प. दीन दयाल और राह भटका युवक
प. दीन दयाल उपाध्याय जी के मित्र की बहन की शादी थी। गाँव मे शादी के लिए के बहुत तैयारियां करनी होती हैं, क्योंकि प्रत्येक वस्तु नगर से ही खरीद कर लानी पड़ती है। नगर मे तो पैसे के बल पर सभी कार्य आसान हो जाते है और व्यक्ति स्वयं को सहज महसूस करने लगता है। परंतु गाँव मे कोई सामान छूट गया तो फिर भागो नगर की तरफ, और गाँव से एक बार नगर गए तो वापस आने मे सांय ही हो जाती है। लेकिन गाँव मे एक लाभ है कि सभी लोग मिलकर काम करवाते हैं एवं एक दूसरे की सहायता के लिए बिना बताए या कहे ही तत्पर रहते हैं। प. दीन दयाल जी भी जैसे ही समय मिलता तो मित्र के यहाँ पहुँच जाते एवं उनके काम मे सहायता करते थे। जैसे जैसे शादी का समय नजदीक आ रहा था वैसे वैसे चिंता भी बढ़ती जा रही थी एवं धन भी धीरे धीरे खर्च होता जा रहा था। मित्र की इस चिंता से प. जी भी अनभिज्ञ नहीं थे, अतः उन्होने मित्र को 1 हजार रु देने का प्रस्ताव रखा, कहने लगे कि मेरे पास जो 1 हजार रु बचे हुए है उनको अब तुम इस काम मे लगा लो, जब भी सुविधापूर्वक दे सकोगे तो दे देना। मित्र ने कहा कि ठीक है, पैसे तो शादी के लिए चाहिए ही, अगर आप दे रहे है तो मेरे लिए इससे बड़ी कृपा और क्या हो सकती है, अन्यथा मैं तो ब्याज पर उधार लेने कि सोच रहा था।
अगले दिन प. दीन दयाल जी नगर के बैंक से पैसे निकलवाने पहुँच गए, वहाँ से 1 हजार रु निकलवाये और नगर मे कुछ और कार्य करने मे व्यस्त हो गए, कार्यों की व्यस्तता मे उनको समय का आभास ही नहीं रहा एवं गाँव वापस आते आते रात हो गयी। रात मे कोई वाहन भी नहीं मिल पाया अतः अकेले ही गाँव की तरफ पैदल बढ़ चले। निडर एवं साहसी तो वे थे ही अतः कोई भी भय का चिन्ह उनके मन मे नहीं आ रहा था। आधा रास्ता पार कर चुके थे, रास्ते के दोनों तरफ गन्ने के खेत थे जिससे थोड़ा सुनसान सा लगने लगा, परंतु वे निर्भीक होकर आगे बड़ रहे थे कि गन्ने के खेत मे से एक व्यक्ति बंदूक हाथ मे लेकर प. दीन दयाल जी के सामने आकर खड़ा हो गया एवं कड़क कर बोला कि जो भी है निकाल कर मुझे दे दो अन्यथा गोली मार दूंगा। अचानक इस तरह उस व्यक्ति के आ जाने से पंडित जी थोड़े से घबरा गए परंतु पैसे नहीं देना चाहते थे। उस व्यक्ति ने बंदूक की नाल पंडित जी कि छाती पर रख दी एवं उनके दोनों हाथ ऊपर करवा दिये। वह व्यक्ति एक हाथ मे बंदूक पकड़े हुए और बंदूक के ट्रिगर पर उंगली लगाए हुए पंडित जी के सामने खड़ा था एवं दूसरे हाथ से पंडित जी की जेब टटोल रहा था, जिसमे उसको वे 1 हजार रु मिल गए। दीन दयाल जी के मन मे बात आई कि जब मैं मित्र को इस घटना के बारे मे बताऊंगा और उसने विश्वास न किया तो वह सोचेगा कि मैंने पैसे न देने के लिए नाटक किया है और इसमे तो बड़ी बेइज्जती वाली बात है। दीन दयाल जी यह सोच ही रहे थे कि लुटेरा उनको लूट कर जाने लगा। दीन दयाल जी ने लुटेरे से विनती की कि भाई मुझे दो चार छर्रे तो