यह पहली बार हुआ था कि किसी के बिछोह ने मुझे पूरी तरह से झकझोर दिया ।आज उनकी चिठ्ठी मेरे हाथों में थी और आँखों से झर-झर आँसू बह रहे थे।वैसे तो मुझे इस वृद्धाश्रम में आये बीस वर्ष हो गए थे, पच्चीस वर्ष की अवस्था में मेरी नियुक्ति सहायक के पद पर हुई थी और आज मैं प्रबन्धक के रूप में यहाँ का कामकाज देख रहा हूँ।मैंने पूर्ण सक्रियता और समर्पण के साथ यहाँ का काम देखना प्रारम्भ किया था जिसका परिणाम यह हुआ कि आसपास के क्षेत्र के लोग भी अब इसी वृद्धाश्रम को प्राथमिकता देने लगे थे।
कितना विस्तार हुआ था पिछले दिनों में,कई सामाजिक संगठनों को भी तो जोड़ लिया था।आर्थिक सहायता भी पर्याप्त मिलने लगी थी जिससे वृद्धाश्रम में रहने वाले सभी वृद्धजनों का भी अच्छी तरह से ध्यान रखा जा सकता था और उसी के अनुरूप रख भी रहे थे।
हाँ,यह बात अलग है कि कई लोग वृद्धाश्रम में आकर फल वितरण,वस्त्रादि वितरण का जब नाटकीयता और औपचारिकता पूर्ण प्रदर्शन करते थे तब बड़ी ही कोफ्त होती थी,किन्तु क्या किया जा सकता है।जब संस्था को चलाना है तो इस तरह के लोगों को, सामाजिक,राजनीतिक संगठनों के ऐसे व्यवहार को भी सदाशयतापूर्वक सहन करना ही पड़ता है। दस सदस्यों से प्रारम्भ वृद्धाश्रम आज सौ सदस्यों की संख्या तक ऐसे ही नहीं पहुँच गया था।इसके लिए कड़ी मेहनत की थी।मुझसे पहले जो प्रबन्धक थे,वे शीघ्र ही काम छोड़कर चले गए ।वे कहते भी थे कि वृद्धाश्रम तो बुजुर्गो का कांजी हाऊस यानी कोंदवाड़ा है।मुझे उनकी यह बात नागवार गुजरती थी।कनिष्ठ होने के बावजूद मैं अपना विरोध दर्ज करवा देता था।वैसे भी वृद्धाश्रम का काम कम चुनौती का नहीं है।निराश्रित और ठुकराये हुए बुजुर्गों से संवाद स्थापित करना और उनका मनोविज्ञान समझना आसान भी नहीं है।
वृद्धाश्रमों में वृद्धजन भी वही आते हैं जो या तो निराश्रित हैं या फिर जो अपने ही लोगों द्वारा ठुकराये हुए होते हैं।जो वृद्धजन निराश्रित रहते हैं,उनका व्यवहार बनिस्बत अपनों द्वारा ठुकराये गये लोगों की तुलना में ठीक रहता है क्योंकि उन्हें जीवन की ढलती शाम में कहीं तो ठौर-ठिकाना मिल जाता है और यही उनके लिए संतोष की बात होती है।दूसरी ओर जो लोग अपनो के द्वारा ठुकरा दिए जाते हैं, उनमें समाज के प्रति,नाते-रिश्तों के प्रति कड़वाहट और आक्रोश का होना स्वाभाविक है।परिणामस्वरूप उनके स्वभाव में चिड़चिड़ापन आना उसकी परिणति है, ऐसे में आश्रम में एक परिवार के रूप में स्वयं को स्वीकार करना और इस परिवेश में ढालना आसान भी नहीं रहता और उन्हें यहाँ का माहौल भी घुटनभरा ही लगता है।इस परिप्रेक्ष्य में तो आश्रम की जवाबदारी और अधिक बढ़ जाती है।
