मई २०१८ की कविताएं महेश रौतेला द्वारा कविता में हिंदी पीडीएफ

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मई २०१८ की कविताएं

(१)

ज्ञान के लिए अन्दर और बाहर निकलना है,

जैसे रोजी-रोटी के लिए घूमना पड़ता है,

राजपाट भी छोड़ना पड़ता है,

जैसे सिद्धार्थ को करना पड़ा था।

रोगी रोज दिखते हैं

मरते भी रोज हैं

साधु भी क्षण- क्षण हैं,

पर जीने-मरने के बीच

आकाश सी आशा-आकाक्षाएं,

पृथ्वी के आर- पार होती रहती हैं।

शान्ति से पहले

महाभारत हो जाता है,

विश्व युद्ध छिड़ जाते हैं,

सहयोग और संघर्ष चलते हैं।

मरने से पहले भी शान्ति चाहिए,

चाहे हर अशांति का काम करते हों।

मरने के बाद भी शान्ति चाहिए,

चाहे जीवनभर अशांति फैलायी हो।

शान्ति चाहिए

उस आत्मा के लिये जिसका ठीक-ठीक पता नहीं है।

***

(२)

अन्दर बहुत कुछ छिपा है

जैसे बीज में हरियाली

एक छायादार अस्तित्व

उगने की असीमित सम्भावना

रंग -रूप, फल-फूल।

बीज जंगल बना सकते हैं

धरती को शुद्ध कर सकते हैं,

अन्न रूप में,

मनुष्य को मनुष्य बना सकते हैं।

***

(३)

मैंने उससे कहा

एक बात बताओगे,

उसने हामी भरी

लेकिन मेरे पास कोई बात नहीं थी,

केवल मौन था

भला, मौन को क्या शब्द देता,

प्रतीक्षा होती रही

और मैं उसे देखता रहा।

फिर किसी ने प्यार का मधुर गीत गुनगुनाया,

अर्थात सम्पूर्ण मौन को तोड़ दिया,

और हमारे प्यार का लय टूट गया।

***

(४)

उम्र के इस पड़ाव पर

मुझे चिन्ता करनी चाहिए क्या

कि यह पंक्ति जल्दी क्यों नहीं खिसक रही है,

मेरी उड़ान में इतनी देरी क्यों है,

रेलगाड़ी इतनी धीमी क्यों चल रही है,

मौसम खराब क्यों है,

सफाई का काम अधूरा क्यों है,

नदी में मछलियां कम क्यों हैं,

बच्चे इतना हल्ला क्यों कर रहे हैं,

विद्यालय बंद क्यों है,

राजनीति , अखाड़ा क्यों हो चली है,

खेतों में फसल धीमे क्यों उग रही है,

वृक्षों में तनाव क्यों है,

बच्चे प्रातःकाल क्यों नहीं उठ रहे हैं,

खाने में देरी क्यों है,

प्यार में सुगबुगाहट क्यों नहीं है

मन ने ऐसी बातें छेड़ दी हैं

और छेड़ता जा रहा है।

दूसरी ओर मैंने कभी चिन्ता नहीं की

कि सूरज कल से देर से क्यों उगा

कभी शाम जल्दी क्यों हो गयी

कुछ तारे आकाश क्यों नहीं दिखे।

उम्र के इस पड़ाव पर

मुझे चिन्ता करनी चाहिए क्या?

