मैं कौन हूँ भाग १ Rajesh Maheshwari द्वारा प्रेरक कथा में हिंदी पीडीएफ

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मैं कौन हूँ भाग १

मैं कौन हूँ?

अरे! तुम अभी तक सो रहे हो! सूर्योदय का कितना प्रकाश हो गया है। माँ की आवाज सुनकर राकेश हड़बड़ाकर उठा। माँ ने उसे चाय का प्याला थमा दिया और कहा- नहा-धो कर जल्दी नीचे आ जाओ। तुम्हारे पापा तैयार हो रहे हैं और नाश्ता भी तैयार हो चुका है। यह कहते हुए माँ कमरे से बाहर निकल गई। राकेश भी उठकर तैयार होकर नाश्ते की टेबल पर पहुँच गया। वहाँ उसके पिता उसकी प्रतीक्षा कर रहे थे। उसे देखते ही उन्होंने उससे कहा- आइये दार्शनिक जी! आज आपके दर्शन शास्त्र में कौन सा नया प्रश्न उठा है। जिसका समाधान आप खोज रहे हैं।

पिता का प्रश्न सुनकर राकेश बोला- मैं गम्भीरता पूर्वक सोच रहा हूँ कि ’’मैं कौन हूँ?’’ ’’आप कौन हैं?’’ ’’इस दुनियां में मानव का जन्म क्यों और किसलिये होता है?’’ यह सुनते ही उसके पिता बोले- अरे! तू सेठ निहाल चन्द का पुत्र है और मैं सेठ निहाल चन्द अपने पिता सेठ करोड़ीमल का बेटा हूँ। यह तो सामान्य सी बात है। इसमें इतना सोचने की क्या बात है?

राकेश बी. काम. अंतिम वर्ष का विद्यार्थी था। वह बहुत गम्भीर, चिन्तनशील और अध्ययनशील नौजवान था। उसने पिता जी से कहा- यह प्रश्न बहुत गम्भीर है। आपका दिया हुआ उत्तर तो मुझे भी पता है। जब तुम्हें पता है तो फिर इस पर अपनी ऊर्जा और समय क्यों व्यर्थ नष्ट कर रहे हो?

उसी समय उसकी माँ नाश्ता लेकर आ गई और बोली आप लोग नाश्ता कीजिये। सुबह-सुबह व्यर्थ की बातों में उलझकर अपना दिन खराब मत कीजिये। वे राकेश से बोलीं- तू अपनी आदत से बाज नहीं आएगा, प्रतिदिन सुबह-सुबह एक नया राग छेड़ देता है और तेरे पिता जी को तो उल्टी-सीधी बातें करने में मजा आता है।

उसकी बात सुनकर सेठ निहाल चंद ने कहा- राकेश जल्दी से नाश्ता कर ले और मेरे साथ दुकान चल। अब तू बड़ा हो गया है। कालेज में पढ़ रहा है। पढ़ाई के साथ-साथ तुझे व्यवसाय में भी ध्यान देना चाहिए। राकेश ने अपनी मौन स्वीकृति दी और नाश्ता करके पिता जी के साथ दुकान के लिये निकल पड़ा।

सेठ निहाल चन्द का कपड़े का व्यवसाय था। वे समाज में एक ईमानदार और परिश्रमी व्यवसायी के रुप में प्रतिष्ठित थे। राकेश दुकान में बैठा था किन्तु उसके मन में यही प्रश्न बार-बार कौंध रहा था कि- मैं कौन हूँ? उसे अपने प्रश्न का कोई संतोष जनक उत्तर नहीं सूझ रहा था। उसके मस्तिष्क में एक विचार आया और उसने कागज के छोटे-छोटे टुकड़ों पर लिखना प्रारम्भ कर दिया कि-

’’आप जरा विचार कीजिये-

मैं कौन हूँ?

यदि आपको इस प्रश्न का उत्तर पता हो तो कृपया वह मुझे भी बताएं।’’

इसके बाद जो भी ग्राहक आता उसे सामान की रसीद के साथ-साथ वह उनमें से प्रश्न लिखा हुआ कागज का टुकड़ा भी उसे दे देता। उसके पिता उसके इस कृत्य से अनभिज्ञ थे। लगभग डेढ़-दो घण्टे बाद जब उसके कालेज का समय होने लगा तो वह अपने पिता से अनुमति लेकर दुकान से चला गया।

दोपहर को हवलदार रामसिंह सेठ जी के पास आया और उनसे बोला- सेठ जी! आप एक कपड़े के व्यापारी हैं और आपका नाम सेठ निहाल चन्द है। सेठ जी उसकी बात सुनकर चैंके और बोले- यह तो मुझे भी पता है। तुम मुझे क्या बताना चाहते हो? रामसिंह बोला- आपने जो पूछा है वही मैं आपको बताना चाहता हूँ। सेठ जी और भी अधिक आश्चर्य में पड़ गये। वे बोले- मैंने तुमसे यह कब पूछा है? हवलदार ने उन्हें वह कागज का टुकड़ा पकड़ा दिया और कहा- सुबह जब मैं आपके यहाँ से सामान लेकर गया था तभी तो आपके बेटे ने रसीद के साथ ही यह कागज का टुकड़ा भी मुझे दिया था। सेठ जी ने वह कागज का टुकड़ा ले लिया और उसे पढ़ा तो उनकी समझ में आ गया कि यह सब राकेश का काम है। उन्होंने हवलदार को राकेश के विषय में बतलाया और उसे समझा कर विदा कर दिया।

