मेरा वो रोमांचक सफर.... (संस्मरण) Neelima Kumar द्वारा यात्रा विशेष में हिंदी पीडीएफ

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मेरा वो रोमांचक सफर.... (संस्मरण)

हिमालय की गोद में बसा उत्तराखंड ऊँची-ऊँची पहाड़ियों, गगनचुंबी पेड़ों, लहलहाती हरियाली और कमर पर बल देकर गुनगुनाती भागती पहाड़ी नदियों से लबरेज नैसर्गिक सौंदर्य की खान है। इसके कई मंडलों में कुमाऊँ मंडल और उसमें भी नैनीताल सौंदर्य से परिपूर्ण सैलानियों का मुख्य आकर्षण है। इन खूबसूरत वादियों में गर्मी का मौसम, क्रिसमस एवं नया साल सैलानियों का सैलाब लेकर आता है। 34 सालों से यह लुभावनी वादियाँ हमें भी अपने आगोश में लपेटती रही हैं। कुछ वर्ष पहले इन ख़ूबसूरत वादियों के साथ कुछ लम्हें बिताने के बाद हमने रुख़ किया उत्तराखंड के सबसे ऊँची चोटी मुक्तेश्वर की ओर। नैनीताल से लगभग 60 किलोमीटर दूर पहाड़ी पर बसा एक छोटा सा कस्बा जहाँ Indian Vetenary Research Institute के साथ एक स्टेट बैंक, चन्द दुकानें, कुछ गेस्ट हाउस, एक स्कूल और छोटी सी इकलौती डिस्पेंसरी के साथ थे चन्द कच्चे-पक्के छोटे-छोटे घर। करीब दोपहर एक बजे हम सब IVRI के बड़े से डाक बंगले में पहुँचे, जहाँ हमें सिर्फ एक आदमी मिला जो वहाँ के केयरटेकर से लेकर चौकीदार तक का सारा भार अपने कंधों पर लिए घूम रहा था। डाक बंगले से बड़ा उसका वह ख़ूबसूरत लॉन था जहाँ हरी मखमली घास के साथ प्यारे-प्यारे फूलों की भीनी सुगंध बह रही थी। चाय की तलब का उठना तो लाज़िमी था। सफेद गोल पत्थरों की बजरी वाली पट्टी पर चलते हुए उस गमकती धूप में चाय की चुस्कियों के साथ हम उन खूबसूरत वादियों को अपने दिलों की गहराईयों में महसूस कर रहे थे।
इस डाक बंगले में हमारी दो दिन की बुकिंग थी। हम खाना खाकर डाक बंगले के लाॅन में गुनगुनी धूप में बैठकर उस अनुपम सौंदर्य को आत्मसात करने लगे। तभी चौकीदार भैया ने बताया कि आज शाम 4 बजे आपको IVRI को देखने की अनुमति मिली है और कल नाश्ते के बाद डाक बंगले के बाईं ओर कुछ 500 मीटर दूर पर ही एक चढ़ाई है उसमें थोड़ा ऊपर जाकर आपको हजारों वर्ष पुराना एक छोटा सा पहाड़ी मंदिर मिलेगा। वैसे तो उसमें देखने के लिए कुछ खास नहीं है परँतु दो चीजें उसे खास बना देती हैं। एक उस मंदिर की महत्ता है कि वहाँ से कोई खाली हाथ नहीं जाता और दूसरे वह बाबा जो मंदिर की गुफा में बैठे तपस्या कर रहे हैं। महीनों महीनों तक वह बाहर नहीं आते और गुफा में कोई प्रवेश नहीं कर सकता है। उनके बारे में यह भी कहा जाता है कि जब उन्हें किसी को दर्शन देना होता है तब वह अचानक ही बाहर निकल आते हैं। आगे चौकीदार भैया ने बताया तीसरा देखने वाला स्थान है " चौली की जाली " कुमाऊं मंडल का सबसे ऊँचा पहाड़ जिस की चोटी पर प्राकृतिक रूप से एक बड़ा छेद बना हुआ है। मानता है कि उससे अगर ऐसी विवाहित स्त्री जिसकी गोद सूनी रह गई हो और वह उस छेद के एक तरफ से दूसरी तरफ बिना किसी की मदद लिए पार चली जाए तो उसकी गोद अवश्य ही भर जाती है और बकौल चौकीदार " चौली की जाली " ही sun set point भी है। इसी जगह से उत्तराँचल की नैसर्गिक सौन्दर्य की छटा देखते ही बनती है और इस सौंदर्य को चार चाँद लगाता है, अस्त होता हुआ लालिमा युक्त सूरज। यह सब सुनकर ही रोमांचित हो उठे थे हम लोग। हम 4 बजे का बेसब्री से इंतजार करने लगे। चार बजते ही हम institute के अंदर थे। छोटे बड़े सभी तरह के जानवरों पर प्रयोग चल रहे थे। वहाँ के गाईड ने बड़ी ही तन्मयता के साथ हमें एक एक कोना घुमाया। सच कहें, हमारा मन तो प्रकृति के उन मनोरम दृश्यों में ही उलझा हुआ था। गाईड को धन्यवाद अदा कर हम चारों बाहर निकल कर एक बार फिर यूँ ही बेमकसद सड़कों पर चहल कदमी करते हुए अपनी रूह को आनन्द में भिगोते रहे। थोड़ी ही देर में ये वादियाँ अन्धेरे के आगोश में समाने लगीं। अभी हमें कोई जल्दी तो थी नहीं सो हम आराम से चहलकदमी करते हुए guest house पहुँच गए। बस अब हमें खाना खाकर सोना भर था। ठिठुरती ठण्ड में कमरे में बने अलाव के सामने बैठ कर खाना खाने का अपना अलग ही मजा था। घूम भी आए और खाना भी खा चुके थे, सवाल था अब क्या करें ? सो हमने एक-एक गिलास चाय का आग्रह किया जिसे चौकीदार भैया ने सहर्ष पूरा किया। हाथ में गर्म चाय का गिलास ले अब हम लोग अलाव के सामने बैठे अंताक्षरी खेल रहे थे। इस पारिवारिक सुकून के पलों में हम भी नहीं चाहते थे कि किसी की दखलअंदाजी हो। इन लम्हों को प्यार के रंगों में सींचते सींचते कब रात के 10 बज गए पता ही नहीं चला। अब बारी आई सोने की। अंग्रेजों के जमाने का डाक बंगला होने के कारण एक के अंदर एक लगातार तीन कमरे या कहें कि बड़े-बड़े हॉलनुमा कमरे बने हुए थे। आखिरी कमरे के बाद एक शौचालय व स्नानघर था। मेरे बेटे ने कूदकर उस आखिरी कमरे में अपना कब्जा जमा लिया था। इस कमरे में पलंग से लगी एक खिड़की थी जो डाक बंगले के पीछे वाली पहाड़ी की तरफ खुलती थी। रोमांच पसन्द है सो खिड़की खोल कर हम लोग घुप अंधेरे को चीर कर आती झिंगुरों और कुछ और जानवरों की आवाजों को सुनते रहे। बड़ा ही रोमांचकारी था इसे महसूस करना। यह सब कुछ देख-सुन कर शायद मेरी बेटी कुछ डर गई थी और वह भागकर हमारे पास हमारे साथ सोने चली आई। अंततोगत्वा हम जैसे ही बिस्तर पर पड़े एक प्यारी सी नींद ने हमें घेर लिया। पता नहीं कब लेकिन नींद में हमें कुछ फुसफुसाती सी आवाजें सुनाई पड़ीं। शायद हमें कुछ वक्त लग गया था