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राजा दाहिर सेन

राजा दाहिर सेन

निलिमा सेन

सातवीं सदी से पहले अफगानिस्तान और पाकिस्तान का कुछ हिस्सा फारस साम्राज्य के पास था बाकी सारा हिस्सा भारतीय राजाओं के अधीन था, साथ ही बलूचिस्तान एक स्वतंत्र सत्ता थी। यह भारत का पश्चिमी छोर शक, कुषाण और हूणों के पतन के बाद एकाएक कमजोर पड़ गया जिससे सातवीं सदी के बाद ही अफगानिस्तान एवं पाकिस्तान भारत के हाथ से निकल गए।

भारतवर्ष में इस्लामी शासन का पहला प्रवेश हुआ हिन्दुस्तान के सिन्ध साम्राज्य से। अरबों से छोटी-बड़ी असंख्य लड़ाईयाँ लड़ते हुए लगभग 33 वर्षों तक भारत की रक्षा करने वाले शूरवीर राजा दाहिर सेन पहले ऐसे भारतीय राजा थे जिन्होंने इस्लामी सेना से युद्ध करते समय युद्ध क्षेत्र में वीरगति प्राप्त की और देश के लिए शहीद हुए। यह सच है कि उनकी मृत्युपरान्त ही इस्लामी फौज सिंध पर कब्जा कर सकी। यह एक ऐसी युद्ध गाथा है जिस से ज्यादातर भारतीय अनभिज्ञ ही होंगे।

तो आईए .... आज हम महाराजा दाहिर सेन के वारे में विस्तृत रूप से जानकारी हासिल करते हैं। हिंद देश के महाराजा थे राय साहसी द्वितीय जो हर्ष के समकालीन राजा थे , उनकी पत्नी का नाम रानी सुहानदी था एवं उनके कोई संतान नहीं थी अर्थात उनका कोई उत्तराधिकारी नहीं था। महाराज राय साहसी की कार्यकारिणी समिति में एक चाच नामक ब्राह्मण था जो महाराज के सभी निजी कार्यों को देखा करता था। महाराज राय साहसी के मृत्युपरांत चाच ब्राह्मण ने महाराज की विधवा रानी सुहानदी से विवाह कर लिया और सिंध साम्राज्य का शासक बना। महाराज चाच के दो पुत्र हुए दाहिर सेन और दाहिर सिम। कुछ वर्षों के पश्चात ही दाहिर सिम की मृत्यु हो गई फलस्वरूप महाराज चाच के बाद सन् 679 ईस्वी में दाहिर सेन सम्पूर्ण सिंध के शासक बने और महाराजा दाहिर सेन कहलाए।

राजा दाहिर सेन का भारत के इतिहास में नाम इसलिए नहीं मिलता है क्योंकि भारतीय इतिहास को वामपंथी धारणा के अनुरूप लिखा गया, जिसके अनुसार उन राजाओं का वर्णन इतिहास में वर्जित था जिनके बारे में लिखने से भारत में सांप्रदायिक वातावरण पर असर पड़ सकता था। राजा दाहिर सेन ने मुस्लिम धर्मगुरु इमाम मोहम्मद के परिवार को आश्रय दिया था। राजा दाहिर सेन और चंद्रगुप्त की सेनाओं के कर्बला देर से पहुँचने के कारण इमाम मोहम्मद को बचाया नहीं जा सका था। खलीफा अल हज्जाज ने इमाम मोहम्मद के अंतिम वंशजों को ढूंढकर मारने की मुहिम चलाई थी। राजा दाहिर ने हुसैन इब्न अली को भी शरण दी थी जो इमाम मोहम्मद के पोते थे। हुसैन इब्न अली को भी सिंध जाते हुए कर्बला में पकड़ लिया गया था और मौत के घाट उतार दिया गया था। जी• एम• सईद के अनुसार सिंध प्राँत में हुसैन इब्न अली और राजा दाहिर सेन दोनों के लिए शोक मनाया जाता है। यहाँ यह भी बताना जरूरी है कि पाकिस्तान के इतिहास में भी दर्ज़ है कि मोहम्मद बिन कासिम उम्मयाद सल्तनत का एक सेनापति था और उम्मयाद सल्तनत ने इमाम मोहम्मद और उनके वंश को नेस्तनाबूत करने की कसम खा रखी थी। इमाम हुसैन को मारने वाला याज़िद भी इसी उम्मयाद सल्तनत का था। इन सब बातों का विवरण " चाचनामा " में भी मिलता है जो कि उम्मयाद सल्तनत के काज़ी इस्माइल द्वारा राजा दाहिर सेन की मौत के बाद लिखाया गया था। इसका अंग्रेजी रूपांतरण " हिस्ट्री ऑफ इंडिया " सर हेनेरी इलियाट द्वारा सन् 1900 ईस्वी में किया गया था। इसके अतिरिक्त कन्नौज में रमल नाम के राजा ने महाराजा दाहिर पर हमला कर दिया था। प्रारंभिक हार के बाद राजा रमल अरौर की तरफ बढ़े। महाराजा दाहिर ने एक अरब अलाफी जो कि उम्मयाद ख़लीफत से निष्कासित किया गया था, के साथ मिलकर रमल की सेनाओं को परास्त किया जिससे प्रसन्न होकर महाराजा दाहिर सेन ने अपने दरबार में अलाफी को विशेष स्थान प्रदान किया। हालांकि बाद में अलाफी केवल रक्षा सलाहकार के रूप में राजा दाहिर के साथ रहा और उसने लड़ाई में स्वयं कभी भी भाग नहीं लिया। इसके लिए बाद में अलाफी को खलीफा ने माफ कर दिया। साभार उपरोक्त विवरण " QUORA " से लिया गया है।

