सितंबर २०१८ की कविताएं महेश रौतेला द्वारा कविता में हिंदी पीडीएफ

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सितंबर २०१८ की कविताएं

सितंबर २०१८ की कविताएं

१.
जीवन में कम से कम एक बार प्यार कीजिए,
ठंड हो या न हो, उजाला हो या न हो,
अनुभूतियां शिखर तक जाएं या नहीं,
रास्ता उबड़-खाबड़ हो या सरल,
हवायें सुल्टी बहें या उल्टी बहें,
पगडण्डियां पथरीली हों या कटीली,
कम से कम एकबार दिल को खोल दीजिए।

तुम्हारी बातें कोई सुने या न सुने,
तुम कहते रहो ," मैं प्यार करता हूँ।"
तुम बार-बार आओ और गुनगुना जाओ।

तुम कम से कम एक बार सोचो,
एक शाश्वत ध्वनि के बारे में जो कभी मरी नहीं,
एक अद्भुत लौ के बारे में जो कभी बुझी नहीं,
उस शान्ति के बारे में.जो कभी रोयी नहीं,
कम से कम एकबार प्यार को जी लीजिए।

यदि आप प्यार कर रहे हैं तो अनन्त हो रहे होते हैं,
कम से कम एक बार मन को फैलाओ डैनों की तरह,
बैठ जाओ प्यार की आँखों में चुपचाप,
सजा लो अपने को यादगार बनने के लिए,
सांसों को खुला छोड़ दो शान्त होने के लिए।

एकबार जंगली शेर की तरह दहाड़ लो केवल प्यार के लिए,
लिख दो किसी को पत्र,पत्रऔर पत्र,
नहीं भूलना लिखना पत्र पर पता और अन्दर प्रिय तुम्हारा,
लम्बी यात्राओं पर एकबार निकल लो केवल प्यार के लिए।

२.

फिर, शाम की जरूरत होने लगी है
तुम कहो, हम सुनें, ऐसी आदत बनने लगी है।

दिनभर उड़ी चिड़िया, शाम को लौट आय,
कुछ तुम्हारी बात हो, कुछ जग की फकीरी हो,
ऐसा मन होने लगा है कि जो भी हो शान्त हो।

प्यार की उम्र  बहुत अनदेखी होती है,
एक पत्थर मारो उसकी मौत हो जाती है।

मैंने चिट्ठी नहीं, आँखों को पढ़ा था,
दिनों को नहीं,तुम्हारे होने को जिया था।

मैंने उम्र की दराज से चिट्ठियां निकाली हैं,
बिना नाम की चिट्ठी पर एक नाम लिखा है।

कभी कभी बातों से हंगामा होता है,
सच कहें, ज्ञान और अज्ञान के बीच महाभारत होता है।

इस शहर ने प्यार को सजाया, सँवारा बहुत,
आन्दोलनों के दौर में परिवर्तनों को फैलाया बहुत।

कच्ची राह पर कुछ तो डगमगाया नहीं,
ये शहर कुछ ऐसा था कि उन्हें फिर मिलाया नहीं।

दूर से सुगंध आती थी, मुलाकातें कम थीं,
जो भी मुलाकातें थीं, उनमें राधा-कृष्ण सी परवरिश थी।

३.
अपनी ही बातों में प्यार ढ़ूंढ रहा हूँ,
अभी भी कहने को शब्द खोज रहा हूँ।

जगे भी हैं आदमी, सोये भी हैं आदमी,
कृष्ण की बातों से अनजान भी हैं आदमी।

कभी कृष्ण के साथ बँध जाता हूँ
कभी राधा के साथ बँध जाता हूँ
किस किस को बताऊँ, क्यों बँध जाता हूँ?

४.
रूप है, रंग है, सुबह है, शाम है
पर एहसासों का वजन सबसे अधिक है।

मेरे साथ साथ, मेरी बातें भी चलती हैं,
पर हर वक्त, बातों की परिच्छाइयां मुझसे बड़ी होती हैं।

ये पूरा का पूरा संविधान बदल देंगे,
आदमी को पूरा देवता बना देंगे!