जागने में क्यों कि जब हमारी आंखें खुली तो हमने सुना, दूसरे कमरे से हमारे बेटे की दबी-दबी घुटी हुई चीखें निकल रही हैं। हम भाग कर वहाँ पहुँचे, उसे हिलाया जगाया, उसकी साँसें उखड़ी हुईं थीं। पानी पिलाकर बड़ी मुश्किल से उसे शाँत किया। जब कुछ बताने की हालत में पहुँचा तो उसने हमें बताया कि कोई उसके सीने पर बैठा था, जिससे उसका दम घुट रहा था। खैर... अब हम उसे अपने कमरे में ले आए थे। रहस्य, रोमांच की शुरुआत तो डाकबंगले के इसी बंद कमरे में हो चुकी थी।
प्रातः हमारी गहरी तन्द्रा को भंग किया लजाई, सकुचाई, शरमायी, तरुणी जैसी भोर की पहली किरण ने, जो उस बड़ी सी खिड़की के सूत भर खुले परदे से झाँककर हमारे सलोने मुख को टटोल रही थी। हमने भी कमसिन बाला सी एक अंगड़ाई ली और उठ खड़े हुए। थोड़ी ही देर में हम सब सुबह के नाश्ते को अपने पेट में जगह दे चुके थे। मंदिर खुलते ही चौकीदार भैया ने हमें जाने की हरी झंडी दिखा दी। बड़े उत्साह से हम मंदिर की ओर बढ़ चले। मानता वाला मंदिर है तो हम पहली सीढ़ी से ही मानता मानने लगे कि हे ईश्वर ! हमें उन सिद्ध पुरुष के दर्शन जरूर करा देना। यहाँ एक बात आप सभी को बतानी आवश्यक है कि मैं और मेरा परिवार खासकर मेरे पति कुछ नया जानने सीखने समझने के लिए हमेशा तैयार रहते हैं। हमें एक अजीब सी सुखद अनुभूति होती है। हाँ... तो मैं आपको बता रही थी कि हम थोड़ी चढ़ाई चढ़कर ठीक उस मंदिर के सामने खड़े थे जिसकी झरती हुई दीवारें अपनी उम्र को बयाँ कर रही थीं। सर्वप्रथम तो हम उस गुफा के पास इंतजार करते रहे परन्तु जब काफी देर की प्रतीक्षा के बाद भी बाबा जी के दर्शन नहीं हुए तो हम लोग मंदिर देखते हुए उसकी परिक्रमा करने लगे। परिक्रमा करते समय भी हम अपनी इच्छा दोहराते रहे। परिक्रमा समाप्त हुई और हम मंदिर के मुख्य द्वार की ओर बढ़े। हमारे पैर वही थम गए, इंद्रियों ने जवाब देना बंद कर दिया। हमारे ठीक सामने बाबा जी सशरीर खड़े थे। हमें यकीन नहीं हो रहा था और सबसे आश्चर्यचकित कर देने वाली बात तब हुई जब उन्होंने इशारे से हमें अपनी गुफा में अंदर चलने को कहा तो हम भी विस्मृत से उनके पीछे चल पड़े। बाबा जी की गुफा जमीन के समानांतर ना होकर, एक तल नीचे कच्ची मिट्टी की बनी हुई थी। रास्ता छोटा और संकरा था। हम वहीं उनके समक्ष बैठ गए। समझ ही नहीं आया क्या बोलें। कुछ पल बाद उन्होंने अपने आप हमारे जिंदगी के मौन सवालों के जवाब दे डाले। हम जैसे उनके पीछे पीछे गए थे वैसे ही सब कुछ भूलकर गुफा से बाहर भी आ गए। बाहर सब वही था मंदिर भी और हम भी, बस अब कुछ नए सवाल हमारे ज़हन में उठ खड़े हुए थे। इन्हीं सवालों के जवाब ढूंढते ढूंढते अब हम वापस डाक बँगले पहुँच चुके थे। दोपहर