भारत उस वक्त सोने की चिड़िया कहा जाता था, जाहिर है सिंध साम्राज्य धनाढ्य, समृद्ध और संपन्न था। उस समय सिंध देश समुद्री मार्ग द्वारा पूरे विश्व के साथ व्यापार करता था। सिंध का देवल बंदरगाह मुख्य केंद्र था। इराक - ईरान से आने वाले जहाज इसी बंदरगाह से होते हुए दूरदराज के देशों में जाया करते थे। भारतीय व्यापारियों के रहन-सहन और आने वाले माल-असबाब से अरब देश के लोग हिंदू साम्राज्य की ओर आकर्षित हुए। यह वही समय था जब सन् 632 ईसवी में अरब शासक हज़रत इमाम मोहम्मद की मृत्यु के बाद वहाँ के नए खलीफाओं और उनके उत्तराधिकारियों ने सीरिया, उत्तर अफ्रीका, स्पेन एवं ईरान को जीत लिया था। उस समय अरबी अपने साम्राज्य के विस्तार के साथ-साथ इस्लाम का प्रचार भी कर रहे थे। जब इन अरबों ने इतनी जगह पर अपना कब्जा जमा लिया तो इनके मन में भारत पर भी विजय प्राप्त करने की लालसा जागृत हुयी। साथ ही युद्ध होने की एक वजह और भी थी। देवल बंदरगाह के निकट सिंध के समुद्री डाकुओं ने अरब के एक जहाज को लूट लिया और खलीफा उमर के अरब गवर्नर अल हज्जाज ने राजा दाहिर सेन से मुआवजा माँगा तो दाहिर सेन ने मुआवजा देने से यह कहकर मना कर दिया कि डाकुओं पर उनका कोई दबाव नहीं है। दाहिर सेन के इस जवाब से अरब खलीफा तिलमिला उठा और तभी से हिंद और सिंध साम्राज्य पर एक के बाद एक लगातार आक्रमण का सिलसिला चालू हो गया मगर राजा दाहिर सेन के कुशल नेतृत्व में सिंध पर विजय पाना इतना भी आसान नहीं था। सन् 711 ईस्वी तक महाराज दाहिर सेन के 35 साल के शासनकाल में अरबों ने छोटे बड़े बहुत से आक्रमण किए मगर सफलता नहीं मिली। तब सन् 712 ईस्वी में अरब शासक अल हज्जाज ने अपने दामाद एवं सेनापति मोहम्मद बिन कासिम को सिंध पर आक्रमण करने के लिए भेजा। गौरतलब है कि सन् 638 ईस्वी में अरब शासकों की नजर सिंध की तरफ उठी थी तब से लेकर सन् 711 ईस्वी के अंत तक 74 वर्षों के लम्बे अन्तराल में 9 खलीफाओं ने 15 बार आक्रमण किया और पराजित हुए। कासिम की सेना समुद्री मार्ग से मकरान के रास्ते बढ़ते हुए देवल बंदरगाह जा पहुँची। कासिम जानता था कि सीधे आक्रमण से सिंध पर विजय नहीं पाई जा सकती इसलिए उसने कत्लेआम शुरू कर दिया, बच्चे बूढ़े जवान औरतें किसी को नहीं छोड़ा। जल्द ही नेरून दुर्ग पर उसने विजय पा ली, परँतु राजा दाहिर सेन के रहते सिंधु नदी पार कर पाना नामुमकिन था इसलिए उसने बौद्ध धर्म को मानने वाले हैदरपुर के राज्यपाल राजा मोक्षवास को अपने चंगुल में फँसाया। जग प्रसिद्ध है कि घर का भेदी ही लंका ढ़ाता आया है। यही नहीं राजा मोक्षवास के साथ-साथ देवल के राजा ज्ञानबुद्ध ने भी इस अरबी सेना को खाने -पीने और रहने को अपना राज्य भी दे दिया। अब कासिम ने हैदराबाद सिंध के नीरनकोट पर हमला कर दिया। नीरनकोट को जीतने के बाद अरबी सेना के साथ रावनगर पर हमला करके रावनगर को भी अपने अधीन कर लिया और अंत में कासिम चित्तौड़ पहुँचा, जहाँ उस का मुकाबला शूरवीर राजा दाहिर सेन के साथ हुआ। इस नौ दिनों तक चलने वाले भयंकर युद्ध में क्षत्रिय, जाट और ठाकुरों ने भी अपना सहयोग दिया। दाहिर सेन की सेना अरबों का सफाया