***

(५)

उन्होंने बटवारे की बात की,

और सब अपना-अपना हिस्सा गिनने लगे।

सबने धरती को बाँटा,

आकाश पर किसी की नजर नहीं पड़ी।

मनुष्य इतना बँटा कि खून खराबा होने लगा,

कोई देश से खुश नहीं, कोई जाति-धर्म से खुश नहीं,

प्यार की बात करो तो कोई प्यार से खुश नहीं।

कोई पाँच गाँव लेने को तैयार है,

तो कोई सुई की नोंकभर देने को राजी नहीं।

लड़ाई-झगड़ों के लिए बहुत बड़ी दास्तान नहीं चाहिए,

बहुत बार मंदिर-मस्जिद या तस्वीर ही काफी है।

मनुष्य यदि जड़ हो जाय तो समस्या है,

पेड़ में जड़ है तो जीवन है।

किसको कितनी फिक्र है देश की,

इतिहास से सिद्ध हो जाता है।

***

(६)

कब बना, कब टूट गया

वह रिश्ता ही कुछ ऐसा था,

सपनों के आने में देर लगी

ऐसा कभी नहीं सोचा था।

मिट्टी को जब देखा तो

वह भी अपनी लगती थी

फूलों पर जब दृष्टि गयी तो

वे भी अद्भुत याद लिये थे।

वृक्षों से नया रिश्ता था

नदियों से मानव बदला था,

राहों में पत्थर उछले थे

पहिचान बनी और टूट गयी।

***

(७)

अंधियारा जब मिटा दिया

उजियारे में भय क्यों दिखता है,

जिस-जिस से पूछा घर का नक्शा,

कोई आश्वस्त नहीं लगता है।

चकाचौंध इतनी सारी

धड़कन दिल की थम जाती है,

उधर ध्यान में रम जाने की

एक डगर दिख जाती है।

***

(८)

मरे देश को जब उठाओगे

तो बदबू भी आ सकती है,

मरी भूख को जब जगाओगे

तो हिंसक वह हो सकती है।

मरे वृक्ष पर फूल नहीं आता

मरा पेड़ फल नहीं देता,

सूखी नदी जल नहीं देती

बंजर खेत अन्न नहीं देता।

***

(९)

चलो, चलें इस नगरी से

कोई प्यार यहाँ नहीं करता,

सपने सारे बुरे आते

राहें पग पग पर टूटी हैं।

दिन बोझ लगते सारे

रातें डराने आती हैं,

उम्र से नाता टूटा सा है

मित्रों का अभाव खलता है।

सुन्दर बातें नहीं होतीं

विहगों के झुंड नहीं दिखते,

मनुष्य यहाँ भूला-भटका

पतझड़ की आहट होती है।

चलो, चलें इस नगरी से

भूल-भूलैया से निकल चलें,

पीछे छूटा नगर प्यार का

मिट्टी अब तो बंजर है।

***

(१०)

माँ, मैंने प्यार किया है

पथरीली जमीन पर गुजर कर

पहाड़ी सन्नाटे के बीच

नदियों की धाराओं में नहाते-धोते।

वृक्ष के नीचे भी

माना वह बोधिवृक्ष न हो,

लेकिन स्नेह का प्रमाण तो है।

माँ, मेरे प्यार की जगमगाहट

सूरज के किरणों की भाँति

अंधकार को चीरती

पृथ्वी पर विराजमान है।

***

(११)

मीलों चलकर थका नहीं

यही तो जीवन औषधि है,

गति सम्पूर्ण अनन्त हुयी

यही जीवन पुकार बनी है।

आसमान को रेखांकित करने

बड़ी आकांक्षा रहती है,

बहुत छोटे कदमों से

बहुत लम्बी यात्रा होती है।

कभी किसी की बातों में

असीम आनन्द आ जाता है,

जीते हुए युद्धों से अन्तिम

कोई निर्णय नहीं होता है।

मीलों चलकर थका नहीं

जीवन ही अन्तिम औषधि है,

परोपकार के कामों में

मधुर-सुगंधित पहिचान रही है।

***

(१२)

मेरी नातिन बिस्तर पर मुझे सुलाने आती है,

बुढ़ा शेर मुझे समझकर चार थपकियां देती है,

एक चद्दर मुझे उड़ाती, एक चद्दर स्वंय ओढ़ती

थोड़ी देर में चद्दर उठाकर, मेरी नींद पर पहरा देती,

मैं शेर सा जब गुर्राता, डर कर वह ठिठकने लगती,

फिर बाँहों में बड़े प्यार से दुबक - दुबक सो जाती।

***

(१३)