मेरी उड़ानों  के लिए आकाश बहुत खुला है,
धरती के नाम पर झगड़ा बहुत चला है।

आकाश तक आवाज नहीं पहुंच पाती है,
वहाँ, नेतागिरी कोहराम नहीं मचा पाती है।

हमारे नाम पर एक सपना जुड़ जाता है,
जब-जब नन्हा बच्चा गोद में आ जाता है।

देश  को बहुत दूर तक देखोगे तो,
 गौरव की लौएं जलते पाओगे।

प्यार की बातें और होती हैं,
वे कहने,सुनने, बताने, उठने, बैठने,चलने, छूने, देखने की अदायें और अंदाज अद्भुत होते हैं,
ताउम्र यह घटना एकबार होती है, बार-बार नहीं दोहरायी जाती है।
५.
मैं देर से विद्यालय पहुंचा
या तुम वहां चले गये थे,
मेरे मुस्काने में देर हुई 
या तुम गा कर बैठ गये थे।
तुमने चलना छोड़ दिया था
या मेरी राहें बदल गयी थीं,
सपने मेरे टूट गये थे
या दिन सारे बदल चुके थे।
तुमने ताली बजाना छोड़ दिया था
या मेरे सुर सब बेसुर थे,
 आना-जाना टूट गया था
या उसने कहकर मना किया था।
यादों का आना छूट गया था
या उनका दायरा सिमट चुका था,
जीवन के लम्हे सोये थे
या उनके साये लिपट गये थे।
६.
जिन्दगी थोड़ी ठहर जा
तुझसे बातें करनी हैं,
आँखों में झांकना है,
सांसों को गिनना है,
परी कथाएं सुननी हैं।

कुछ युद्ध लड़ने हैं,
कुछ शस्त्र उठाने हैं,
मानव धर्म निभाना है,
जिन्दगी थोड़ी ठहर जा,
तुझे सहज करना है।

कदमों पर तुझको लेना है,
हाथों से तुझे छूना है,
मस्तक के आगे रखना है,
प्यार में भिगोना है,
जिन्दगी कुछ ठहर जा।
७.
हिमगिरि के शिखरों सी चमके
हिन्दी, हिन्दी, हिन्दी,
भारत के  तीर्थों को मोहे
हिन्दी, हिन्दी, हिन्दी।

भारत की भाषाओं का टीका
सजता और संवरता है,
इन्द्रधनुष भाषाओं का
बनता और बहकता है।


संविधान के  मानस से उठती 
हिन्दी, हिन्दी, हिन्दी,
कोटि-कोटि कंठों में रहती
हिन्दी, हिन्दी, हिन्दी।
८.
शान्ति के आकार में मैं खड़ा हूँ
प्यार के उत्सव में मैं दिखा हूँ
सत्य के आकार में मैं मिला हूँ
एक अनजान कदम से मैं चला हूँ।

आकाश को ढूंढने मैं गया हूँ
धरती का आकार देखने मैं चला हूँ,
बहुत दिनों की बात कहने मैं बैठा हूँ,
शान्ति के चरण छूने मैं झुका हूँ।
९.
तुम्हें प्रणाम है हिन्दी
गांव-शहर के विद्यालय में,
देश के  सम्मान में
शहर की सड़कों में,
सुख-दुख के क्षणों में
तुम्हें हर कोई पहिचान जाता है।

तीर्थों के हेलमेल में
गाड़ियों की दौड़ धूप में,
जहाजों की उड़ानों तक
कथा से कहानियों तक
तुम्हें हर कोई जान जाता है।

संसद से सड़क तक
जनता से सैनिक तक,
सुबह से शाम तक
संविधान से संशोधन तक
तुम्हें हर कोई पुकार लेता है।

घर के अन्दर-बाहर
मन के इधर-उधर,
गंगा के भीतर-बाहर
लय के ऊपर-नीचे,
तुम्हें हर कोई देख लेता है।

१०.

