छूटी गलियाँ - 16 Kavita Verma द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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छूटी गलियाँ - 16

  • छूटी गलियाँ
  • कविता वर्मा
  • (16)

    आज सनी का आखरी पेपर था मैं घर में अकेला था मैंने राहुल से बात की। उसके पेपर्स कैसे हुए वह छुट्टियों में क्या करेगा ? वह क्या बनना चाहता है इसके अलावा भी फिल्म क्रिकेट वगैरह पर भी बातें हुईं। जब फोन बंद किया देखा सनी दरवाज़े पर खड़ा मुझे घूर रहा था।

    "अरे सनी आ गया तू पेपर कैसा गया?" मैं राहुल से बात करने की ख़ुशी में उत्साहित था।

    सनी बिना कुछ बोले सीधे अपने कमरे में चला गया और दरवाज़ा बंद कर लिया। मुझे लगा कहीं उसका पेपर बिगड़ तो नहीं गया।

    "सनी सनी क्या हुआ दरवाज़ा क्यों बंद कर लिया, पेपर कैसा गया?" मैं आशंकित सा था।

    "पेपर ठीक गया है मुझे थोड़ी देर सोना है रात में देर तक जागा हूँ।" अंदर से आवाज़ आई।

    "खाना नहीं खाना ? खाना खा कर सो जाना।"

    "भूख नहीं है पापा प्लीज़ मुझे सोने दीजिये, आप खाना खा लीजिये।"

    मुझे थोड़ा अजीब सा लगा लेकिन फिर सोचा इतने दिनों से रात दिन पढ़ाई करते थक गया होगा, ठीक ही है थोड़ी देर आराम कर ले।

    शाम को नेहा से पार्क में मिला मैंने संक्षेप में अपनी योजना बताई। वह असमंजस में थी पता नहीं ये कितनी कारगर होगी लेकिन दूसरा कोई रास्ता भी तो नहीं था। मैंने नेहा को आश्वस्त किया सब ठीक होगा हालांकि मैं खुद नहीं जानता था कि क्या होगा। नेहा ने सहमति दे दी और उठ खड़ी हुई और बोली "ज्यादा देर रुक नहीं पाऊँगी राहुल दिन भर घर में अकेले रहता है।"

    अब हर नई मुसीबत मुझे चिंतित तो करती थी लेकिन उसके समाधान के लिए वैसा ही जोश भर देती थी जैसा लम्बी दौड़ के लिए उतरे धावक में होता है मंजिल पर पहुँचने का जोश। हालांकि यहाँ मंजिल दूर कहीं क्षितिज के उस पार थी इतनी धुंधली कि उसका कोई आकार नहीं था। बस एक आस थी कि धुंध के उस पार कुछ सकारात्मक है जिस तक पहुँच जाऊँगा।

    घर पहुँचा सनी बाहर सोफे पर बैठा गीता की तस्वीर को एकटक देख रहा था। मेरी आहट पर भी उसने मेरी ओर नहीं देखा। मैंने ध्यान से देखा उसकी आँखें लाल थीं चेहरे पर तनाव था।

    "अरे सनी खाना खाया या नहीं तूने? आते ही सो गया तबियत तो ठीक है?' मैं उसके पास आ कर खड़ा हो गया। "मम्मी की याद आ रही है?" प्यार भरे स्वर में मैंने पूछा।

    वह झटके से उठ खड़ा हुआ "नहीं मैं ठीक हूँ" और अपने कमरे की ओर बढ़ गया।

    "कहाँ जा रहा है?"

    "पढने"

    "आज ही तो परीक्षा ख़त्म हुई है एक दिन तो आराम कर ले।"

    "नहीं मैं ठीक हूँ।"

    "खाना खाया?"