मार ही दो जिससे मैं अपने मित्र को विश्वास दिला सकूँ कि मैं उसकी बहन की शादी के लिए पैसे तो लाया था मगर वो तुमने ले लिए है। लुटेरा कुच्छ नहीं बोला और तेज कदमो से आगे बदने लगा, दीन दयाल जी भी उसके पीछे तेज तेज चलने लगे, चलते चलते वह लुटेरे से बार बार विनती कर रह थे भाई मुझे दो चार छर्रे तो मार दे तब लुटेरे ने कहा कि मेरी यह बंदूक तो लकड़ी की है, इससे गोली नहीं चलती अब तुम जाओ, तभी दीन दयाल जी ने आगे बड़ कर लुटेरे के हाथ से वह लकड़ी की बंदूक छीन ली एवं ज़ोर से उसके सिर पर दे मारी जिससे लुटेरा बेहोश होकर गिर पड़ा। दीन दयाल जी ने अपने पैसे उसकी जेब से निकाले और गाँव की तरफ चल पड़े। गाँव पहुँच कर उन्होने सबसे पहले मित्र को जगाकर पैसे उसको थमा दिये और पूरी घटना के बारे मे विस्तार से बताया, जो बंदूक लेकर आए थे वह बंदूक भी मित्र के हाथ मे थमा दी। पंडित जी एवं मित्र बंदूक को उलट पलट कर देखने लगे, देखने पर पता चला की वह तो वास्तव मे लकड़ी की डमी बंदूक थी जिससे गोली नहीं चल सकती थी, ज़्यादातर एन सी सी की ट्रेनिंग मे परेड के समय काम आती थी। पंडित जी बोले , भाई इस बंदूक से गोली चले या न चले, भले ही यह किसी को मारने मे सक्षम नहीं है लेकिन इस बंदूक के कारण आज मेरे विश्वास की तो हत्या हो ही गयी थी, क्या कोई भी मेरी बात पर विश्वास करता? मेरे लिए तो वह पल मृत्यु से भी भयंकर होता।
पंडित दीन दयाल और उनका मित्र ट्रैक्टर लेकर उस रास्ते पर वापस आए तो देखा कि लुटेरा अभी भी वंही पर बेहोश पड़ा हुआ था। दोनों ने मिलकर उसे उठाया एवं कस्बे के अस्पताल मे ले गए, आपातकालीन मे उपस्थित डॉक्टर ने उसको देखकर सिर पर मरहम पट्टी की और बताया की कोई खास बात नहीं, थोड़ी देर मे होश आ जाएगा। दीन दयाल जी ने अपने मित्र से चले जाने को कहा एवं स्वयं उस लुटेरे व्यक्ति के पास रुक गए। सुबह उस व्यक्ति को होश आया, जैसे ही उसने दीन दयाल जी को अपने पास बैठे देखा तो वह घबरा गया और हाथ जोड़ने लगा की साहब मुझे पुलिस मे मत देना। दीन दयाल जी ने कहा की अगर तुम स्वयं को सुधारने का वचन दो तो नहीं दूंगा पुलिस को। वह युवक कहने लगा कि कोई काम नहीं मिला तो पहली बार ऐसा करने कि सोचा, ऐसा गलत कदम उठाते ही मेरे साथ यह हो गया, अब आपके हाथ मे है मेरा भविष्य, मैं आपको वचन देता हूँ कि भविष्य मे ऐसा असामाजिक कार्य नहीं करूंगा, लेकिन मुझे कोई काम तो करना ही होगा। दीन दयाल जी ने पूछा कि क्या तुम खेत मे काम करोगे, उस युवक ने खुशी खुशी हाँ कर दी। दीन दयाल जी ने उसको अपना एक खेत देकर कहा कि इसमे तुम अच्छी खेती करना और सदैव सत्य कि राह पर चलना, कभी भटकना नहीं, कोई भी जरूरत हो तो मेरे पास आ जाना। इस तरह दीन दयाल जी ने अपने साहस, धैर्य और दयाशीलता से अपना पैसा एवं इज्जत बचाई और एक भटके युवक को सच्चाई कि राह पर ले कर आए।
वेद प्रकाश त्यागी
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