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savitri ka prem aur vishwas

सावित्री का प्रेम और विश्वास

राज महल में पल कर बड़ी हुई सावित्री को प्रजा के कष्टों के बारे मे तो कुछ भी ज्ञात नहीं था इसीलिए उसने अपने पिता से इच्छा जताई कि वह पूरे राज्य का भ्रमण करके यहाँ की प्रजा के बारे जानना चाहती है। मद्धदेश के राजा अश्वपति ने सैनिको की एक टुकड़ी के साथ सावित्री को अपने सबसे प्रिय रथ मे बैठा कर राज्य भ्रमण के लिए भेज दिया। पूरी प्रजा में संदेश भिजवा दिया गया कि राजकुमारी सावित्री अपने राज्य का भ्रमण करेंगी अतः जहां जहां से राजकुमारी का रथ गुजरता वहाँ पर सभी प्रजा जन राजकुमारी के स्वागत के लिए एकत्रित हो जाते, पुष्प वर्षा करते, सैनिकों को जलपान करवाते और स्वयं को धन्य समझते थे। सावित्री का रथ धीरे धीरे पूरे नगर का भ्रमण कर चुका तो सैनिकों ने विनती की कि अब वापस महल में चलें क्योंकि आगे तो जंगल, वन एवं गावों का क्षेत्र पड़ेगा लेकिन सावित्री ने उनकी यह विनती अस्वीकार करके रथ को नगर के बाहर जंगल, वन एवं ग्रामीण क्षेत्रों में बढ़ाने का आदेश दे दिया। पूरे दिन चलते चलते सभी थक चुके थे, साँय हो गयी थी और सामने एक गाँव दिखाई दे रहा था अतः सैनिको ने रात मे उस गाँव मे ही रुकने का निर्णय लिया, उनके निर्णय का राजकुमारी ने भी समर्थन किया अतः पूरा काफिला उस गाँव मे रुक गया। गाँव वालों को जब ज्ञात हुआ कि आज रात मे राजकुमारी का काफिला उनके गाँव मे रुक रहा है तो गाँव वालों को बड़ी प्रसन्नता हुई एवं सभी राजकुमारी सावित्री के स्वागत के लिए एकत्रित हो गए। गाँव वालों ने राजकुमारी के पूरे काफिले के लिए खाने का प्रबंध किया, गाँव के उस साधारण खाने मे राजकुमारी को महल के खाने से भी ज्यादा आनंद आया। खाना समाप्त होने पर गाँव वालों ने राजकुमारी के मनोरंजन के लिए नाच गाना और नौटंकी का एक कार्यक्रम रखा। नाटक का हीरो एक लंबा चौड़ा, बलिष्ठ, सुंदर नौजवान था जिसके चेहरे पर सूर्य के समान तेज था। उस नौजवान ने लकड़हारे के चरित्र को जीवंत कर दिया एवं लकड़ी काटते समय पेड़ से गिरकर मरने का दृश्य तो उसने इतना मार्मिक बना दिया कि सभी की आँखों से आँसू निकाल आए, राजकुमारी सावित्री की आँखें भी नम हो गयी। राजकुमारी ने उस युवक को पुरस्कृत करने की घोषणा कर दी। उस युवक के शरीर सौष्ठव पर कोई भी मुग्ध हुए बिना नहीं रह सकता था, देखने मे तो वह किसी राज्य का राजकुमार ही लगता था। युवक जब पुरस्कार ग्रहण करने आया तब उसने परिचय देते हुए अपना नाम सत्यवान बताया।

शायद सावित्री को अपनी मंजिल मिल गयी थी और उसने अपनी यात्रा वहीं पर स्थगित करके वापस राजमहल लौटने की निर्णय कर लिया। राजकुमारी सावित्री को राजमहल वापस लौट आया देख कर माता पिता बहुत प्रसन्नता हुए एवं उन्होने राजमहल मे उत्सव मनाने का आदेश दे दिया। खुशी के इस अवसर पर सभी प्रसन्न थे, तभी राजकुमारी ने माता पिता से एक वचन मांग लिया। माँ बाप तो माँ बाप ही होते हैं और उनके लिए बच्चों की खुशी ही सर्वोपरि होती है अतः उन्होने राजकुमारी सावित्री को वचन दे दिया और इस एक वचन के बदले राजकुमारी ने अपने माता पिता के सामने सत्यवान से अपनी शादी का प्रस्ताव रख दिया। राजा ने उस समय तो कुछ नहीं कहा लेकिन सत्यवान के बारे मे सभी जानकारी अवश्य ले ली। सत्यवान एक लकड़हारा था और वन से लकड़ियाँ काट कर बेच कर गुजारा करता था। जंगल मे ही उसने झोपड़ी बनाई हुई थी जिसमे अपने अंधे माता पिता के साथ रहता था।

