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ईमानदार बेईमानी

ईमानदार बेईमानी

एक दिन प्रातः काल स्वर्गलोक में प्रभु के साथ नारद जी भी भ्रमण कर रहे थे। नारद जी से अचानक प्रभु ने कहा- आज मुझे तुम कोई ऐसा वृत्तान्त बतलाओ जो सारगर्भित, मनोरंजक एवं शिक्षाप्रद हो। नारद जी बोले- प्रभु आप की बात पर मुझे पृथ्वी लोक की एक घटना याद आ रही है। मैं नहीं जानता कि यह घटना आप की शर्तों को पूरा करती है या नहीं।

पृथ्वी लोक पर भारत देश में जबलपुर नगर के पास पाटन गाँव में रुपसिंह पटैल नाम के एक सम्पन्न किसान रहते थे। उनके पास हजारों एकड़ खेती की जमीन थी जिससे वे लाखों रूपये प्रतिवर्ष कमाते थे। उनके परिवार में उनकी पत्नी के अतिरिक्त एक जवान बेटा हरिसिंह था। रुपसिंह अपनी उम्र के साथ अब वृद्ध एवं अशक्त हो गए थे। एक दिन उन्होंने अपने बेटे से कहा कि अब मेरे जाने का समय करीब आ रहा है। मैं तुम्हें जीवन का अंतिम व्यवहारिक ज्ञान देना चाहता हूँ। इससे तुम अपना व्यापार बिना पूंजी लगाए दूसरे से प्राप्त धन से नैतिकता एवं ईमानदारी को बरकरार रखते हुए कर सकते हो। उनका बेटा आश्चर्यचकित होकर उनसे पूछता है- यह कैसे संभव है? रुपसिंह यह सुनकर मुस्कराते हुए कहते हैं- समय आने पर इसका उत्तर तुम्हें स्वयं प्राप्त हो जाएगा।

रुपसिंह का आसपास के क्षे़त्रों में बहुत मान-सम्मान था। वे एक ईमानदार, नेक व भले इन्सान के रुप में जाने-जाते थे। उन्होंने नये व्यवसाय को प्रारम्भ करने के लिये क्षेत्र के सम्पन्न लोगों से कर्ज लिया और लाखों रूपये एकत्र कर लिये। उन्होंने सभी को एक वर्ष के अंदर रकम लौटाने का आश्वासन दिया। इस बात का पूरा हिसाब कि उन्होंने किससे कितना रूपया लिया है एक बही में लिख कर अपने बेटे को दे दिया। उसे यह हिदायत भी दी कि जो तुमसे ईमानदारी पूर्वक जितना धन उसने दिया है वह वापिस मांगने आये तो उसे तत्काल लौटा देना। किन्तु जो लालचवश अपने दिये गये धन से अधिक की मांग रखे उसे स्पष्ट यह कहकर वापिस कर देना कि आप सही-सही हिसाब बताएं और अपना धन ले जाएं। ऐसा लालची व्यक्ति रूष्ट होकर तुम्हें भला-बुरा कहकर वापिस चला जाएगा। उसकी बात का बुरा मत मानना।

कुछ समय बाद रुप सिंह का निधन हो गया। उसकी मृत्यु के पश्चात उसके बेटे ने सभी को यह खबर भिजवा दी कि उन्होंने जो धन उसके पिता को दिया था वे उससे वापिस प्राप्त कर लें। धन वापस लेने के लिये लोगों का आना प्रारम्भ हो गया। उसके पुत्र ने भी अपनी बही देखकर लोगों को उनका धन वापिस करना प्रारम्भ कर दिया। यह देखकर कुछ धनाड्य लोगों के मन में लोभ जागृत हो गया। ऐसे लोगों ने कर्ज ली हुई रकम से कई गुना अधिक रकम कर्ज में देने की बात कर उससे धन वापिस लेने का प्रयास किया। रुपसिंह को अपनी बही देखकर यह समझ में आ जाता था कि कौन उससे अधिक धन की मांग कर रहा है। वह उनसे विनम्रता पूर्वक कहता कि आप अपना हिसाब फिर से देख लें और फिर आने को कहकर विदा कर देता।

