जून-जुलाई २०१८ कविताएं महेश रौतेला द्वारा कविता में हिंदी पीडीएफ

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जून-जुलाई २०१८ कविताएं

जून-जुलाई २०१८ की कविताएं

(1)

आज बेंच पर बैठा

तो सामने तुम दिख गये,

मेरी दृष्टि उतनी ही पैनी है,

जितनी वर्षों पहले हुआ करती थी।

तुम उतने ही चुप थे

पर अगल बगल से आवाजें आ रही थीं,

मैं जान रहा था

महिलाएं और लड़कियां हमारे अन्दर घुसी, बैठी रहती हैं-

माँ, बहिन, बेटी, दादी, नानी, नातिन, मौसी, साथी के रूप में,

और पुरुष पिता, भाई, बेटा, दादा, नाना, नाती, मौसा, मित्र के रूप में।

(2)

यद्यपि बात करने को बहुत कुछ नहीं,

पर हँसेंगे, मुस्करायेंगे, गायेंगे, नाचेंगे

कुछ हटकर चलेंगे।

चलते-चलते ठोकरों को गिनते जायेंगे,

या फिर अपने ही सही कदम गिन लेंगे।

घर पहुंच कर सबको बतायेंगे

कि नदी पर जो नावें चल रही थीं

आकाश में जो बादल घुमड़ रहे थे,

जंगल में जो उथल-पुथल थी,

धरती जो संदेश दे रही थी,

लोगों में जो सुख- दुख हैं,

उन सब का सारांश मैं लाया हूँ।

(3)

आज नींद जल्दी टूट गयी

ऐसा नहीं था कि

भगवान बुद्ध की तरह ज्ञान प्राप्त करना था,

बल्कि चिड़ियाघर में जो बंदर देखा था

वह रात सपने में काटने आ रहा था,

उसी डर से नींद टूटी थी।

डर भी एक सच है,

जो जीजिविषा को बड़ा बनाता है।

(4)

पहला प्यार इन्द्रधनुष सा

आकाश से धरती तक फैला था,

मैंने रंगों को कभी गिना नहीं

पर सबको महसूस करता रहा।

अपने स्वार्थों पर डटा नहीं

अलिखित सारा पढ़ता रहा,

मैं प्यार का मैदान तो नहीं

पर टिमटिमाता एक बिन्दु भर था।

शब्दों को उलझाया नहीं

मन को भ्रमाया नहीं,

मैं आकाश में था,

पर आकाश था कि साफ हुआ नहीं।

(5)

हमारे साहस -दुरसाहस के साथ

आशा- निराशा के बीच एक जीवन होता है,

जैसे दिन और रात के बीच

अनगिनत घटनाएं होती हैं,

हमारे आने-जाने के बीच

एक आसमानी जिन्दगी होती है।

उस दिन मैंने कहा

नैनीताल में फिर भेंट हुई,

उसने कहा किनसे?

मैंने गहरी सांस ली,

कहा, कपकपाती ठंड से

वर्षा की बौछारों से,

झील की हिचकोलों से

मालरोड की भूली बिसरी गपशप से,

दो -तीन बूढ़े होते दोस्तों से

विश्वविद्यालय की पढ़ाई-लिखाई से।

तभी मेरी गोल गोल बातों में उसकी लट आ गयी थी,

और धीरे से आत्मा को चीरता, असीम प्यार निकल गया था।

(6)

मुझे प्यार ने उजाला दिया

हजारों मील चलने को कहा,

ज्ञान का पाठ निराला दिया

एक समतल धरातल पर बैठाता रहा।

उसके रंगों को मैं गिना तो नहीं

पर शब्दों में उसे लाता गया,

दिया सा उसे जलाता रहा

मनुष्य की ओर बढ़ाता रहा।

यादों में उसे गुनगुनाया बहुत

मन से बाहर घुमाया बहुत,

वह मुस्कान अद्भुत देता गया,

एक समतल धरातल बनाता गया।

(7)

मैंने कथा का अन्त सुनाया

उसे वृक्ष पर फूल दिखाया

कभी नदी के तट पर लाकर

तीर्थ का विश्वास जगाया।

मैंने प्यार से उसे मिलाया

आदि-अन्त का प्रश्न नहीं आया,

एक राह जो बनकर उमड़ी

फिर उसी राह पर चलता आया।

जब जहां में ढूंढा गया तो

शान्त हवा सा बहता मिला,

किसी ने दिल में रखा हुआ था

खोजा गया तो छिपा मिला था।

(8)

दुनिया भगवान बुद्ध नहीं बन सकती है,

लेकिन दो-चार घंटे उनकी तरह चल तो सकती है।

दुनिया भगवान बुद्ध की तरह ज्ञान नहीं पा सकती है,

लेकिन एक-दो घंटे उनकी तरह बैठ तो सकती है।

(9)

