लाजवन्ती Ved Prakash Tyagi द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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लाजवन्ती

लाजवन्ती

मैं तो अपनी बेटी को डॉक्टर बनाऊँगा, नमिता के पेट पर हाथ फिराते हुए राजेन्द्र ने कहा, और अगर बेटा हुआ तो, नमिता ने अपने पेट को दोनों हाथों का सहारा देते हुए पूछा, बेटा हुआ तो उसको भी डॉक्टर ही बनाऊँगा, बड़ा डॉक्टर बनकर मेरी क्लीनिक वो संभालेगा।

राजेन्द्र व नमिता की बातें अभी चल ही रही थी कि राजेन्द्र ने अचानक घड़ी की तरफ देखा, साड़े बारह बज चुके थे, सुबह उठकर क्लीनिक भी खोलना था और नमिता को जांच के लिए भी जाना था।

रात बहुत हो गयी अब सोना चाहिए और इतना कहकर राजेन्द्र ने बत्ती बंद कर दी........

क्लीनिक पर आए सभी मरीजों को देखकर दवा देने के बाद डॉ राजेन्द्र स्वयं अपनी पत्नी नमिता को लेकर संजीवन अस्पताल गए वहाँ डॉ खेड़ा ने नमिता का अच्छी तरह निरीक्षण किया फिर कुछ रक्त जांच और अल्ट्रा साउंड के लिए भेज दिया।

सभी जांच के परिणाम तो ठीक थे लेकिन अल्ट्रा साउंड देख कर डॉ खेड़ा के चेहरे पर थोड़ा तनाव सा दिखने लगा तभी राजेन्द्र ने पूछा , “डॉक्टर साहब सब ठीक तो है न?”

डॉ खेड़ा, “हाँ सब ठीक है बस थोड़ी सी समस्या आ गयी, बच्चा उल्टा है, लेकिन इसमे घबराने की कोई बात नहीं, मैं डिलिवरी के समय यहीं रहूँगी, सब अपनी देख रेख में करवाऊँगी, आप चिंता न करें।”

राजेन्द्र को भी चिंता होने, डर सताने लगा कहीं कुछ गलत न हो जाए।

उस दिन नमिता को बहुत तेज दर्द हुआ, राजेन्द्र तुरंत संजीवन अस्पताल लेकर चला गया और भर्ती करवा दिया। डॉ खेड़ा से बात की तो दुर्भाग्यवश वह शहर से बाहर थी, डॉ खेड़ा ने बताया कि उसकी सास का निधन हो गया है और वह यहाँ गाँव में आई हुई है अभी तेरहवीं से पहले तो आ भी नहीं सकेगी लेकिन उसने अपने कनिष्ठ डॉक्टर को फोन करके सब समझा दिया।

राजेन्द्र परेशान तो था ही फिर भी उसने अपने मित्र धर्म वीर को फोन करके सारी बात बताई।

धर्म वीर अपनी पत्नी लाजवंती को लेकर तुरंत ही संजीवन अस्पताल पहुँच गया और राजेन्द्र को हिम्मत बंधाने लगा, लाजवंती सीधी नमिता के पास चली गयी।

नमिता दर्द से कराह रही थी, डिलीवरी हो नहीं रही थी, बच्चा अड़ गया था, डॉक्टर ने कहा अब तो बड़ा ऑपरेशन करके ही बच्चे को निकाला जा सकता है, राजेन्द्र ने भी ऑपरेशन के लिए हाँ कर दिया तो डॉक्टर की टीम नमिता को ऑपरेशन कक्ष में ले गयी एवं वहाँ अपनी पूरी कोशिश के बाद भी नमिता को बचाया नहीं जा सका लेकिन बच्चे को बचा लिया गया।

नमिता ने एक सुंदर हाष्ट पुष्ट बच्चे को जन्म दिया था लेकिन नमिता के गम में राजेन्द्र इतना दुखी था कि अपने बेटे को भी ढंग से देख न सका।

लाजवंती बच्चे को अपने साथ अपने घर ले गयी और स्वयं ही उसको पालने लगी।

लाजवंती को धर्म वीर प्यार से लाजों जी कहता था, राजेन्द्र भी लाजों भाभी कहकर ही पुकारता था, एक दिन कहने लगा लाजों भाभी तुम्हारा यह उपकार में जीवन भर नहीं भूलूँगा।

राजेन्द्र के बेटे का नाम भी लाजों भाभी ने ही अरुण रखा था जो सब को बहुत पसंद आया।

समय बीतता गया अरुण चार साल का हो गया, अब लाजवंती भी गर्भवती थी........