अब मैं पहले की तरह प्यार नहीं करता हूँ,
न पगडंडियों में चलता हूँ
न कहानियां कहता हूँ,
न ताली बजाता हूँ
न पहाड़ चढ़ता हूँ,
न लम्बी छलांग लगता हूँ।
अब मैं पहले की तरह पूजा नहीं करता हूँ,
न फूल तोड़ता हूँ
न युद्ध की बात करता हूँ,
न नदियों को तैरता हूँ
न गीत गाता हूँ,
न भोज में जाता हूँ
अब मैं पहले की तरह कोलाहल नहीं  करता हूँ।
११.
दुख  मीठे हो गये हैं
फल उन पर बहुत लगे हैं,
उदास दिन हँसने लगे हैं,
विहग से उड़ने लगे हैं?

सुख सारे बदल गये हैं,
फूल उन पर बहुत खिले हैं,
प्यास खेत की बुझ गयी है
सुगंध उसमें अथाह उड़ी है।

आकाश सारा विस्तार में है
पृथ्वी कितने रूप में है!
भूख मीठी हो गयी है,
पेट में वह घुल गयी है।
१२.
हवा के लिए कोई संविधान नहीं, 
धूप के लिए कोई संविधान नहीं ,
सुबह का  कोई संविधान नहीं ,
फूलों का कोई संविधान नहीं है।

दिन-रात का कोई संविधान नहीं
नदियों का  कोई संविधान नहीं, 
आकाश का कोई संविधान नहीं है,
केवल आदमी है, जिसका संविधान है।
१३.
इस यात्रा में प्यार कम नहीं है
देश को खड़ा कर दो
पहाड़ों को छू लो
गंगा में नहा लो
तीर्थों पर निकल लो
किसी क्षण गा लो।
फूल पर दृष्टि घूमा लो
मिट्टी को चूम लो
बागडोर थाम लो
अनकही कह दो
किसी मन को मना लो
मुस्कान को दे दो
इस यात्रा में प्यार कम नहीं है।
१४.
तब भी पहाड़ इतने ही ऊँचे थे 
जब हमने प्यार किया था,
बादल ऐसे ही झूमते थे
जब पगडंडियां पार करते थे।

आन्दोलन ऐसे ही होते थे
जब हम सोचा करते थे,
झंडे बहुत ही ऊँचे उठते थे
जब हिन्दी में लिखते थे।

इतिहास ऐसा ही होता था
जब इतिहास नहीं पढ़ते थे,
तब हम अधिक सज्जन थे
जब कक्षा पाँच पास किये थे।
१५.
कब मैंने प्यार किया
उसका भी हिसाब नहीं है,
कब मैंने कर्म किया
उसका भी ध्यान नहीं है।

कब शब्दों से काम लिया
उसका भी अंदाज नहीं है,
कब कदमों ने लक्ष्य लिया
उसका भी हिसाब नहीं है।

कब सच का साथ दिया
उसकी भी याद नहीं है,
कब दुनिया से निकल गये
उसकी भी खबर नहीं है।
१६.
ईश्वर के आगे ईश्वर है,
जीवन के आगे जीवन है,
नदियों के आगे सागर है
राह के आगे राह खड़ी है।

इस पथ के आगे अगला पथ है
 शिखर से आगे, और शिखर है,
 क्षण के आगे ,अगला क्षण है
 उत्सव के आगे फिर उत्सव है।

मन के आगे मन होता है
ज्ञान के आगे ज्ञान बहुत है,
उम्र के आगे और उम्र है
हँसी के बाद और हँसी है।
१७.
मैंने प्यार को सूना देखा
इस आकाश के नक्षत्रों सा,
इधर-उधर उसे बहता देखा
इन नदियों के पानी सा।

जिसे कहा वह भूल गया
मुझे ओस के बूँद समझ कर,
तुम्हें प्यार में रोना ही था
तो मुझे हँसाकर क्यों रोये।