करते हुए आगे बढ़ती रही। अरब सेना पूर्णतया पराजय के कगार पर थी परन्तु भाग्य सिन्ध का भविष्य लिख चुका था। शताब्दियों से रणभूमि पर युद्ध के दौरान कुछ नियम होते थे, जिनमें से एक नियम था कि सूर्यास्त के बाद युद्ध नहीं किया जा सकता। उसी नियम के चलते दाहिर सेन की सेना रात में सो रही थी कि अचानक नियमों का उल्लंघन करते हुए कासिम ने सेना पर धावा बोल दिया जिसमें उसकी मदद की गद्दार राजा मोक्षवास और उसकी सेना ने, फिर भी यह युद्ध आगे 21 दिनों तक चलता रहा और गद्दार मोक्षवास की सहायता के बावजूद यह अरबी सेना परास्त हो गई। अब कासिम ने छल कपट का इस्तेमाल करते हुए स्वयं महिला रूप में दाहिर से मदद मांगी। चूँकि राजा दाहिर प्रजा की हर संभव मदद करते थे इसीलिए अपने इस स्वभाव के चलते वह कासिम के जाल में फँसकर अपनी सेना से काफी दूर निकल आए और वहाँ अरबी सेना से लड़ते-लड़ते अपने हाथी से नीचे गिर पड़े। बावजूद इसके 20 जून सन् 712 ईस्वी के दिन राऔर नाम के इस स्थान पर कासिम की सेना से लड़ते-लड़ते उन्होंने वीरगति प्राप्त की। इसके पश्चात कासिम की सेना सिंध में प्रवेश कर गई मगर वहाँ राजा दाहिर सेन की पत्नी महारानी लादी और किले में मौजूद महिलाओं ने कासिम का स्वागत तीरों और भालों से किया जिससे अरबी सेना को पीछे हटना पड़ा। गद्दार राजा मोक्षवास की असलियत से अनभिज्ञ होने के कारण उसे आलौर के किले में प्रवेश मिल गया। रात में मोक्षवास द्वारा किले के द्वार खोल दिए गए और अरबी सेना किले में प्रवेश कर गई। यह देखकर महारानी लादी एवं किले में मौजूद सभी स्त्रियों ने अग्नि कुंड में कूदकर जौहर कर लिया। महाराजा दाहिर सेन की दोनों बेटियाँ पीछे रह गईं जिन्हें कासिम ने बंदी बनाया और उपहार स्वरूप तोहफे में खलीफा अल हज्जाज के लिए अरब भेज दिया। खलीफा दोनों बहनों सूर्या एवं परीमल का सौंदर्य देख फिदा हो गए लेकिन सूर्या और परीमल ने कूटनीति अपनाते हुए खलीफा को बताया कि वह दोनों पाक दामन नहीं हैं और उसका जिम्मेदार कासिम है। इतना सुनकर खलीफा आगबबूला हो गया और उसने हुक्म दिया कि कासिम को बैल के चमड़े की बोरी में बंद कर के दश्मिक में उनके सामने लाया जाए परन्तु रास्ते में ही चमड़े की उस बोरी में दम घुटने से कासिम की मौत हो गयी। यह देखकर दोनों बहनों ने खलीफा को सच बताया कि उन्होंने झूूूठ बोला था, अब उन्होंने कासिम से अपने पिता की मौत का बदला ले लिया है। इतना कहकर जय सिन्ध, जय दाहिर बोलते - बोलते एक दूसरेे के सीने में खंजर घोंपकर अपने प्राण ले लिए और अपने देश के लिए शहीद हो गई। यह देख कर खलीफा अल हज्जाज ने कहा कि निश्चित ही सिंध जैसा देश हमने नहीं देखा जहां की स्त्रियां भी अपने देश के प्रति इतनी वफादार हैं। सिंधु साम्राज्य को जीतने में हमने अपना सब कुछ खो दिया। राजाा दाहिर सेन का यह परिचय " REAL N ROYAL PANDIT'S.... " में मिलता है, तो वहीं दूसरी ओर " चाचनामा " नामक ऐतिहासिक दस्तावेज के अनुसार एक और तथ्य सामने आता है कि कासिम की मौत के बाद खलीफा को जब सूर्य और परिमल के झूठ का पता चला तो उन्होंने दोनों बहनों को जिंदा ही दीवार में चुनवा दिया।

