अकेलापन Dr pradeep Upadhyay द्वारा महिला विशेष में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

अकेलापन


आज मैं सोचती रही कि नींद की सारी गोलियां एकसाथ खाकर अपनी इहलीला समाप्त कर लूं।इतनी बेबसी,इतनी लाचारी तो मैंने तब भी महसुस नहीं की थी जब विनय के पिता हार्ट अटैक से एकाएक चल बसे थे।हमें कुछ सोचने समझने का मौका तक नहीं मिल पाया था।वह तो अच्छा हुआ कि वैदेही का विवाह उनके रहते ही हो गया और शादी के तुरन्त बाद ही तो वह आस्ट्रेलिया चली गई थी।अब बेटी-दामाद दोनों ही वहाँ जॉब करते हैं तो उनका यहाँ आना भी नहीं होता।विनय की भी शादी चार साल पहले ही कर दी थी, आखिर लड़की भी उसी ने पसन्द की थी,उसी की कम्पनी में काम करती थी लेकिन मुझे क्या मालुम था कि वह मुझे ही साथ नहीं रखना चाहेगी।मैंने अपना पुराना मकान बेचकर कितना शानदार बंगलेनुमा मकान बनाया था, कितने सपने देखे थे किन्तु शादी के तुरन्त बाद ही विनय यहाँ की नौकरी छोड़कर बेंगलुरू चला गया और साथ में बहू को भी वहीं बुला लिया, बहू ने भी यहाँ की नौकरी छोड़कर वहीं बेंगलुरू में एक बड़ी कम्पनी ज्वाईन कर ली थी ।मुझे भी तो यही लगा था कि अब चुँकि दोनों की वहाँ अच्छी नौकरी लग गई है तो मुझे भी वे वहीं बुला लेंगे।वैसे मेरी भी सरकारी नौकरी थी और दो वर्ष पूर्व ही सेवानिवृत्त हुई थी किन्तु अब जब बच्चों से कोई उम्मीद ही नहीं रही तो अकेले ही रहना पहाड़ सी जिन्दगी का आभास देता है।

जब तक विनय की शादी नहीं हुई थी, वह बिना मुझसे पूछे कोई काम नहीं करता था।मेरा पूरी तरह से ख्याल रखता था।कभी किसी बात की कमी नहीं रहने देता और न ही कभी ऐसी बात करता था कि मेरे दिल को कोई ठेस पहुँचे।जब से बहू घर में आयी ,विनय के व्यवहार में भी परिवर्तन आने लगा।कुछ उखड़ा-उखड़ा सा रहने लगा था ।कई बार तो मैंने महसुस भी किया कि वह मेरी उपेक्षा भी करने लगा है।

मुझपर तो वैसे भी दुखों का पहाड़ टूटा था जब विनय के पिता चल बसे थे लेकिन फिर भी मैंने दोनो बच्चों की खातिर खुद को संभाला ,हालांकि बेटी का विवाह हो चुका था फिर भी उनका जीवन संवारने में कोई कोर कसर बाकी नहीं रहने दी ।अब वे दोनों ही अच्छी स्थिति में हैं और उन्होंने सभी भौतिक सुख सुविधाऐं भी जुटा ली लेकिन मैं तो अकेली रह गई।मेरे पास कौन!अब तो त्यौहारों पर भी वे नहीं आ पाते।मेरी भी सरकारी नौकरी थी,मैं भी ज्यादा छुट्टी नहीं ले सकती थी तथापि यदि छुट्टी लेकर विनय के पास जब भी गई तो बेटे-बहू दोनों के पास समय नहीं,दिनरात काम में लगे रहते और वीकेंड पर अपने तरीके से एन्जॉय करते ।