तुम प्यार में हँसकर देखो
दीवारें सारी गिर जायेंगी,
जब हाथ लगेगी चिट्ठी पुरानी
याद बहुत समझदार दिखेगी।

मिलने के बहाने बहुत पड़े थे
पर प्यार सी चमक कहीं नहीं थी,
हम पगडण्डी से जब चलते थे
पगडण्डी आँखों में हिलती थी।

आँखों का उधार चुका चुके थे
ऐसा समझकर हम निकले थे,
जब लौट कर फिर मिले थे
किसी रेगिस्तान में हम फँसे थे।
१८.
प्यार मैंने क्यों चुना था
कह दूँ तुम्हें या चुप रहूँ,
कदम मेरे क्यों बढ़े
कह दूँ तुम्हें या चुप रहूँ।

तुम वहाँ क्यों खड़े थे
पूछ लूँ तुम्हें या चुप रहूँ,
राह तुमने क्यों बदल दी,
पूछ लूँ तुम्हें या चुप रहूँ।

प्रेम पत्र क्यों लिखा
कह दूँ तुम्हें या चुप रहूँ,
दिल ने चुपके क्या कहा
कह दूँ तुम्हें या चुप रहूँ।

प्यार सुन्दर क्यों दिखा
कह दूँ तुम्हें या चुप रहूँ,
वह क्षण मैंने क्यों चुना
कह दूँ तुम्हें या चुप रहूँ।

तुमसे बिछुड़ कर क्या लगा
कह दूँ तुम्हें या चुप रहूँ,
सपना उधर क्यों बहा
कह दूँ तुम्हें या चुप रहूँ।

प्यार की बातें क्यों कहीं
कह दूँ तुम्हें या चुप रहूँ,
प्यार से भेंट कब-कब हुई
कह दूँ तुम्हें या चुप रहूँ।
१९.
पता नहीं कब कौन मर जाय
बिना बताया चला जाय,
अपने मित्रों, रिश्तों पर रोये बिना
गुम हो जाय।

 उसके अच्छे-बुरे संघर्ष
न जाने किसे याद रहें!
मौत का एक अच्छा शिकार
पता नहीं कौन, कब बन जाय?

मौत नहीं पूछती ज्ञान,
नहीं लेती श्मशान का पता,
न वाद-विवाद में उलझती है
लेकिन जानती है किसे मारना है।

मृत्यु का सच भी अजीब है
कब किसको उठा ले, 
जैसे बाघ, बकरियों को उठाता है झुंड से,
या मछलियों पर पड़ता है जाल।

बहुत संदेशों के बीच एक संदेश है मृत्यु,
बहुत ज्ञान के बीच एक ज्ञान है मरना,
जो टटोलती है कोना-कोना,
लेकिन जानती है किसे कब मिलना है।
२०.
नदी में जब आयी थी बाढ़
बहुत कुछ बहा ले गयी थी,
कुछ फसल, कुछ खेत, कुछ घर
बहुत लोग तैरते -तैरते डूब गये थे।

नानी कहती थी सौ साल पहले ऐसा ही हुआ था,
तब जनसंख्या कम थी, कम लोग बहे थे
अब सरकारें जनसंख्या पर चुप हैं,
कीट -पतंगों की तरह सबको
देखना चाहती हैं।

पहाड़ में पलायन है,
भारत भी कहाँ टिका है? 
जो पुल बहा, वह अभी-अभी बना था,
जो बाँध टूटा, उसका जनम ही नहीं हुआ था।

जो भी हो ईश्वर हममें घुसा है,
जितने दोषी हम हैं
उतना दोषी वह भी है,
आखिर हमारा सम्बंध ही ऐसा है,
वह जग जायेगा, तो हम भी जग जायेंगे।
२१.
बहुतों ने मुझको  शब्द कहा
बहुतों ने मुझको  मित्र कहा,
बहुतों ने मुझको  प्रिय कहा
बहुतों ने मुझको  सौंदर्य कहा।