राजा गहन चिंता में था और किसी भी तरह सावित्री को सत्यवान से विवाह करने से रोकना चाहता था लेकिन अपने वचन से बंधा था अतः राजा ने ज्योतिषी से भविष्यवाणी करवा दी की सत्यवान की आयु तो सिर्फ एक वर्ष ही बची है। अब राजा ने सोचा कि शायद अब सावित्री विवाह करने से मना कर देगी लेकिन सत्यवान के लिए सावित्री का प्यार और भी बढ़ गया। सावित्री के दृढ़ निश्चय के सामने सभी को झुकना पड़ा, सावित्री का विवाह सत्यवान से हो गया।

सावित्री ने अपने पिता से कुछ भी लेना स्वीकार नहीं किया, बल्कि अपने पति के साथ ही झोपड़े मे रहने चली आई। सत्यवान पहले कि तरह ही लकड़ियाँ काट कर बेचता था और इससे जो कुछ मिलता था वह ला कर सावित्री को दे देता था। दोनों मे बहुत प्यार था लेकिन सावित्री के मन में एक वर्ष वाली चिंता लगी हुई थी जबकि वह सत्यवान के सामने इस बात को प्रकट नहीं होने देती थी। धीर धीरे एक वर्ष बीत गया और वह दिन आ गया जिस दिन ज्योतिषी ने सत्यवान की मृत्यु की घोषणा की हुई थी।

आज सावित्री काफी उद्विग्न थी इसीलिए उसने स्वयं भी सत्यवान के साथ वन मे जाने का निर्णय ले लिया। सत्यवान के बार बार मना करने पर भी वह नहीं मानी और सत्यवान के साथ वन मे लकड़ी काटने चली गई। ज्येष्ठ मास की अमावस्या की भरी दोपहरी मे सत्यवान एक पेड़ पर चढ़ कर लकड़ी काट रहा था गर्मी से दोनों का बुरा हाल था। सत्यवान पेड़ पर था और सावित्री पेड़ के नीचे खड़ी अपलक उसे देख रही थी। सभी पेड़ शांत थे, कोई पत्ता भी नहीं हिल रहा था तभी गर्मी के कारण सत्यवान को चक्कर सा आने लगा और वह पेड़ से धीरे धीरे नीचे उतर आया सावित्री घबराई नहीं नीचे आते ही सावित्री उसे वट वृक्ष के नीचे ले आई और उसका सिर अपनी गोदी मे रख कर सहलाने लगी लेकिन सत्यवान उसकी गोदी मे सिर रखते ही मूर्छित हो गया।

सत्यवान का सिर सहलाते हुए सावित्री को गहरी निद्रा आ गयी पेड़ के तने के सहारे तो वह बैठी ही थी। उसको लगा की यमराज स्वयं उसके सामने खड़े हैं, यमराज हाथ मे गदा लिए हुए सत्यवान के प्राण निकाल कर ले जाने आयें हैं ऐसा सावित्री को प्रतीत हो रहा था और सावित्री उनके पैरों मे सिर रखकर गिड़गिड़ा रही है, अपने पति के प्राणों की भीख मांग रही है, लेकिन यमराज उसकी विनती से जरा भी प्रभावित नहीं हुए वह तो सत्यवान के प्राण लेकर जाने लगे और कहने लगे कि देवी तुम अपने पति के प्राणों की जगह कुछ भी मांग सकती हो, मैं तुम्हें दे सकता हूँ लेकिन मैं इसके प्राण नहीं छोड़ सकता इसकी आयु पूरी हो चुकी है इसके प्राण तो मुझे लेकर ही जाने होंगे। यमराज जैसे ही चलने लगे सावित्री ने एक वचन मांग लिया कि मेरे सास ससुर यानि की सत्यवान के माता पिता अपने पोते को सोने के बर्तनों मे राजसी भोजन अपने मामा के हाथ से ग्रहण करते देखें। सावित्री द्वारा मांगे गए इस वचन को यमराज ने बिना सोचे समझे ही तथास्तु कह दिया और सत्यवान के प्राण लेकर जाने लगे। अब सावित्री ने आगे बढ़कर यमराज की राह रोक ली और पूछा की अगर एक पतिव्रता नारी के पति के प्राण आप ले जाएंगे तो उसको पुत्र रत्न कैसे प्राप्त होगा, जब मुझे पुत्र नहीं होगा तो मेरे सास ससुर को पोता कैसे होगा, अतः महाराज आप अपना वचन तोड़ रहे हैं। यमराज को अपनी गलती का एहसास हो गया था और उसने एक पतिव्रता स्त्री के समक्ष हार मान ली थी। यमराज ने जैसे ही सत्यवान के प्राण छोड़े तो उसकीं मूर्छा टूट गयी सावित्री को भी एक झटका सा लगा जैसे वह गहरी नींद से जगी हो और उसका स्वप्न टूट गया हो। सत्यवान भी अब पूर्णतया स्वस्थ लग रहा था।

