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" नन्हे प्राईम मिनिस्टर " एक अनमोल रत्न

आज मैं आपका परिचय " नन्हे " नाम के एक ऐसे रत्न से करवाने जा रही हूँ जिसकी सादगी, देशभक्ति, ईमानदारी और सत्यनिष्ठा के लिए मरणोपरांत उन्हें " भारत रत्न " सम्मान से सम्मानित किया गया। यह कोई और नहीं हमारे देश के दूसरे प्रधानमंत्री माननीय लाल बहादुर शास्त्री थे। मरणोपरांत इस सम्मान को प्राप्त करने वाले वह प्रथम व्यक्ति थे।
शास्त्री जी का जन्म 2 अक्टूबर सन् 1995 में उत्तर प्रदेश के मुगलसराय नामक स्थान पर हुआ था। इनके पिता का नाम " मुंशी शारदा प्रसाद श्रीवास्तव " एवं माता का नाम " रामदुलारी " था। आप एक बहुत ही साधारण परिवार से थे। पूरे परिवार में सबसे छोटे और कद में भी बहुत छोटे होने के कारण इन्हें सब लोग प्यार से " नन्हे " के नाम से पुकारते थे। मात्र 18 महीने के थे जब इनके पिता का निधन हो गया अतः आपकी माताजी सबको लेकर अपने मायके मिर्जापुर चली गई और वहीं रह कर अपने परिवार को पाला-पोसा। आपने मिर्जापुर से ही प्राथमिक शिक्षा ग्रहण की। हरिश्चंद्र हाईस्कूल विद्यालय से दसवीं की शिक्षा प्राप्त करने के बाद, स्नातक की शिक्षा के लिए आपने " काशी विद्यापीठ " बनारस में प्रवेश लिया। इसी बीच सन् 1920 में " असहयोग आंदोलन " के लिए इन्होंने शिक्षा अधूरी छोड़ दी। कहा जाता है कि आप महात्मा गांधी जी से बहुत प्रभावित थे उसी कारण शिक्षा को छोड़ " असहयोग आंदोलन " में कूद पड़े जिसमें इनकी गिरफ्तारी तो हुई पर नाबालिक होने की वजह से इन्हें छोड़ दिया गया। बाद में गांधी जी के कहने पर ही सन् 1925 में आपने संस्कृत भाषा में अपनी स्नातकोत्तर की शिक्षा पूर्ण की। यहाँ से आपको " शास्त्री " की उपाधि मिली क्योंकि आप जात-पात के सख्त खिलाफ थे इसीलिए तुरंत ही अपना सरनेम " श्रीवास्तव " हटाकर " शास्त्री " जोड़ लिया। आगे चलकर " शास्त्री " " लाल बहादुर " के नाम का पर्याय बन गया और आप " लाल बहादुर शास्त्री " के नाम से प्रसिद्ध हो गए। आपका विवाह सन् 1928 में " ललिता जी " से हुआ। कहा जाता है कि आप ताउम्र ललिता जी के बिना कहीं किसी यात्रा पर नहीं गए मात्र एक आखरी यात्रा को छोड़कर। आप दोनों की कुल 6 संतान हुईं। दो पुत्रियाँ- कुसुम एवं सुमन और चार पुत्र हरि कृष्ण, अनिल, सुनील एवं अशोक।
