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जीवन दर्शन

जीवन दर्शन


मैं और मेरा मित्र सतीश, हम दोंनों आपस में चर्चा कर रहे थे। हमारी चर्चा का विषय था हमारा जीवन क्रम कैसा हो? हम दोंनों इस बात पर एकमत थे कि मानव प्रभु की सर्वश्रेष्ठ कृति है और हमें अपने तन और मन को तपोवन का रुप देकर जनहित में समर्पित करने हेतु तत्पर रहना चाहिए। हमें औरों की पीड़ा को कम करने का भरसक प्रयास करना चाहिए। हमें माता-पिता और गुरूओं का आशीर्वाद लेकर जीवन की राहों में आगे बढ़ना चाहिए। मनसा वाचा कर्मणा, सत्यमेव जयते, सत्यम् शिवम, सुन्दरम आदि का जीवन में समन्वय हो तभी हमारा जीवन सार्थक होगा और हम समृद्धि सुख व वैभव प्राप्त करके धर्म पूर्वक कर्म कर सकेंगे।
एक दिन सतीश सुबह-सुबह ही सूर्योदय के पूर्व मेरे निवास पर आ गया और बोला- चलो नर्मदा मैया के दर्शन करके आते हैं। मैं सहमति देते हुए उसके साथ चल दिया लगभग आधे घण्टे में हमलोग नर्मदा तट पर पहुँच गये। हमने रवाना होने के पहले ही अपने पण्डा जी को सूचना दे दी थी हम कुछ ही देर में उनके पास पहुँच रहे हैं। वे वहां पर हमारी प्रतीक्षा कर रहे थे।
चरण स्पर्श पण्डित जी!
सदा सुखी रहें जजमान। आज अचानक यहां कैसे आना हो गया।
कुछ नहीं। ऐसे ही नर्मदा जी के दर्शन करने आ गये। सोचा आपसे भी मुलाकात हो जाएगी। पण्डित जी आज आप हमें किसी ऐसे स्थान पर ले चलिये जहां बिल्कुल हल्लागुल्ला न हो। केवल शान्ति और एकान्त हो। सिर्फ हम हों और नर्मदा मैया हों।
पूजा-पाठ और स्नानध्यान का सामान साथ में रख लें?
नहीं! हमलोग सिर्फ नर्मदा मैया के दर्शन करने का संकल्प लेकर आए हैं।
उत्तर सुनकर पण्डित जी हमें लेकर आगे-आगे चल दिये। वे हमें एक ऐसे घाट पर ले गये जहां पूर्ण एकान्त था और हम तीनों के अलावा वहां कोई नहीं था।
नर्मदा का विहंगम दृश्य हमारे सामने था। सूर्योदय होने ही वाला था। आकाश में ललामी छायी हुई थी। पक्षी अपने घोंसलों को छोड़कर आकाश में उड़ाने भर रहे थे। क्षितिज से भगवान भुवन भास्कर झांकने लगे थे। उनका दिव्य आलोक दसों दिशाओं को प्रकाशित कर रहा था। हम अपने अंदर एक अलौकिक आनन्द एवं ऊर्जा का संचार अनुभव कर रहे थे। हमें जीवन में एक नये दिन के प्रारम्भ की अनुभूति हो रही थी।
हमारी दृष्टि दाहिनी ओर गई वहां के दृश्य को देखकर हम रोमांचित हो गए। हम जहां खड़े थे वह एक शमशान था। पिछले दिनों वहां कोई शवदाह हुआ था। चिता की आग ठण्डी पड़ चुकी थी। राख के साथ ही मरने वाले की जली हुई अस्थियां अपनी सद्गति की प्रतीक्षा कर रही थीं।
सतीष भी इस दृश्य को देख चुका था। वह आकाश की ओर देखकर कह रहा था-प्रभु! मृतात्मा को शान्ति प्रदान करना।
मेरे मन में कल्पनाओं की लहरें उठ रहीं थीं। मन कह रहा था- अथक प्रयास के बावजूद भी उसके घरवाले व रिश्तेदार विवश और लाचार हो गए होंगे और उस व्यक्ति की सांसें समाप्त हो गई होगीं। सांसों के चुकने के बाद तो औपचारिकताएं ही रह जाती हैं। जो यहां आकर पूरी होती हैं।