    "हाँ खा लिया रात में नहीं खाऊँगा प्लीज मुझे डिस्टर्ब मत करिये।" मेरी तरफ देखे बिना वह कमरे में चला गया और दरवाज़ा बंद कर लिया। जाने क्यों वह दरवाजा मुझे मुँह चिढ़ाता सा लगा, जाने क्यों मुझे लगा इन बंद दरवाजों के उस पार कुछ सुगबुगा रहा है, लेकिन क्या समझ नहीं आया। कल तक तो सब ठीक था सनी पढाई में व्यस्त था बाते कम होती थी लेकिन आज अचानक ये बोझिलता सी क्यों छा गई कुछ समझ नहीं आया समझने का समय भी नहीं था। राहुल से बात करनी है क्या कहना है कैसे कहना है सारी प्लानिंग करना है।

    देर रात तक सोचता रहा। राहुल के साथ नेहा का भी ख्याल आया। उसे परेशान देख कर गीता की परेशानियाँ अब मैं बेहतर ढंग से समझ सकता हूँ। राहुल की समस्या पिता से दूर होने की है सनी और सोना के साथ तो पढाई, उद्दंडता, बिगड़ी आदतें, गलत संगत सभी की समस्या थी। ओह्ह गीता तुम कैसे अकेले इन सबसे जूझती रहीं कभी कहा क्यों नहीं ? मुझसे कहतीं झगड़तीं जिद करतीं तो क्या पता मैं जल्दी वापस आ जाता। हमारी जिंदगी कुछ अलग ही होती, हम सब साथ होते।

    उस दिन शाम को पार्क में नेहा के साथ राहुल भी आया था। प्यारा सा बच्चा लेकिन पहली बार जब हॉस्पिटल में देखा था तब से काफी बदला सा लगा। नेहा और वह एक बेंच पर बैठे थे। मैंने एक छोटा सा चक्कर लगाया और बेंच के पास आकर पूछा "क्या मैं यहाँ बैठ सकता हूँ?"

    "जी" नेहा ने संक्षिप्त सा उत्तर दिया और किनारे खिसक गई मैं राहुल के बगल में बैठ गया।

    मुझे राहुल से जान पहचान बनानी थी लेकिन कितना मुश्किल लग रहा था। कैसे बात शुरू करूँ क्या कहूँ क्या पूछूँ कुछ समझ नहीं आ रहा था। पार्क में आने से पहले जो उत्साह था वह हवा निकले गुब्बारे सा पिचक गया था। मैं इंटरनेशनल सेमीनार कॉन्फ्रेंस में बोलने वाला एक बच्चे से कैसे बात शुरू करूँ समझ नहीं पा रहा था। ये घबराहट तो नहीं थी लेकिन झिझक थी। बात तो शुरू करना ही थी वह हमारे प्लान का हिस्सा था राहुल से दोस्ती बढ़ाना। थोड़ी देर हम तीनो ही खामोश बैठे रहे। नेहा सामने देख रही थी राहुल इधर उधर देख रहा था और मैं दोनों की तरफ ना देखते हुए भी ये देखने की कोशिश कर रहा था कि वे क्या कर रहे हैं?

    "मम्मी आप मुझे यहाँ क्यों ले आईं कितना बोरिंग है यहाँ, मैं वहाँ मज़े से अपने दोस्तों के साथ क्रिकेट खेलता।" राहुल ने नाराज़गी के स्वर में कहा।

    नेहा ने मेरी तरफ देखा उन आँखों में कातरता थी अनुरोध था कितनी मुश्किल से वह राहुल को पार्क ला पाई है।

    "आप यहाँ रोज़ नहीं आते हो?" मैंने बातों का सिरा पकड़ते हुए कहा।

    राहुल ने कोई जवाब नहीं दिया। उसे मेरा बीच में बोलना अच्छा नहीं लगा।

    "बेटा अंकल कुछ पूछ रहे हैं जवाब दो।" नेहा ने बातचीत शुरू करने में मदद करने की कोशिश की।

    "नहीं" राहुल ने रुखाई से मेरी ओर देखे बिना जवाब दिया।

    "कहाँ क्रिकेट खेलते हो आप? उसकी रुखाई ने मुझे विचलित कर दिया।

    "अपनी कॉलोनी में दोस्तों के साथ?"

    "वहाँ भी ग्राउंड है?'

    "नहीं सड़क पर।"

    "ओह्ह फिर तो ट्रैफिक की वजह से खेल रोकना पड़ता होगा?"