बचपन से ही शास्त्री जी का जीवन संघर्षपूर्ण रहा था संभवता इसी संघर्ष भरे जीवन ने उन्हें सरल, सत्यनिष्ठ और ईमानदार बनाया। वह गांधीजी के व्यक्तित्व से पूर्णतः प्रभावित थे लेकिन उससे पहले अपनी मां के अतिरिक्त हालात और समाज ने ही उनके व्यक्तित्व को तराश दिया था। उनके स्वाभिमान और जिम्मेदारी की बात करें तो दो प्रसंगों का जिक्र करना जरूरी हो जाता है। पहला " स्वाभिमान ", जो उन्हें विरासत में मिला। एक बार की बात थी अपने दोस्तों के साथ गंगा नदी के पार मेला देखने गए। लौटते वक्त नाव के पास आकर देखा कि उनकी जेब में एक पाई भी नहीं है, तो उन्होंने दोस्तों को जाने को कहा कि वो बाद में आएँगे क्यों कि अभी उन्हें और कुछ देर मेले में घूमना है। कारण था जिससे उन्हें किराया दोस्तों से ना लेना पड़े। जैसे ही नाव आंखों से ओझल हुई उन्होंने अपने कपड़े उतारे और सिर पर लपेट लिए और कूद कूद पड़े गंगा में। आधे मील का चौड़ा पाट और उफान पर आया नदी का पानी, बड़े से बड़ा तैराक भी हिम्मत नहीं करता पर उनके स्वाभिमान ने उन्हें हारने नहीं दिया और कुछ देर बाद सकुशल नदी पार कर ली। दूसरा " जिम्मेदारी " जिम्मेदारी का पाठ पढ़ाया एक माली ने जिस के बगीचे में अपने दोस्तों के साथ फूल तोड़ने घुसे थे। हुआ कुछ यूँ कि इनके सभी दोस्त जल्दी जल्दी फूल तोड़कर अपनी झोली भरने लगे परंतु छोटा कद और दूसरा 6 वर्ष की आयु का होने के कारण यह एक फूल ही तोड़ पाए थे, तब तक माली आ गया। बाकी सब तो भाग गए पर यह माली के हत्थे चढ़ गए फूलों के टूटने और चोरों के भाग जाने के कारण गुस्साए माली ने इन्हें पीट डाला। तब इन्होंने मासूमियत से कहा - " आप मुझे इसलिए पीट रहे हैं ना क्योंकि मेरे पिता नहीं हैं " यह सुनकर माली का क्रोध दूर हो गया और उसने इनसे कहा - " बेटे पिता के ना रहने पर तो तुम्हारी जिम्मेदारी और अधिक हो जाती है "। मार खाकर तो यह नहीं रोए पर माली की बात सुनकर यह बिलख कर रो पड़े और सीख को ताउम्र नहीं भुलाया। बस उसी पल उन्होंने संकल्प लिया कि वो जिंदगी में कभी कोई ऐसा काम नहीं करेंगे जिससे किसी का नुकसान हो। आगे जाकर इनके व्यक्तित्व को सोने सा खरा बनाने में महात्मा गांधी जी के विचार, सादा जीवन, जुझारूपन, सत्य, अहिंसा जैसे बेशकीमती एहसासों ने अपना सहयोग दिया। बस ऐसे थे हमारे देश के लाल " लाल बहादुर शास्त्री "।