अभी हवलदार को गए कुछ ही समय बीता था कि उनके परिवार का डाक्टर आ गया। उसने भी वही सब कहा-सुना जो हवलदार कहकर गया था। सेठ जी ने उन्हें भी समझा-बुझा कर विदा किया। तब तक एक और सज्जन आ गए। वे भी उनसे इसी विषय पर बोले। अब तो उनका धैर्य समाप्त होने लगा। तभी कुछ हिजड़े सेठ जी के पास आ धमके। उनमें से एक हिजड़ा सुबह सेठ जी के यहाँ से कपड़े लेकर गया था। उसे भी राकेश ने वही प्रश्न लिखा कागज दिया था। हिजड़े सेठ जी से उलझ रहे थे। आसपास के दुकानदार मजा ले रहे थे। सेठ जी को राकेश पर तो क्रोध आ ही रहा था। उनने किसी तरह से उन हिजड़ों से अपना पीछा छुड़ाया और दुकान बन्द करके घर की ओर चल दिये।

राकेश ने कालेज पहुँचकर वहाँ शौचालय से लेकर क्लास रुम और दीवालों पर यही प्रश्न लिख दिया। किसी को यह भनक नहीं लगने दी कि यह किसने किया है। कालेज में जब शिक्षकों, विद्यार्थियों और अन्य लोगों ने जगह-जगह यह पढ़ा तो चर्चा का विषय बन गया। विद्यार्थी आपस में एक-दूसरे से मैं कौन हूँ? मैं कौन हूँ? कहकर मजा लेने लगे। लोग पढ़ाई-लिखाई छोड़कर इस पर चर्चा कर रहे थे। प्राचार्य ने इस पर एक बैठक बुलाई। बैठक में कुछ षिक्षकों ने कहा कि यह तरीका तो गलत है किन्तु प्रश्न महत्वपूर्ण है। यह जिसका भी काम है वह छात्र चिन्तनशील ही होगा। हमें इस पर अधिक ध्यान नहीं देना चाहिए। बैठक बेनतीजा ही समाप्त हो गई।

कालेज से लौटकर जब राकेश घर पहुँचा तो वह बहुत प्रसन्न था किन्तु जब उसका सामना अपने पिता से हुआ तो दृष्य ही बदल गया। सेठ निहाल चंद क्रोध और चिन्ता दोनों से भरे हुए थे। राकेश की हरकत से वे क्रोधित थे तो उसके भविष्य को लेकर चिन्तित थे। यह बात उनके चेहरे पर झलक रही थी। वे उससे झल्लाकर बोले- तुम्हारे कारण आज मैं बहुत परेशान हो चुका हूँ। तुम या तो अपनी ये हरकतें बन्द करके पढ़ाई और धन्धे में ध्यान लगाओ या फिर अपने इन ऊल-जलूल प्रश्नो के उत्तर पाने के लिये हिमालय पर किसी महात्मा के पास चले जाओ जिनके पास तुम्हें ऐसे प्रश्नो के समाधान मिलते रहें।

सेठ निहाल चंद ने यह बात ऐसे ही कह दी थी। उन्हें इस बात का अनुमान नहीं था कि राकेश उसे गम्भीरता से लेगा। लेकिन राकेश को पिता की बात में अपनी समस्याओं का समाधान नजर आया। उसी रात वह किसी को कुछ भी बताये बिना केवल एक छोटा सा पत्र रखकर घर से बाहर निकल गया। वह अपने पत्र में लिख कर रख गया कि मैं अपने ज्ञान की वृद्धि के लिये जा रहा हूँ । आप लोग मेरी चिन्ता न करें । जब मेरे प्रश्नो का समाधान हो जाएगा तो मैं स्वयं वापिस आ जाऊंगा।

राकेश घर से निकला तो सीधा हरिद्वार पहुँच गया। वहाँ उसने अनेक महात्माओं से मुलाकात की लेकिन गाँजा-चरस पीने वाले उन ढोंगियों में उसका मन नहीं भरा। कई दिनों की खोज के बाद भी वह संतुष्ट नहीं हो सका। उसने कभी पढ़ा था जो अब उसे सच्चा लग रह था।

