विश्वास
मुम्बई की एक बहुमंजिला इमारत में मोहनलाल जी नाम के एक बहुत ही सज्जन व दयालु स्वभाव के व्यक्ति रहते थे। उसी इमारत के पास एक महात्मा जी दिन भर ईष्वर की आराधना में व्यस्त रहते थे। मोहनलाल जी के यहाँ से उन्हें प्रतिदिन रात का भोजन प्रदान किया जाता था। यह परम्परा काफी समय से चल रही थी। एक दिन उन महात्मा जी ने भोजन लाने वाले को निर्देष दिया कि अपने मालिक से कहना कि मैंने उसे याद किया है। यह सुनकर मोहनलाल जी तत्काल ही उनके पास पहुँचे और उन्हंे बुलाने का प्रायोजन जानना चाहा। महात्मा जी ने कहा कि मुझे आप पर आने वाली विपत्ति का संकेत प्रतीत हो रहा है। क्या आप कोई बहुत बड़ा निर्णय निकट भविष्य में लेने वाले हैं ? मोहनलाल जी ने बताया- मैं अपने दोनों पुत्रों के बीच अपनी संपत्ति का बंटवारा करना चाहता हूँ। मैं और मेरी पत्नी की आवश्यक्तताये तो बहुत सीमित हैं जिसकी व्यवस्था वे खुशी-खुशी कर देंगे। महात्मा जी ने यह सुनकर कहा कि आप अपनी संपत्ति के दो नहीं तीन भाग कीजिये और एक भाग अपने लिये बचाकर रख लीजिये। इससे आप दोनों जीवन में किसी पर भी निर्भर नहीं रहना पड़ेगा।
मोहनलाल जी यह सुनकर बोले कि हम सभी आपस में बहुत प्रेम करते है। उन्होनें महात्मा जी की बात पर ध्यान न देते हुये बाद में जब संपत्ति का वितरण किया तो उसके दो ही हिस्से किए।
कुछ समय तक तो सब कुछ सामान्य रहा फिर उन्हें धीरे धीरे अनुभव होने लगा कि उनके बच्चे उद्योग-व्यापार और पारिवारिक मामलों में उनकी दखलन्दाजी पसन्द नहीं करते हैं। कुछ माह में उनकी उपेक्षा होना प्रारम्भ हो गयी और जब स्थिति मर्यादा को पार करने लगी तो एक दिन उन्होने अपनी पत्नी के साथ दुखी मन से अनजाने गन्तव्य की ओर प्रस्थान करने हेतु घर छोड़ दिया। वे जाने के पहले उन महात्मा जी के पास मिलने गए। उन्होंने पूछा आज बहुत समय बाद कैसे आना हुआ ? तो मोहनलाल जी ने उत्तर दिया कि मैं प्रकाश से अन्धकार की ओर चला गया था और अब वापिस प्रकाश लाने के लिये जा रहा हूँ। मैं अपना भविष्य नहीं जानता किन्तु प्रयासरत रहूँगा कि सम्मान की दो रोटी प्राप्त कर सकूं। महात्मा जी ने उनकी बात सुनी और मुस्कराकर कहा कि मैंने तो तुम्हें पहले ही आगाह किया था। तुम कड़ी मेहनत करके सूर्य की प्रकाश किरणों के समान प्रकाशवान होकर औरों को प्रकाशित करने का प्रयास करो।
मेरे पास बहुत लोग आते हैं जो मुझे काफी धन देकर जाते हैं जो मेरे लिये किसी काम का नहीं है। तुम इसका समुचित उपयोग करके जीवन में आगेे बढ़ो और समाज में एक उदाहरण प्रस्तुत करो। ऐसा कहकर उन महात्मा जी ने लाखों रूपये जो उनके पास जमा थे वह मोहनलाल जी को दे दिये।
मोहनलाल जी ने उन रूपयों से पुनः व्यापार प्रारम्भ किया। वे अनुभवी एवं बुद्धिमान तो थे ही, बाजार में उनकी साख भी थी। उन्होंने अपना व्यापार पुनः स्थापित कर लिया।
इस बीच उनके दोनों लड़कों की आपस में नहीं पटी और उन्होंने अपने व्यापार को चौपट कर लिया। इधर मोहनलाल जी पहले से भी अधिक समृद्ध हो चुके थे। व्यापार चौपट होने के कारण भारी आर्थिक संकट का सामना कर रहे दोनो पुत्र उनके पास पहुँचे और सहायता मांगने लगे।
मोहनलाल जी ने स्पष्ट कहा कि इस धन पर उनका कोई अधिकार नहीं है। वे तो एक ट्रस्टी हैं जो इसे संभाल रहे हैं। जो कुछ भी है उन महात्मा जी का है। तुम लोग जो भी सहायता चाहते हो उसके लिये उन्हीं महात्मा जी के पास जाकर निवेदन करो। जब वे वहाँ पहुँचे तो महात्मा जी ने उनकी सहायता करने से इन्कार कर दिया और कहा कि जैसे कर्म तुमने किये हैं उनका परिणाम तो तुम्हें भोगना ही होगा।