हम अपने विचारों में खोये हुए थे कि वहां कुछ दूर पर हमें एक संत शान्त मुद्रा में बैठे दिखलाई दिये। हम न जाने किस आकर्षण में उनकी ओर खिचे चले गये। उनके पास पहुँचकर हमने उनका अभिवादन किया और उनके सम्मुख बैठ गये। उन्हें हमारे आने का आभास हो गया था। वे आंखें खोलकर हमारी ही ओर निर्विकार भाव से देख रहे थे। उनकी आंखें जैसे हमसे पूछ रही थीं- कहिये कैसे आना हुआ?
महाराज यह दुनियां इतने रंगों से भरी हुई है। जीवन में इतना सुख, इतना आनन्द है। आप यह सब छोड़कर इस वीराने में क्या खोज रहे हैं।
वे बोले- यह एक जटिल विषय है। संसार एक नदी है, जीवन है नाव, भाग्य है नाविक, हमारे कर्म हैं पतवार, तरंग व लहर हैं सुख व तूफान, भंवर है दुख, पाल है भक्ति जो नदी के बहाव व हवा की दिषा में जीवन को आगे ले जाती है। नाव की गति को नियन्त्रित करके बहाव और गन्तव्य की दिषा में समन्वय स्थापित करके जीवन की सद्गति व दुगर्ति भाग्य, भक्ति, धर्म एवं कर्म के द्वारा निर्धारित होती है। यही हमारे जीवन की नियति है। इतना कहकर वे नर्मदा से जल लाने के लिये घाट से नीचे की ओर उतर गये।
हम समझ गये कि वे सन्यासी हमसे आगे बात नहीं करना चाहते थे। हम भी उठकर वापिस जाने के लिये आगे बढ़ गये। शमशान से बाहर भी नहीं आ पाये थे कि शमशान से लगकर पड़ी जमीन पर कुछ परिवार झोपड़े बनाकर रहते दिखलाई दिये।
वे साधन विहीन लोग अपने सिर को छुपाने के लिये कच्ची झोपड़ी बनाकर रह रहे थे। उनका जीवन स्तर हमारी कल्पना के विपरीत था। उन्हें न ही शुद्ध पानी उपलब्ध था और न ही शौच आदि नित्यकर्म के लिये कोई व्यवस्था थी। उनके जीवन की वास्तविकता हमारी नजरों के सामने थी।
उसे देखकर सतीश बोला- अत्यधिक गरीबी व अमीरी दोनों ही दुख का कारण होते हैं। जीवन में गरीबी अभावों को जन्म देती है और अपराधीकरण एवं असामाजिक गतिविधियों की जन्मदाता बनती है। इसी प्रकार अत्यधिक धन भी अमीरी का अहंकार पैदा करता है और दुव्र्यसनों एवं कुरीतियों में लिप्त कर देता है। यह मदिरा, व्यभिचार, जुआ-सट्टा आदि दुव्र्यसनों में लिप्त कराकर हमारा नैतिक पतन करता है।
हमारे यहां इसीलिये कहा जाता है कि- साईं इतना दीजिये जा में कुटुम समाय, मैं भी भूखा न रहूं, साधु न भूखा जाय। हमें पर उपकार एवं जनसेवा में ही जीवन जीना चाहिए ताकि इस संसार से निर्गमन होने पर लोगों के दिलों में हमारी छाप बनी रहे।
धन से हमारी आवश्यकताएं पूरी हो तथा उसका सदुपयोग हो। यह देखना हमारा नैतिक दायित्व है धन न तो व्यर्थ नष्ट हो और न ही उसका दुरूपयोग हो । मैंने सतीश से कहा कि आज हमें जीवन दर्शन हो गए हैं। हमारे सामने सूर्योदय का दृश्य है जो सुख का प्रतीक है। एक दिशा में गरीबी दिख रही है दूसरी दिशा में जीवन का अन्त हम देख रहे हैं। हमारे पीछे खड़ी हुई हमारी यह मर्सडीज कार हमारे वैभव का आभास दे रही है। यही जीवन की वास्तविकता एवं यथार्थ है। आओ अब हम वापिस चलें।

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