जीवन को सफल नही सार्थक बनाए Rajesh Maheshwari द्वारा प्रेरक कथा में हिंदी पीडीएफ

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जीवन को सफल नही सार्थक बनाए

आत्म कथ्य

जीवन और हम

जीवन में

असफलताओं को

करो स्वीकार

मत होना निराश

इससे होगा

वास्तविकता का अहसास।

असफलता को सफलता में

परिवर्तित करने का करो प्रयास।

समय कितना भी विपरीत हो

मत डरना

साहस और भाग्य पर

रखना विश्वास,

अपने पौरूष को कर जाग्रत

धैर्य एवं साहस से

करना प्रतीक्षा सफलता की

पौरूष दर्पण है

भाग्य है उसका प्रतिबिम्ब

दोनो का समन्वय बनेगा

सफलता का आधार।

कठोर श्रम, दूर दृष्टि और पक्का इरादा

कठिनाईयों को करेगा समाप्त

होगा खुशियों के नए संसार का आगमन

विपरीत परिस्थितियों का होगा निर्गमन

पराजित होंगी कुरीतियाँ

होगा नए सूर्य का उदय

पूरी होंगी सभी अभिलाषाएँ

यही हैं जीवन का क्रम

यहीं हैं जीवन का आधार।

कल भी था, आज भी है,

और कल भी रहेगा।

भविष्य का निर्माण

अंधेरे को परिवर्तित करना हैं

प्रकाश में,

कठिनाईयों का करना हैं

समाधान

समय और भाग्य पर

है जिनका विश्वास

निदान है उनके पास

किन रंगों और सपनों में खो गए

सपने हैं कल्पनाओं की महक

इन्हें हकीकत में बदलने के लिए

चाहिए प्रतिभा

यदि हो यह क्षमता

तो चरणों में हैं सफलता

अंधेरा बदलेगा उजाले में

काली रात की जगह होगा

सुनहरा दिन

जीवन गतिमान होकर

बनेगा एक इतिहास

यही देगा नई पीढ़ी को

जीवन का संदेश

यही बनेगा सफलता का उद्देश्य।

उपरोक्त स्वरचित कविताओं की भावनाएँ मेरे जीवन का आधार रही हैं। प्रभु की सर्वश्रेष्ठ कृति है, पृथ्वी पर मानव का जन्म। हम जन्म से मृत्यु तक संघर्षशील रहते है। हम कल्पनाओं को हकीकत में बनाने का प्रयास करते हैं। हमने कभी खुशी कभी गम के बीच जो कुछ देखा सुना और समझा उसे प्रेरणादायक कहानी के माध्यम से प्रस्तुत किया है।

यह हमारी आने वाली युवा पीढी को रोचकता के साथ साथ प्रेरणास्पद भी रहे, यहीं मेरा प्रयत्न हैं। इस पुस्तक में हमने अनेक गणमान्य व्यक्तियों के निजी प्रेरणादायक अनुभवों को भी शामिल किया हैं। मेरा विश्वास है कि यह पुस्तक आपको सदैव प्रेरणा देती रहेगी। इस पुस्तक को सजाने, सँवारने में श्री अभय तिवारी, श्री राजेश पाठक ‘ प्रवीण ‘ एवं श्री देवेन्द्र राठौर का अभूतपूर्व सहयोग प्राप्त होता रहा है, इसलिए मैं इनका हृदय से आभारी हूँ।