    "नहीं सबको पता है हम वहाँ खेलते हैं उस रोड पर कोई नहीं आता।"

    "अरे वाह बहुत बढ़िया।" इसके बाद बातों का सिरा फिर मेरे हाथ से छूटने को हुआ मैं समझ नहीं पा रहा था आगे क्या कहूँ? तभी नेहा ने हाथ से छूटती डोर को थाम लिया।

    "मेरा बेटा बहुत बढ़िया क्रिकेट खेलता है।"

    "क्या बात है क्रिकेट के अलावा और क्या खेलते हो?"

    मम्मी के बातचीत में शामिल होने और खुद की तारीफ होने से वह थोड़ी रूचि लेने लगा।

    "स्कूल में फुटबॉल और टेबल टेनिस भी खेलता हूँ। टेबल टेनिस में इंटर स्कूल कॉम्पिटिशन में फर्स्ट आया था।"

    "बहुत बढ़िया मतलब तुम तो आल राउंडर हो।"

    "आज मम्मी जबरदस्ती पार्क में ले आई मेरा खेल छूट गया।" उसके स्वर में नाराज़गी छलक आई।

    "आप यहाँ रोज़ आती हैं ?" मैंने नेहा से पूछा।

    "नहीं कभी कभी आ जाती हूँ।"

    "और आप बरखुरदार आज पहली बार यहाँ आये हैं।"

    "नहीं जब छोटा था तब अपने दादा दादी और मम्मी के साथ यहाँ आता था।"

    "ओह्ह मतलब अब आप बड़े हो गए हैं।" मैंने छोटा सा ठहाका लगाते हुए माहौल को सहज बनाने की कोशिश की या शायद खुद को सहज बनाने की।

    नेहा और राहुल हॅंस दिए।

    अचानक मेरी नज़र पार्क के गेट की तरफ गई। धुंधलका उतर आया था फिर भी मुझे लगा कि सनी वहाँ खड़ा है। मैंने ध्यान से देखने के लिए चश्मा उतार कर साफ़ किया तब तक वह जा चुका था लेकिन वह मुझे सनी ही लगा। वह यहाँ क्यों आया है? सुबह से तो वह दरवाज़ा बंद किये पढ़ रहा था। हालांकि उसकी ये दरवाज़ा बंद करके पढने की आदत अभी दो तीन दिन से ही देख रहा हूँ। कहीं दरवाज़ा बंद करके शराब तो नहीं पी रहा?मेरे दिमाग में शक का कीड़ा कुलबुलाने लगा।

    नहीं नहीं अगर शराब पीता तो बंद दरवाज़े से भी उसकी गंध आती। खुद पर गुस्सा भी आया क्यों मैं अपने बेटे का विश्वास नहीं कर रहा हूँ जबकि उसने खुद सुधरने की कोशिश की है और अब खुद ही अपने भविष्य की राहें संवार रहा है। एक बार टूटे विश्वास को जोड़ना क्या वाकई बहुत मुश्किल होता है?

    मैंने फिर राहुल की ओर ध्यान लगाया "आप रहते कहाँ हैं?"

    "इन्द्रपुरी कॉलोनी में।"

    "आपके पापा क्या करते हैं?" ना जाने क्यों मैं पूछ बैठा न जानते हुए कि इसका असर क्या होगा।

    "डॉक्टर हैं दुबई में रहते हैं।" बताते हुए वह बहुत उत्साहित नहीं था। क्या अब अपने पापा को लेकर उसके मन में प्यार और लगाव नहीं रहा या बातें होते रहने से वह इसे सामान्य तरीके से ले रहा है।

    मैंने जाना कि आजकल हर बात का विश्लेषण करने लगा हूँ, हर सिक्के के दूसरे पहलू को देखने की कोशिश करने लगा हूँ। एक अतिरिक्त सतर्कता विचारों व्यवहार में आ गई है।

    "आपको अपने पापा की याद नहीं आती?"

    "आती है ना उनसे फोन पर बात हो जाती है।"

    "पापा कब आते हैं इंडिया?"

    वह चुप रहा बातों का सिलसिला टूट गया एक बोझिल सी ख़ामोशी पसर गई। मैं गहरे पानी में अनाड़ी तैराक की तरह सोच के सारे आयामों को पटकता छटपटाता सा थाह पाने की कोशिश करता रहा लेकिन कोई सिरा हाथ ना आया।

    ***