धर्म वीर की पदोन्नति हुई तो स्टेट बैंक ने चीफ मैनेजर बनाकर बिहार के पटना शहर में भेज दिया।

लाजों को अपने साथ लेकर धर्म वीर पटना चला गया, अरुण को राजेन्द्र के पास ही छोडना पड़ा, उसका भी कोई और सहारा नहीं था और फिर लाजों को स्वयं ही बच्चा होने वाला था, ऐसे में नई जगह पर अरुण की देखभाल भी मुश्किल हो जाती।

लाजवंती को एक साथ दो बच्चे हुए, एक लड़का व एक लड़की। अपने दोनों बच्चों को संभालने में धर्मवीर व लाजों इतने व्यस्त हो गए कि फिर कभी दिल्ली आना ही नहीं हुआ।

दोनों बच्चे रीमा और गणेश स्कूल जाने लगे, वहीं पटना के एक अच्छे स्कूल में दोनों का दाखिला करा दिया, रीमा तो पढ़ाई में बहुत अच्छी थी लेकिन गणेश का पढ़ाई में मन नहीं लगता था।

इधर अरुण भी पढ़ाई में अच्छा था, अपनी कक्षा के बच्चों में सबसे होशियार बच्चा होने के कारण शिक्षकों का भी लाड़ला था अब अरुण को लाजवंती माँ की याद भी नहीं आ रही थी जबकि उस समय जब अरुण को लाजों छोडकर गयी थी अरुण सिर्फ चार साल का था, लाजों को ही माँ कहता था, उस समय अरुण बहुत रोया था, लाजों भी अपने आँसू रोक नहीं पायी थी, बड़ी मुश्किल से दोनों को एक दूसरे से अलग किया था।

कई दिनों तक अरुण ने ढंग से कुछ खाया पिया भी नहीं, उधर लाजों का भी बुरा हाल था, डॉक्टर ने भी कह दिया था कि दुखी रहने से बच्चे पर असर पढ़ सकता है।

अब तो अरुण अपनी पढ़ाई में व्यस्त था और लाजों दोनों बच्चों को पालने में व्यस्त थी।

राजेन्द्र ने अरुण को बारहवीं पास करते ही चिकित्सक की परीक्षा दिलवाई एवं चुन लिया गया लेकिन उसको पॉण्डिचेरी मेडिकल कॉलेज मे दाखिला मिला। अरुण पॉण्डिचेरी पहुँच कर बहुर खुश था, समुन्द्र का किनारा, साफ सुथरा शहर और सुंदर मेडिकल कॉलेज।

अभी अरुण का अंतिम वर्ष था, अपने कॉलेज में वरिष्ठ छात्रों में था, नए छात्रों की रैंगिंग भी निडर होकर करता था।

उस वर्ष उसने उस लड़की की रैंगिंग शुरू की ही थी कि उसका पैर मुड़ गया और मोच आ गयी, अरुण ने दौड़ कर उसको संभाला और गिरने से बचा लिया उसके पैर की पट्टी की एवं क्षमा भी मांगी। इस घटना ने दोनों को एक दूसरे के नजदीक ला दिया और आपस में घनिष्ठता बढ्ने लगी जो प्यार में बदल गयी।

अरुण रीमा से बहुत प्यार करने लगा था अतः उसको छोडकर नहीं जा सकता था, पढ़ने में दोनों ही होशियार थे अतः अरुण ने एम डीके लिए भी पॉण्डिचेरी का वही कॉलेज चुना क्योंकि वह रीमा से अलग होकर कहीं दूर नहीं जाना चाहता था।

धरमवीर का वैसे तो सब ठीक चल रहा था लेकिन उस्क्जो सब पर अत्यधिक विश्वास करना ही उसके लिए भरी पद गया। धरमवीर के बैंक में गबन हुआ और आरोप धरमवीर पर आ गया, उसके एक मैनेजर ने धरमवीर का भरोसा जीत कर उसको धोखा दे दिया। धरमवीर ये तीनों दुख विश्वासघात, गबन और आरोप एक साथ सहन नहीं कर सका और हृदय घात होने से उसकी अचानक मृत्यु हो गयी।