हो चली तो चूल्हे का गर्म खाना खा कर हम पुनः उस मखमली घास पर विराजमान हो गए। थोड़ी ही देर में सूर्यास्त होने वाला था तो चौकीदार भैया ने बताया अब आप लोगों को " चौली की जाली " की ओर निकलना चाहिए, अगर आपने देर कर दी तो सूर्यास्त का अद्भुत नजारा देखने से आप वंचित रह जाएंगे। हम दोनों और हमारे दोनों बच्चों ने चलने की तैयारी की। अपने पैरों को गरम मोजे के साथ जूतों के हवाले किया। हाथ में एक एक जैकेट, पानी की बोतल, दूरबीन और अपने अपने मोबाइल के साथ हम निकल पड़े " चौली की जाली " की ओर। पहाड़ के उस घने जंगलों में घने पेड़ों की धूप छाँव वाली पगडंडी से गुजरते हुए, कभी अपनी पुकार को पहाड़ी से टकराकर वापस लौटती अपनी ही आवाज को सुनते, तो कभी रास्ते में पड़ी किसी अनोखी सी चीज को उठाकर समझने की कोशिश करते और ना समझ में आने पर उसे अपनी जेब के हवाले कर देते, इस उम्मीद के साथ कि चौकीदार भैया से पूछेंगे। हाँ... तो चलते चलते हम कब पहुँच गए अपने गंतव्य पर पता ही नहीं चला। क्या अद्भुत समाँ था। सूर्य देवता ने अपने चमकते पीले रंग से सिंदूरी रंग की ओर एक कदम बढ़ाया ही था कि हवाओं ने भी सर्द होना शुरू कर दिया। हमारे मोबाइल के कैमरे चमकने लगे। जहाँ हम खड़े थे वहाँ से नीचे देखा तो पैरों तले जमीन सरक गई। गनीमत है वह पहाड़ अपनी जगह अडिग और अटल खड़ा था। " चौली की जाली " से नीचे की तरफ देखें तो नीचे हजारों फीट गहरी खाई थी और सामने देखें तो 180 डिग्री पर फैले पहाड़ों का नज़ारा था। अपने बाएँ कंधे की ओर से घूमना शुरू किया तो दाहिने कंधे तक सिर्फ सामने पहाड़ों की श्रृंखलाएँ हैं और नीचे हरी-भरी खाईनुमा पहाड़ों में चमकते वो नन्हे नन्हे घर, ठीक उसी तरह दिखाई दे रहे थे जैसे आसमान पर फैले बादलों को चीर कर कहीं इक्का-दुक्का तारे टिमटिमाते दिखलाई पड़ जाते हैं। अरे यह क्या ? धीरे-धीरे नीचे उतर रहे सूर्य देवता अचानक धप्प से नीचे बैठ गए और लगा जैसे प्रकृति ने हज़ारों सितारों से टका चमचमाता एक प्यारा सा काला दुशाला ओढ़ लिया हो। हमारी तन्द्रा भंग हुई तो स्मरण हुआ कि चौकीदार भैया ने हिदायत दी थी कि सूर्यास्त के बाद तुरंत ही वापसी का सफर शुरू कर दीजिएगा क्योंकि इस मौसम में अक्सर रातें अपने साथ बादल-बरसात लेकर ही आती हैं। भैया की बात को मद्देनजर रखते हुए हमने डाक बंगले की ओर प्रस्थान करने की सोची। यह पहाड़ भी तो अजीब ही होते हैं। देखिए ना... लगभग 1 किलोमीटर चलकर आने के बाद पता चला कि हमने तो उस पहाड़ की परिक्रमा भर की थी। दरअसल " चौली की जाली " करीब- करीब हमारे डाक बंगले के पीछे ही थी, बस दोनों के बीच में ना माप सकने वाली ऊँचाई थी तो कहीं पाताल सी गहराई।