ऐसा ही कुछ शर्मिलादेवी के वृद्धाश्रम में आने पर मुझे अनुभव हुआ था।जब उनके भाई के लड़के उन्हें आश्रम में छोड़ कर गये थे तब वे बहुत ही अनमनी सी रही,किसी से मिलना-जुलना ,बात करना उन्हें पसन्द नहीं था।अलग-थलग रहकर अकेले में बैठकर रोती रहती थीं।वैसे तो ऐसे वृद्धजन जिन्हें उनके परिजन यहाँ छोड़कर जाते थे उनके साथ तादात्म्य स्थापित करना कभी आसान नहीं रहा और यह भी कि उनको आश्रम के वातावरण और नियम कायदों के अनुरूप मानसिक रूप से तैयार करना भी आसान काम नहीं रहा।फिर भी इस तरह के चुनौतीपूर्ण कार्य को मैं पहले भी करता रहा हूँ और इसीलिए इस चुनौती को भी स्वीकार कर लिया।हाँ यह बात अवश्य ही महसूस की थी कि शर्मिलादेवी के मामले में मुझे अधिक मेहनत करना पड़ेगी क्योंकि उनके आने के कुछ दिनों के भीतर ही एक वृद्ध सीतारामजी की मृत्यु हो गई और उनके अंतिम संस्कार तथा क्रियाकर्म के लिए उनके परिवार का कोई सदस्य नहीं आया।प्रबन्धक के नाते मैंने ही विधि-विधान से उनका क्रियाकर्म किया।इस घटना ने शर्मिलादेवी को और अधिक उदास एवं निराश कर दिया था वे सबसे ज्यादा घुलमिल नहीं पाई थी लेकिन मैंने कोशिश की कि उनका विश्वास अर्जित कर लूं और रिश्तों के प्रति उनके मन में जो धारणा बन चुकी है उसे तोड़ सकूं।हालांकि जिस तरह से वृद्धाश्रमों की संख्या बढ़ती जा रही है और उनमें रहने वालों की संख्या में भी दिनोंदिन वृद्धि होती जा रही है उससे मेरा खुद का ही रिश्तों पर से विश्वास डगमगा गया था।बहरहाल झुठी सांत्वना देकर ही उन्हें तसल्ली दी जा सकती थी।
एक बात और जो मैंने इस दौरान अनुभव की थी वह यह कि आजकल बुजुर्गों को सबसे ज्यादा तकलीफ अपने अकेलेपन की होने लगी है।परिवार में किसी के भी पास एक दूसरे के लिए समय नहीं होता है।सब अपने-अपने तरीके से जीवन जीने लगे हैं।बुजुर्ग अपने आप को उपेक्षित और असहाय समझने लगते हैं।यदि कोई उनसे बातचीत करता है और उनके सुख-दुख में सहभागी होता है तो उनका प्रेम ,उनका स्नेह उसपर वे पूरी तरह से उंडेल देते हैं।
मैंने भी उनके पास बैठना प्रारम्भ किया और कुरेद-कुरेद कर उनके जीवन की घटनाओं के बारे में पूछना और बात करना शुरू कर दिया था। ताकि उनमें अपनत्व का भाव उत्पन्न हो और वे अपने दुख-दर्द की बातें निःसंकोच कहकर मुझे इसमें सहभागी मान सकें।मैंने उन्हें मातृ तुल्य स्थान दिया था।हालांकि मैं उन्हें माता जी ही कहता था क्योंकि मैं जानता था कि उनकी कोई संतान नहीं थी वैसे जो लोग उन्हें आश्रम में छोड़ने आए थे वे उनके भाई के ही पुत्र थे और मेरे परिचितों मे से।इसीलिए सभी उन्हें बुआ जी कहने लगे थे।फिर तो वे जगत बुआ बन गई।