राजेन्द्र को जब पता चला तो वह तुरंत ही सब काम छोड़ कर पटना पहुँच गया।

बैंक ने धरमवीर की पत्नी की कोई भी सहायता करने से मना कर दिया और घर भी खाली करवा लिया। लाजवंती एक किराए के कमरे में जाकर रहने लगी, राजेन्द्र आर्थिक सहायता भी करने लगा।

एक दिन जब राजेन्द्र पटना लाजवंती के पास गया हुआ था, एक ही कमरा था, गणेश भी घर पर नही था तो मकान मालिक ने मोहल्ले वालों को इकठ्ठा कर लिया एवं लगा लाजवंती के चरित्र पर लांछन लगाने, दोनों के बारे में भद्दी व अश्लील बातें करने लगा।

लाजवंती ने पहले कभी बताया नहीं था , उस दिन बताया कि मकान मालिक अकेले पाकर उसको छेड्ता है एवं कुदृष्टि रखता है, भद्दी भद्दी फब्तियाँ कसता है।

मोहल्ले के लोग भी मकान मालिक के सुर में बोलने लगे, सबने मिलकर हँगामा खड़ा कर दिया। उस समय उस हंगामे को देखते हुए राजेन्द्र ने आव देखा ना ताव और सबके सामने लाजों जी की मांग में सिंदूर भर दिया, लाजवंती भी कुछ ना कह सकी। सभी लोग शांत होकर अपने अपने घर चले गए, मकान मालिक के मंसूबों पर भी पानी फिर गया।

राजेन्द्र लाजवंती एवं गणेश को लेकर अपने घर दिल्ली आ गया एवं रीमा को भी फोन पर सब बातें बता दीं।

शाम को रीमा ने अरुण को पूरी बात बताई एवं कहा कि उसको दिल्ली जाना पड़ेगा तब अरुण ने कहा कि मैं भी साथ चलूँगा।

दोनों दिल्ली पहुंचे तो देखकर हैरान रह गए कि रीमा की माँ और अरुण के पिता ने ही आपस में शादी कर ली थी, रीमा और अरुण के ऊपर तो मानो बिजली गिर पड़ी थी, वे दोनों तो एक दूसरे से बेहद प्यार करते थे लेकिन अब आपस में शादी कैसे कर सकते थे, दुखी मन से दोनों वापस मेडिकल कॉलेज चले गए।

अरुण ने कहा, “रीमा देखो! हम दोनों एक दूसरे से बेहद प्यार करते हैं। एक दूसरे के बिना रह भी नहीं सकते लेकिन अब क्या हमारी शादी को समाज स्वीकार करेगा?”

रीमा बोली, “अरुण देखो! ना तो हमारी माँ एक है और ना हमारा पिता एक है फिर हम शादी क्यो नहीं कर सकते, अगर हम एक बार शादी कर लेंगे तो समाज अपने आप मान जाएगा।” “तो क्या हमे मम्मी पापा से आज्ञा लेनी होगी?” अरुण ने पूछा तो रीमा बोली, “नहीं अरुण! पहले हम दोनों शादी कर लेते हैं, उसके बाद सबको बता देंगे। अगर हम माँ बाप की आज्ञा लेने गए तो तो वो कभी भी इस रिश्ते को स्वीकार नहीं करेंगे, सोचो अगर हम पहले ही शादी कर चुके होते तब क्या हम अलग होइए?”

अरुण बोला, “हाँ, यही अच्छा रहेगा, मैं आज ही कोर्ट में पंजीकरण करा देता हूँ, कोर्ट में करके फिर मंदिर में विधि-विधान से शादी कर लेंगे।”

अरुण व रीमा ने यह साहस पूर्ण कदम उठाकर शादी कर ली दोनों ने अपने जीवन भर की खुशी दामन में समेट ली वरना घुट घुट कर मरने के अलावा और कोई चारा नहीं था, एक दूसरे के बिना वे दोनों रह भी नहीं सकते थे।

समय गुजरता गया सब कुछ सामान्य हो गया और दोनों के दो खूबसूरत बच्चे हुए।

अब उनके भी दोनों बच्चे डॉक्टर बन गए हैं और उनका नर्सिंग होम संभाल रहे हैं।