राजेश माहेश्वरी

106, नयागांव हाऊसिंग सोसायटी,

रामपुर, जबलपुर ( म.प्र. ) 482008

मोबा.:- 09425152345

अनुक्रमणिका

क्रमांक कहानी का नाम

1. ज्ञान चक्षु

2. दायित्व

3. दिशा दर्शन

4. गुरू की ममता

5. कर्म ही पूजा है

6. स्मृतियाँ

7. राष्ट्र प्रथम

8. सेवा ही धर्म है

9. अनुभव

10. प्रतिभा

11. आंतरिक ऊर्जा जगाइये

12. आत्मबल

13. सद्विचारों की नींव

14. निर्जीव सजीव

15. सफलता की नींव

16. चयन

17. हृदय परिवर्तन

18. समाधान

19. जब जागो तब सवेरा

20. कर्मफल

21. दो रास्ते

22. गुरू दक्षिणा

23. आत्मनिर्भरता

24. दस्तक

25. जनआकांक्षा

26. गुरू शिष्य

27. जब मैं शहंशाह बना

28. मातृ देवो भव

29. जीवन ज्योति

30. परिश्रम

31. जादू की यादें

32. करूणा

33. योजना

34. उदारता

35. कर्तव्य

36. संतोष

37. सफलता के सोपान

38. जनसेवा

39. स्मृति गंगा

40. गुरूता

41. कालिख

42. जीवन दर्शन

43. जीवटता

44. काली मदिरा

45. माँ

46. विनम्रता

47. संघर्ष

48. दूर दृष्टि

49. शौर्य दिवस

50. नवजीवन

51. प्रेरणा

52. ईमानदारी

53. चुनौती

54. जो सुमिरै हनुमत बलवीरा

55. शांति की खोज

56. माफी

57. कल्लू

58. पागल कौन

59. आध्यात्म दर्पण

60. नारी शक्ति

61. कर्तव्य

62. नेता हमारे प्रेरणा स्त्रोत

63. जीवन को सफल नही सार्थक बनाए

64. अहंकार

65. उद्योग और विकास

66. शिक्षक का कर्तव्य

67. मित्र की मित्रता

68. कार्य के प्रति समर्पण

69. जीवन संघर्ष

70. गुरूकृपा

71. पड़ोसी धर्म

72. प्रिवेंशन इज बेटर देन क्योर

73. अजगर

74. तवांग

75. दुखों के उस पार

76. शिक्षा दान महादान

77. संकल्प साधना

78. दृढ़ संकल्प

79. जीवन का वह मोड़

80. वे शब्द

81. जीवन का सत्य

82. बिटिया बनी पहचान

83. आत्मीयता

84. आत्मविश्वास से सफलता

85. महिलाएँ आत्मनिर्भर बने

86. नेत्रहीन की दृष्टि

87. आत्मनिर्भरता

88. वर्तमान में जिए

1. ज्ञानचक्षु

डा. फादर डेविस जार्ज सेंट अलायसिस कालेज के पूर्व प्रधानाध्यापक एवं सेंट अलायसिस इंस्टीट्यूट आफ टेक्नोलाजी के वर्तमान डायरेक्टर है। उन्होने बताया कि विज्ञान धर्म के बिना अधूरा है और धर्म विज्ञान के बिना अंधा होता है आज वर्तमान समय में विश्व के वातावरण में तापमान के बढ़ने से सारे विश्व की आबादी को खतरा बढ़ गया है। यदि हमको धरती माँ की रक्षा करना है तो विज्ञान एवं धर्म को एक साथ एक मंच पर लाकर आबादी को शिक्षित करना चाहिए एवं जाति, धर्म, संप्रदाय एवं देश की सीमाओं को भूलकर संपूर्ण विश्व को एक मानते हुए मानवता की रक्षा के लिए आगे आना चाहिए।

उन्होंने आगे बताया कि 2005 में उन्हें पेंसिलुवानिया विश्वविद्यालय में 90 वर्षीय वैज्ञानिक चार्लिस टाउनेस के उद्बोधन को सुनने का अवसर प्राप्त हुआ। जिससे उन्हें इस दिशा में काम करने के लिए आगे बढ़ने की प्रेरणा मिली। कुछ वैज्ञानिको का उस सभा में मत था कि पृथ्वी समाप्त हो जाएगी। इसका जवाब देते हुए श्री टाउनेस ने बताया कि पृथ्वी कभी खत्म नही होगी क्योंकि उसमें स्वयं को वापिस पुनर्निर्मित करने की क्षमता है।

इसी दौरान गोष्ठी में उनकी मुलाकात यूगोस्वालिया के एक वरिष्ठ वैज्ञानिक से हुई। उन्हें जब पता हुआ कि वे भारत से आये हैं तो उन्होने बहुत विनम्रता से पूछा कि क्या आप महात्मा गांधी के जन्म भूमि वाले देश से आये हैं ? फादर डेविस ने गर्व से कहा कि हाँ मैं उसी भूमि से आ रहा हूँ जहाँ सत्य और अहिंसा के पुजारी का जन्म हुआ था। उन्हें यह जानकर आश्चर्य हुआ कि हम भारतवासी गांधी जी को भुलाते जा रहे हैं और विदेशी उनको सम्मान और श्रद्धा की दृष्टि से देख रहे है। जब वे सेंट अलायसिस कालेज में 19 वर्ष तक प्रधानाध्यापक थे तो वे अपने छात्रों को कहते थे कि शिक्षा का उद्देश्य हमारे अंदर छिपी हुई प्रतिभा को सकारात्मक रूप से बाहर लाना है। हमारा दृष्टिकोण जितना अच्छा होगा जीवन में प्रगति के पथ पर हम उतनी ही तेजी से आगे बढ़ सकेंगें।

जीवन में हमेशा याद रखिए कि:-

मैंने मजबूती माँगी तो प्रभु ने मुझे मजबूत बनाने के लिए कठिनाईयाँ दी।

मैंने बुद्धि माँगी प्रभु ने मुझे समस्याओं को निदान करने के लिए दे दिया।

मैंने संपन्नता माँगी तो प्रभु ने मुझे दिमाग देकर इस दिशा में आगे बढ़ने की सीख दे दी।

मैंने प्रभु से साहस माँगा प्रभु ने मुझे संकटों को निवारण करने हेतु दे दिया।

मैंने प्यार माँगा तो प्रभु ने कठिनाई में जी रहे लोगों की मदद करने का मौका प्रदान किया।