खैर ... अब हमें वापसी के सफर पर चलना था। इंसान की बुद्धि और जल्दी से जल्दी ज्यादा पाने की हमारी चाह ने चौकीदार भैया द्वारा दी हुई हिदायत को भी भुला दिया। हिदायत थी कि इसी रास्ते वापस लौटना पर हम सब तो बस हम ही थे, रोमांचक यात्राएँ करना हमारा शौक है। हमने सोचा हम लोग ठीक डाक बंगले के पीछे ही तो हैं, तो दूसरी तरफ से चलें, तभी तो और बहुत कुछ देखने को मिलेगा। " लालच बुरी बला है " इस कहावत को उस दिन तक सुना ही था किंतु उस दिन चरितार्थ होते देखा। हुआ यूँ कि हम लोग उस पगडंडी पर वापस लौटने की जगह, वहीं से आगे जाती पगडंडी पर बढ़ लिए। आसमाँ के आगोश में बैठे चाँद-सितारे हमें पगडंडी पर बढ़ने के लिए अपनी रोशनी हमारे पाँव के नीचे बिछाते जा रहे थे। अचानक ऐसा लगा जैसे रोशनी बहुत ही मध्यम हो गई है और अन्ततः वह तो गायब ही हो गई। आसमान की ओर नजर उठाई तो पाया कि हमारे सिर पर तो दरख़्तों का बाजार लगा है। तब ज्ञात हुआ कि संभवत हम किसी पहाड़ी जंगल में प्रवेश कर चुके थे। अब तो वापसी का रास्ता भी सुझाई देना बंद हो गया था। मरता क्या ना करता आगे तो बढ़ना ही था सो बढ़ते रहे उसी रास्ते पर। लेकिन अब तक इतना तो हम पति-पत्नी समझ चुके थे कि हम इस जंगल में भटक गए हैं। उस अंधेरी रात में पैरों के नीचे चरमराते सूखे पत्ते, झिंगुरों की आवाजें, और पेड़ों को चीरकर तीव्रता धारण करती सनसनाती हवा ने हमें मजबूर कर दिया हमारे अपने ईश्वर को अपने काँपते होठों से याद करने के लिए। मगर बच्चे ? बच्चे तो मासूम ही होते हैं, उन्हें क्या पता कि जिसे वह adventure समझ रहे हैं दरअसल वो एक खतरनाक सफर में तब्दील हो चुका है। चौकीदार भैया के मुँह से ही सुन कर आए थे कि इस पहाड़ पर कभी-कभी एक तेंदुआ दिखलाई पड़ जाता है। मोबाइल फोन तो हम चारों के पास थे मगर बिना सिग्नल के मात्र एक torch का काम ही कर रहे थे। ईश्वर ने सही समय पर बुद्धि दे दी, तो हम चारों ने एक मोबाइल फोन की रोशनी में आगे बढ़ना शुरू किया और बाकी तीनों को अपनी जेबों के हवाले कर दिया। अब बस इस खूबसूरत माहौल में एक ही चीज की कमी रह गई थी और वह थी बारिश। ऊपर वाला भी जैसे हमारे सफर को और ज्यादा रोमांचक बनाने पर आमादा हो गया था। बादलों ने गड़गड़ाना शुरू किया और बिजली ने चमकना। बिजली की चमक में एक पल को हम उस पहाड़ी जंगल की ख़ामोश भयानकता से रूबरू हो जाते थे। अब थोड़ा-थोड़ा बच्चों के चेहरों पर भी डर की झलक देखी जा सकती थी। मेरे हाथों पर मेरी बेटी का हाथ कसता चला जा रहा था और फिर वही हुआ जिसका डर था। दूर-दूर तक किसी बस्ती या इन्सान के होने की उम्मीद दिखाई नहीं पड़ रही थी और तभी इंद्र देवता ने पानी की कुछ बूंदों से हमारे चेहरे को भिगोया। हमने भी अपने