राजनीतिक जीवन -

लाल बहादुर शास्त्री जी की पढ़ाई के मध्य से शुरू हुआ राजनैतिक जीवन प्रधानमंत्री पद से होते हुए मृत्युपर्यंत अनेकों आंदोलनों और उपलब्धियों से भरा हुआ है। इसीलिए उनके राजनीतिक जीवन को तिथि और सन् को मद्देनजर रखते हुए क्रमवार बांधने की कोशिश की है।
शास्त्री जी का राजनीतिक दल " भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस " दल था लेकिन वह एक राजनेता के साथ-साथ स्वतंत्रता सेनानी भी थे। स्नातक जीवन के मध्य भारत सेवक संघ से जुड़े और देश सेवा का व्रत लिया, ठीक यहीं से इनके राजनीतिक जीवन की शुरूआत भी हो गई। अपने विवाह के लगभग 1 वर्ष बाद सर्वप्रथम सन् 1929 में इलाहाबाद आने पर श्री पुरुषोत्तम दास टंडन जी के साथ " भारत सेवक संघ " की इलाहाबाद इकाई के सचिव के रूप में काम शुरू किया। इनकी कर्मठता की वजह से जवाहरलाल नेहरु जी के साथ इनकी निकटता बढ़ती गई और यहीं से सफलता की सीढ़ियां चढ़ते हुए वह नेहरू जी के मंत्रिमंडल में गृह मंत्री के पद पर पहुंचे और इसी के साथ आगे बढ़ रहे शास्त्री जी की सिलसिलेवार राजनीतिक उपलब्धियां कुछ इस तरह रहीं -
सन् 1935 से सन् 1941 तक कई पद एक साथ संभाले
सन् 1935 से सन् 1938 तक उत्तर प्रदेश के कांग्रेस महासचिव के पद पर रहे।
सन् 1947 में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के संसदीय सचिव रहे।
सन् 1935 से सन् 1941 तक उत्तर प्रदेश कमेटी के महामंत्री रहे।
सन् 1946 में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री पंडित गोविंद बल्लभ पंत के सभा सचिव रहे।
सन् 1947 में मंत्रिमंडल में शामिल किया गया।
सन् 1951 में कर्तव्यनिष्ठा व योग्यता के आधार पर कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव बने।
सन् 1952 में रेल मंत्री बने किंतु सन् 1956 में एक बड़ी रेल दुर्घटना घटी जिसकी जिम्मेदारी स्वयं लेते हुए मंत्री पद से अपना इस्तीफा दे दिया।
सन् 1957 में परिवहन एवं संचार मंत्री रहे।
सन् 1958 में वाणिज्य एवं उद्योग मंत्री रहे।
4 अप्रैल 1961 से 29 अगस्त 1963 तक पंत जी की मृत्यु उपरांत गृहमंत्री रहे।
देश के प्रथम प्रधानमंत्री श्री जवाहरलाल नेहरु के निधन के पश्चात शास्त्री जी की काबिलियत और साफ-सुथरी छवि की वजह से सर्वसम्मति से उन्हें भारत का अगला प्रधानमंत्री बनाया गया। लाल बहादुर शास्त्री जी ने 9 जून 1964 को प्रधानमंत्री पद ग्रहण किया। यह देश के दूसरे प्रधानमंत्री बने। पद ग्रहण करते ही उनका पहला कदम था खाने के सामान के बढ़ते मूल्यों को जल्द से जल्द रोकना। उस वक्त देश में खाने की चीजों का सारा सामान नार्थ अमेरिका से आयात होता था। अनाज के लिए PL 480 स्कीम के तहत देश नॉर्थ अमेरिका पर पूर्णतया निर्भर था। सन् 1965 में देश में भयंकर सूखा पड़ा। उस वक्त देश के हालात को देखते हुए शास्त्री जी ने देशवासियों से मात्र 1 दिन का उपवास रखने की अपील की। उस वक्त हालात से लड़ने, खाद्य के क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनाने के लिए और जवानों व किसानों को अपने कर्म एवं निष्ठा के प्रति सुदृढ़ बने रहने के लिए उन्होंने देश को " जय जवान जय किसान " का नारा दिया। तभी 1965 में भारत-पाक युद्ध छिड़ गया। उस समय इस नारे से उत्साहित होकर जवानों ने प्राण हथेली पर रखकर देश की रक्षा की, तो वहीं किसानों ने दोगुने परिश्रम से अन्य उपजाने का संकल्प लिया। अप्रत्याशित रूप से शास्त्री जी के कुशल नेतृत्व ने न सिर्फ युद्ध में अभूतपूर्व विजय दिलाई बल्कि देश के अन्न भंडार भी पूरी तरह भर गए। उनके कदम सैद्धांतिक ना होकर व्यवहारिक और जनता की आवश्यकता के अनुरूप थे।
शास्त्री जी ने बतौर स्वतंत्रता सेनानी स्वाधीनता संग्राम के सभी कार्यक्रमों एवं आंदोलनों में सक्रिय रुप एवं महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी सिलसिलेवार उनकी भागीदारी वाले मुख्य आंदोलन रहे -
सन् 1921 असहयोग आंदोलन
सन् 1930 नमक सत्याग्रह/ दांडी मार्च
सन् 1942 भारत छोड़ो आंदोलन
यह कम ही लोग जानते होंगे कि अपने पूरे जीवनकाल में देश के लिए स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ते हुए लगभग 9 वर्ष उन्होंने जेल में ही बताए थे। उन्होंने देश की आजादी के लिए देश को एक क्रांतिकारी नारा और दिया था। दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान नेताजी के " दिल्ली चलो " नारे और गांधी जी के " भारत छोड़ो " नारे के साथ ही गांधीजी के " करो या मरो " आदेश को चतुराई पूर्वक उन्होंने मिला दिया। 9 अगस्त 1942 को इलाहाबाद में उन्होंने एक नए नारे को जन्म दिया " मरो नहीं, मारो ! " उनके इस नारे ने अप्रत्याशित रूप से इस क्रांति को प्रचंड रूप में परिवर्तित कर दिया। 11 दिन तक भूमिगत रहकर आंदोलन चलाने के बाद 19 अगस्त 1942 में शास्त्री जी गिरफ्तार हो गए।