मैंने खुशहाली माँगी प्रभु ने मुझे अवसर दे दिया।

मैंने जो माँगा वो नही मिला परंतु मुझे जीवन में जो आवश्यकताएँ थी वो सब कुछ मिल गया। फादर डेविस ने युवाओं के लिए संदेश दिया है कि जीवन को निडर होकर जियो, हर कठिनाईयों का सामना करो और मन में यह दृढ़ निश्चय रखो कि ऐसा कोई काम नही जिसे तुम नही कर सकते।

2. दायित्व

प्रसिद्ध उद्योगपति श्री कैलाश गुप्ता अपने व्यापार व उद्योग से होने वाले लाभ को अपनी संपत्ति मानते थे किन्तु सन् 1986 में उन्होंने अपने निवास पर भगवद्गीता का परायण कराया। भगवद्गीता के परायण में जब उन्हें यह संदेश समझ में आया कि हम अपनी संपत्ति के केवल ट्रस्टी हैं, हमारी संपत्तियाँ वास्तव में हमारी नहीं है। इस कथन से उनके जीवन और चिन्तन की दिशा ही बदल गयी। उनके मन में यह बात गहरे पैठ गई कि उनका कर्तव्य है वे इस आय से अपनी न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति के उपरान्त जो भी शेष बचता है वह सामाजिक हित में उपयोग में लाएं।

आज व्यापार और उद्योग के संचालन में घूसखोरी एक अनिवार्य अंग हो गया है। यह माना जाने लगा है कि इसके बिना व्यापार और उद्योग का सुचारू संचालन संभव ही नहीं है। लेकिन गुप्ता जी का मानना है कि यदि आप रातों रात करोड़ों-अरबों कमाना चाहते हैं तो अलग बात है, यदि आप सीमित लाभ से संतुष्ट रहकर अपने व्यापार और उद्योग को बढ़ाते हैं तो फिर आपको बेइमानी का रास्ता अपनाने की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती। आप अपने सिद्धांतों पर अडिग रहकर ईमानदारी पूर्वक भी पर्याप्त धनोपार्जन कर सकते हैं। वे इसे स्वीकार करते हैं कि उनके विचारों में परिवर्तन से समाज में कोई बड़ा परिवर्तन न हुआ है और न ही होगा किन्तु यह नहीं सोचना चाहिए कि समाज हमें क्या दे रहा है बल्कि हमें यह सोचना चाहिए कि हम समाज को क्या दे रहे हैं।

3. दिशा-दर्शन

मध्यप्रदेश के पूर्व महाधिवक्ता श्री रविनन्दन सिंह सीधी जिले से सांसद भी रह चुके हैं। उनके जीवन में उनके अग्रज का एक कथन उनके जीवन का महत्वपूर्ण मोड़ बन गया। वे कहते हैं कि-

एम. एस. सी. (ए. जी.) प्रथम श्रेणी में प्रथम स्थान प्राप्त करने के उपरान्त अमेरिका के किसी सर्वमान्य विश्वविद्यालय से पी. एच. डी. करने की प्रबल आकांक्षा थी। कैलीफोर्निया विश्वविद्यालय में पी. एच. डी. में रजिस्ट्रेशन भी हो गया। साथ ही आई आई टी खरगपुर में भी स्कालरशिप के साथ पी. एच. डी. मे दाखिला मिल गया। पैसों के अभाव में कैलीफोर्निया नहीं जा सका और आई आई टी खरगपुर का पंजियन विलम्ब के कारण निरस्त हो गया। मैं इससे बहुत विचलित हुआ।

उनके बड़े भाई साहब जो सीधी कोर्ट में वकालत करते थे, एक दिन बड़े सहज भाव से कहने लगे- तुम वकालत करके हाई कोर्ट में वकालत करने का क्यों नहीं सोचते?

करने तो लगता पर सोचता हूँ क्या वकालत ईमानदारी से की जा सकती है?

वकालत हो या राजनीति दोनों में सच्चाई और ईमानदारी के साथ चलकर समाज सेवा की जा सकती है और इसमें पर्याप्त अर्थ तो मिल ही जाता है।

उनकी बात मुझे एक नया रास्ता दिखला गई। श्री सिंह रिसर्च की बात छोड़कर वकालत के क्षेत्र में आने की तैयारी करने लगे। सर हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय सागर से एल. एल. बी. और जबलपुर विश्वविद्यालय से एल. एल. एम. किया। उन्होने सीधे हाईकोर्ट से वकालत प्रारम्भ की। सूत्र वही रहे जो भाई साहब ने दिये थे- ईमानदारी और सच्चाई।