पैरों को जल्दी जल्दी भगाना शुरू किया, मगर शायद हम बाहर की ओर बढ़ने की जगह जंगल में और अंदर की तरफ बढ़ आए थे। अब तक हमें समझ आ चुका था कि हम बहुत बुरी तरह से इस जंगल में भटक चुके हैं। ईश्वर से प्रार्थना करने का अंतराल कम से कमतर होता चला गया यानी प्रार्थना ने रफ्तार पकड़ ली थी। बारिश और तेज हो चली थी। हमारे शरीर के गर्म कपड़े बच्चों के शरीर पर पहुँच गए थे। ठंड का प्रकोप बढ़ता जा रहा था। हड्डियों में सिहरन शुरू हो गई थी। हम ऊपर वाले को कोसने लगे कि कम से कम बारिश तो ना करते, मगर इन हालातों में फिर एक कहावत चरितार्थ हुई। " जो होता है अच्छे के लिए ही होता है " यकीन मानिए अगर बिजली ना चमकती और बारिश ना होती तो हमें वह पतली सी पगडंडी कभी दिखाई ही नहीं देती जिस पर पानी एक धार का रूप लेकर ढलान की तरफ बहने लगा था। जाहिर सी बात है हमें उस पहाड़ से नीचे उतरना था इसीलिए हमने उसी पगडंडी का सहारा लिया और हम चलने लगे। कोई दस-पन्द्रह मिनट चलने के बाद हमें कुछ रोशनी दिखाई पड़ना शुरू हुई। आप यकीन नहीं मानेंगे हम इतनी तेजी से भागने लगे कि हमें स्वयं को ऐसा लगने लगा जैसे हम या तो मैराथन जीतना चाहते हैं या फिर हमारे पीछे कोई भूत लग गया हो। धीरे धीरे दीए सी टिमटिमाने वाली रोशनी बड़ी होती गयी, और जब हम उस हादसे रूपी जंगल से बाहर निकले तो पाया कि सामने एक बहुत प्राचीन मंदिर था जिसमें किसी ने संध्या की आरती करके दिए जलाए थे। मंदिर पर पहुँचकर हमारी रुकी हुई साँसों ने फिर हमारे शरीर में शिरकत शुरू की। दो घड़ी सुस्ताने के बाद अब हमें यह सोचना था कि मंदिर से हमें किस दिशा में जाना है। थोड़ा अपने आप को संभालने के बाद हमें समझ में आया कि हम उसी मंदिर में खड़े थे जिस में हम सुबह बाबा जी से मिले थे। भला हो उस चौकीदार का जो सीधे रास्ते पर हमें ना पा कर, दो चार लोगों को साथ ले दूसरे रास्ते से इस जंगल की ओर बढ़ने लगा था क्योंकि वह समझ चुका था कि हम इस जंगल में कहीं भटक चुके हैं। सभी के हाथ में लाठी और लालटेन थी। उसे देख कर हमें हमारी स्थिति की गम्भीरता समझ आयी। हम जैसे शून्य में चले गए थे। ज़ाहिर है हमारे लिए जागृत हुआ चौकीदार का डर एवं क्रोध गलत नहीं था। बचपन में अपने बड़ों से खाई डाँट के बाद उस पल अपने बच्चों के सामने चौकीदार भैया से डाँट खानी पड़ी। जब उसका क्रोध शाँत हुआ तो उसे याद आया कि हम सब भीगे हुए हैं और सूखे पत्ते की तरह ठंड से काँप रहे हैं। वह तेजी से हमें साथ लेकर नीचे सड़क की ओर बढ़ने लगा। सड़क पर पहुँचकर बमुश्किल 500 मीटर चलने पर ही हम उस डाक बंगले के सम्मुख खड़े थे। डाक बंगले को देख गुस्सा भी आया और रोना भी। यकीन नहीं आ रहा था कि हम इसी डाक बंगले के पीछे वाले जंगल में घंटे भर से भटक रहे थे और हम इसके इतना करीब थे।