ऐसे लोग वापिस जाने के बाद धर्मसंकट में पड़ जाते। वे घर जाने के बाद दुबारा रुपसिंह के पास इसलिये नहीं जा पाते थे क्योंकि अगर वे दुबारा जाकर सही धन की मांग करते हैं तो वे बेईमान कहलाएंगे और उनकी सारी प्रतिष्ठा मिट्टी में मिल जाएगी।

एक माह बाद हरिसिंह ने पाया कि लाखों रूपया उसके पास जमा हो गया है जिसका लेनदार कोई नहीं है। उसने इस धन से एक नया व्यापार प्रारम्भ कर दिया जिससे कालान्तर में उसकी आमदनी कई गुना अधिक बढ़ गई। वह अपनी आमदनी का भाग गाँव की तरक्की और लोगों की भलाई पर खर्च करने लगा।

एक दिन उसके यहाँ एक संत पधारे। उसने उनसे सारी बात बतलाई और पूछा कि स्वामी जी मैं आपसे कुछ प्रश्नो का समाधान चाहता हूँ। मेरे स्वर्गीय पिता द्वारा किया गया यह कार्य क्या नैतिक दृष्टि से सही है। मैंने अपने पिता की आज्ञा मानकर जो किया क्या वह ईमानदारी की परिभाषा में आता है। मैं धन वापिस करने के लिये तैयार था लेकिन जो स्वयं ही धन लेने के लिये नहीं आए तो क्या मैं उनका कर्जदार हूँ। तथा यह पूरा वृत्तान्त पाप और पुण्य की दृष्टि से क्या मूल्य रखता है?

महात्मा जी ने गंभीर चिन्तन करके कहा- हमें धन, धर्म, कर्म एवं उससे प्राप्त फल को समझना चाहिए तब समाधान स्वमेव हो जाएगा। यहाँ धन का आगमन और निर्गमन धर्म पूर्वक करने का प्रयास तुमने किया है। धन से तुमने अपना नया व्यापार प्रारम्भ किया और धनोपार्जन किया। जब भी कोई कर्ज देने वाला अपना धन वापिस मांगने आया तो तुमने उसे ईमानदारी से धन वापिस किया है। इससे स्पष्ट है कि तुमने कर्म में धर्म का पालन किया। हरिसिंह के पास में जब भी कोई और कर्ज वापिस मांगने आता था तो उसे दो सुझाव देता था एक तो यह कि तुम अपना धन वापिस ले लो। दूसरा धन व्यापार में लगा रहने दो और उसका ब्याज लेते जाओ। उसकी ईमानदारी और स्पष्टवादिता से सभी प्रभावित थे। उसका व्यापार भी दिन दूनी रात चैगुनी तरक्की कर रहा था। यह सभी को ज्ञात था। इसलिये अधिकांश लोगों ने अपना धन वापिस न लेकर ब्याज लेना ही स्वीकार किया था। इस प्रकार हरिसिंह उनके ही धन से अपना व्यापार करके धन कमाकर उस राशि से ही कर्ज चुका रहा था।

इस पूरे प्रकरण में तुमने या तुम्हारे पिता जी ने कोई गलत कार्य नहीं किया है। किसी को भी कष्ट पहुँचाने की न तो तुम्हारी मंशा रही है और न ही तुमने कष्ट पहुँचाया है अतः तुम्हारे द्वारा कोई पाप नहीं किया गया है। तुमने उससे स्वयं लाभ कमाया है अतः इसे तुम्हारा पुण्य भी नहीं कहा जा सकता। तुमने और तुम्हारे पिता जी ने तो व्यापार करने का एक नया दृष्टिकोण दिया है। इतना कहकर नारद जी प्रभु से आज्ञा लेकर ब्रम्हा जी से मिलने हेतु अन्तध्र्यान हो गए।

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