परिस्थितियाँ बदलीं, उन्हें सीधी जिले से सांसद का चुनाव लड़ने की चुनौती को स्वीकार करना पड़ा। उन्हें सीधी की जनता ने अपना प्रतिनिधि चुनकर संसद में स्थान दिलवाया। समय के साथ ही जबलपुर उच्च न्यायालय में वरिष्ठ अधिवक्ता मनोनीत किया गये। फिर एक समय वह भी आया जब उनसे उच्च न्यायालय के न्यायाधीश पद के लिये सहमति मांगी गई। उन्होंने उसे विनम्रता पूर्वक अस्वीकार किया था। बाद मे उन्हें मध्यप्रदेश के महाधिवक्ता के रुप में नियुक्त किया गया। आज भी सिंह साहब अपने भाई साहब द्वारा दिये गये ईमानदारी और सच्चाई के सूत्र के साथ समाज सेवा कर रहे हैं जिसने उन्हें जीवन में संतोष और आनन्द प्रदान किया है।

4. गुरु की ममता

समकालीन हिन्दी साहित्य में आचार्य भगवत दुबे एक हस्ताक्षर हैं। उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर तीन डिजर्टेशन, दो एम. फिल. एवं दो पी. एच. डी. हो चुकी हैं। अभी भी शोध कार्य जारी है। यदि उनके जीवन में उनके गुरु सनातन कुमार बाजपेयी न आये होते तो वे आठवीं पास ग्राम सेवक होते।

उनका गांव डगडगा हिनौता नगर से 16 किलोमीटर दूर बियावान में था। प्रायमरी स्कूल तीन किलोमीटर दूर दूसरे गांव में था जहां से उन्होंने चौथी पास की और नगर में अपने मामा के पास रहकर आठवीं तक की शिक्षा प्राप्त कर तीस रुपये प्रतिमाह पर ग्राम सेवक का प्रशिक्षण प्राप्त करने लगे। वे अपने घर में सबसे बड़े थे। उनके तीन भाई और दो बहनें थीं। माता-पिता अनपढ़ और गरीब थे। तीस रुपये में से 18-20 रुपये घर भेजते और अपने हाथों से खाना बनाकर नौकरी करते।

एक दिन बाजार में उनके गुरुदेव श्री सनातन कुमार बाजपेयी ने उन्हें देखा। भगवत दुबे पढ़ने में होशियार थे और प्रथम आते थे इसलिये उनके गुरुओं के वे स्नेहपात्र रहे। बाजपेयी जी ने उन्हें आवाज दी - भगवत।

दुबे जी ने जाकर उनके चरण स्पर्श किये। उन्होंने उनका हालचाल पूछा और कहा- आजकल दिखते नहीं, कहां हो? कहां पढ़ते हो?

भगवत दुबे जी ने कहा कि मैंने पढ़ाई छोड़ दी है। ग्राम सेवक के पद पर नौकरी कर रहा हूँ। तीस रुपये प्रतिमाह मिल जाता है।

इतने में क्या होगा? आगे पढ़ाई करो!

दुबे जी ने कहा कि मेरे माता-पिता गरीब हैं। वे आगे की पढ़ाई का खर्च नहीं उठा सकते।

उन्होंने समझाया और तब तक समझाया जब तक दुबे जी की समझ में नहीं आ गया। दुबे जी ने हाई स्कूल में दाखिला ले लिया। उनके गुरु जी ने उनकी आर्थिक सहायता भी की और उन्हें अंग्रेजी भी पढ़ाई। उन्होंने विशेष योग्यता के साथ हायर सेकेण्डरी परीक्षा उत्तीर्ण की और सरकारी मेडिकल कालेज में नौकरी करने लगे। उन्होंने एम. ए., एल. एल. बी. किया। उन्हें पदोन्नति मिली और कालान्तर में वे कविताएं लिखने लगे। अब तक उनकी 37 पुस्तकें छप चुकी हैं।

यदि उनके जीवन में सनातन बाजपेयी जैसे गुरु न मिले होते तो वे तो आठवीं के बाद पढ़ाई छोड़ चुके थे। फिर भगवत दुबे आज के आचार्य भगवत दुबे न होते।

5. कर्म ही पूजा है

डा के सी देवानी ख्याति प्राप्त शल्य चिकित्सक हैं। वे अपने मिलनसार स्वभाव, मधुर वाणी व सेवाकार्य के लिये समर्पित व्यक्तित्व के रूप में भी जाने जाते हैं। उनके जीवन की एक घटना ने उन्हें चिकित्सा के क्षेत्र में नई सोच के साथ आगे बढ़ने की ओर प्रेरित किया। आज से कई वर्ष पूर्व वे जबलपुर मेडिकल कालेज में शल्य चिकित्सा विभाग में कार्यरत थे उनसे वरिष्ठ चिकित्सक डा अनिल मिश्रा द्वारा बताया गया कि आज हमें चार पाँच मरीजों की आकस्मिक शल्य चिकित्सा करनी पडेगी अन्यथा उनका जीवन खतरे में आ जाएगा। उनके निर्देशानुसार डा. देवानी ने सभी व्यवस्थाएँ पूर्ण करके उनके सहयोग एवं मार्गदर्शन में शल्य चिकित्सा प्रारंभ कर दी। शाम हो चुकी थी एवं दीपावली का दिन होने के कारण डा. देवानी अपने घर जाकर लक्ष्मी पूजन करने हेतु डा. अनिल मिश्रा से निवेदन कर रहे थे।