मेरे सपनों की आवाज हिमालय

सुर उसका ले आता हूँ,

कुछ बातें वहाँ रह जाती हैं

कुछ ठंड पिघलकर आती है।

कई सपने देखे आते-जाते

मन उड़ता कहीं जुड़ जाता है,

याद सम्भाले है हिमालय

बातें दिन-रात सुनाता है।

कहीं गंगा बहती है पावन

कहीं यमुना जगती है शीतल,

कहीं बादल घिर आते सुन्दर

कभी हिम छन जाता आवारा ।

प्यार हिमालय बन जाता है

जब सुख अद्भुत दे देता है,

बार बार दृष्टि पर आकर

खेल निराले दिखा जाता है।

(10)

एक उड़ान भर लो मेरे देश तक

कटीला ही सही एक राह लांघ लो,

यहाँ पाप-पुण्य मिलेगा

बह्मांड की बातें होंगी

नदियों पर तीर्थ मिलेंगे

तीर्थों पर पुण्य मिलेगा

गीता मिलेगी, रामायण का पाठ होगा

साधुता के आयाम दिखेंगे।

यदि मन साफ हो तो

कृष्ण-अर्जुन का संवाद सुनेंगे।

(11)

जिन्दगी सरसराती चलती है

फोन पर दुनिया दिख रही है

रेलगाड़ी अपनी रफ्तार पर है

उच्छृंखल हुआ प्यार अटपटा लगता है

आरणीय हो गया प्यार

मुझे झकझोरता है,

नींद जिनकी आँखों में है

वे सपने देखने लगे हैं,

प्यार भी नींद की तरह दिखता है

जो जागेगा तो अद्भुत हो जायेगा

क्योंकि उसमें युद्धों, लड़ाई-झगड़ों, यात्राओं,

और जिजीविषा का सारांश है।

(12)

तब मेरी यह आदत थी कि

मैं प्यार बहुत करता था,

देरतक नदी के पानी को देखता था

अपलक आसमान में झांकता था,

टिमटिमाते तारों से बातें करता था।

शहर की सभ्यता से परिचय पाता था,

गांव की सुगबुगाहट लिए होता था,

मनुष्य के सरोकारों में भाग लेता था,

बुरी आदतों को छोड़ने का अभियान चलाता था,

मीलों चल, थकता नहीं था,

क्योंकि तब मैं प्यार बहुत करता था।

(13)

मैंने किसी के साथ जीने मरने की कसम नहीं खायी,

न तारे जमीन पर लाने की बात कही,

न मिलने का वादा किया, न बिछुड़ने का,

न समय को अनुकूल माना न प्रतिकूल।

जितना भी बुदबुदाया

वह एक एहसास देता रहा।

न वचन दिया

न वचन लिया,

आवाध गति से, प्यार करता रहा,

न उसे काल्पनिक रखा

न समाजिक बनाया

पर उसकी नींव गहरी कर दिया।

(14)

जब था तो कहा क्यों नहीं

जब नहीं था तो कहा क्यों नहीं,

ये जिन्दगी तेरी उठा-पटक में

उसकी सुबह भी थी, शाम भी थी।

ये जिन्दगी थक सा गया हूँ

पर मरा तो नहीं हूँ,

तेरे अनन्त से भयभीत तो नहीं

पर तेरी सृष्टि से चकित जरूर हूँ।

(15)

रात तो काफी है नींद के लिए

पर सपने सोने नहीं देते हैं।

जैसे ही सोता हूँ गहरी नींद में

एक खटखटाता है, और दूसरा झकझोरता है।

आँखों का भी क्या है?

कभी खुलती हैं, कभी बंद होती हैं

किसी का इंतजार नहीं करती हैं।

(16)

कभी कभी पहाड़ मेरे अन्दर जागने लगता है, नाचने लगता है,

या कहूँ कि वह मेरा कहना मानने लगता है।

हमारी पृष्ठभूमि में कोई रहता है

कभी पहाड़, कभी समुद्र, कभी मैदान,

कभी ईश्वर लिखा रहता है।

(17)

आपने कभी मरे लोगों को लिखा है

जो मर चुके हैं

सांस्कृतिक रूप से, सामाजिक रूप से,

यों मरे लोगों को सीखाना कठिन है।

क्या आपने मरे लोगों की बातें सुनी हैं

कि वे नदी पर क्या कह रहे थे,

झील पर क्यों टहल रहे थे,

पहाड़ को नंगा क्यों बना रहे थे?

देश को क्यों पीट रहे थे?

क्या आपने मरे लोगों के काम

देखे हैं,

जो स्वयं गड्डा खोदते हैं,

स्वंय अपना घर फूंकते हैं!