उठो, बच्चो ध्यान तुम रखना

यह भारत तुम्हारा है,

इसकी भाषा, ज्ञान इसका

अपनी थाती याद रखना।

बड़े जोर से तुम हँस लेना

नील गगन को आँख में भरना

जिस मिट्टी पर तुम खड़े हो

उस मिट्टी पर बाग लगाना।

शेर, हाथी तुम्हारे साथी

जंगल की है बड़ी कहानी,

मन पर प्यार तुम लिखना

भारत से आँख मिला के रखना।

***

(१४)

इस मन से गंगा निकली या निकली भागीरथी,

पर कितने गन्दे नाले उसमें आकर, गिर जाते हैं।

उसकी शवयात्रा में भीड़ बहुत है,

लेकिन कुछ शोकाकुल हैं, शेष मात्र बाराती हैं।

हमारी परंपराओं से असीमित उर्जा आती है,

जो धरती, आकाश, ग्रहों और नक्षत्रों को एकाकार करती है।

***

(१५)

हम सबसे पहले कहाँ मिले थे

तुम बता सकते हो

मन में, आँखों में या दिल में।

या किसी पहाड़ी पर

जहाँ धूप सेका करते थे,

किसी नदी या झील पर

जो केवल पानी की बातें करती हैं,

किसी वृक्ष के पास

जो फूल और फलों की कथा कहता है।

कब हमने पहाड़ को चूमा

कब पहाड़ ने हमें चूमा

पता ही नहीं चला

लेकिन कसकर चूमा।

हम मिले थे क्षेत्रीयता के आधार पर

या भाषाई परिवार की नींव पर,

या प्यार के आन्दोलनों में

जो मन और आत्मा में होते हैं?

ये तब की बातें हैं

जब मन मानता नहीं था,

प्यार की उछल-कूद में

धरती और आकाश को रंग देता था।

वर्षों बाद जब आबादी बढ़ चुकी थी

पर्यावरण में सुस्ती थी,

पर चलने का सुख शेष था,

सोचा प्यार में रस होगा।

प्यार की उम्र नहीं होती

वह हवा की तरह है

जो ताउम्र ताजगी दे सकता है।

पर इसी बीच उबड़ - खाबड़ राहों में

एक अजनबीपन आ चुका था,

उदासी को मारने के लिए

दूर-दूर तक यादों के सिवाय कुछ भी न था।

***

(१६)

राजनीति से इतर कुछ बात करें

जैसे अल्मोड़ा, नैनीताल, रानीखेत

कौसानी, बद्रीनाथ, रामेश्वरम

शिवसागर, डलास, पेरिस, जनेवा आदि के बारे में,

अब मेरे पाँव तले ये नहीं तुम्हारे पाँव तले तो हैं,

जो यादें वहाँ दबी हैं उन्हें उखाड़ लांए

पौधों की तरह रोप दें घर की क्यारियों में।

बात करनी है तो पहुंच जांए

किसान के खेतों में जहाँ हल चलता है,

बचपन की टेड़ी-मेड़ी पगडण्डियों पर

जहाँ दौड़ होती थी बिना प्रतियोगिता के।

पहाड़ों पर चलने में सांस तो फूलेगी,

पल आनंद सदाबहार होगा,

बहुतों से पीछे होंगे, बहुतों से आगे,

पर सबकी स्थिति अकाट्य होगी,

सब कुछ इधर ही नहीं, उधर भी होगा।

प्यार की घनी छाँव में जो वृक्ष की छाँव से भिन्न है,

क्षण दो क्षण बुदबुदा लें।

मन की जटाओं में उलझी गंगा को खोल दें,

किया गया संघर्ष उजाला लाता है,

किया गया प्यार अक्षुण्ण रहता है,

ये वेद वाक्य नहीं

लेकिन राजनीति से इतर कुछ बातें हैं।

***

(१७)