उस घनी, अंधेरी, काली रात का भयानक रोमाँच हड्डियों में दौड़ती शीत लहर के कारण कुछ कम होने लगा था। अब बारी थी चौकीदार भैया के तत्परता दिखाने की। उन्होंने अंग्रेजों के जमाने में बने हमारे कमरे के फायरप्लेस में ढेरों लकड़ियाँ झोंक दीं और अलाव जलाकर हम चारों को उसके नजदीक कुर्सी पर बैठाया। अपने पैरों से जूतों को उतारकर हमने उन्हें भी ठंड से बचाने के लिए अलाव के पास रखा। पहले हमारे पैरों ने अलाव से गर्मी लेकर स्वयं को फालिज़ मारने से बचाया और उसके बाद हमारे शरीर को गर्मी भेजनी शुरू की। तब तक हमारे हाथों में चौकीदार भैया ने चूल्हे पर पकी चाय को काँच के गिलासों में भर कर पकड़ा दिया था। कसम से उस पल कोई समुद्र मंथन से निकले अमृत को भी देता तो हम वह भी मना कर देते। उस वक्त हमारे लिए अमृत तो सिर्फ गिलास भर गर्म चाय ही थी। रात हो चली थी हमने सोचा खाना-वाना खाकर सोया जाए। जब हमने चौकीदार भैया को खाने के लिए आवाज लगाई तो उसने हमें यूँ घूर कर देखा कि जैसे हमने कोई गुनाह कर दिया हो। हमें समझ नहीं आया कि आखिर हमने ऐसी क्या गुस्ताख़ी कर दी। तब उसने हमें दीवार पर टिक-टिक करती घड़ी की ओर देखने का इशारा किया। यह क्या अभी तो संध्या के मात्र सात ही बजे थे। हम चौंक पड़े, यकीन ही नहीं हो रहा था कि जब जंगल में हम फंसे थे उस वक्त मात्र शाम के पाँच- साढ़े पाँच ही बजे होंगे।
दोस्तों ! इस हादसे ने हमें एक बात तो बख़ूबी समझा दी थी कि किसी भी नई जगह का आनन्द लेना हो तो निर्धारित समय सीमा के अंदर ही लेना चाहिए। खासतौर पर पहाड़ों में तो समय का विशेष ध्यान रखना चाहिए। संभव था उस दिन या तो हमारी तकदीर अच्छी थी अथवा उस तेंदुए का पेट भरा था या फिर हमारी तरह भटका हुआ कोई राहगीर हमसे पहले ही उसकी ज़द में आ चुका था। सच है यह पहाड़ और पहाड़ों के जंगल बहुत ही खूबसूरत होते हैं। इनकी वादियाँ पुकार- पुकार कर जैसे हमसे बातें करती हैं। उगते सूरज में इनकी छटा कौमार्य की पहली सीढ़ी पर कदम रख रही किशोरी सी प्रतीत होती है, तो वहीं अस्त होता सूरज इन वादियों को नई नवेली दुल्हन के गालों की लाली सा लाल रंग में रंग देता है। कुदरत का करिश्मा है कि पशु, पक्षी, पेड़, पौधों के साथ इंसानों को भी यह पहाड़ और पहाड़ों के जंगल अपने में आत्मसात कर लेते हैं और हम सब की रूह तक को प्यार से सराबोर कर देते हैं। बस इन्हें एक ही चीज नापसन्द है और वह है इनके बनाए नियमों को तोड़ना। उम्मीद है हमारा यह अनुभव पहाड़ों के नियमों को ना तोड़ने के लिए कुछ लोगों को प्रेरित कर सकता है।
नीलिमा कुमार
( पूर्णतया मौलिक, स्वरचित एवं आपबीती )