के साथ वास्तविकता के धरातल पर ला पटकता है। फिर मन के कोने से एक आवाज सी आई कि क्या यह सही है!

मुझे वह समय याद आ रहा था जब हम लोग एक मोहल्ले में रहते थे, हमारे मकान भी आमने सामने ही थे,तब क्या हमारा एक दूसरे के प्रति ऐसा कोई रिश्ता बन गया था,जिसे दूर होने के बाद भी याद रखा जा सके या फिर यह क्षणिक लगाव था!आज जब वह सामने आया तो अपनी पिछली जिंदगी फ़्लैश बैक की तरह मेरे सामने से गुजरने लगी थी।

हम लोग बचपन से ही तो एक दूसरे को जानते रहे हैं। मोहल्ले के सभी बच्चे हिलमिलकर खेलते थे।शायद उस दौर में टीवी नहीं थे, मोबाइल नहीं थे। टेलीफोन और दोपहिया वाहन भी गिने चुने लोगों के पास रहते थे। इसीलिए पास-पड़ोसियों में आपसी घरोपा भी रहता था,मिलने-जुलने के अवसर खोजे जाते थे या अवसर उत्पन्न किए जाते थे।तब कोई किसी के भी घर में बिना रोक-टोक के बेतकल्लुफी से चला जाता था और किसी को कोई शिक़ायत भी नहीं रहती थी । एटीकेट्स की बात तो अब कही जाने लगी है और आपसी अविश्वास के चलते ऐसी बातें अब चलन में आने लगी हैं।जब हम छोटे थे तब वह भी तो हमारे घर में मोहल्ले के अन्य बच्चों के साथ यूं ही खेलने चला आता था और मैं भी तो जाती रहती थी। हां,अन्य बच्चों की तुलना में वह मुझे ज्यादा अच्छा लगता था क्योंकि वह सादगी पसंद, शर्मीला और अन्तरमुखी था।आगे चलकर भी उसका स्वभाव ऐसा ही रहा।

हां,हम लोगों का एक दूसरे के घरों में आना-जाना जरूर कम हो गया था। लेकिन पढ़ाई में हमारी काम्पीटिशन चलती रहती थी। नगर में एक ही कालेज था। कालेज का समय भी एक ही था। कालेज भी पैदल ही जाते थे,तब कहां घरों में एक से अधिक साइकिल या दो पहिया वाहन होते थे। कालेज के लिए निकलने की बात हो या घर पर पढ़ाई की बात,जब भी मैंने देखा,उसकी निगाहें मेरे घर की ओर ही दिखाई दी।अब यह संयोग रहता था या उसकी चाहत मैं समझ ही नहीं पाई और न ही उसने कभी कुछ कहा।जाने-अनजाने मेरी भी नजरें उसके घर की ओर चली जाती थीं…हम लोगों की निगाह इस बात पर भी रहती थी कि किसके कमरे की लाइट पहले बंद होती है। उसके घर के अगले कमरे की खिड़की हमेशा खुली रहती थी और मेरे घर की भी, जिनमें पर्दे का कोई काम नहीं था।इस चक्कर में देर रात तक पढ़ने और सुबह भी जल्दी उठकर पढ़ने की प्रतियोगिता…शायद एक दूसरे में ऐसी काम्पीटिशन की भावना से हम दोनों ने ही उपलब्धियां हासिल की थीं और वह प्रशासनिक अधिकारी बन गया और मुझे कालेज में नौकरी मिल गई।

हम लोगों में कहीं कोई लगाव था, आकर्षण था,यह तो मैं भी नहीं समझ पाई और न ही कह पाई और न ही उसकी ओर से कोई पहल हुई। बाद में उसकी शादी भी हो गई और दो साल के बाद मेरी भी शादी हो गई …दोनों की ही अरेंज्ड मैरेज और शादी के बाद मैं मुंबई चली गई…वहीं से राजीव के साथ आस्ट्रेलिया चली गई। बाद में कहीं उसके बारे में ख्याल आया या नहीं, या आया भी हो तो… ! खैर, वह भी अपनी घर-गृहस्थी में लग गया था और मैं भी।

अब इतने बरसों के बाद जब पिताजी नहीं रहे और मैं राजीव के साथ आस्ट्रेलिया से वापस आई तब मुझे यह मालूम नहीं था और न ही यह सोचा था कि वह भी आएगा। संभवतः मैं तो अपने पति,दो बेटियों के साथ इतनी घुल मिल गई कि अपनी घर गृहस्थी में बाकी सब बातें भूल चुकी थी। मैंने भी कहां अपनी स्मृतियों में उसे बसाकर रखा था…नहीं, नहीं…शायद ऐसा नहीं था!कभी तो अपने स्कूल-कालेज के दिनों के साथ उस समय के अपने संगी साथियों सहित उसके बारे में भी ख्याल तो आ ही जाता था।तो क्या मैं तब उससे प्रेम करने लगी थी! नहीं-नहीं,वह कोई प्रेम नहीं था।उस जमाने में कहां इस तरह की बातों की जगह होती थीं । वर्तमान दौर जैसा तो कुछ है नहीं।कोई अपने मन की बात को बरसों तक छुपाकर भी कहां रखता है और वैसे भी आजकल का आकर्षण आत्मिक न होकर दैहिक अधिक है…अरे, मैं भी कहां ये फालतू की बातें सोचने बैठ गई।