मैं उनसे कहती भी हूँ कि अब तो बच्चा हो जाने दो,मुझे भी पोते-पोती का सुख मिल जाएगा।मुझे जीने की वजह मिल जाएगी लेकिन दोनों ही मेरी बात को टाल देते और कहते हैं कि अभी हमें केरियर के सर्वोच्च शिखर पर पहुँचना है।बहू का तो यह भी मानना है कि बच्चा जल्दी हो जाएगा तो उसका फिगर बिगड़ जाएगा और वह अभी ऐसा कदम उठाने के पक्ष में नहीं है।आजकल की पीढ़ी की आखिर यह कैसी सोच है।बेटे बहू की नाराजगी की वजह मेरे मित्र सुरेश भी हैं जो ख्यात कवि हैं।साहित्य जगत में उनका बड़ा नाम है।मेरी भी साहित्य में रूचि है,भले ही मैं लिखती नहीं हूँ लेकिन मुझे पढ़ने का बहुत शौक है।उनके गुजर जाने.के बाद किताबें ही मेरी मित्र हैं।सुरेश को तो मैं कॉलेज के जमाने से जानती हूँ और यह बात वे भी जानते थे।इसीलिए हमारे पारिवारिक सम्बन्ध दृढ़ होते चले गये।विनय के पिता की भी सुरेश से घनिष्टता बढ़ती चली गई। सुरेश ने इनकी मौत के बाद मुझे बड़ा ही सम्बल दिया है।जहाँ नाते-रिश्तेदारों ने मुँह फेर लिया ,वहीं सुरेश ने हर जगह मदद के लिए अपने आप को तैयार रखा।उसके परिवार के लोग भी उतने ही सहयोगी लेकिन आजकल जबकि हम इतने एडव्हान्स हो गये हैं,उसके बाद भी किसी स्त्री का परपुरूष से मित्रता रखना शक की नजरों से देखा जाता है।समाज में तो तरह-तरह की बात होती ही है, बेटा-बहू भी मेरी दोस्ती के रिश्ते से खफा थे लेकिन अब मैं अपने मन की बात किससे कहूँ,अपने दुख-दर्द,तकलीफ किसके सामने रखूं।सुरेश ही तो है जो हर बात को समझते हैं और उनसे अपनी सभी बातें शेयर कर सकती हूँ लेकिन क्या इस दोस्ती के रिश्ते को शक की निगाह से देखा जाना चाहिए!अभी जब मैं बेंगलूरू गई थी और जब बेटे-बहू के सामने सुरेश का जिक्र आया तो उन्होंने स्पष्ट रूप से कह दिया कि या तो सुरेश अंकल से रिश्ता रख लो या हमसे रिश्ता रखो।सुरेश अंकल के घर आने-जाने और बातचीत करने से कितनी बदनामी हो रही है।समाज में लोग क्या-क्या बातें कर रहे हैं, कितने ताने सहने पड़ते हैं।

मैंने भी कह दिया था कि वहाँ मैं अकेली रहती हूँ और यदि सुरेश से मेरी मित्रता है तो इसपर किसी को क्यों ऐतराज होना चाहिए।हमारे कोई नाजायज ताल्लुकात तो हैं नहीं,जिसपर समाज के लोग आपत्ति लें।मेरे हर दुख-दर्द,तकलीफ में सदैव वे मेरे साथ खड़े रहते हैं।वह तो अपनी मित्रता का फर्ज ही अदा कर रहे हैं।

आज सभी बातें एक-एक कर मेरे ह्रदय पट से गुजरती जा रही थी।जहाँ कुछ देर पहले तो निराशा के बादलों ने मेरे मन मन्दिर को घेर लिया था,अब वे बादल मेरे दृढ़ निश्चय करते ही छंटने लगे थे।अब मैंने निश्चय कर लिया था कि आत्महत्या करने का विचार दिल-दिमाग से पूरी तरह से निकाल दूंगी।घर-परिवार के लोगों को जो कहना है, कहे,जो सोचना है, सोचे।मैं जब गलत नहीं हूँ तो मुझे ही अपनी बात पर अडिग रहना होगा।मैं अपनी जिन्दगी अपने ढ़ंग से ही जीऊंगी इसमे किसी का दखल बर्दाश्त नहीं करूंगी।वैसे भी सभी अपनी जिन्दगी अपने-अपने ढ़ंग से जी रहे हैं, अपने निर्णय खुद ले रहे हैं।किसी के पास किसी के लिए समय नहीं है तब उन्हें मुझपर झुठी तोहमत लगाकर समाज की बंदिशे लगाने का क्या हक है।जब सभी ने मुझे अकेला छोड़ दिया है तो मुझे अपनी जिन्दगी अपने तरीके से जीने की भी आजादी होना चाहिए।मैं अब किसी की परवाह न करते हुए अपने अकेलेपन को ही अपनी ताकत बनाते हुए समाज में अपना मुकाम हांसिल करूंगी।