इस युद्ध की " QUORA" के अनुसार इस युद्ध की एक कहानी और है। बसरा के अमीर अल हज्जाज इब्न युसुफ़ ने राजा दाहिर के ऊपर हमला किया। इसका मूल रूप कारण था सरनदीप के राजा द्वारा खलीफा को दिए गए उपहारों की चोरी। चोरी से नाराज होकर अल हज्जाज ने महाराजा दाहिर सेन के ऊपर आक्रमण करने के लिए मोहम्मद बिन कासिम को सन् 711 ईस्वी में भेजा। मोहम्मद बिन कासिम ने देवल पर हमला किया जिसे फतह करके वह नेरून गया जहाँ पर बुद्ध अनुयायी शासकों ने उसकी सहायता की। मोहम्मद बिन कासिम ने स्थानीय विपक्ष को अपने साथ मिलाकर महाराजा दाहिर पर हमला कर दिया और उनके पूर्वी राज्यों पर कब्जा कर लिया। राजा दाहिर ने मोहम्मद बिन कासिम को सिंध नदी को पार न करने देने के लिए मोर्चा संभाला इसके लिए उन्होंने अपनी सेनाओं को पूर्वी घाटों पर तैनात कर दिया जिसका नेतृत्व महाराजा दाहिर सेन का बेटा कर रहा था। परन्तु मोहम्मद बिन कासिम ने राजा दाहिर की सेना को हरा दिया, इसके बाद मोहम्मद बिन कासिम और राजा दाहिर के मध्य राऔर जो कि वर्तमान में नवाबशाह के नाम से जाना जाता है, में सन् 712 ईस्वी में युद्ध हुआ जिसमें राजा दाहिर वीरगति को प्राप्त हुए। हिंदू रिवाजों को निभाते हुए रानी लादी तथा सभी स्त्रियों ने जौहर कर वीरगति प्राप्त की। जब मोहम्मद बिन कासिम ने राजा दाहिर का कटा हुआ सिर अपने खलीफा अल हज्जाज के सामने रखा तो उसने कहा " हम ने सिंध पर बहुत मुश्किलों के बाद फतेह पाई है। मोहम्मद बिन कासिम ने कूटनीति से महाराजा दाहिर सेन को हराया है, हमने उनकी सारी दौलत लूट ली है और अब वह जगह अंडे के छिलके की तरह नाजुक हो गई है "

महाराजा दाहिर सेन एवं उनकी पत्नी लादी के वीरगति को प्राप्त हो जाने के बाद ही अरबों ने सिंध की राजधानी आलौर पर कब्जा कर लिया और इस प्रकार सन् 712 ईस्वी में सिन्ध साम्राज्य मुस्लिम अरबों के शासनाधीन हो गया। यह भारत में इस्लामी शासन का पहला प्रवेश था।

इतिहास में अपने देश के लिए शहीद होने वाले प्रथम व्यक्ति के रूप में महाराजा दाहिर सेन का नाम सदैव दर्ज़ रहेगा।

उपरोक्त लेख में सभी नाम, तिथियाँ एवं घटनाएँ साभार अधोलिखित पुस्तकों एवं लेखों से संग्रहीत की गई हैं।

1- पुस्तक - भारत भाग्य निर्माता - मंजू लोढ़ा

2 - दाहिर - भारतकोश

3 - ब्रह्मवीर ब्राह्मण राजा दाहिर सेन जी.... Real and Royal Pandits….

4 -राजा दाहिर - विकिपीडिया

5 - भारत पर खलीफाओं की दुनिया का संक्षिप्त इतिहास - वेबदुनिया

6 - QUORA

-नीलिमा कुमार

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