(18)

अपनी यात्राओं को दोहरा लूँ

रोटी की तरह पलट लूँ

उनसे रोटी सी खुशबू आती है,

जब सूंघता हूँ तो सौंधी मिट्टी मिलती है।

(19)

समय की आदतें खुल रही हैं,

मनुष्य की आदतें खो रही हैं।

तुम्हारी आदत प्यार से देखने की है,

हमारी आदत प्यार करने की है।

इस शहर का पेट भरता नहीं,

पर जहाँ से भी गुजरो, जीवन की सुगंध मरती नहीं।

(20)

शान्ति, करुणा, दया के लिए

भगवान बुद्ध हैं,

प्यार के लिए राधा-कृष्ण हमारे प्रिय हैं,

महाभारत में कृष्ण गीता कहते हैं,

रामायण में राम दिशा देते हैं।

(21)

मेरी यात्रा तुम्हारी यात्रा से अलग नहीं थी,

मेरा सफर तुम्हारे सफर से भिन्न नहीं था,

इधर से मैं चला, उधर से तुम चले

भेंट भी हुई, मुलाकात भी हुई

सूक्ष्म से सूक्ष्म परमाणु हिले-डुले,

घर-बाहर की बातें निकली।

देश-विदेश के गीत-संगीत का लय

तुमसे भी निकला, मुझमें भी रूका,

पर चलते-चलते कोई फैसला नहीं हुआ,

आखिर सफर इधर भी था, उधर भी था।

(22)

प्यार का वादा एकदम मौन होता है

चिड़िया की तरह जो उड़ती है

नदी के सदृश्य जो चुप बहती है

झील की भाँति जो किनारों से सिमटी रहती है,

बुझी आग की तरह जिसकी लपटें याद रहती हैं,

पगडण्डी के सदृश्य जो इतिहास में घुस चुकी है।

(23)

मेरी नींद फिक्रमंद हो जाती है

जब सुबह की उड़ान पकड़नी होती है

कितनी कोशिश करो आती नहीं,

समझो, वे प्यार के दिन दोहरा जाती है।

(24)

अब भी उस प्यार को ढ़ूंढ लिया करता हूँ,

शब्दों से उसे सींच लिया करता हूँ,

उसकी ऊँचाई को देख लिया करता हूँ,

उसे मन के सांचों में गाड़ लिया करता हूँ।

उम्र नहीं रूकती, पर प्यार रूका मिलता है,

हाथों के आगे हाथ धरे मिल जाते हैं,

कानों में लय दूर से आते हैं

प्यार की धरोहरें चुप बैठी होती हैं।

वे पहाड़ पर चलती बातें, वे ठंड की आदतें,

वे आसमान तक जाती आँखें

वे चलने को रूकी राहें

अब तक जागी-जागी लगती हैं।

(25)

ओ, नदी मेरी ओर झांको

अपने पुण्य सशक्त करने,

मैं तुम्हें साफ रख रहा हूँ।

ओ, वृक्ष मेरी ओर देखो,

अपनी सांसों के लिए और

आने वाली पीढ़ियों के लिए,

मैं तुम्हें सींच रहा हूँ।

ओ, धरती मेरी ओर देखो

मैं तुम्हें प्यार कर रहा हूँ,

अपनी जननी जान कर

कि तुम युगों-युगों तक अच्छी बनी रहो।

ओ, धरा दृष्टिगत रहो

मैं प्रदूषण नहीं कर रहा

तुम्हें अपना मानकर।

(26)

प्यार का बहुत नाम हुआ था

जब कृष्ण, राधा के साथ चले थे,

जब मैंने आगे प्यार किया,

तब कलियुग का बहुत नाम हुआ था।

प्यार की अद्भुत छाप छूटी थी

जब राधा ने कृष्ण से प्यार किया था,

जब मैंने अनुकरण किया प्यार का

दलदल में फँस कर नाम हुआ था।

प्यार एक आदर्श बना था,

जब कृष्ण, राधा से बिछुड़ गये थे,

जब मेरा प्यार बिछुड़ रहा था,

तब कलियुग कितना खुश हुआ था?

(27)

मैंने प्यार का समुद्र तो नहीं देखा

धारायें देखी हैं

बहती हुई, पहाड़ियों से गुजरती, धरती को सींचतीं,

उम्र में समाती हुयीं।

मैंने प्यार का आकाश तो नहीं देखा,

टिमटिमाते तारे देखे हैं,

उदय-अस्त होते हुए,

उम्र के अगल-बगल चमकते हुए।

मैंने प्यार की बाढ़ तो नहीं देखी है

पर उसकी कल-कल सुनी है,

पत्थरों को बहाती

मिट्टी को काटती, एहसासों में डूबती,

उम्र से लड़ती-झगड़ती ।

(28)