आज मैं कहानी करने उठा अपने शहर की

जहाँ मैंने प्यार किया जी भर

लौट लौट कर देखा अनागत को।

जहाँ साफ थी जगह तब

कूड़ादान रखा था,

कूड़े की बदबू आदमी से मिलती जुलती थी,

क्योंकि आदमी का चेहरा उसमें डूबा था।

हमारी सभ्यता इतनी गंदी हो गयी

पता ही नहीं चला,

जंगल कटते गये

हम सोते रहे,

शराब की घूंट में गिरते गये।

अपने सिरों का बोझ

दूसरों के सिरों पर डाल

अपनी अपनी साड़ियों और सूटों को साफ करते रहे,

पर्यावरण से हमने रिश्ता नाता

कूड़ेदान सा कर दिया।

जहाँ प्यार के लिए खड़ा होता था

वहाँ हल्की सी ताजगी है,

आखिर अच्छे मंतव्यों का

अच्छा शेषांश होता है।

***

(१८)

हम ईश्वर की बात समझते हैं या नहीं ,पता नहीं

हमारे होने या न होने के लिए

वह बहुत कुछ कर डालता है

जैसे प्राण वायु की सरसराहट

नदियों के उतार-चढ़ाव

पहाड़ों की ऊँचाइयों

समतल धरती के हाव-भाव में समाहित हो जाता है।

प्यार में ऐसे घुसा रहता है

कि सदियों तक गुनगुनाया जाता है,

संघर्षों में ऐसे उठा रहता है

कि महाभारत का सारथी हो,

जब तक प्यार नहीं किया

उसकी हद पता नहीं चलती,

जब तक संघर्ष नहीं किया

उसकी उर्जा का पता नहीं लगता।

वह अतीत था ये नहीं कहता

वह वर्तमान है ये नहीं कहता

वह भविष्य है ये नहीं कहता,

पर उसके होने की कामना जरूर करता हूँ।

***

(१९)

जब चलने की अभिरुचि हो

ईश्वर फूलों पर बैठा हो,

या पत्तों पर रहता हो

या धरा-गगन से चलते-चलते

अपना एहसास करा जाता हो।

जब आँखों के आगे पहुंचा

हल्की मुस्कान में ठहरा हो,

शब्दों का लय पकड़-पकड़

स्वयं प्रार्थना बन जाता हो।

जब शब्दों में गीत जगाता

अक्षर में संगीत बसाता,

मोड़ों पर भेष बदलता

विपत्ति में सुर में गाता,

अपना एहसास करा जाता हो।

***

(२०)

हे कृष्ण

तुम्हारी बातें मेरे भीतर हैं

जो तुमने उनसे कही थीं

या अर्जुन को बतायी थीं,

सब मैं इकट्ठा न कर सकूं

पर कुछ देख सकता हूँ,

मैं महाभारत न लड़ सकूं

पर मन का युद्ध तो लड़ सकता हूँ,

रणछोड़ तुम भी थे, मैं भी हूँ

यह प्रकृति भी है,

पर युद्धों का अन्त नहीं,

मनुष्य के साथ-साथ युद्ध जन्मता है।

वैभव मे जो आता है

युद्धों में नष्ट होता है।

***

(२१)

आज बेंच पर बैठा

तो सामने तुम दिख गये,

मेरी दृष्टि उतनी ही पैनी है,

जितनी वर्षों पहले हुआ करती थी।

तुम उतने ही चुप थे

पर अगल बगल से आवाजें आ रही थीं,

मैं जान रहा था

महिलाएं और लड़कियां हमारे अन्दर घुसी, बैठी रहती हैं-

माँ, बहिन, बेटी, दादी, नानी, नातिन, मौसी, साथी के रूप में,

और पुरुष पिता, भाई, बेटा, दादा, नाना, नाती, मौसा, मित्र के रूप में।

***