बहुतों ने मुझे याद बनाया
बहुतों ने मुझे राग बनया,
बहुतों ने मुझे उदास बनाया
बहुतों ने मुझे उत्साह बनाया।

सब सुनकर मैं तो चुप रहता था
बीती को फूल चढ़ाता था,
जहाँ भी बंजर दिखता था
वहाँ खिले फूल रख देता था।
२२.
हम बहुत सी यात्राएं भगवान के लिए करते हैं,
चढ़ जाते हैं पहाड़, नहा लेते हैं बहुत ठंडे जल से, 
नंगे पैर ढूंढने निकल पड़ते हैं अज्ञात को,
जल से, फूल से नमन कर देते हैं,
डुबकियों में याद कर लेते हैं पितरों को,
फिर बिना संदेश लौट आते हैं घर, आस्था के साथ।

कुछ दिन खेत में बिताइए,बीज रोपिये,
इसे भी भगवान का एक तीर्थ समझिये,
 देखिये कैसे बीज उगता है,
कैसे फसल लहलहाती है,
एकदम शब्दों की तरह पौधे दिखेंगे,
किसान लेखक की तरह सोच रहा होगा,
कागज पर नहीं, खेत पर लिख रहा होगा,
अन्न को देवता कहते हैं हमारे ग्रंथ,
कुछ दिन खेत में बिताइए,बीज रोपिये,
पेट भर आयेगा,भूख मर जायेगी।

२३.
तेरी बातों को फूल नहीं चढ़ाये
तेरी यादों को माला नहीं दे आया,
तेरी राहों पर फूल नहीं बिछाये
तेरे आशीषों को मौन नहीं रख पाया।

तेरे  मार्ग पर कांटे नहीं डाले
तेरे वृक्षों को काट नहीं आया
तेरे बागों को उजाड़ नहीं आया
तेरे आशीषों को अक्षुण्ण रख आया।

तेरी ममता को चोट नहीं पहुँचायी
तेरी दया को काट नहीं आया,
तेरी चेतना को जड़ नहीं कर आया
तेरे आशीषों को जीवित रख आया।

तेरी नदियों में कीचड़ नहीं डाला
तेरे आकाश पर पाप नहीं डाला,
तेरी धरती पर श्राप नहीं  डाला
तेरे आशीषों को विशाल कर डाला।
२४.
बहुत बार सोचता हूँ-
अपनी शान्ति बचपन के पत्थर पर छोड़ आया हूँ,
जहाँ बैठता था, खेलता था
छोटी-बड़ी बातें इकट्ठी करता था।

उस पेड़ पर लटका आया हूँ
जो फलता- फूलता था,
जड़ से पानी पीता था।
नदी की धारा में रख दिया हूँ
जो दिन रात खुश लगती थी,
कल -कल सुर से बहती थी।

मैदान पर दौड़ता छोड़ आया हूँ
जो दोस्तों को मिलाता था,
जहाँ खेल खत्म नहीं होते थे।
शिखरों पर बैठा दिया हूँ
जो आकाश तक उठे लगते थे,
जो खड़े-खड़े  आशीर्वाद देते हैं।
२५.
यदि मैं बिना प्यार किये मर गया
किसी का हाथ पकड़े बिना छूट गया,
कोई काम पूरा किये बिना चल दिया
मीठे शब्द कहे बिना जीता गया,
तो आत्मा बुझी-बुझी मर जायेगी।

यदि मैं बिना चले  मर गया
कुछ मधुर सुने बिना सो गया,
 बिना सौंदर्य देखे खो गया
कोई साहस दिखाये बिना, डर गया,
तो आत्मा बुझी-बुझी सो जायेगी।

यदि मैं बिना ज्ञान के मर गया
बिना विद्यालय के रह गया,
राह बिना भटक गया
अच्छाई बिना बीत गया,
बिना सत्य के डूब गया,
तो आत्मा बुझी-बुझी मर जायेगी।
                 ******
****महेश रौतेला