एक दिन जब वे बहुत उदास थीं तब मैं उनके साथ आश्रम के बाहर टहलने निकल गया।बात-बात में उन्होंने बताया कि उनका जन्म भी सम्पन्न परिवार में ही हुआ था।कह सकते हैं कि वे सोने का चम्मच लेकर ही पैदा हुई थीं।उनका जन्म ऐसे परिवार में हुआ था जहाँ रूपये-पैसे की कभी कमी नहीं रही।ग्रामीण परिवेश होने के बावजूद पढ़ाई-लिखाई पर बराबर ध्यान रखा गया।दो भाईयों के साथ बहुत ही लाड़-प्यार में परवरिश हुई थी और तत्कालीन जमींदार परिवार में ही ब्याही गई थीं।जमींदारी चली गई, उसके बावजूद जमीन-जायदाद की कोई कमी नहीं रही लेकिन ससुर के निधन के बाद उनके पति और भाईयों ने शहर की ओर रूख कर लिया था।पति ने इतनी जमीन जायदाद होने के उपरांत भी एक दुकान खोल ली और रूपया ब्याज पर उठाने लगे थे।उनकी स्वयं की संतान नहीं थी और उनके देवर की भी एक ही लड़की थी,तब उन्होंने यही सोचा कि किसी बच्चे को दत्तक ले लें किन्तु बात टलती चली गई।पति का भी बहुत सा पैसा ब्याज पर कर्ज लेने वाले लोग खा गए,उनके लिए कोर्ट-कचहरी करना पड़ी ,सो अलग।इन सब बातों का उनके पति पर गहरा प्रभाव पड़ा और वे सदमे में रहने लगे क्योंकि एक तो गांव की जमींदारी चली गई तिसपर निःसंतान होने की टीस और फिर जाति समाज के लोगों को उनकी जरूरत पर उधारी देना और कर्जदारों द्वारा कर्जा न लौटाते हुए लड़ाई-झगड़े पर उतारू हो जाना।
शकुन्तलादेवी ने अपनी आपबीती सुनाते हुए बताया था कि इसी के चलते एक दिन उनपर दुखों का पहाड़ टूट पड़ा जब उनके पति घर के पिछवाड़े पेड़ पर फाँसी के फंदे पर लटके मिले।वे समझ नहीं पाई थी कि उन्होंने आत्महत्या की या उनकी पैसों के लेनदेन के लिए हत्या कर दी गई ।पुलिस ने आत्महत्या करार देकर मामला खत्म कर दिया किन्तु उन्हें पति की हत्या की आशंका ताजिन्दगी बनी रही।उन्होंने बताया था कि वे दोनों जिस स्थिति में भी थे,खुश थे ,इसलिए पति द्वारा आत्महत्या करने की पुलिस की कहानी पर विश्वास नहीं कर पाई।
वे पति की मौत के बाद पहले तो अपने छोटे भाई के घर रहने चली गई।वैसे वे जाना नहीं चाहती थीं लेकिन भाई के बहुत अनुनय विनय के बाद राजी हुई ।भाई के कहने पर ही शहर वाला मकान बेच दिया ।छोटे भाई के पुराने घर के नवीनीकरण में उन्होंने काफी रूपया लगा दिया था,यहाँ तक कि भाई के बेटे को उच्च शिक्षा हेतु पढ़ने के लिए विदेश भेजने का सारा खर्च भी उन्होंने ही उठाया था लेकिन छोटे भाई की स्वार्थ वृत्ति धीरे-धीरे समझ में आने लगी ।तब सोचा जरूर कि गांव वाले मकान पर चली जाएं या फिर किराये का मकान ही ले लें किन्तु बड़े भाई की समझाईश पर उनके घर रहने चली गई।शुरू-शुरु में तो बड़े भाई और उनके तीनों लड़कों ने उनका ध्यान रखा जिससे उन्हें विश्वास हो गया था कि अब उनका आखिरी का सफर इन्हींके साथ अच्छे से कट जाएगा।