कितना लाल है इस सुबह का रंग

बिल्कुल प्यार की तरह,

प्यार का रंग हरा, नीला, पीला

तो नहीं होता है,

सुर्ख लाल ही होता है।

प्यार में, जो फूल हम देते हैं,

और जो फूल हम लेते हैं,

सिर्फ, लाल ही होते हैं।

(29)

सारे सुख मेरे हैं

पर उन्हें प्राप्त नहीं कर सकता हूँ,

सारा आकाश मेरा है

पर उसे छू नहीं सकता हूँ।

सब जल मेरा है

पर उसे पी नहीं सकता हूँ,

सब पहाड़ मेरे हैं

पर उन पर चढ़ नहीं सकता हूँ।

सब राहें अपनी हैं

पर उन्हें तय नहीं सकता हूँ,

सब ज्ञान स्वतंत्र है

पर सब ले नहीं सकता हूँ।

सब सत्य जय के लिए है

पर सारा सत्य रख नहीं पाता हूँ।

(30)

यादों के पीछे शोर बहुत है

गड्डे सारे भरे नहीं हैं,

बातों के पीछे लोग बहुत हैं,

मन सबके भरे नहीं हैं।

जिधर देखो भेद बहुत हैं

पुल सारे टूटे नहीं हैं,

उबड़-खाबड़ राह बहुत हैं

सबके सपने साफ नहीं हैं।

आने-जाने की राह एक है

मिलने पर पहिचान नहीं है,

सुख-दुख सबके एक समान हैं

मिलने को एक भगवान नहीं है।

(31)

यादों के पीछे शोर बहुत है

गड्डे सारे भरे नहीं हैं,

बातों के पीछे लोग बहुत हैं,

मन सबके भरे नहीं हैं।

जिधर देखो भेद बहुत हैं

पुल सारे टूटे नहीं हैं,

उबड़-खाबड़ राह बहुत हैं

सबके सपने साफ नहीं हैं।

आने-जाने की राह एक है

मिलने पर पहिचान नहीं है,

सुख-दुख सबके एक समान हैं

मिलने को एक भगवान नहीं है।

(32)

मुझे अपने गाँव से प्यार है

उसकी पगडंडियां टूटी हैं

आधे खेत बंजर हो चुके हैं

गूल जहाँ-तहाँ भटक चुकी है

नदी का बहाव अटका सा है

बादल इस साल फिर फटा है

विद्यालय सूना-सूना है

पढ़ाई अस्त-व्यस्त है,

फिर भी प्यार अपनी जगह है।

शराब की दुकान खुल चुकी है

बिजली जगमगा रही है

लड़ाई-झगड़े होते हैं

झूठी गपसप चलती है

पर शान्ति का संदेश लिखे मिलते हैं

सत्य का आकांक्षा बनी हुई है

क्योंकि "सत्यमेव जयते" वृक्ष पर

लिखा है।

पर वहाँ जा नहीं पाता

लम्बी चढ़ाई चढ़ नहीं पाता,

उम्र से लड़ नहीं पाता

ऊँचाई को बस देखभर लेता हूँ,

फिर भी प्यार अपनी जगह है।

मुझे अपने गाँव से बहुत प्यार है

वह पहले जैसा नहीं दिखता

जो भी चित्र आता है , अलग लगता है

मेरे गाँव को कुछ तो वरदान है,

कि मैं उसे बूढ़ा नहीं कह पाता हूँ।

चूल्हे की आग जो तापी

उसकी आँच अब भी नरम है,

रात को देखी चाँदनी रात

अब भी याद है।

बात सच है कि प्यार गाँव से

है,

अस्सी साल की बुआ की झुर्रियों से जो गाँव का प्यार झलकता था,

उससे गांव को जाना था।

अब बातें बड़ी हो गयी हैं

पहले झंडे लेकर दौड़ते थे,

अब प्रजातंत्र में चुनाव लड़ते हैं,

साफ-साफ दिखता है

मुझे अपने गाँव से प्यार है।

प्यार भूला भी जा सकता है

वर्षों बाद देखा था

जब चारों ओर सन्नाटा था,

गाँव में इका दुक्का कोई रहता था,

फिर भी मेरा प्यार अपनी जगह है।

(33)

मैं तो कब का हवा बन गया था,

तुम हो कि सांसों में मुझे बार-बार भरती रही।

मैं तो कब का आकाश बन गया था,

तुम हो कि मुझे दूर तक नक्षत्र सा ढ़ूंढती रही।

मैं तो कब का पानी बन गया था,

तुम हो कि जनमों तक उसमें कंकड़ डालती रही।

(34)

काँटों से क्यों उलझें, जब फूल हमारी मंजिल है,

दलदल में क्यों धसें, जब यहीं पास हमारा पक्का घर है।

(35)

जब से अस्पतालों का दर्जा बढ़ा है,

घर में जन्मना और मरना मुश्किल हो गया है।

***

महेश रौतेला