रहस्यमयी मौत -

दोस्तों ! कभी-कभी ज्यादा अच्छा एवं लोकप्रिय व्यक्तित्व कुछ लोगों की नजरों में खटकने लगता है, कुछ ऐसा ही उनके साथ भी हुआ। सन् 1965 के युद्ध समाप्ति के बाद जनवरी 1966 में सन्धि प्रयत्न के सिलसिले में दोनों देशों के प्रतिनिधियों की बैठक ताशकंद सोवियत संघ में बुलाई गई। हर जगह साथ रहने वाली उनकी पत्नी ललिता जी को इस बार प्रयत्न करके रोका गया और शास्त्री जी को अकेला ही ताशकंद भेज दिया गया। 10 जनवरी 1966 को प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री जी एवं पाकिस्तानी राष्ट्रपति अय्यूब खान ने संधि पत्र पर हस्ताक्षर किए और उसी दिन मध्यरात्रि ताशकंद के उस अतिथि गृह में हृदय गति रुकने से उनकी मृत्यु हो गई। रहस्यमयी परिस्थितियों में हुई मृत्यु के दस्तावेज अभी तक सार्वजनिक नहीं किए गए हैं। लाल बहादुर शास्त्री जी की मृत्यु देश हित में एक अपूर्णीय क्षति थी। उनकी याद में दिल्ली में " विजय घाट " का निर्माण हुआ, जहाँ हर वर्ष उन्हें श्रद्धांजलि दी जाती है।

क्या आप जानते हैं ?

अपने बेहद कार्यकाल में उन्होंने एक बार फिएट कार ली, जिसके लिए उन्होंने पंजाब नेशनल बैंक से ₹5000 का लोन लिया पर उसे सरकारी खजाने से न चुकाकर स्वयं अपने पैसे से चुकाया।
जेल प्रवास के दौरान एक बार उनकी पत्नी दो आम छुपा कर ले आईं, तो शास्त्री जी ने उन्हीं के खिलाफ धरना दे दिया। उनका कथन था कैदियों को बाहर की कोई भी चीज खाना कानूनन जुर्म है।
स्वयं की शादी में उन्होंने दहेज नहीं लिया, जिस पर उनके ससुर दहेज लेने की जिद करने लगे इसलिए उन्होंने दहेज के नाम पर कुछ मीटर खादी ली।
परिवहन मंत्री के पद पर रहते हुए सर्वप्रथम महिलाओं को बतौर कंडक्टर उन्होंने ही नियुक्त करवाया, जो आज तक चल रहा है।
किसी भी आंदोलन में प्रदर्शनकारियों पर लाठीचार्ज की बजाय पानी की बौछार की जाए ऐसा नियम शास्त्री जी ने ही बनाया।

दिखने में साधारण पर चट्टान जैसी दृढ़ता और शेर जैसा निर्भीक व्यक्तित्व था शास्त्री जी का। शास्त्री जी पूर्णतया गांधीवादी थे इसीलिए उन्होंने गरीबों की सेवा करते हुए सादगी से अपना जीवन जिया। आज उनके आदर्शों को अपनाने की बहुत ज़रूरत है क्योंकि आज के परिप्रेक्ष में बिना किसी दिखावे के सही दिशा में काम करने वाले बहुत कम लोग हैं। अगर हम उनके दिखाए मार्ग पर चल पाएँ तो यही उनके लिए सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
नीलिमा कुमार

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