डा. मिश्रा ने उनको समझाते हुए कहा कि सेवा से बड़ी कोई दूसरी पूजा नही होती। यदि हम मरीजों को बिना शल्य चिकित्सा के छोडकर जाते हैं तो हो सकता है कि रात में इन्हे असीम कष्ट सहना पडे जो कि इनके जीवन के लिये घातक भी हो सकता है। हम सभी चिकित्सकों ने डिग्री प्राप्त करते समय यह वचन दिया है कि हम सेवा के लिये सदैव समर्पित रहेंगे। लक्ष्मी जी की पूजा में धन प्राप्ति की भी कामना रहती है इतना कहकर उन्होने एक रूपये निकालकर उसे अपनी दोनो आंखों पर लगाकर लक्ष्मी जी का ध्यान करने के लिये कहा और बोले, लो लक्ष्मी जी का पूजन हो गया अतः अपना पूरा ध्यान पुनः शल्य चिकित्सा की ओर केंद्रित करो और तुम प्रभु का स्मरण करते हुये शल्यक्रिया संपन्न करते रहो। डा. देवानी ने अपने वरिष्ठ चिकित्सक के सुझाव का सम्मान करते हुये पूरी रात अपने को इस कार्य में व्यस्त रखा एवं प्रातःकाल कार्य समाप्त हो जाने के बाद डा. मिश्रा की इजाजत लेकर अपने घर चले गए।

घर पहुँचने पर उन्होने जब अपने पिताजी को इस वस्तु स्थिति से अवगत कराया तो उनकी प्रसन्नता का ठिकाना नही था। उन्होने आशीर्वाद देते हुए कहा कि तुम जीवन पर्यंत इसी प्रकार सेवारत रहना मैंने तुम्हें डाक्टरी की शिक्षा इसलिये दिलायी है कि तुम गरीबों, जरूरतमंदों एवं सर्वहारा वर्ग के लिये समर्पित रहो जिनके पास धन होता है उन्हें तो अच्छे से अच्छी चिकित्सा सुविधाएँ प्राप्त हो जाती हैं परंतु धन विहीन व्यक्ति अपेक्षित चिकित्सा से वंचित रहकर धनाभाव के कारण परेषान होता रहता है। ऐसे जनमानस की सेवा करना हमारा कर्तव्य है। यदि तुम लक्ष्मी पूजा के लिये आपरेशन छोड़कर आ जाते और यदि रात में किसी मरीज की मृत्यु इस कारण हो जाती तो तुम जीवन में कभी भी अपने आप माफ नही कर पाते। इस घटना ने उनके जीवनपथ में गहरी छाप छोडी और आज भी वे कर्म ही पूजा है, के सिद्धांत को मानते हुए इस पुनीत कार्य में लगे हुए हैं।

6. स्मृतियाँ

श्री हर्ष पटैरिया ख्यातिलब्ध उद्योगपति हैं। वे सफल उद्योगपति होने के साथ ही धर्म को मानने और समझने वाले, संगीत और सांस्कृतिक कार्यक्रमों में गहरी रूचि रखने व सहयोग करने वाले व्यक्तित्व हैं। उनकी माता जी श्रीमती चन्द्रप्रभा पटैरिया एक संवेदनशील और वात्सल्य से ओतप्रोत नारी थीं जिनका वात्सल्य उन सभी बच्चों और नौजवानों के प्रति था जिनमें कोई भी प्रतिभा हो और जो अपनी प्रतिभा को निखारने के लिये प्रयत्नशील हो।

वैसे तो बचपन विस्मृतियो का संसार है। बच्चे किसी भी बात को चट भूल जाते हैं। पल भर में खुश हो जाते हैं पल भर में रुठ जाते हैं। लेकिन उसी बचपन में यदि कोई बात दिल में उतर जाए तो फिर वह बच्चा उस बात को जीवन में कभी नहीं भूलता। हर व्यक्ति के मानस पटल पर कुछ छवियाँ अंकित होती हैं जो उसके बचपन में उसके अंतःकरण में अंकित हुई थीं। शायद इसी को संस्मरण कहते हैं। संस्मरण सिर्फ बचपन भर के नहीं होते हैं, वे जवानी के भी होते हैं, प्रौढ़ावस्था के भी होते हैं और बुढ़ापे के भी होते हैं। हमारे संस्मरणों में कुछ संस्मरण ऐसे भी होते हैं जिनका संबंध हमारी विचारशीलता और हमारी मानसिकता से होता है। जिनका हमारे जीवन पर बहुत गहरा प्रभाव होता है। जिनने हमारे चिन्तन और हमारे जीवन को एक नयी दिशा दी होती है। कभी-कभी ये घटनाएं अत्यन्त संक्षिप्त भी हुआ करती हैं।

