सवाल Dr pradeep Upadhyay द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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उसे अपना बीता कल याद आ रहा था जब लोग उसके भाग्य से ईर्ष्या करते थे। शादी के बाद वह बड़े-बड़े बंगलों में रही ,उसके पति दीपक बड़े सरकारी अफसर जो थे।इसलिए जहाँ भी ट्रांसफर होकर गये,बड़े बंगले और नौकर चाकर मिलते रहे लेकिन अब जिन्दगी के अंतिम पड़ाव पर उसे यह दस बाय दस का छोटा सा कमरा भी बड़ा लगने लगा है क्योंकि न तो कोई ख्वाहिश शेष बची है और न ही कोई उमंग !धीरे धीरे सारे नाते-रिश्ते भी बेगाने से लगने लगे हैं। वह कितनी हँस मुख, खुशमिजाज,वाचाल और मिलनसार थी लेकिन आज के हालात में उसको देखकर कोई कह ही नहीं सकता था कि यह वही कल्पना है जिसके चेहरे पर कभी कोई शिकन नहीं रहती थी।लेकिन क्या हुआ कि वह इतनी चिड़चिड़ी हो गई है।बात-बात पर भड़क जाना और कोई यदि मिलने भी आता तो टाल देना या फिर उसके सामने गुमसुम बैठे रहना।

शायद शरीर ने जवाब देना शुरू कर दिया था और बीमारियों ने घेर लिया हो ..इस कारण से! वैसे भी आर्थराइटिस की समस्या कोई छोटी-मोटी समस्या तो थी नहीं और फिर मौसम की मार अलग इस ढ़लती उम्र में और फिर उसपर अकेलापन।सबसे ज्यादा तो अकेलापन ही इंसान को दीमक की तरह खा जाता है।

उसे देखकर कोई भी क्या यह कह सकता है कि यह वही कल्पना है जो एक समय दौड़-दौड़ कर सारे काम चुटकियों में यूं ही कर लिया करती थी।उसे फुर्सत में बैठना तो पसंद ही नहीं था।उसमें बिजली की सी फुर्ती थी।बचपन से ही उसे सक्रिय रहने की आदत सी हो गई थी।पाँच भाई-बहनों में हालांकि वह दूसरे नम्बर पर थी लेकिन काम-काज के मामले में पहले नम्बर पर ही रहती थी।

अपने माँ-बाबूजी की लाड़ली भी रही और इसीलिए बाबूजी के ऑफिस जाने के पहले ही टिफिन तैयार करवा देने का काम हो या छोटी बहनों के नाज-नखरे उठाते हुए उन्हें स्कूल भेजने का काम ,वह हमेशा तत्पर रहती थी,अपनी माँ के काम में हाथ बँटाने के लिए।भाई-बहनों की गलतियों को छुपाने और उन्हें डाँट से बचाने मे भी तो वह आगे रहती थी। हाँ,पढ़ने-लिखने में उसका मन ज्यादा नहीं लगता था लेकिन स्कूल की अन्य गतिविधियों में वह बढ़-चढ़कर हिस्सा लेती थी।

उसने बारहवीं की परीक्षा पास की ही थी कि उसके ब्याह की बात आ गई थी।रिश्ता भी ऐसे नामी परिवार से जहाँ ना करने की गुंजाइश ही नहीं समझी गई, हालांकि वह इतनी जल्दी शादी के पक्ष में नहीं थी।जब उसके रिश्ते की बात आई थी तो कह दिया गया था कि शादी शीघ्र से शीघ्र करना है।उसके बाबूजी ने तब कहा भी था कि शादी की तैयारी के लिए कुछ तो समय दीजिए तब वरपक्ष की ओर से कह दिया गया कि हमें दान-दहेज में कुछ नहीं चाहिए, बस बारातियों का स्वागत ठीक तरह से हो जाए।इसके बाद तो तैयारी करने के अलावा कोई रास्ता ही शेष न था।कच्ची उम्र में ही तो उसकी शादी हो गई थी।

वह अपने मायके में तो छोटे से किराए के मकान में रही थी लेकिन ससुराल में आलीशान मकान और नौकर-चाकर का सुख मिल गया।सास-ससुर का बहुत लाड़-प्यार मिला।हाँ,बचपन से ही सक्रियता और घर-गृहस्थी के काम आगे रहकर करने की आदत के कारण वह हर किसी की चहेती भी हो गई थी।चाहे नाना परिवार हो या दादा परिवार, वह सबकी आँखों का तारा रही।उन दिनों स्कूलों में गर्मियों की दो माह की छुट्टियाँ लगती थीं।दोनों ही परिवार चाहते थे कि वह ज्यादा से ज्यादा उन लोगों के साथ रहे।सभी बच्चों में उसकी पूछ-परख ज्यादा थी।शादी के बाद भी तो प्रत्येक अवसर पर उसे बुलाया जाता था और वह किसी को मना भी नहीं कर पाती थी।इससे उसके दाम्पत्य जीवन पर भी प्रभाव पड़ने लगा था ।दीपक भी तो नाराज हो जाते थे।न केवल मायके तरफ के रिश्तेदार बल्कि ससुराल पक्ष के रिश्तेदार भी उसी की पूछ-परख करते थे ।उसके बार-बार मायके के रिश्तेदारों के यहाँ होने वाले कार्यक्रमों में बुलाए जाने की वजह से दीपक चिढ़कर बोलते भी थे कि मंगल कार्यक्रमों में तुम्हें अपने स्वार्थ के कारण बुलाया जाता है।तब उसे गुस्सा भी आता था और पलटकर वह जवाब भी दे देती थी कि तुम्हें क्या मालूम कि मेरे मायके और रिश्तेदारी में मेरी कितनी पूछ-परख है।तब दीपक कहते भी थे कि देखना जब तुम्हें उनकी जरूरत पड़ेगी, कोई काम नहीं आने वाला है,कोई तुम्हें समय नहीं देने वाला है क्योंकि किसी के पास समय ही नहीं होगा तुम्हारे लिए।