यहां घर पर तो रोजाना ही मिलने-जुलने वाले इतने लोग आ जा रहे थे कि अब तो सबको अटैंड करते-करते घबरा से गए थे।सबके वही एक से प्रश्न और वही सब हर आने वाले के सामने जवाब के रूप में दोहराना! लेकिन सामाजिकता का तकाजा है तो निभाना ही पड़ता है।

कैसे क्या हो गया...अभी कुछ दिनों पूर्व तक तो भले चंगे थे...मेरी उनसे आठ-दस दिन पहले ही तो बात हुई थी...क्या वे बीमार थे...कभी बीमारी का जिक्र भी नहीं किया…लगता नहीं था कि एकदम से ऐसे चले जाएंगे...अरे, विश्वास ही नहीं हो रहा है कि वे नहीं रहे! लगता है कि यहीं कहीं आसपास ही हैं। मुझसे तो उनका बहुत गहरा नाता रहा है…जब भी आता था तो बगैर चाय पिलाए कभी जाने नहीं देते थे।

भला अब ऐसी बातों पर क्या प्रतिक्रिया देते। मुझे लोगों की बनावटी बात पर बहुत गुस्सा भी आता लेकिन मम्मी की ओर देखकर चुप रह जाती।मम्मी कभी-कभी उन लोगों की बात सुनकर आंखों से दो आंसू जरूर टपका देती हैं…भला अब बेचारी वह बोले भी तो क्या बोले।अब तो उनके आंसू भी सूखने लगे हैं। मैं जानती हूं कि वृद्धावस्था में जीवन साथी ही सही रूप में दुख-दर्द का साथी रहता है वरना तो बच्चों के पास कहां समय रहता है कि अपने माता-पिता के दर्द, अकेलेपन को बांट सकें।वैसे उनकी अपनी मजबूरी रहती है।अब खुद सीनियर सिटीजन होने पर इस बात का अहसास होने लगा है।अब मम्मी की उम्र भी तो अस्सी पार की हो चुकी है।उनके अहसासों को मैं समझ रही हूं। मम्मी की तकलीफ़ मुझसे देखी भी नहीं जाती है।कैसे तो मम्मी-पापा बाहर बरामदे में बैठकर हंसी-मजाक करते रहते थे और अब मम्मी की यह उदासी…यह खामोशी।जानती हूं कि दर्द तो सीने के अंदर ही दफन रहता है…कभी-कभी तो उफ़ान मारता ही है। आखिर आंखों के रास्तों से कब तक गुजरता रहेगा। इसीलिए शायद मम्मी की आंखें अब शून्य में ज्यादा टिकी रहती हैं।उनका दर्द हम लोगों से भी कहां देखा और सहा जा रहा था।सच भी है कि एक औरत के लिए विवाह के बाद पति का बिछोह सबसे ज्यादा त्रासदायी घटना होती है। बहरहाल यही सब सोचकर हम लोग बात बदलने के लिए अवसर खोजते लेकिन लोग हैं कि बातों को कुरेदते और हम लोगों को आहत करते जाते।एक आकर गया नहीं कि दूसरा आकर दरवाजे पर दस्तक दे जाता।

लेकिन आज जब वह सामने आया तो मैं यह भूल गई कि पापा के गुजर जाने का दुख हम सब पर भारी पड़ रहा है। उनके बिछोह की बात घर के लोग स्वीकार ही नहीं कर पा रहे हैं। मैं भी तो आस्ट्रेलिया से आ गई थी। हालांकि राजीव भी अब रिटायर होकर आराम ही कर रहे थे।कहते भी हैं कि बहुत काम कर लिया,अब तो भाई आराम ही करूंगा। दोनों बेटियों की शादी भी हो गई थी और वे आस्ट्रेलिया में ही सैटल हो गई थीं। मैंने सोचा भी था कि अब तो चलकर इंडिया में ही रहेंगे और खास बात यह थी कि पापा भी चाहते थे कि मैं वापस इंडिया आकर उनके साथ ही रहूं। हां, राजीव नहीं चाहते थे कि वापस इंडिया लौटा जाए।एक तो कारण यह था कि दोनो बेटियां आस्ट्रेलिया में ही रह रही थीं।और दूसरा राजीव को इंडिया में और खासकर मेरे शहर धार में आकर रहना पसंद भी नहीं था। स्पष्ट रूप से तो कभी नहीं कहा लेकिन जब भी मैं धार जाने की बात करती थी तो उनकी अकुलाहट बढ़ जाती थी, इसीलिए राजीव के मन की बात ही मानना पड़ी। बहरहाल, कुछ देर की औपचारिक मुलाकात के बाद जब वह लौट रहा था,तब शायद उसके मन में भी कोई भाव नहीं दिखाई दिया और मेरे मन पर भी कोई बोझ नहीं रहा। संभवतः उम्र के साथ इंसान अधिक परिपक्व हो जाता है और दुनियादारी की समझ भी आ जाती है।शायद दिलों की खिड़कियां बंद हो चुकी थीं और अब… पापा की तेरहवीं के बाद मुझे भी तो आस्ट्रेलिया ही लौट जाना है।

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