आज भी बच्चों में रेलगाड़ी, उसकी कूकी, स्टेशन और वहाँ के वातावरण के प्रति रोमांचक उत्सुकता देखी जाती है। जिस समय वे बच्चे थे उस समय कोयले के इन्जन से चलने वाली रेलगाड़ी चला करती थी। जब वह चलती थी तो एक स्वर में झुक-झुक आवाज करती थी। बीच-बीच में कूकी मारती थी। बच्चे और मिमिकरी कलाकार रेलगाड़ी की उन आवाजों की नकल करके मन बहलाते और प्रसन्न हुआ करते थे।

हर्ष जी ने बताया कि उस समय मैं भी बच्चा था, मेरे मन में भी रेलयात्रा के प्रति तीव्र आकर्षण था। मैं अपनी माताजी श्रीमती चन्द्रप्रभा पटैरिया के साथ बाम्बे हावड़ा मेल के वातानुकूलित डिब्बे के कूपे में बैठा रेलगाड़ी के चलने की प्रतीक्षा कर रहा था। जैसे ही रेलगाड़ी चली मेरी खुशी का तो ठिकाना नहीं रहा। मुझे ऐसा लग रहा था जैसे में स्वर्ग की सैर कर रहा हूँ। तभी माताजी ने मुझसे पूछा-

कैसा लग रहा है?

मैंने कहा- बहुत अच्छा।

वे बोलीं- अगर परिश्रम करोगे तो जीवन भर ऐसे ही अच्छे रहोगे।

उस समय मैं इस कथन का अर्थ नहीं समझ पाया था किन्तु यह वाक्य मेरी स्मृति में अमिट रुप से अंकित हो गया। माता जी का वह कथन मुझे याद तो तभी हो गया था किन्तु उसका अर्थ बाद में समझ में आना प्रारम्भ हुआ जब मैंने व्यवहारिक जीवन में प्रवेश किया। जब मेरे जीवन को उत्तरदायित्वपूर्ण अर्थ मिले। आज भी लगता है जैसे मैं उस कथन को पूरी तरह नहीं समझ पाया हूँ क्योंकि माता जी ने उस दिन मेरे जीवन में परिश्रम के महत्व को बैठा कर मुझे जीवन में सफलता का रहस्य समझा दिया था।

7. राष्ट्र प्रथम

इन्जीनियर डी. सी. जैन एक सुपरिचित नाम है। वर्तमान में वे एक निजी इंजीनियरिंग कालेज के संस्थापक एवं निर्देशक हैं। वे मेकेनिकल इन्जीयनिरिंग की डिग्री लेकर 1957 में म.प्र.राज्य शासन की सेवा में आ गए। उन्हें 1994 में खरखरा परियोजना में कार्यपालन यंत्री के रूप में पदस्थ किया गया।

दुर्ग में स्थित भिलाई स्टील प्लांट में उसकी उत्पादन की क्षमता को दुगना करने के लिये अतिरिक्त पानी की आवश्यकता थी। इसके लिये खरखरा जलाशय का काम दो साल में पूरा करना था। भिलाई स्टील प्लांट रसिया सरकार ने भारत में लगाया था। इस परियोजना के लिये उनकी शर्त थी कि उनके देश की मशीनें खरीदकर उससे बांध बनाया जाये तथा भविष्य के लिये भी हैवी अर्थ मूविंग मशीनें उनसे ही खरीदी जायें। खरखरा जलाशय के लिये मशीनों का टेंडर रसिया सरकार को मिला और उसमें यह शर्त रखी गई कि उनकी मशीनों को चलाकर देखा जाएगा और अच्छी रिपोर्ट आने के बाद अन्य परियोजनाओं के लिये मशीनें खरीदी जावेंगी।

खरखरा परियोजना के लिये मशीनें विशाखापट्टनम पोर्ट के द्वारा खरखरा जलाशय पहुचाई गईं। इस काम को करने का दायित्व श्री जैन को सौंपा गया।

मशीनें मिट्टी खोदने और भरकर बांध के ऊपर लाकर डालने के काम में लगाई गईं। मशीनों के लोहे की क्वालिटी अच्छी नहीं थी। वे कुछ ही महीनों में एक के बाद एक खराब होने लगीं। श्री जैन और उनकी टीम के सदस्य बड़ी मेहनत और ईमानदारी से उन्हें सुधारते और चलाते किन्तु उनमें इतने अधिक मैन्यूफैक्चरिंग डिफैक्ट थे कि उनको ठीक करते-करते वे परेशान हो गए। इसी बीच दिल्ली से सेन्ट्रल वाटर पावर कमीशन से पत्र आये कि मशीनें कैसी चल रहीं हैं इसकी विस्तृत रिपोर्ट भेजो।