यही सोच रखकर गांव की जमीन और वहाँ का मकान बेचकर बड़े भाई के बेटों के व्यापार में अपनी जमा पूंजी लगा दी ।कुछ समय तो सब ठीक चला लेकिन भाभी की कैंसर से मौत के बाद तो एकदम से सभी बदल गये।उनकी उपेक्षा होना प्रारम्भ हो गई।बड़े भाई के तीनों बेटे भी अलग-अलग हो गए । बड़े भाई जब अकेले रह गए तो तीनों पुत्रों को भी बोझ लगने लगे तब बुआ को कौन पूछता! कौन रखता और कौन संभालता।आखिरकार उन्हें वृद्धाश्रम का ही मुख देखना पड़ा।वैसे तो भाई भी साथ आने का कह रहे थे लेकिन लोक लाज के कारण बेटों ने आने नहीं दिया।
जब वे वृद्धाश्रम में आई तब उनका सभी नाते-रिश्तों से भरोसा टूट गया था ।मेरी जब-जब उनसे बात होती थीं तब वे रिश्तों को बहुत ही कोसती थीं और कहती भी कि दुनिया में सभी स्वार्थी हैं और स्वार्थ के ही रिश्ते नाते हैं।मैं उन्हें बताने की कोशिश भी करता कि नहीं सारी दुनिया ऐसी नहीं है।फिर भी अन्तर्मन से मुझे भी लगता कि हाँ,वे सही तो हैं क्योंकि मैं तो प्रत्यक्षदर्शी हूँ जहाँ लोग अपने माता-पिता सम्बन्धियों को वृद्धाश्रम में छोड़कर जाते हैं।हालांकि इसके बावजूद मेरे अपने माता-पिता मेरे साथ ही रहते हैं और हमारा परिवार सुखी परिवार है।
शकुन्तलादेवी वृद्धाश्रम में करीब सात वर्ष रहीं।यहाँ के वातावरण के अनुरूप घुलने-मिलने और ढ़लने में उन्हें समय जरूर लगा लेकिन उन्हें यह बात भी समझ में आ गई थी कि यही उनका अंतिम ठौर-ठिकाना है।धीरे-धीरे वे सभी से मिलने-जुलने भी लगी थीं और आश्रम के हिसाब से अभ्यस्त भी होने लगी थीं और अन्य सदस्यों को भी उन्होंने अपना परिवार मान लिया था।
हालांकि शकुन्तलादेवी से मेरा कोई खून का रिश्ता नहीं था और न ही कोई नातेदारी-रिश्तेदारी लेकिन उनसे एक अंजाना सा रिश्ता स्थापित हो गया था।वे मुझे पुत्रवत स्नेह करती थीं और मैं भी उन्हें मातृतुल्य ही आदर देता था।एक दिन ऐसे ही बातचीत चल रही थी।शकुन्तलादेवी कह रही थीं कि सभी नाते-रिश्ते झूठे हैं।दुनिया में बस स्वार्थ के ही रिश्ते हैं तब मैंने मजाक में पूछ लिया था कि - “क्या मेरा आपसे रिश्ता भी स्वार्थ आधारित है!”तब उन्होंने जो कहा,उसकी मैंने कल्पना भी नहीं की थी।अब यह मजाक में कहा गया था या गंभीरता के साथ कि - “अरे बेटा तुम तो अपनी नौकरी बजा रहे हो।जब तक तुम्हारी नौकरी यहाँ है तब तक ही तो तुम हम लोगों से रिश्ता बनाकर रखोगे।नौकरी खतम समझो रिश्ता भी खतम।”