संत और महात्मा की खोज में

हम भटक रहे हैं।

काम, क्रोध, लोभ और मोह की

दुनियां में रहकर भी

जो इनसे अप्रभावित है

वह संत है।

जो इनको त्याग कर भी

लोक-कल्याण में समर्पित है

वह महात्मा है।

इतनी सी बात

हम समझ नहीं पा रहे हैं

और इनकी खोज में

व्यर्थ चक्कर खा रहे हैं।

लेकिन राकेश के मन में यह भी था कि खोजने से तो भगवान भी मिल जाता है तब फिर कोई न कोई सच्चा संत अवश्य मिलेगा जो उसे सच्चा मार्ग दिखलाएगा। वह हरिद्वार से बद्रीनाथ पहुँच गया। वहाँ वह एक स्थान पर बैठा सोच रहा था कि यहाँ किससे मिला जाए। वह ठण्ड से ठिठुर भी रहा था। वह जहाँ बैठा था उसके सामने ही एक छोटे से मकान में एक वृद्ध सज्जन अपनी बेटी के साथ रहते थे। उनकी बेटी का नाम पल्लवी था।

सांझ हो रही थी। पल्लवी अपनी दिनचर्या के अनुसार गाय को चारा देने घर से बाहर निकली। जब उसने देखा कि उसके घर के सामने सड़क के उस पार कोई परदेसी बैठा ठण्ड में ठिठुर रहा है तो उसने उसके पास जाकर उससे पूछा कि आप कौन हैं और यहाँ क्या कर रहे हैं?

यही तो मैं जानना चाहता हूँ कि मैं कौन हूँ। इसी प्रश्न के समाधान के लिये मैं बहुत दूर से यहाँ आया हूँ। अभी तक तो कोई नहीं मिला जो इस प्रश्न का समाधान मुझे दे सके। यहाँ बैठकर यही सोच रहा हूँ कि अब क्या करुं।

पल्लवी को उसकी बातें अजीब लगीं पर राकेश उसे एक निश्छल और समझदार व्यक्ति लगा। उसने राकेश से कहा- तुम मेरे घर चलो! भीतर मेरे पिता जी हैं। वे तुम्हें कोई रास्ता अवश्य बतला देंगे।

राकेश उसके साथ उसके घर चला गया। उसके पिता ने राकेश की सारी बातें सुनी तो वे बोले- आज अभी रात हो गई है। तुम हमारे यहाँ ठहर जाओ। अभी खाना खा कर आराम करो। तुम्हारे प्रश्न का उत्तर बाबा बालकनाथ ही दे सकते हैं। वे ऊपर गौमुख में रहते हैं। वहाँ की यात्रा बहुत कठिन है। वे महिने में एक-दो दिन के लिये यहाँ नीचे आते हैं। पिछले माह आये थे। इस महिने अभी नहीं आये हैं। एक-दो दिन में आते ही होंगे। तब तक तुम चाहो तो हमारे यहाँ अतिथि बनकर रह सकते हो।

राकेश उनकी बात मान लेता है और वहीं ठहर जाता है। पल्लवी उसे अपने पिता के साथ बैठाकर खाना खिलाती है। भोजन के बाद राकेश और पल्लवी के पिता के बीच बातचीत होती है। काफी देर वे एक-दूसरे के साथ बातें करते हैं। वे राकेश का परिचय प्राप्त करते हैं और राकेह उनसे व उनके अतीत से परिचित होता है। जब उन्हें पता लगता है कि राकेश किस प्रकार वहाँ आया है तो वे राकेश को समझाते हैं और उससे नम्बर लेकर सेठ निहाल चंद से बात करते हैं। वे उन्हें बताते हैं कि राकेश उनके यहाँ है और दो-तीन दिनों के बाद यहाँ से अपने घर वापिस आएगा। वे उनसे यह भी कहते हैं कि इस बीच वे जब चाहें उसका समाचार प्राप्त कर सकते हैं, वे राकेश और उसकी माँ की बात भी करवाते हैं। रात को वे दोनों तो कुछ ही देर में सो जाते हैं किन्तु राकेश को नींद नहीं आती। वह सोच रहा था- अपने जीवन के विषय में। सोचते-सोचते वह पल्लवी के विषय में सोचने लगता है।

पल्लवी कितनी निस्पृह लड़की है। मुझे देखकर ही समझ गई और अपने घर पर अतिथि बना लिया वरना इस भीषण ठण्ड में रात कैसे कटती। उसके कारण ही उसके प्रश्न का समाधान मिलने का रास्ता भी मिल गया लग रहा है। पल्लवी बहुत सुन्दर है। उसकी सादगी और सहजता उसके सौन्दर्य में चार चाँद लगा रहे हैं। वह कितनी परिश्रमी है। उसके चेहरे पर सुबह के उगते हुए सूरज सी ताजगी और लालिमा है। वह उसके प्रति एक अपनेपन के भाव से भर उठा। उसके मन में विचार आया कि अगर बाबा बालकनाथ दो चार दिन और न आये तो उसे पल्लवी के साथ रहने का और अधिक अवसर मिलेगा। उसका मन हुआ कि वह अपनी चारपाई से उठकर पल्लवी के पास चला जाए और उसे अपने सीने से चिपटा ले।

सहसा राकेश चौक उठा। वह यह सब क्या सोचने लगा। वह एक सभ्य आदमी से कामुक पशु कैसे बन गया। फिर उसे लगा कि नहीं काम सिर्फ पशुता नहीं है। वह तो इस सृष्टि का आधार है।