श्री जैन ने एक विस्तृत रिपोर्ट सेन्ट्रल वाटर पावर कमीशन नई दिल्ली को भेज दी। उस रिपोर्ट में लिखा कि मशीनों में बहुत खराबी है, इनका कार्य संतोषजनक नहीं है। दिल्ली में इस रिपोर्ट को पढ़ते ही हड़कम्प मच गया। ये मशीनें रसिया सरकार डालर के बदले रूपयों में दे रही थी। श्री जैन को रसिया एजेन्सी से चर्चा के लिये नई दिल्ली बुलाया गया। उन्होंने उनसे चर्चा में उन्हें बताया कि मशीनों में क्या-क्या खराबी है और मशीनें बिलकुल नहीं चलती हैं। उनके पास जितनी मशीनें थीं उनमें से तीस प्रतिशत ही चलती थीं बाकी हमेशा सुधार कार्य के लिये खड़ी रहती थीं। पुर्जे बदलने के लिये भारतीय एजेण्ट के फोरमेन और मेकेनिक भी हमेशा परियोजना में ही लगे रहते थे।

उन पर दबाव बनाया जाने लगा कि वे लिखकर दे दें कि खरखरा जलाषय में रसिया मशीनें संतोषजनक चल रही हैं। चारों ओर से दबाव के साथ लालच भी दिया जा रहा था किन्तु श्री जैन ने झूठा प्रमाणपत्र देने से साफ मना कर दिया। वे जानते थे कि उनके एक झूठे प्रमाणपत्र से करोड़ों रूपये मूल्य की बेकार मशीनें भारत में आ जाएंगी। उन्हें यह भी जानकारी मिली कि दूसरी परियोजना के लिये मशीनें काला सागर के बंदरगाह में रवाना होने के लिये खड़ी हैं। किन्तु टेण्डर की शर्तों के अनुसार जब तक खरखरा परियोजना के इन्जीनियर का प्रमाण पत्र नहीं आ जाता तब तक टेण्डर पर मशीनें भेजने के लिये हस्ताक्षर नहीं हो सकते।

श्री जैन का मत था कि देश प्रथम है, देश का विकास प्रथम है अतएव वे अपनी जिद पर अड़े रहे। उन्होंने झूठा प्रमाण पत्र नहीं दिया और अन्त में रसिया सरकार से अतिरिक्त मशीनों की खरीदी नहीं की गई। खरखरा जलाशय पूर्ण होने के बाद श्री जैन को स्थानान्तरित कर दिया गया। रसियन मशीनें जहाँ-जहाँ भेजी गईं सब खड़ी रहीं। कोई भी इन्जीनियर उनसे काम नहीं करा सका। अंत में उन मशीनों को तौलकर लोहे के भाव में रायपुर और दुर्ग के कारखानों से कबाड़ियों को बेच दिया गया।

श्री जैन को आज भी इस बात की अत्यधिक प्रसन्नता है कि उन्होंने अपने देश को करोड़ों की क्षति से बचा लिया। वे लालच में नहीं पड़े। वे आज भी कहते हैं- देश प्रथम है, देश का विकास प्रथम है।

8. सेवा ही धर्म है

एक वृद्ध व्यक्ति को जो कि पेट फूलने के कारण असीम पीड़ा में थे उन्हें लेकर उनके परिवारजन शासकीय चिकित्सालय में पहुँचे थे। वहाँ पर चिकित्सकों ने उनकी जाँच के उपरांत बताया कि मल ना निकलने के कारण इन्हें यह तकलीफ हो रही है, उन सज्जन की अधिक उम्र होने के कारण दवाईयों से इसका इलाज संभव नही था। उन्हें चिकित्सकों ने सलाह दी कि इसका एकमात्र निवारण, कृत्रिम तरीके से मल निकालना है तभी इन्हें तकलीफ से मुक्ति मिल सकेगी।

इस कार्य हेतु उन्होंने एक सेवक को बुलाकर कार्यविधि समझा दी। उसने अपने हाथ में दस्ताने पहन कर अपनी उंगलियों से मल निकालना प्रारंभ कर दिया और इस कारण खून भी रिसने लगा। उनके परिवारजन यह देखकर बहुत द्रवित हो गये और उनके पोतों ने यह निर्णय लिया की इस कार्य को वह स्वयं अपने हाथों से करेगें ताकि दादाजी को कष्ट कम से कम हो सके। उनके दो पोते थे उनमें से एक ने मल निकासी का कार्य अपने जिम्मे लिया और दूसरे ने उनकी साफ सफाई एवं मालिश का भार अपने ऊपर ले लिया, और उन्हें अस्पताल से वापस अपने घर ले आये।

वे दोनो बड़ी लगन, परिश्रम एवं सेवाभाव से यह कार्य लगभग एक माह तक करते रहे जब तक उनके दादाजी जीवित रहे। उनके दोनो पोतों के पिताजी का निधन हृदयाघात के कारण पहले ही हो चुका था और इसका गहरा सदमा दादाजी के मन पर पड़ा था जिसके कारण उन्होंने बिस्तर पकड़ लिया था।