दीपक जबसे सरकारी नौकरी करने लगे थे,हमेशा निराशावादी बातें ही करते थे।यह उनका स्वभावगत दोष ही था या उनकी आदत में शुमार हो गया था।उनका मानना था कि हर कोई स्वार्थी है और अपना काम निकलवाता है जबकि दूसरी ओर वह पूरी तरह से आशावादी थी और सभी में अच्छाई ही पाती थी।कभी दूसरों की कमियों की ओर उसका ध्यान ही नहीं जाता था क्योंकि उसका स्वयं का दृष्टिकोण सकारात्मक जो था।

लेकिन इंसान का समय और शरीर कब तक साथ दे सकता है।उसके शरीर ने भी धीरे धीरे जवाब देना शुरू कर दिया।उसे उम्मीद थी कि जिस तरह से उसने अपने सास-ससुर और बुजुर्गों की सेवा की है, उसे भी ईश्वर ऐसा ही प्रतिफल देगा।वृद्धावस्था में उसे कोई काम नहीं करना पड़ेगा और बहू-बेटे पलकों पर बैठाकर रखेंगे।किन्तु धीरे धीरे उसे सब समझ में आने लगा था कि नहीं ,वही गलत थी।उसकी अपेक्षाएँ समयानुकूल नहीं थीं।दीपक जो कहते थे,आजकल की दुनिया ठीक वैसी ही है, स्वार्थी-कपटी! सब अपने बारे में सोचने वाले!

जब उसका शरीर टूट रहा होता ,तब भी उसे सांत्वना भरे दो शब्द कहने वाला उसके पास कोई नहीं था।बेटे-बहू के पास तो जैसे समय ही नहीं था,वे अपनी नौकरी चाकरी से ही कहाँ फुर्सत पा रहे थे।उसकी देखभाल के लिए एक आया जरूर रख छोड़ी थी जो समय-समय पर आकर देख जाया करती थी।बेटे-बहू काम से लौटने के बाद कभी पाँच-दस मिनट के लिए आ जाते थे और हालचाल पूछ लेते थे और कभी तो उन्हें इस बात की भी फुर्सत नहीं होती थी।जब इस बारे में बेटे-बहू को शिकायत भरे लहजे में कहा तो सास-बहू वाली बात बीच में आ गई।तब उसने चुप रहना ही ठीक समझा।रात-रात भर हाथ-पैरों में असहनीय दर्द रहता था,तब वह अपनी वेदना किसी को कह भी तो नहीं सकती थी क्योंकि अपनो का दर्द अपने ही समझ सकते थे लेकिन अपनों के पास भी इसके लिए समय ही कहाँ था!उस दौरान उसे वह समय भी याद आ जाता था जब वह अपनी नानी सास की उनकी बीमारी की अवस्था में शरीर की मालिश कर हाथ-पैर दबा देती थी और बदले में वे यह आशीष देती थीं कि कल्पना तुझे भी ऐसी बहू मिलेगी जो तेरी बहुत सेवा करेगी।मायके में भी तो उसने अपनी दादी-नानी की बहुत सेवा की थी।सभी ने बहुत आशीष दिये थे।लेकिन उनके आशीर्वाद क्यों नहीं फले,यह विचार हमेशा ही उसके खयालों में आते रहते थे।

उसने एक बार यह भी बताया था कि जब दीपक जीवित थे तो उन्होंने बेटे के विवाह के लिए पढ़ी-लिखी बहू लाने का विचार रखा था।उनका कहना था कि बेटी-बहू दोनों ही अपने पैरों पर खड़ी रहे,यही ज्यादा ठीक है।घर गृहस्थी के कामों में अपनी जिन्दगी खपा दे ,तब भी स्त्री को कहाँ यश मिल पाता है।शायद उसने भी यही सोचकर दीपक की बात का समर्थन किया था लेकिन जब वह स्वयं शारीरिक रूप से असमर्थ हो गई और उसका ध्यान रखने वाला कोई न रहा,न ही उससे बात करने के लिए किसी के पास समय था और न ही उसके दुख दर्द देखने-समझने की किसी के पास फुर्सत थी तब उसे यह सब बातें रह-रहकर याद आती थी।नाते-रिश्तेदारों ने भी दूरी बना ली थी तब उसके जेहन में यही सवाल आता था कि उसने लोगों की खुशी के लिए अपने स्वास्थ्य का भी ध्यान नहीं रखा ,अपने परिवार से ज्यादा नाते-रिश्तेदारों को समय दिया तो क्या वह गलत थी ?