तब उनकी बात का मुझे बहुत बुरा लगा था।उन्होंने कितनी जल्दी मेरे समर्पण और कर्मशीलता को स्वार्थ की तराजु के एक पलड़े पर रख दिया था।बाद में मैंने उनकी बात पर गंभीरतापूर्वक मनन भी किया कि क्या वास्तव में मैं अपनी नौकरी के कारण सभी वृद्धजनों के करीब हूँ!मैं उनके दुख-दर्द में अपनी नौकरी के कारण सम्मिलित होता हूँ!घर जाकर यह प्रश्न मैंने अपने माता-पिता और पत्नी से भी किया लेकिन उनके सकारात्मक जवाब के बावजूद मेरे मन में उथल-पूथल मची रही।हाँ,इसके बाद मेरे व्यवहार में उनके प्रति थोड़ा अंतर आ गया जिसे उन्होंने महसुस भी किया।एक दिन उन्होंने मुझे बुलाकर कहा कि- “बेटा मुझे मालुम है कि तुम मुझसे नाराज हो।बेटा तो माँ से नाराज हो सकता है लेकिन माँ कभी बेटे से नाराज नहीं हो सकती।इधर मेरी तबियत ठीक नहीं रहती।मुझे नहीं लगता कि अब अधिक जी पाऊंगी।बस मेरे ऊपर एक उपकार करना कि जब मौत मेरे करीब हो तो मेरे मुँह में गंगाजल तुम ही डालना।”तब मैंने कहा कुछ नहीं,बस हामी भर कर कुछ जरूरी काम का बहाना बना कर वहाँ से चला गया था लेकिन कुछ समय बाद बीमारी के दौरान जब तीन दिन लगातार कोमा की स्थिति से वे निकल नहीं पाई और डॉक्टर ने भी हाथ ऊँचे कर दिये तो मैं सीधे अस्पताल से घर पहुँचा और वहाँ से गंगा जल लाकर अस्पताल जाकर उनके मुख में तुलसी पत्र के साथ गंगा जल डाला।इसके तत्काल बाद ही उन्होंने अपने प्राण त्याग दिये थे।शायद वे मेरे हाथों गंगा जल ग्रहण करने का ही इंतजार कर रही थीं।उनके देहावसान की खबर उनके करीबियों को कर दी थी लेकिन यह भी निर्णय आश्रम प्रबन्धन और मैंने कर लिया था कि अंतिम संस्कार से लेकर समस्त क्रियाकर्म आश्रम में ही होंगे।उनके परिजन चाह रहे थे कि अन्नदान,गवरनी आदि की रस्में वे ही करेंगे लेकिन शकुन्तलादेवी की अंतिम इच्छा के अनुरूप आश्रम और मेरे द्वारा ही सभी रस्में पूरी की गई।सब कार्यक्रमों से निवृत्त होकर उनका सामान यथायोग्य स्थान पहुँचाने की दृष्टि से जब देखा गया तब उनके सामान में मिली चिठ्ठी ने मेरे अश्रुओं को थमने नहीं दिया।उन्होंने लिखा था-
प्रिय बेटे
मैं जानती हूँ कि मेरी बातों के कारण तुम नाराज हो।लेकिन मैं क्या कर सकती थी।जैसा मैंने दुनिया को देखा था,वही तो कहा था।सभी तो स्वार्थी लोग मिले थे।लेकिन तुमने मेरी धारणा बदल दी।मैं सोचने पर विवश हो गई कि जिस व्यक्ति का आश्रम के किसी भी व्यक्ति से खून का रिश्ता नहीं है, वह यहाँ रहने वाले सभी लोगों से रिश्ता बनाये हुए है,वह भी निस्वार्थ भाव से।तब कैसे कह सकते हैं कि दुनिया में सभी स्वार्थी ही हैं।अब मुझे अंतिम समय में कोई दुख नहीं है।कोई यह नहीं कह सकता है कि मैं निःसंतान थी।मैंने तुम्हारे रूप में एक बेटा पा लिया और आश्रम में अपने सगे-सम्बन्धी।तुम सुखी रहना ।अपने माता-पिता के साथ ही आश्रम के अपने सगे-सम्बन्धियों का भी ध्यान रखना।
शायद यह चिठ्ठी पढ़कर ही घिर आये काले बादल आँखों से निर्मल जल बहा रहे थे और इसमें रिश्तों की कड़वाहट धूलती जा रही थी।