इस सेवा के प्रति इतने समर्पण का कारण उनके परिवार की सभ्यता, संस्कृति व संस्कार थे जो कि उन्हें विरासत में मिले थे। उनके दादाजी के जीवनकाल में उनकी माँ को टी.बी हो गयी थी। यह घटना काफी पुराने समय की बात है जब टी.बी को छूत की बीमारी समझा जाता था और मरीज के पास आने से भी लोग कतराते थे। ऐसे समय में रिक्शे वाले भी टी.बी के मरीज को बैठाकर अस्पताल तक ले जाने में भी संकोच महसूस करते थे। दादाजी ने अपनी स्वर्गीय माँ की निस्वार्थ भाव से बहुत सेवा की थी उनके दोनो पोतो की माँ ने उन्हें बताया था कि ऐसी विपरीत परिस्थितियों में उनके दादाजी अपनी माँ को कंधे पर लेकर शासकीय चिकित्सालय केंटोनमेंट बोर्ड ले जाया करते थे। उन्होने आजीवन माँ की सेवा सुश्रुषा में कभी कोई कमी नही होने दी परंतु अंत में उनकी माँ का देहावसान इस रोग के कारण हो गया था।

यह घटना इस बात की ओर इंगित करती है कि प्रत्येक पुत्र को अपने माता पिता की अंतिम समय तक सेवा करना चाहिए उसकी सेवा भावना का प्रभाव संतानों पर भी पड़ता है इसलिए परिवार की सेवा भावना का प्रभाव उनके पोतों के संस्कारों में था जिस कारण वे अपने दादाजी की इतनी कठिन सेवा के लिये समर्पित रहे। यह सच्ची घटना जबलपुर शहर के मेरे मित्र एवं ख्यातिलब्ध व्यवसायी श्री प्रेम दुबे के परिवार की है जिससे प्रेरणा मिलती है कि हमें अपने बुजुर्गों की सेवा के प्रति सदैव समर्पित रहना चाहिये।

9. अनुभव

इंजी सुरेंद्र श्रीवास्तव एक अच्छे आर्किटेक्ट माने जाते हैं। उनके कुशल मार्गदर्शन में नगर की अनेक इमारतों का निर्माण संपन्न हुआ है। एक सहकारी बैंक का निर्माण भी उनके मार्गदर्शन में हो रहा था। एक दिन उस निर्माणाधीन इमारत के निरीक्षण हेतु जनप्रतिनिधिगण शासकीय अधिकारीयों के साथ पहुँचते हैं। वे अवलोकन के दौरान अपना सुझाव देते हैं कि भूकंप के दौरान सुरक्षा की दृष्टि से इमारत को अधिक मजबूती प्रदान करने हेतु समुचित प्रावधान कर दें ताकि किसी प्रकार की कोई समस्या भविष्य में निर्मित ना हो। यह सुनकर श्रीवास्तव जी ने अपनी सहमति व्यक्त करते हुये उचित निर्देश देकर उन सभी निरीक्षणकर्ताओं को प्रसन्न कर दिया। उन सभी के जाने के उपरांत श्रीवास्तव जी ने अपने निर्देश वापस लेकर पूर्व निर्धारित योजना अनुसार ही कार्य करने लगे।

श्रीवास्तव जी को विश्वास था कि भूकंप आने पर भी इमारत को कोई नुकसान नही पहुँचेगा उनसे जब कुछ लोगों ने पूछा कि आपने यह बात उन निरीक्षणकर्ताओं को क्यों नही बता दी ? वे विनम्रतापूर्वक बोले कि लोग अपने को ज्ञानवान बताने के लिये किसी भी विषय पर किसी भी समय मुफ्त में अपने विचार व्यक्त करते हुये सुझाव दे देते हैं मेरा सिद्धांत है कि जिसे ज्ञान ना हो और वह उस विषय पर सुझाव दे रहा हो तो उससे बहस करना व्यर्थ में अपना समय गँवाना है। उन निरीक्षणकर्ताओं में कोई भी आर्किटेक्ट नही था और उनको समझाने का प्रयास करना व्यर्थ था। यदि मैं उनके सुझाव के अनुसार कार्य करता तो लाखों रूपये का खर्च बढकर शासकीय धन का व्यर्थ ही अपव्यय होता इसलिये ऐसे अवसर पर उनकी हाँ में हाँ मिलाकर मैंने अपना पल्ला झाड़ लिया।

उस सहकारी बैंक का निर्माण पूर्ण होने के उपरांत अचानक ही एक दिन भूकंप आ जाता है, शासकीय अधिकारीगण एवं जनप्रतिनिधिगण जिन्होंने इमारत का निरीक्षण किया था और अपने सुझावों से आर्किटेक्ट को अवगत कराया था वे अपनी दूरदर्शिता क