वास्तव में हुआ यह था की ज्येष्ठ की भयंकर गर्मी में सत्यवान पेड़ से लकड़ी काटते समय चक्कर आने से मूर्छित हो गया तो सावित्री उसको वट वृक्ष की घनी छाया में लेकर आ गयी। चूंकि वह वृक्ष सबसे ज्यादा जल वाष्पित करता है अतः उसकी छांव सबसे ज्यादा घनी व ठंडी होती हैं अपनी गोद में सत्यवान का सिर रखकर सहलाते हुए उसको झपकी आ गयी लेकिन उसके दिमाग मे तो वही बात चल रही थी कि कंही सच में ही तो सत्यवान की मृत्यु नहीं हो गयी एवं वही दृश्य उसने स्वप्न में देखा की यमराज उसके पति के प्राण लेने आयें हैं। यमराज द्वारा दिये वचन में उसने वह सब मांग लिया जो वह अपनों के लिए चाहती थी जैसे कि अपने सास ससुर के लिए आँखें, उनका राज्य, अपने लिए पुत्र एवं भाई, सब कुछ ही मांग लिया और इसी में सत्यवान के प्राण बचाने का तरीका भी छुपा था। स्वप्न तो स्वप्न ही होता है उसको साकार करने के लिए मेहनत करनी होती है। अब जब सत्यवान पूर्णतया स्वस्थ लग रहा था तो सावित्री का मन सत्यवान की तरफ से तो निश्चिंत हो गया एवं अब उसका ध्यान उन लकड़ियों पर गया जो वह प्रतिदिन काट कर व्यापारी को बेच कर आता था। सत्यवान ने बताया की वह बचपन से ही इस तरह की लकड़ियाँ काट कर व्यापारी को बेच कर आता है जिससे बस इतना मिलता है कि हमारा गुजारा भर हो पाता है। सावित्री इन लकड़ियों को पहचान गयी थी और उसने सत्यवान को बताया कि ये तो चन्दन कि लकड़ियाँ हैं जो बहुमूल्य होती है यानि कि व्यापारी तुम्हारे साथ धोखा कर रहा है। उस दिन सावित्री लकड़ी बिकवाने स्वयं सत्यवान के साथ उस व्यापारी के यहाँ गयी। लकड़ी लेकर व्यापारी ने प्रतिदिन की तरह जब सत्यवान को धन दिया तो वह सावित्री ने ले लिया और व्यापारी से पूछा की इतनी बहुमूल्य लकड़ियाँ इतनी सस्ती क्यों खरीद रहे हो। पहले तो व्यापारी बहस करने लगा एवं पूरा धन देने से इंकार कर दिया, मगर जब सावित्री ने व्यापारी को अपना परिचय यह कह कर दिया की मैं सावित्री धर्मपत्नी सत्यवान एवं पुत्री मद्देश के राजा अश्वपति हूँ और आपको ज्ञात होगा की इस राज्य मे धोखाधड़ी करके धन कमाने वालों को मृत्युदंड मिलता है तो यह सुन कर व्यापारी के पैरों तले से जमीन ही खिसक गयी। व्यापारी हाथ जोड़ कर विनती करने लगा कि उसको क्षमा कर दें भविष्य में ऐसी भूल नहीं होगी। सावित्री ने कहा कि सत्यावान जितने वर्षों से इस तरह की जो लकड़ी आपको दे चूकें हैं उसका अगर आप तुरंत भुगतान कर देंगे तो माफ कर सकते हैं अन्यथा दंड भुगतने को तैयार रहे, तब व्यापारी ने हिसाब लगा कर तब तक की बिकी लकड़ियों का पूरा धन सावित्री को दे दिया। सावित्री व्यापारी से पूरा धन वसूल कर सत्यवान के साथ अपने सास ससुर के पास आ गयी। उस धन से उसने एक सेना का गठन किया एवं अपने सास ससुर के खोये हुआ राज्य शाल्व देश पर चड़ाई कर विजय प्राप्त कर अपना राज्य वापस ले लिया। सावित्री अपने सास ससुर एवं सत्यवान के साथ राजमहल में आ गयी। इस बात का पता चलने पर सावित्री के माता पिता बड़े प्रसन्न हुए और उनकी खुशी को कई गुना बढ़ाने के लिए 20 वर्ष बाद उनके यहाँ पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई।

राजवैद्य के उपचार से सावित्री के सास ससुर कि आँखों की रोशनी वापस आ गयी। राजमहल मे प्रसन्नता का माहौल था, सावित्री और सत्यवान की कड़ी मेहनत से सभी जन सुखी स्वस्थ एवं समृद्ध थे। राज्य चारों ओर से सुरक्षित था। कुछ दिनों के पश्चात सावित्री को भी पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई। इस तरह से वह वचन जो यमराज ने सावित्री को स्वप्न मे दिया था उसको सावित्री ने अपनी सूझ बूझ, मेहनत, हिम्मत, लगन एवं प्रभु कृपा से सच कर दिखाया।

यह सावित्री का प्रेम और विश्वास ही था और उसी प्रेम और विश्वास के कारण इस दिन का नाम सावित्री वट अमावस्या पड़ गया, इस दिन सभी सौभाग्यवती स्त्रियाँ अपने पति की दीर्घायु के लिए व्रत रखतीं हैं एवं वट वृक्ष की विधिवत पूजा करतीं हैं यह दर्शाने के लिए कि वृक्ष हमारे जीवन मे कितने महत्वपूर्ण हैं।

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